पिता के मौत के बाद रहने के लिए मात्र एक झोपड़ी बचा था, माँ ने मजदूरी कर पढाया और बेटा बना IAS
जीवन में कठिनाइयां तो आती रहती हैं, लेकिन जीवन में आनेवाली कठिनाइयों से निराश होकर बैठना नहीं चाहिए। बल्कि उसका सामना करने के लिये डटे रहना चाहिए। मनुष्य को अपने जीवन में आगे बढ़ने के लिये मुश्किलों के समाधान के बारें में सोचना चाहिए जिससे वह उस मुश्किल से बाहर निकल सकें और अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। इन्सान के जीवन में सबसे कठिन समय वह होता है जब उसका सामना गरीबी से होता है। गरीबी बहुत ही कष्टकारी और दुखदायी होती है। एक गरीब परिवार के सभी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाती है। इसके बावजूद भी इन्सान अपनी सच्ची निष्ठा और मेहनत से अपनी हाथ की गरीबी रेखा को खत्म कर सकता है।
आपने प्रेरणादायक कहानियां तो बहुत पढ़ी और सुनी होगी लेकिन यह कहानी सबसे अलग है। यह कहानी वैसे शख्स की हैं जो गरीबी के साथ-साथ एक ऐसे समाज में पला बढ़ा जहां लोगों को शिक्षा के बारें में जानकारी भी नहीं थी। फिर यह शख्स आज कामयाबी की शिखर को छू रहा है।
“मंजिल उन्हीं को मिलती है जिनके सपनो में जान होती हैं, पंख होने से कुछ नहीं होता हौसलों से उड़ान होती हैं।” इस बात को सच कर दिखाया है, डॉ. राजेंद्र भरुद ने। डॉ. राजेंद्र भरुद (Dr. Rajendra Bharud) का जन्म 7 जनवरी, 1988 को सकरी तालुका के गांव समोड़े (Samode) में हुआ था। यह आदिवासी भील समुदाय के अंतर्गत आते हैं। वह 3 भाई-बहन हैं। इनके पिता एक किसान थे। डॉ. राजेंद्र भरुद जब अपनी मां के गर्भ में थे तभी उनके पिता स्वर्ग सिधार गयें। ऐसे में घर-परिवार का सारा बोझ उनकी मां और दादी पर आ गया। घर-परिवार का भरण पोषण करने के लिये राजेंद्र भरुद की मां देशी शराब बेचने का काम करती थी।
राजेंद्र भरुद बताते हैं, “उनके परिवार की स्थिति ऐसी थी कि उनके स्वर्गवासी पिता की फोटो खींचने के लिये भी पैसे नहीं थे। उनका पूरा परिवार गन्ने के पत्ते से बनी हुईं झोपड़ी में रहता था और उसी झोपड़ी में उनका गुजर बसर होता था। भरुद के गांव के प्रत्येक लोगों की स्थिति इतनी दयनीय थी कि उन्हें अपने अशिक्षित होने का आभास भी नहीं था। उनके पास जितना था सब उतने में ही बहुत खुश रहते थे।” राजेंद्र भरुद ने आगे बताया कि महाराष्ट्र के आदिवासी क्षेत्र में पाया जाने वाला महुआ के फूल से उनकी मां शराब बनाती थी। राजेंद्र भरुद के घर पर ही एक्सट्रैक्सन, फर्मेंटेशन और डिस्टिलेसन का काम किया जाता था। वहां इसको साधारण बात माना जाता था। इसलिए वहां इसे अवैध करार नहीं दिया जाता था। ब्लॉक के लोग डॉ. भरुद के घर शराब और स्नैक्स लेने के लिए उनके घर आते थे। अगर भरुद रोते तो उनकी मां उनको एक चम्मच शराब पिलाकर सुला देती थी।
एक दिन में उनके परिवार को औसतन 100 रुपये की आमदनी होती थी। इन्हीं पैसों को घर के सामान, शिक्षा, और शराब बनाने के लिये खर्च किया जाता था। राजेंद्र और उनकी बहन ने एक साथ गांव के ही जिला परिषद स्कूल में पढाई किया जबकी उनका एक भाई आदिवासी स्कूल से शिक्षा ग्रहण किया।
