Swami Rama Tirtha Autobiography | संत स्वामी रामतीर्थ का जीवन परिचय Swami Ramteerth ki Jivani

0

स्वामी रामतीर्थ हमारे देश के एक महान संत, देशभक्त, कवि और शिक्षक थे। उन्होंने अपने आध्यात्मिक और क्रांतिकारी विचारों से भारतवासियों को ही नहीं, बल्कि अमेरिका और जापान के लोगों को भी अत्यंत प्रभावित किया और संसार में भारत का नाम ऊंचा किया।

स्वामी रामतीर्थ कौन थे ?

घटना सन् १९०१ की है । मथुरा में एक धर्म सम्मेलन का आयोजन हुआ। इस सम्मेलन के आयोजक आचार्य शिवगण ने सभी धर्मों के प्रतिनिधि विद्वानों को आमन्त्रित किया पर सम्मेलन का अध्यक्ष बनाया स्वामी रामतीर्थ को जिनका न कोई मठ था और न कोई आश्रम । तीसरे दिन की बात है । ईसाई धर्म के प्रतिनिधि फादर स्काट ने अपने धर्म का विवेचन करते हुए हिन्दू धर्म पर कुछ भौण्डे आक्षेप किये । श्रोतागणों में क्षोभ उत्पन्न हो गया, लोगों के शोर मचाने पर स्वामीजी ने सबको शान्तिपूर्वक बैठे रहने का आग्रह किया ।

फादर स्काट जब अपना भाषण समाप्त कर चुके तो स्वामी रामतीर्थ उठे और उन्होंने फादर स्काट के आक्षेपों का इतना नम्रसमाधान किया कि पादरी स्काट को बड़ी लज्जा अनुभव हुई और उन्होंने अपनी गलती स्वीकार की तथा उपस्थित जनसमुदाय से क्षमा माँगी । यह प्रभाव स्वामी जी की वाणी से अधिक उनके व्यक्तित्व का था अन्यथा सैकड़ों लोग हैं जो अपने वाक्चातुर्य से लोगों को हतप्रभ करते हैं पर उनकी वाणी का जरा-भी असर नहीं पड़ता, स्वामी जी की स्वयं यह मान्यता रही है जितना तुम बोलते हो उससे ज्यादा तुम्हारा व्यक्तित्व सुना जाता है और स्वामी जी ने वेदान्त को जो तब तक चर्चा और परिसम्वाद का विषय ही समझा जाता था अपने जीवन और आचरण में उतार कर निज के व्यक्तित्व को इतना तेजस्वी तथा प्रखर बना लिया था कि उसके आगे हर कोई नतमस्तक हो उठता था ।

स्वामी रामतीर्थ का बचपन :

स्वामी रामतीर्थ का जन्म उत्तरी सीमा प्रान्त में स्थित गुजरांवाला जिले के मुरली वाला गाँव में २२ अक्टूबर, १८७३ ई. को हुआ । उनके पिता का नाम हीरानन्द था और बालक का नाम रखा गया तीर्थराम (स्वामी रामतीर्थ के बचपन का नाम)। तीर्थराम का जन्म होने के कुछ माह बाद ही उनकी माँ का देहान्त हो गया । परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत ही साधारण थी। अत: उनको उच्च शिक्षा नहीं दिला सके । जब तक वह गाँव में रहे तब तक वहाँ के एक मौलवी से उर्दू पढ़ते रहे ।

शिक्षा :

परिवार की आर्थिक स्थिति भले ही दयनीय हो पर हीरानन्द जी की आकांक्षा थी कि अपने पुत्र को पढ़ा-लिखाकर योग्य बनायें इसलिए उन्होंने नौ वर्ष की आयु में तीर्थराम को अपने एक मित्र धन्ना भगत की देखरेख में शहर में रख दिया और हाईस्कूल में भर्ती करवा दिया । भगत धन्ना कसरती पहलवान थे और अविवाहित थे । साथ ही अध्यात्म में भी उनकी रुचि थी । तीर्थराम उनसे धर्म और अध्यात्म आदि विषयों पर चर्चा करते थे, धन्ना भगत के सान्निध्य का तीर्थराम पर बहुत प्रभाव पड़ा ।

उच्च शिक्षा और तपोमय जीवन :

