शिव स्तुति श्रीरामकृत || Shiv Stuti by Shriram

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शिव स्तुति श्रीरामकृत-पुष्कर क्षेत्र के पास देवताओं के स्वामी पिनाकधारी देवदेव महादेवजी का अजगन्ध नाम से प्रसिद्ध स्थान था। श्रीरामचन्द्रजी ने वहाँ जाकर त्रिनेत्रधारी भगवान् उमानाथ को साष्टाङ्ग प्रणाम किया। उनके दर्शन से श्रीरघुनाथजी सात्त्विक भाव में स्थित हो गये। उन्होंने देवेश्वर भगवान् श्रीशिव को ही जगत्का कारण समझा और विनम्रभाव से स्थित हो उनकी स्तुति करने लगे।

श्रीरामकृतं शिव स्तुति

राम उवाच

कृत्स्नस्य योऽस्य जगतः स चराचरस्य

कर्ता कृतस्य च पुनः सुखदुःखदश्च ।

संहारहेतुरपि यः पुनरंतकाले

तं शंकरं शरणदं शरणं व्रजामि ।।१ ।।

श्रीरामचन्द्रजी बोले- जो चराचर प्राणियो सहित इस सम्पूर्ण जगत्को उत्पन्न करनेवाले हैं, उत्पन्न हुए जगत्के सुख-दुःख में एकमात्र कारण हैं तथा अन्तकाल में जो पुनः इस विश्व के संहार में भी कारण बनते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्कर की मैं शरण लेता हूँ।

यं योगिनो विगतमोहतमोरजस्का

भक्त्यैकतानमनसो विनिवृत्तकामाः।

ध्यायन्ति निश्चलधियोऽमितदिव्यभावं

तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥२ ।।।

जिनके हृदय से मोह, तमोगुण और रजोगुण दूर हो गये हैं, भक्ति के प्रभाव से जिनका चित्त भगवान्के ध्यान में लीन हो रहा है, जिनकी सम्पूर्ण कामनाएँ निवृत्त हो चुकी हैं और जिनकी बुद्धि स्थिर हो गयी है, ऐसे योगी पुरुष अपरिमेय दिव्यभाव से सम्पन्न जिन भगवान् शिव का निरन्तर ध्यान करते रहते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्कर की मैं शरण लेता हूँ।

यश्चेन्दुखण्डममलं विलसन्मयूखं

बद्ध्वा सदा प्रियतमां शिरसा बिभर्ति ।

यश्चार्द्धदहमददाद् गिरिराजपुत्र्यै

तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ।।३ ।।

जो सुन्दर किरणों से युक्त निर्मल चन्द्रमा की कला को जटाजूट में बाँधकर अपनी प्रियतमा गङ्गाजी को मस्तक पर धारण करते हैं, जिन्होंने गिरिराजकुमारी उमा को अपना आधा शरीर दे दिया है; उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्कर की मैं शरण लेता हूँ।

योऽयं सकृद्विमलचारुविलोलतोयां

गंगां महोर्मिविषमां गगनात्पतंतीम् ।

मूर्धाऽऽददे स्रजमिव प्रतिलोलपुष्पां

तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ।। ४ ।।

आकाश से गिरती हुई गङ्गा को, जो स्वच्छ, सुन्दर एवं चञ्चल जलराशि से युक्त तथा ऊँची-ऊंची लहरों से उल्लसित होने के कारण भयङ्कर जान पड़ती थीं, जिन्होंने हिलते हुए फूलों से सुशोभित माला की भाँति सहसा अपने मस्तक पर धारण कर लिया, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्कर की मैं शरण लेता हूँ।

कैलासशैलशिखरं परिकम्प्यमानं

कैलासशृंगसदृशेन दशाननेन ।

यत्पादपद्मविधृतं स्थिरतां दधार

शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ।। ५ ।।

कैलास पर्वत के शिखर के समान ऊँचे शरीरवाले दशमुख रावण के द्वारा हिलायी जाती हुई कैलास गिरि की चोटी को जिन्होंने अपने चरणकमलों से ताल देकर स्थिर कर दिया, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्कर की मैं शरण लेता हूँ।