डॉ. राजेंद्र पढ़ाई में बहुत होशियार थे। वह जब 5वीं कक्षा में थे तब विद्यालय के शिक्षकों ने उनकी मां को राजेंद्र की योग्यता को ध्यान में रखते हुए एक अच्छे संस्थान से शिक्षा दिलाने की नसीहत दी थी। राजेंद्र की पढ़ाई के लिये उनकी मां ने शराब के कारोबार को चलने दिया और गांव से 150km दुरी पर स्थित नवोदय विद्यालय में राजेंद्र का दाखिला करवा दिया। नवोदय स्कूल में प्रतिभावान बच्चों को मुफ्त में शिक्षा, खाना, और रहने के लिये आवास मुहैया कराया जाता है। कोई बच्चा अपनी मां से दूर नहीं होना चाहता है। वह जब स्कूल के लिये जाने लगे तब अपनी मां को पकड़ कर खूब रोए लेकिन उनकी मां जानती थी कि यह राजेंद्र के भविष्य के लिये अच्छा है। राजेंद्र जब भी छुट्टियों में घर आते थे तो अपनी मां के काम में उनकी सहायता करतें थे। हालांकि उनकी मां ने उनकों कभी भी शराब बनाने की अनुमति नहीं दी थी। लेकिन वहां आनेवाले कस्टमर को राजेंद्र शराब देने का कार्य करतें थे।
इन्सान की जिंदगी कभी भी नया मोड़ ले सकती है। नवोदय स्कूल में नामांकन होने से राजेंद्र की पढ़ाई में पहले की अपेक्षा अधिक सुधार होने लगा। राजेंद्र की गणित और विज्ञान के विषयों में रुचि बढ़ने लगी। वह खुब मन लगाकर पढाई करने लगें। 10वीं की बोर्ड परीक्षा में राजेंद्र दोनों विषयों में अव्वल नंबर से पास किए। इसके 2 वर्ष बाद 12वीं की परीक्षा में भी उन्होनें अपने क्लास में टॉप किया। राजेंद्र के टॉप करने के परिणामस्वरुप उनको मेरिट स्कॉलरशिप से सम्मानित किया गया। इसके बाद उन्हें मुंबई के सेठ जीएस मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिल गया।
राजेंद्र का बचपन से ही डॉक्टर बनने का सपना था ताकी वह दूसरें लोगों की मदद कर सकें। थोड़े बड़े होने के बाद ख़्याल आया कि लोगों की मदद करने के लिये पहले उन्हें शिक्षित करना होगा। उन्हें अच्छा मौका देना होगा। इन सब के लिये उन्हें सिविल सर्वेंट बनने का ख़्याल आया। अतएव उन्होंने UPSC की तैयारी के लिए डेली रूटीन बनाया। राजेंद्र सुबह 5 बजे जग जाते थे। जगने के बाद वह एक्सरसाइज़ और मेडिटेशन भी करते थे। फिर वह सेल्फस्टडी करते, उसके बाद क्लास जातें थे। क्लास से वापस आने के बाद वह ज्यादा-से-ज्यादा पढ़ाई कर सकें, इसकी कोशिश करतें थे।
इसके बारें में डॉ. राजेंद्र याद करतें हुए कहते हैं कि वह कभी भी साधारण छात्रों की तरह डेटिंग, आउटिंग या पार्टी नहीं कियें। उनके मित्र उनको अपने साथ बाहर जाने के लिये भी कहतें थे लेकिन वह अपने लक्ष्य को पाने के लिये बाहर नहीं जातें थे। इस बात के लिये उन्हें कभी अफसोस भी नहीं हुआ।
मेडिकल की पढ़ाई के अन्तिम साल MBBS की परीक्षा के साथ उन्होंने UPSC की परीक्षा भी दी। किसी ने खुब कहा है, “अगर मन में दृढ़ इच्छा-शक्ति और अटल विश्वास हो तो मंजिल इन्सान तक या इन्सान मंजिल तक पहुंच ही जाता हैं।” राजेंद्र को पहली बार में ही UPSC परीक्षा में सफलता प्राप्त हुई। यूपीएससी का परिणाम आने के बाद वह अपने गांव लौट आयें। उस समय उनकी मां को इस बारें में कोई जानकारी नहीं थी कि उनका बेटा एक सिविल ऑफिसर बन गया हैं।