पन्द्रह वर्ष की आयु में तीर्थराम ने एण्ट्रेस की परीक्षा पास की और पंजाब भर में प्रथम आये । इस सफलता ने उनकी प्रतिभा को प्रमाणित किया और परीक्षा बोर्ड ने उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए छात्रवृत्ति दी । लेकिन हीरानन्द जी तीर्थराम को और अधिक पढ़ाना नहीं चाहते थे। तीर्थराम ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध आगे पढ़ाई जारी रखने का निश्चय किया और कॉलेज में भर्ती हो गए । कॉलेज की पढ़ाई के लिए स्कूली खर्चा और भोजन वस्त्र के व्यय का प्रबन्ध तो आवश्यक था वह कहाँ से पूरा हो । तीर्थराम ने इसका सहज रास्ता निकाल लिया । उन्होंने छात्रवृत्ति से तो स्कूल की फीस और पुस्तक आदि का खर्च चलाने का निश्चय किया तथा भोजन, वस्त्र के लिए ट्यूशन द्वारा खर्च चलाने का रास्ता निकाल लिया । अपनी मर्जी के खिलाफ कॉलेज में भर्ती होने के कारण हीरानन्द जी ने तो उन्हें कोई भी किसी भी तरह की मदद न करने की ठान ली थी । पर तीर्थराम जी की आवश्यकतायें थी ही कितनी जिन्हें पूरा करने के लिए ज्यादा परिश्रम करना पड़े और वे अपना काम बड़ी मितव्ययिता तथा सादगी से चलाते रहे। उन्होंने अपनी आवश्यकताओं को इस स्तर का रखा जो आसानी से पूरी हो सकती थीं । कदाचित कभी कोई कमी पड़ती भी तो वे उसे बड़ी सूझबूझ के साथ निभा लेते थे ।

इस तरह की कई घटनाओं का उल्लेख उनके जीवनी लेखकों ने किया है जिनसे विदित होता है कि घोर अभाव के दिनों में भी वे अपने आपको किस प्रकार परिस्थितियों के अनुकूल ढाल लेते थे। उनकी आमदनी औसतन तीन पैसे रोज थी और उसी में वे सन्तोषपूर्वक गुजारा कर लेते थे । लाहौर जैसे शहर में तीन पैसे रोज पर गुजारा करना बड़ा ही कष्टसाध्य था । वे सुबह के वक्त एक दुकान पर दो पैसे की रोटी खरीद लेते । दाल मुफ्त मिलती थी । उसी से काम चल जाता था। कुछ दिन तो इसी तरह बीत गये पर बाद में दुकानदार ने अपना नियम बदल दिया और तीर्थराम से कह दिया कि दाल मुफ्त नहीं मिल सकती । इस पर विवश होकर तीर्थराम ने शाम का खाना बन्द कर दिया और सुबह एक वक्त ही भोजन करने लगे । उनके पास कड़ाके की सर्दी में भी पहनने के लिए कोट नहीं था न ही पतलून और न नेकटाई ही थी । पहनने के लिए केवल खद्दर की एक कमीज और एक पायजामा भर था ।

पैरों में साधारण से देशी जूते थे। एक बार वे किसी दुकान से कुछ सामान खरीद रहे थे । सामान खरीद कर दुकान से उतर ही रहे थे कि पाँवों से एक जूता खिसक गया और नाली में गिर गया। नाली गहरी थी और उसमें काफी पानी था सो जूता उसमें डूबकर बह गया । निर्द्वन्द भाव से तीर्थराम एक जूता हाथ में लिये घर आये और उन्होंने बेमेल का दूसरा जूता दूसरे पाँव में डालकर काफी दिनों तक काम चलाया । इस हालत में देखकर तीर्थराम के कई सहपाठी उनकी हँसी उड़ाते थे पर तीर्थराम को इसकी कोई परवाह नहीं थी । बाद में जब उनके पास पैसे आ गये तो उन्होंने नये जूते खरीदे ।

इस प्रकार तपोमय जीवन व्यतीत करते हुए ही तीर्थराम बड़ी लगन के साथ पढ़ते रहे । सभी वर्ग की परीक्षाओं में वे सदा प्रथम ही आते रहे पर अपनी योग्यता का लाभ अपने लिए उठाने की उनमें जरा भी भावना नहीं थी । जब वे एम. ए. की परीक्षा का फार्म भर रहे थे तो लाहौर कॉलेज के अंग्रेज प्रिन्सीपल ने उनकी सच्ची लगन और योग्यता, प्रतिभा से प्रभावित होकर एक दिन तीर्थगम से कहा- ‘क्या मैं आपका नाम आई. सी. एस. (इण्डियन सिविल सर्विज) की परीक्षा के लिए भेज दूं?”

तीर्थराम कुछ समय तक विचारमग्न रहे । उनकी आँखों में आँसू भर आये और डबडबाती आँखों से हो बोले- ”मैंने इतनी मेहनत से ज्ञान का जो खजाना पाया है उसे धनवान बनने के लिए खर्च नहीं करना चाहता । उच्च पदों पर आसीन रहकर मैं अपनी इस प्रतिभा का क्या उपयोग करूँगा? मैंने तो यह ज्ञान इसलिए कमाया है कि इस दौलत को बाँट कर अपने आपको तथा अन्य औरों को सुखी बनाऊँ ।’

‘तो एम. ए. पास करने के बाद क्या करोगे’- तीर्थराम से पूछा- प्रिन्सीपल ने । वे अपने इस होनहार शिष्य के इन विचारों को सुनकर न केवल आश्चर्यचकित रह गये थे वरन् बेहद प्रभावित भी हुए थे।