येनासकृद्दनुसुताः समरे निरस्ता

विद्याधरोरगगणाश्च वरैः समग्रैः।

संयोजिता मुनिवराः फलमूलभक्षा

स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥ ६ ।।

जिन्होंने अनेकों बार दैत्यों को युद्ध में परास्त किया है और विद्याधर, नागगण तथा फल-मूल का आहार करनेवाले सम्पूर्ण मुनिवरों को उत्तम वर दिये हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्कर की मैं शरण लेता हूँ। दक्षाध्वरे च नयने च तथा भगस्य

पूष्णस्तथा दशनपंक्तिमपातयच्च ।

तस्तंभयः कुलिशयुक्तमथेंद्रहस्तं

तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ।।७ ।।

जिन्होंने दक्ष का यज्ञ भस्म करके भग देवता की आँखें फोड़ डाली और पूषा के सारे दाँत गिरा दिये तथा वज्रसहित देवराज इन्द्र के हाथ को भी स्तम्भित कर दिया-जडवत् निश्चेष्ट बना दिया, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्कर की मैं शरण लेता हूँ।

एनःकृतोऽपिविषयेष्वपिसक्तचित्ता

ज्ञानान्वयश्रुतगुणैरपिनैवयुक्ताः ।

यं संश्रिताः सुखभुजः पुरुषा भवंति

तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ।।८ ।।

जो पापकर्म में निरत और विषयासक्त हैं, जिनमें उत्तम ज्ञान, उत्तम कुल, उत्तम शास्त्र-ज्ञान और उत्तम गुणों का भी अभाव है-ऐसे पुरुष भी जिनकी शरण में जाने से सुखी हो जाते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्कर की मैं शरण लेता हूँ।

अत्रिप्रसूतिरविकोटिसमानतेजाः

संत्रासनं विबुधदानवसत्तमानाम् ।।

यः कालकूटमपिबत्प्रसभं सुदीप्तं

तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ।।९।।

जो तेज में करोड़ों चन्द्रमाओं और सूर्यो के समान हैं; जिन्होंने बड़े-बड़े देवताओं तथा दानवों का भी दिल दहला देनेवाले कालकूट नामक भयङ्कर विष का पान कर लिया था, उन प्रचण्ड वेगशाली शरणदाता भगवान् श्रीशङ्कर की मैं शरण लेता हूँ।

ब्रह्मेन्द्ररुद्रमरुतां च सषण्मुखानां

योऽदाद् वरांश्च बहुशो भगवान् महेशः।

नन्दिं च मृत्युवदनात् पुनरुज्जहार

तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ।। १०।।

जिन भगवान् महेश्वर ने कार्तिकेय के सहित ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र तथा मरुद्गणों को अनेकों बार वर दिये हैं तथा नन्दी का मृत्यु के मुख से उद्धार किया, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्कर की में शरण लेता हूँ।

आराधितः सुतपसा हिमवन्निकुञ्जे

धूमव्रतेन मनसापि परैरगम्ये ।

संजीवनीमकथयद्भृगवे महात्मा

तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ।।११।।

जो दूसरों के लिये मन से भी अगम्य हैं, महर्षि भृगु ने हिमालय पर्वत के निकुञ्ज में होम का धुआँ पीकर कठोर तपस्या के द्वारा जिनकी आराधना की थी तथा जिन महात्मा ने भृगु को [उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर] सञ्जीवनी विद्या प्रदान की, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्कर की मैं शरण लेता हूँ। नानाविधैर्गजबिडालसमानवक्त्रै

र्दक्षाध्वरप्रमथनैर्बलिभिर्गणैंद्रैः ।

योभ्यर्चितोमरगणैश्च सलोकपालै

स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ।।१२।।

हाथी और बिल्ली आदि की-सी मुखाकृतिवाले तथा दक्ष-यज्ञ का विनाश करनेवाले नाना प्रकार के महाबली गणों द्वारा जिनकी निरन्तर पूजा होती रहती है तथा लोकपालो सहित देवगण भी जिनकी आराधना किया करते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्कर की मैं शरण लेता हूँ।