डॉ राजेंद्र(Dr. Rajendra) मुस्कुरातें हुयें बताते हैं, “जब तक उनका रिजल्ट नहीं आया था उनकी मां उन्हें एक डॉक्टर समझती थी। जब उन्होंने मां को बताया कि वह UPSC पास कर एक कलेक्टर बनने जा रहें हैं, उनकी मां को यह समझ में नहीं आया। हालांकि उनके गांव में किसी को भी इस बारें में कोई जानकारी नहीं थी कि कलेक्टर किसे कहा जाता है। जब गांव के लोगों को समझ आया कि वह UPSC पास कर गयें हैं तो लोगों ने उन्हें “कलेक्टर” बनने का बधाई दी।”
वर्ष 2012 में वह फरीदाबाद (Faridabaad) में आईआरएस (IRS) अधिकारी के रूप में पद पर थे तब उसी समय वह दूसरी बार यूपीएससी (UPSC) का परीक्षा दिए। इस बार वह कलेक्टर के रूप में चयनित किये गयें। चयनित होने के बाद 2 साल तक मसूरी में उनका ट्रेनिंग हुआ। वर्ष 2015 में वह नांदेड़ जिले में असिस्टेंट कलेक्टर और प्रोजेक्ट ऑफिसर के पद पर कार्यरत थे। वर्ष 2017 में वह सोलापुर में चीफ एक्सक्युटिव ऑफिसर के रूप में कार्यरत थे। इतने सारे पदों पर तैनात होने के बाद आखिरकार 2018 में वह Maharashtra के नंदुरबार (Nandurbar) का डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट (DM) के रूप में कार्यभार सम्भालने लगें।
वर्ष 2014 में डॉ. राजेंद्र ने मराठी भाषा में स्वपन पाहिल किताब लिखी। इस किताब में उन्होनें अपने संघर्ष और अपनी मां के 3 बच्चों की परवरिश के लिये किए गए बलिदान का जिक्र किया हैं। वर्तमान में वह अपनी मां, पत्नी और बच्चो के साथ सरकारी क्वाटर में रहतें हैं।
नंदुरबार (Nandurbar) जिले का मजिस्ट्रेट बनने के बाद उन्होंने आदिवासी और ग्रामीण लोगों के विकास के लिये कई नई पहल किए। उन्होंने राशन योजना के तहत 40 हजार से अधिक परिवारो को जोड़ा। इसके अलावा MGNREGA अधिनियम के तहत 65 हजार से अधिक ग्रामीण लोगों को नामांकित किया गया। स्वच्छ भारत अभियान में भाग लेते हुयें अपने गांव की खुबसूरती बढ़ाने के लिये वहां पौधें भी लगवाएं। सोलापुर में जिला परिषद अधिकारी के पद पर तैनात होने के बाद नालों की समस्या को खत्म करने के लिये सीवर सिस्टम आरंभ किए। इस सिस्टम में सोखने वाले गड्ढों को भी शामिल किया गया जिससे धरती में जाने से पहले अपशिष्ट पानी को एकत्र कर ट्रीटमेंट किया जाता था। खुलें नालों और जल स्तर में बढ़ोतरी करने के उपलक्ष में पुर्व पेयजल मंत्री और स्वच्छता मंत्री, उमा भारती ने डॉ. राजेंद्र भरुद को सम्मानित भी किया हैं।
डॉ. राजेंद्र अपनी जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धी मानते हैं जब वह अपने बचपन के स्कूल जवाहर नवोदय अक्कलकूवा तालुका के अध्यक्ष बने। वर्तमान में वह कोविड-19 से बचने के लिये ब्लॉक स्तर पर सुविधाओ को बढ़ाने, लोगों को मास्क पहनने और सामाजिक दूरी का पालन करने के लिये जागरुकता अभियान चला रहें हैं। डॉ. राजेंद्र ने बताया कि मेडिकाक क्षेत्र से होने के कारण वायरस से बचाव के लिये शुरुआती निदान, आइसोलेशन और इलाज बहुत जरुरी हैं।
डॉ. राजेंद्र ने बताया कि IAS बनने का सफर आसान नहीं था लेकिन उन्होनें अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति और मेहनत से IAS बनने तक का सफर तय किया हैं। डॉ. राजेंद्र ने दूसरों के लिये एक मिसाल खड़ी की हैं। इन्सान कितना भी गरीब हो और उसे जीवन में कितने ही मुश्किलों का सामना करना पड़े, अगर हौसले बुलंद हैं तो मंजिल मिल ही जाती हैं।