प्रिन्सीपल का यह प्रश्न सुनकर तीर्थराम ने कहा- ‘यदि कोई विचार है तो यही कि अपना सारा जीवन और हर एक साँस प्रभु की सेवा में लगा दूँ तथा मानव मात्र की सेवा करता रहूँ।’

अध्यापन कार्य :

स्वामी रामतीर्थ के अन्त:करण में सच्चा सेवा-भाव था और जनसेवा की उत्कट लगन थी । विद्यार्थी जीवन में उन्होंने तप साधना तथा कठोर व्रतों को निभाना आरम्भ कर दिया था । शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने कॉलेज में अध्यापन कार्य अपनाया । साथ ही उन्होंने सार्वजनिक जीवन में भाग लेना भी आरम्भ कर दिया । सन् १८९७ में लाहौर में काँग्रेस अधिवेशन हुआ । तीर्थराम जी भी उसमें शामिल हुए और उन्होंने बड़े-बड़े नेताओं के भाषण सुने, पर उन्होंने अनुभव किया कि भाषणों से देश का कोई उद्धार नहीं हो सकता । इन्हीं दिनों भारत के सामाजिक और धार्मिक क्षितिज पर स्वामी विवेकानन्द का अवतरण हुआ । तीर्थराम जी स्वामी विवेकानन्द के व्यक्तित्व तथा कृतित्व से बहुत प्रभावित हुए और उनके सम्पर्क में आकर उन्होंने भी अध्यात्म के प्रयोगों को ही अपना लक्ष्य बना लिया ।

नारायण स्वामी से भेट :

एक दिन वे अपने साथ बिना कोई सामान लिये घर से निकले और उत्तराखण्ड के जंगलों में चल पड़े। काफी दिनों तक उन्होंने उत्तराखण्ड के वन प्रान्तों का भ्रमण किया । वहाँ की जलवायु का उन पर विपरीत प्रभाव हुआ । इस भ्रमण के दौरान ही उनका नारायण स्वामी से साक्षात्कार हुआ । नारायण स्वामी ने अपने युग के इस विभूतिवान व्यक्तित्व को पहचाना और शिष्य भाव से स्वामी रामतीर्थ की सेवा-सुश्रूषा करने लगे । इन्हीं नारायण स्वामी ने स्वामी रामतीर्थ के देहान्त के बाद उनके विचारों के व्यापक प्रचार-प्रसार का कार्य सम्भाला तथा उनके प्रयासों से ही देश भर में स्वामी रामतीर्थ के भाषण और उपदेश विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित हो सके थे ।

जापान यात्रा :

१९०१ में मथुरा में धर्म सम्मेलन हुआ । स्वामी तीर्थराम इस धर्म सम्मेलन के अध्यक्ष बनाये गये । उन्होंने जिस कुशलता से सम्मेलन का संचालन किया वह प्रस्तुत लेख के प्रारम्भ की पंक्तियों में बताया जा चुका है । धर्म सम्मेलन सम्पन्न हो चुकने के बाद उन्होंने मथुरा में कुछ समय तक एकान्तवास किया और अप्रैल, १९०२ में टेहरी चले गये । टेहरी नरेश को जब उनके आगमन का समाचार मिला तो उन्होंने स्वयं स्वामी रामतीर्थ से भेंट की और उनके लिए गंगा किनारे एक कुटी बनवा दी ।

उन्हीं दिनों समाचार पत्रों में जापान की राजधानी टोकियो में एक विश्व-धर्म सम्मेलन होने की सूचना छपी, सूचना में आयोजित सम्मेलन को उसी स्तर का बताया गया था जैसा कि १८९३ में अमेरिका में हुआ था और स्वामी विवेकानन्द ने उसमें हिन्दू धर्म की विजय दुन्दुभि बजायी थी । टेहरी नरेश ने इस सम्मेलन में स्वामी रामतीर्थ को भेजने का निश्चय किया और उनसे इस तरह का आग्रह भी किया। स्वामी राम तुरन्त इस आग्रह को मान गये और आवश्यक तैयारियों के बाद जापान को प्रस्थान किया । वे जापान के लिए जहाज से रवाना हुए, रास्ते में जहाज जहाँ-कहीं भी रुका लोगों ने स्वामीजी का हार्दिक स्वागत किया ।

जापान में स्वामी जी लगभग दो सप्ताह ठहरे । उनके भाषणों को वहाँ हर किसी ने पसन्द किया। एक बार किसी जापानी ने स्वामीजी से पूछा कि आपने स्त्री-बच्चों को क्यों छोड़ा तो उन्हें उत्तर दिया कि अपने छोटे से परिवार को एक बहुत बड़ा और विशाल परिवार बनाने के लिए । इसी तरह उन्होंने अपने कृत्यों द्वारा भी जापानियों को बहुत कुछ सिखाया । जिस सर्वधर्म सम्मेलन की बात सुनकर स्वामीजी जापान गये थे वह गलत निकली, इसकी पुष्टि हो जाने के बाद भी स्वामी जी स्वदेश वापस आने को उत्सुक नहीं हुए और अपना प्रचार अभियान चलाते रहे ।