क्रीडार्थमेव भगवान् भुवनानि सप्त

नानानदीविहगपादपमण्डितानि ।

सब्रह्मकानि व्यसृजत् सुकृताहितानि

तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ।।१३।।

जिन भगवान्ने अपनी क्रीडा के लिये ही अनेको नदियों, पक्षियों और वृक्षों से सुशोभित एवं ब्रह्माजी से अधिष्ठित सातों भुवनों की रचना की है तथा जिन्होंने सम्पूर्ण लोकों को अपने पुण्य पर ही प्रतिष्ठित किया है, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्कर की मैं शरण लेता हूँ।

यस्याखिलं जगदिदं वशवर्ति नित्यं

योऽष्टाभिरेव तनुभिर्भुवनानि भुङ्क्ते।

यः कारणं सुमहतामपि कारणानां

तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ।।१४।।

यह सम्पूर्ण विश्व सदा ही जिनकी आज्ञा के अधीन है, जो [जल, अग्नि, यजमान, सूर्य, चन्द्रमा, आकाश, वायु और प्रकृति- इन] आठ विग्रहों से समस्त लोकों का उपभोग करते हैं तथा जो बड़े-से-बड़े कारण-तत्त्वों के भी महाकारण हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्कर की मैं शरण लेता हूँ।

शंखेंदुकुंदधवलं वृषभं प्रवीर

मारुह्य यः क्षितिधरेंद्रसुतानुयातः।

यात्यम्बरे हिमविभूतिविभूषिताङ्ग

स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ।।१५ ।।

जो अपने श्रीविग्रह को हिम और भस्म से विभूषित करके शङ्ख, चन्द्रमा और कुन्द के समान श्वेत वर्णवाले वृषभ-श्रेष्ठ नन्दी पर सवार होकर गिरिराजकिशोरी उमा के साथ आकाश में विचरते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्कर की मैं शरण लेता हूँ।

शांतं मुनिं यमनियोगपरायणैस्तै

र्भीमैर्महोग्रपुरुषैः प्रतिनीयमानम् ।

भक्त्या नतं स्तुतिपरं प्रसभं ररक्ष

तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥१६ ॥

यमराज की आज्ञा के पालन में लगे रहने पर भी जिन्हें वे भयङ्कर यमदूत पकड़कर लिये जा रहे थे तथा जो भक्ति से नम्र होकर स्तुति कर रहे थे, उन शान्त मुनि की जिन्होंने बलपूर्वक यमदूतों से रक्षा की, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्कर की मैं शरण लेता हूँ।

यः सव्यपाणि कमलाग्रनखेन देव

स्तत् पञ्चमं प्रसभमेव पुरः सुराणाम् ।

ब्राह्यं शिरस्तरुणपद्मनिभं चकर्त

तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ।। १७।।

जिन्होंने समस्त देवताओं के सामने ही ब्रह्माजी के उस पाँचवें मस्तक को, जो नवीन कमल के समान शोभा पा रहा था, अपने बायें हाथ के नख से बलपूर्वक काट डाला था, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्कर की मैं शरण लेता हूँ।

यस्य प्रणम्य चरणौ वरदस्य भक्त्या

स्तुत्वा च वाग्भिरमलाभिरतंद्रितात्मा ।

दीप्तस्तमांसि नुदते स्वकरैर्विवस्वां

स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ।। १८।।

जिन वरदायक भगवान्के चरणों में भक्तिपूर्वक प्रणाम करके तथा आलस्यरहित निर्मल वाणी के द्वारा जिनकी स्तुति करके सूर्यदेव अपनी उद्दीप्त किरणों से जगत्का अन्धकार दूर करते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्कर की मैं शरण लेता हूँ।

ये त्वां सुरोत्तमगुरुं पुरुषा विमूढा

जानंति नास्य जगतः सचराचरस्य ।।

ऐश्वर्यमाननिगमानुशयेन पश्चात्ते

यातनामनुभवंत्यविशुद्धचित्ताः ।। १९।।

देवश्रेष्ठ जो मलिनहदय मूढ पुरुष ऐश्वर्य, मानप्रतिष्ठा तथा वेदविद्या के अभिमान के कारण आपको इस चराचर जगत्का गुरु नहीं जानते, वे मृत्यु के पश्चात् नरक की यातना भोगते हैं।

इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे मार्कंडेयाश्रमदर्शनं श्रीरामकृतं शिव स्तुति नाम त्र्यस्त्रिंशोऽध्यायः।।३३।।

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