फूल और मिट्टी – वीरबाला भावसार

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मिट्टी को देख फूल हँस पड़ा
मस्ती से लहरा कर पंखुरियाँ
बोला वह मिट्टी से–
उफ मिट्टी!
पैरों के नीचे प्रतिक्षण रौंदी जा कर भी
कैसे होता है संतोष तुम्हें?
उफ मिट्टी!
मैं तो यह सोच भी नहीं सकता हूं क्षणभर‚
स्वर में कुछ और अधिक बेचैनी बढ़ आई‚
ऊंचा उठ कर कुछ मृदु–पवन झकोरों में
उत्तेजित स्वर में‚
वह कहता कहता ही गया–
कब से पड़ी हो ऐसे?
कितने युग बीत गये?
तेरे इस वक्ष पर ही सृजन मुस्कुराए‚
कितने ताण्डव इठलाए?
किंतु तुम पड़ी थीं जहां‚
अब भी पड़ी हो वहीं‚
कोइ विद्रोह नहीं मन में तुम्हारे उठा‚
कोई सौंदर्य भाव पलकों पर नहीं जमा।
अधरों पर कोई मधु–कल्पना न आई कभी‚
कितनी नीरस हो तुम‚
कितनी निष्क्रिय हो तुम‚
बस बिलकुल ही जड़ हो!

मिट्टी बोली–प्रिय पुष्प
किसके सौंदर्य हो तुम?
किसके मधु–गान हो?
किसकी हो कल्पना‚ प्रिय?
किसके निर्माण हो?
किसकी जड़ता ने तुम्हें चेतना सुरभी दी है?
किसकी ममता ने जड़ें और गहरी कर दी हैं?
नित–नित विकसो‚ महको
पवन चले लहराओ‚
पंखुरिया सुरभित हों‚
किरन उगे मुस्काओ‚
लेकिन घबरा कर संघर्षों से जब–जब‚
मुरझा तन–मन लेकर मस्तक झुकाओगे‚
तब–तब ओ रूपवान!
सुरभि–वान!
कोमल–तन!
मिट्टी की गोद में ही चिर–शांति पाओगे।

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