अमेरिका में धर्म प्रचार :

जापान में प्रचार कार्य सम्पन्न कर वे अमेरिका रवाना हुए और वहाँ लगभग दो वर्ष तक रहे । अमेरिका में उनके सैकड़ों व्याख्यान हुए । कई व्यक्ति उनसे प्रेरणा प्राप्त कर उनके मार्गदर्शन से आत्मविकास की साधना में संलग्न हुए । उनके अमरीकी शिष्यों ने ही उनके व्याख्यानों के नोट्स लिये, स्वामी नारायण भी उनके साथ ही रहते थे और वे भी प्रस्तुत कार्य में आवश्यक सहयोग दिया करते थे।

अमेरिका से वापस भारत लौटते समय स्वामी जी कुछ समय यूरोप के अन्य देशों तथा मिस्र में रुके । मिस्र में इस्लाम धर्म के अनुयायियों ने भी उनके व्याख्यानों को बड़े ध्यानपूर्वक सुना और अनुभव किया कि इस्लाम धर्म के मूल सिद्धान्तों की इतनी सुन्दर व्याख्या कोई व्यक्ति आजीवन अध्ययन करता रहकर भी शायद ही कर सके।

महासमाधि :

भारत आने के बाद उन्होंने कुछ समय तक देश के विभिन्न भागों का भ्रमण किया और लोगों को व्यावहारिक वेदान्त की शिक्षा दी । बाद में उत्तराखण्ड चले गये और वहीं उन्होंने अपना स्थायी निवास बना दिया । सन् १९०६ की दीपावली थी । उन दिनों उन्होंने एक लेख लिखा जिसमें मौत का आह्वान किया गया था। उससे कुछ दिन पूर्व ही उन्होंने अपने शिष्य नारायण स्वामी से कहा था कि- ‘राम की तबियत अब संसार से ऊब गयी है। अत: वह शीघ्र ही इस संसार को त्यागने वाला है और दीपावली को ही तेतीस वर्ष की आयु में उन्होंने गंगा में जल समाधि ले ली । स्वामी रामतीर्थ जिस समय संसार से विदा होने लगे उस समय मृत्यु को सम्बोधित करते हुए उन्होंने जो भाव व्यक्त किये वे एक अध्यात्मवादी भारतीय के अनुरूप ही थे उन्होंने आनन्द विभोर होते हुए कहा था –

ऐ माँ की गोद के समान शांतिदायिनी मृत्यु ! आओ और इस भौतिक शरीर को ले जाओ । मेरे पास और बहुत से नये शरीर हैं ।

मैं तारों की चमक और चन्द्रमा की किरणों का शरीर धारण कर सकता हूँ। मैं आत्मा रूप हूँ संसार के सारे शरीर मेरे हैं । सारी सृष्टि ही मेरी देह है और मैं उसका शाश्वत, अविनश्वर और चिर-चेतना देही हूँ। मैं शुद्ध, बुद्ध और निरुपाधि ब्रह्म हूँ ..ब्रह्म । व्यापक और विकार रहित ब्रह्म ।’

प्रेम-पथ के निर्भय पथिक :

विद्यालय चल रहा था । छात्रगण दो कतारों में बैठे शिक्षक से पाठ पढ़ रहे थे । पाठ खत्म होने पर अध्यापक ने श्याम पट पर एक लकीर खींची और छात्रों से प्रश्न किया- “बच्चो तुममें से कोई लकीर को बिना मिटाए छोटी कर सकता है ।”

सभी छात्र चुप रह गये । किसी के पास कोई उत्तर नहीं था । एक छात्र उठा और श्याम-पट के निकट आया । उसने शिक्षक के हाथ से खड़िया लेकर श्याम-पट पर खींची हुई लकीर के पास ही, उससे एक बड़ी लकीर खींच दी । । अध्यापक उस छात्र के बुद्धिचातुर्य से अवाक रह गये और विद्यार्थियों से बोले- यह याद रखो कि जीवन में महान् बनने के लिए किसी को मिटाना आवश्यक नहीं है । इसके लिए तो हमें स्वयं ही अपने कार्यों द्वारा औरों से आगे बढ़ना होगा ।”– यह अध्यापक थे- प्रोफेसर तीर्थराम ।
प्रायोगिक प्रतीकों के माध्यम से शिक्षा देने की यह उनकी अपनी विधि थी ।

बाल्यकाल से ही उनमे विद्याध्ययन के प्रति अटूट लगन थी । फाकाकशी का जीवन व्यतीत करते हुए भी उन्होंने अपनी क्रियात्मक आराधना में लवलेश कमी नहीं आने दी । उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उनके प्रिन्सीपल ने उस समय आग्रह किया जब कि वे एम. एस सी. गणित में सर्वाधिक अंकों से उत्तीर्ण हुए थे कि- “तुम्हारा नाम सिविल सर्विस की परीक्षा के लिए दे रहा हूँ।” तो तीर्थराम ने कहा- “मैने अपनी फसल से लाभ उठाने के लिए- उसे बेचने के लिए मेहनत नहीं की है । मैं तो उसे बॉटना चाहता हूँ और सेवक बनकर ही रहूँगा ।”

खूब समझाया प्रिन्सीपल ने परन्तु वे अपने निश्चय से टस से मस नहीं हुए । फलस्वरूप उसी कॉलेज में अगले सत्र में प्रथम मास में ही वे प्रोफेसर बन गये।

विद्यार्थी जीवन में उन्हें बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । इण्टर पास कर लेने के बाद घर वालों ने आगे पढ़ाने से इन्कार कर दिया । परन्तु तीर्थराम तो अपनी विद्या व्यसनी वृत्ति को किसी भी प्रकार मेटना नहीं चाहते थे । इसी बात पर माँ-बाप से मतभेद हो गया । तीर्थराम घर छोड़कर लाहौर चले आये । साथ में पत्नी भी। घर से विरोध रखने वाले पुत्र की पत्नी का खर्च अभिभावक क्यों उठाए। वहीं उनका शिक्षण चलता रहा । किन कठिनाइयों से वे अपना तथा अपनी पत्नी का निर्वाह करते हुए पढ़ रहे थे उस समय के बड़े ही मर्मस्पर्शी संस्मरण सरदार पूर्णसिंह ने लिखे हैं । और जब शिक्षा पूरी हुई तो अधिकारी बनने की अपेक्षा अध्यापक बनना पसन्द किया ।

अध्यात्म-साधना के प्रति उनके मन में आरम्भ से ही लगन थी। विद्यार्थी-जीवन में एक बार उनसे किसी ने पूछा- ‘तुम एम. ए. कर लेने के बाद क्या करोगे ?’

तीर्थराम ने उत्तर दिया- “यदि कोई इच्छा है तो यही कि अपना सारा जीवन और हर एक साँस प्रभु की सेवा में लगा दूँ और मनुष्य मात्र की सेवा करूँ।’- इस उत्तर में उनकी आध्यात्मिक विचार धारा स्पष्टतया परिलक्षित होती है । कोई भी सच्चा आत्मवादी शरीर की सुख-सुविधा और साज-सज्जा पर निर्वाह मात्र से अधिक ध्यान नहीं देता । यही कारण है कि स्वामी जी एम. ए. में जब ६० रु. प्रति मास शिष्य वृत्ति प्राप्त कर रहे थे जब कि और अध्यापन काल में दो सौ रु. वेतन पाने लगे तब की स्थिति में कोई अन्तर नहीं लाए । जो रुपया बचता उसे गरीब विद्यार्थियों की मदद करने में लगाते । गरीबी का उन्हें अच्छा अनुभव था और इसी कारण उनकी सहानुभूति गरीबों से सदैव जुड़ी रही ।

शरीर में कभी रोग उत्पन्न हो जाए तो उसकी चिन्ता किए बिना भी अपने काम में लगे रहना उनका स्वभाव बन गया था । एक बार उन्हें गुर्दे का दर्द होने लगा । धीरे-धीरे बढ़ता गया और उन्हें बिस्तर पकड़ लेना पड़ा । कोई और होता तो कराह-तड़प कर ही मर जाता परन्तु स्वामी राम के चेहरे पर वही हँसी-मुस्कान खिली रहती । उर्दू के प्रसिद्ध कवि इकबाल उनके घनिष्ट मित्रों में से थे । वे उन्हें देखने पहुँचे, जैसी दीन-दयनीय दशा की कल्पना थी ठीक उसके विपरीत स्थिति देखकर आश्चर्यचकित रह गए। स्वामी राम ने कहा- “क्या हुआ अगर शरीर रोगी है । पर आत्मा तो सब जगह है । वह प्रसन्न है । शारीरिक रोग उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते ।”

स्वामी विवेकानन्द जी से भेट :

सन् १८९६ में स्वामी विवेकानन्द लाहौर आये । उनके प्रवचनों की व्यवस्था हुई ! रामतीर्थ तो इस प्रकार के आयोजनों में अग्रणी रहते ही । वहाँ उनका स्वामी जी से निकट सम्पर्क बना और वे उनके व्यक्तित्व से बड़े प्रभावित हुए । अन्तिम दिन विदाई के अवसर पर रामतीर्थ ने स्वामी जी को एक घड़ी भेंट में दी । विवेकानन्द जी ने उसे कुछ देर तक अपने पास रखा और फिर रामतीर्थ जी की जेब में ही रखते हुये कहा- ‘मैं इसे अपनी जेब में रखूगा ?’ अब तोजैसे रामतीर्थ को अपना वांछित आदर्श प्राप्त हो गया । इस प्रसंग ने उनके सामने जीवन का एक नया आयाम प्रस्तुत कर दिया ।

नौकरी से त्यागपत्र :

वे अपनी ज्ञान-पिपासा को शान्त करने के लिए स्थान-स्थान पर घूमने लगे। हरिद्वार, ऋषिकेश, बद्रीनाथ आदि कई स्थानों पर उन्होंने एकान्त जप और ध्यान साधना की।
नौकरी से भी उनका मन हट गया । मिशन कॉलेज में वे केवल दो घण्टे काम कर निर्वाहोपयोगी जीविका प्राप्त कर लेते थे और सन् १८९९ में उन्होंने नौकरी भी छोड़ दी । सब लोग आश्चर्यान्वित हो उठे। विश्वविद्यालय की कार्यकारिणी ने इनके त्याग-पत्र पर विचार किया । सीनेट के सदस्यों ने रामतीर्थ को हर तरह मनाया परन्तु वे स्तीफा वापस लेने के लिए राजी न हुए । अन्ततः एक सदस्य के मुंह से निकल गया— “तीर्थराम पागल हो गये हैं ।” इकबाल भी वहीं पर बैठे हुए थे । बोले- “तीर्थराम पागल हो गये हैं तो मेरी समझ में नहीं आता कि दुनिया में फिर अक्ल कहाँ

संन्यासी जीवन और वेदान्त का प्रचार :

स्वामी रामतीर्थ ने नौकरी छोड़कर संन्यास ले लिया और वे वेदान्त का प्रचार करने लगे। इस दार्शनिक विचारधारा का जो परिष्कृत रूप उन्होंने सर्व-साधारण के सामने रखा वह आज तक की प्रचलित सभी मान्यताओं से अलग और प्रगतिशील अर्थ रखता है । इसके प्रति उन्हें इतनी दृढ़ आस्था थी कि एक-एक अवसर पर उन्होंने कहा — “भारतवर्ष का पतन वेदान्त के जीवन मूल्यों में अनास्था होने से हुआ है ।”

उनके कर्तृत्व और व्यावहारिक वेदान्त के विचारों में सामञ्जस्य ढूँढ़ा जाय तो यही प्रतीत होता है कि स्वामी रामतीर्थ वेदान्त के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हैं । उनकी धारणा का मूल था— “हर घड़ी ऐसा अनुभव करो कि जो शक्ति सूर्य और नक्षत्रों में अपने को प्रकट कर रही है वही तुम में भी है और तुम उसी के अविभाज्य अंग हो । तुच्छ विचारों और बन्धनों को सर्वथा भूल जाओ फिर तुम अमर जीवन प्राप्त कर सकोगे ।’ स्वयं को ईश्वर का अंश- अविनाशी राजकुमार, आत्मा स्वीकार कर लेने के बाद कौन मनुष्य, साधक निराश और अकर्मण्य रह सकता है ।

जापान के नागरिकों की कर्मनिष्ठा और परिश्रमशीलता देखकर उन्होंने कहा था कि वेदान्त के दार्शनिक सिद्धान्तों से भले ही आप परिचित न हों परन्तु उसका व्यावहारिक पक्ष आप लोगों की उन्नति का मूल कारण है । उन्होंने ‘प्रेम’ को सब धर्मों का मूल कहा, इसकी शक्ति के बल पर ही उन्होंने स्थान-स्थान पर असंख्य लोगों को प्रभावित किया । प्रेममय होकर ही कोई व्यक्ति पवित्रता की रक्षा कर सकता है क्योंकि प्रेम परमात्मा की उपस्थिति का प्रकाश है । ईश्वर भक्ति का लक्षण वे प्रेम ही मानते थे और कहते थे जब तक किसी साधक के आचार-विचार में यह दिव्य गुण नहीं झलकता तब तक वह अपूर्ण ही है।

परिवार को वे प्रेम की प्राथमिक शाला कहा करते थे । उनके एक अनन्यतम सहयोगी सरदार पूर्णसिंह ने जब परिवार छोड़कर संन्यास लेने की बात कही तो उन्होंने सरदार जी को मना किया और कहा कि जब तक तुम इस प्राथमिक कक्षा में दिव्य प्रेम का अवतरण नहीं कर लेते संन्यास की बात भी नहीं सोचनी चाहिए ।

कैसे संयोग की बात है कि जन्म दिन के पर्व पर ही १७ अक्टूबर, १९०६ को अन्धकार की अधेरी रात में टिमटिमाते हुए दीपों से एक प्रकाश पुन्ज निकला और सचमुच उनकी आत्मा चाँद की किरणों को पहन कर देह मुक्त हो गयी ।

दृष्टि-भेद नहीं :

स्वामी रामतीर्थ संन्यास से पूर्व जिस मुहल्ले में रहते थे उसमें वेश्याएँ भी रहती थीं । मुहल्ले वालों ने सरकार को अर्जी दी कि इन वेश्याओं को यहाँ से हटाया जाय । अर्जी पर हस्ताक्षर करने के लिए रामतीर्थ से भी कहा गया ।
उन्होंने अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए कहा- मैंने आज तक यहाँ कोई वेश्या नहीं देखी । हर घर में इधर तो मृदुल मनोहर बहिनें ही रहती हैं।

ज्ञानमयी श्रद्धा :

स्वामी रामतीर्थ बचपन में गाँव के मौलवी साहब से पढ़ा करते थे । प्रारम्भिक पढ़ाई पूरी होने पर उन्हें पाठशाला भेजा गया। तब मौलवी साहब को क्या दिया जाय यह प्रश्न सामने आया । स्वामी जी के पिताजी उन्हें मासिक वेतन के अतिरिक्त इस समय कुछ और भेंट करना चाहते थे तभी स्वामी जी बोल उठे “पिताजी ! इन्हें अपनी बढ़िया दूध देने वाली गाय दे दीजिये । इन्होंने मुझे सबसे बढ़िया दूध विद्या का दूध पिलाया है । शिष्य की इस ज्ञानमयी श्रद्धा से पिता तथा गुरु दोनों ही पुलकित हो उठे ।’

आत्मीयतापूर्ण वाणी का प्रभाव :

जहाज सेनफ्रांसिस्को बन्दरगाह पर रुका । जहाज खड़ा होते ही सभी यात्री जल्दी-जल्दी अपना सामान संभालने लगे । सबमें उतरने की जल्दी और उत्सुकता दिखाई देने लगी । जहाज में एक तरफ एक व्यक्ति शान्तभाव से डैक पर खड़ा था । उसे कुछ देर तक एक अमेरिकन व्यक्ति देखता रहा और अन्त में बोला- “क्यों महाशय, आपको यहाँ नहीं उतरना है क्या ? अपना सामान क्यों नहीं सँभालते?”
व्यक्ति स्वाभाविक मुस्कराहट की मुद्रा में प्रत्युत्तर देते हुए बोला- “मेरे पास कोई सामान नहीं है ।” ‘तो पास में पैसे तो होंगे ही, जिससे खाने-पीने का काम चलता है ?’ यह तुरन्त दूसरा प्रश्न हो उठा । “मैं अपने पास पैसे भी नहीं रखता ।” ‘तब तो यहाँ कोई आपका मित्र होगा, जिसके यहाँ ठहरना होगा ?’ यह उस व्यक्ति का तीसरा प्रश्न था ।

स्वामी जी युवक को प्रत्युत्तर देते हुए बोले- “हाँ यहाँ हमारा एक मित्र है, जिसके यहाँ हमें रुकना है और जो हमारी सब सहायतायें करेगा।” “वह व्यक्ति कौन है ?” सच्चे वेदान्ती रामतीर्थ जी हँसे और उसके कन्धे पर हाथ रखते हुए बोले- “आप ही मेरे मित्र हैं।”

प्रेम की पवित्रता से भीगता हुआ वह व्यक्ति सचमुच ही उनका परम मित्र बन गया ।

सुख और शान्ति का मार्ग :

स्वामी रामतीर्थ उन दिनों अमेरिका के दौरे पर थे, एक दिन स्वामी जी का प्रवचन समाप्त होने पर एक महिला आई और विषाद युक्त वाणी में अपने विचार व्यक्त करने लगी । स्वामी जी ! मेरे एक ही पुत्र था । थोड़े दिन पूर्व उसकी मृत्यु हो गई । मैं विधवा हूँ। किसी तरह चित्त को शांति नहीं मिलती।आप कोई ऐसा उपाय बताइये जिससे मेरे जीवन को शान्ति मिल सके ।’

आपको शान्ति की पुनः प्राप्ति हो सकती है और अपने जीवन में आनन्द का अनुभव कर सकती हैं । पर हर वस्तु का मूल्य चुकाना पड़ता है क्या आप सुख-शांति की पुनः प्राप्ति हेतु कुछ त्याग करने को तैयार हैं ?
‘बस आपके आदेश देने की देर है । मैं अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार हूँ।’
‘पर इतना ध्यान रखना कि आपके देशवासी भौतिक वस्तुओं पर अधिक ध्यान देते हैं । वहाँ डालर और सेण्ट के त्याग से काम नहीं चलेगा । यदि आप सचमुच तैयार हैं तो मैं कल स्वयं ही आपके निवास स्थान पर उपस्थित होऊँगा । दूसरे दिन स्वामी रामतीर्थ एक हब्शी बालक को अपने साथ लेकर उस महिला के घर पहुंचे और उसे अपने बच्चे के तौर पर पालने के लिए कहा ।’

उसे देखकर महिला बोली— “स्वामी जी ! यह हब्शी बालक मेरे घर में प्रवेश कैसे कर सकता है ?” माँ ! यदि इसमें आपको इतनी कठिनाई अनुभव हो रही है तो सच्चे सुख और शान्ति को प्राप्त करने का मार्ग तो और भी कठिन है ।”

ज्ञान साधना :

स्वामी रामतीर्थ जब जापान गये तो उनकी भेंट वहाँ एक वृद्ध से हुई, जीर्णशीर्ण काया का यह बूढ़ा ७५ वर्ष की आयु में भी युवकोचित उत्साह से जर्मन भाषा सीख रहा था । स्वामी जी ने पूछा- “बाबा ! इस उम्र में यह भाषा सीखकर आप क्या करेंगे?” वृद्ध बोला- स्वामी जी ! सीखने के लिये कोई उम्र नहीं होती । मैंने प्राणिविज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की है, जर्मन भाषा में इस विषय पर कई अच्छी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं । मैं उनका जपानी में रूपान्तरण करूँगा ताकि हमारे देशवासी भी उससे लाभान्वित हो सकें।’ उसके उत्साह, राष्ट्र की शैक्षणिक प्रगति के लिये उत्कट लालसा को देख स्वामी रामतीर्थ ने श्रद्धा से उसके पैर छू लिये और कहा- “मैं समझ गया , अब जापान को आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता ।”

विचारों का महत्त्व :

अध्यात्मवेत्ता स्वामी रामतीर्थ अमेरिका में महिलाओं की शंकाओं का समाधान कर रहे थे । धर्म की अनेक गुत्थियाँ सुलझाते जा रहे थे । तब तक एक युवती पूछ बैठी– ‘कृष्ण अधिकतर गोपियों के मध्य रहते थे । क्या युवतियों के मध्य घिरा रहने वाला व्यक्ति पवित्र हो सकता है ?
”इसमें भी कोई शंका की बात है ? व्यक्ति के चरित्र का सम्बन्ध तो उसके विचारों से हैं । विचारों की पवित्रता उसे कभी विचलित नहीं होने देती ।’ .
‘मैं इस बात पर विश्वास नहीं करती।’
इतना सुनते ही बिना कुछ कहे सुने स्वामीजी अपना आसन छोड़ भागने लगे। काफी दूर निकल जाने पर वह खड़े होकर पीछे की ओर देखने लगे । उनमें से अधिकतर महिलाएँ स्वामी जी के पीछे पीछे दौड़कर आ रही थीं। जब वे सभी महिलाएँ निकट आ गई तो स्वामी जी ने पूछा- ‘अच्छा बताइये क्या मैं अपवित्र हो गया ।’ ‘नहीं ! बिल्कुल नहीं !! फिर योगिराज कृष्ण को गोपियों से घिरे रहने पर कैसे अपवित्र कहा जा सकता है।’

हम भी बोन्साई न बनें :

स्वामी रामतीर्थ जब जापान गये तो उन्होंने कितने ही बगीचों में छोटे देवदारु के पेड़ देखे जो बीस-बीस वर्ष पुराने थे । इतने दिन में तो वह वृक्ष पूरा बढ़ जाता है ।
स्वामी जी ने माली से पूछा इनके इतना छोटा रह जाने का क्या कारण है ? उसने बताया इनके बड़े होने पर हम लोग हर साल काटते रहते हैं । उन्हें फैलने नहीं देते इसलिए वे आजीवन बौने ही बने रहते हैं। इन्हें ‘बोन्साई’ कहते हैं।
स्वामी जी इस घटना का अपने प्रवचनों में प्राय: उल्लेख किया करते थे और कहते थे जो लोग अपने सद्गुणों की जड़ें फैलने नहीं देते उन्हें काटते ही रहते हैं वे व्यक्ति की दृष्टि में ऐसे ही बौने रह जाते हैं।

अब और कलंक नहीं :

स्वामी रामतीर्थ की विद्वता तथा ओजस्वी वाणी से प्रभावित होकर अमेरिका की १८ यूनिवर्सिटियों ने मिलकर उन्हें एल. एल. डी. की उपाधि देने का प्रस्ताव रखा । जिसे उन्होंने सधन्यवाद अस्वीकार करते हुये कहा- ‘स्वामी’ और ‘एम. ए.’ ये दो कलंक पहले ही नाम के आगे-पीछे लगे हुए हैं अब तीसरे कलंक को कहाँ रखूँगा ?
यश, कीर्ति, लोकेषणा, प्रतिष्ठा, प्रशंसा, पूजा, मान, बढ़ाई के फेरे में पड़कर सन्तों और लोक सेवियों का अहंकार उभरता है । इसलिये सच्चे सन्त मान-बढ़ाई से सदा बचते रहते हैं ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *