पिता शराबी , माँ बेचती थीं चूड़ियां और खुद एक पैर से लकवाग्रस्त फिर भी अपनी मेहनत से बने IAS अधिकारी
ज़िंदगी की जंग अगर सरल हो जाती है तो उसे जीतने का आनंद नही मिलता है। एक अच्छा धावक औऱ तैराक होने के लिए केवल यह जरूरी नही है कि उसके केवल पैर और हाथ सही सलामत हों बल्कि एक बड़ा हौसला महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कुछ लोगों ने साबित किया है कि पैर ना होने के बावजूद भी अपने हौसले से ज़िंदगी के उस मुकाम को हासिल किया जा सकता है जिससे आप सबके लिए मिशाल बनें जाएं।
यह कहानी है रमेश घोलप की है जिनका पैर डेढ़ साल की आयु मे पोलियो से ग्रसित हो गया, फिर भी इन्होंने अपने जज्बे से हर नामुमकिन काम को मुमकिन कर दिया और ज़िंदगी के जंग में अव्वल आकर IAS ऑफिसर बने।
रमेश के पिता साइकिल रिपेयरिंग का काम करते थे
रमेश घोलप का जन्म महाराष्ट्र के सोलापुर मे हुआ। जब से इन्होंने अपना होश संभाला तब से खुद को और अपने परिवार को दो वक्त की रोटी के लिए मोहताज पाया। इनके पिता साइकिल रिपेयरिंग की दुकान के जरिये रोजी-रोटी चलाया करते थे ,लेकिन रमेश के पिता को शराब की बुरी लत थी, इस लत के आगे उन्हे अपनी पत्नी और बच्चों की तकलीफ़ नही दिखाई देती थी। इस दुकान से वह जो कुछ भी कमाते सब शराब मे ही उड़ा देते थे। Ramesh की मां को हमेशा इस बात की चिंता सताती कि उनका भविष्य कैसे संभलेगा।
डेढ़ साल की आयु मे पैर लकवा ग्रसित हुआ
इतनी विषम परिस्थितियों के साथ एक और तकलीफ़ सामने उभर कर आई, रमेश जब डेढ़ साल के हुए तब उनका बायां पैर लकवा ग्रसित हो गया। इन हालातों को देख रमेश की माँ समझ गई की हांथ पर हांथ धरे बैठने से कुछ नहीं हो सकता है और रमेश के पिता को शराब की बुरी लत नही छोड़ेगी कि वह अपने बच्चों को किसी काबिल बना सके। फिर रमेश की मां ने अपने बच्चों के पालन- पोषण की जिम्मेदारी खुद संभालने के लिए आगे बढ़ी।
ऐसी हालात देख उन्होंने जीवनयापन के लिए चूड़ीया बेचना शुरू किया
रमेश की मां एक गांव से दूसरे गांव जा कर चूड़ियां बेचने लगी, रमेश और उनके भाई को जब मां की ऐसी हालत देखी नही गई तो दोनो भाई मां का हांथ बटाने के लिए उनके साथ काम करने लगे। इन सब के बावजूद भी रमेश की चाहत पढ़ाई के लिए खत्म नहीं हुई। वह मां का हांथ बटाते और गांव के प्राथमिक विद्यालय मे पढ़ाई भी करते। लेकिन रमेश के यहां आगे पढ़ाई की व्यवस्था नहीं होने के कारण उन्हे अपने चाचा के पास बरसी जाकर आगे की पढ़ाई करनी पड़ी।
घर वापिस आने के लिए 2 रुपये भी नहीं थे
Ramesh को पढ़ाई में काफी लगन थी जिससे उनके अध्यापक को उनसे काफी उम्मीद थी कि वो एक ना एक दिन एक सफल इंसान बनेंगे, जिससे लोगों को प्रेरणा मिलेगी। रमेश जब 12वीं मे थे तब 2005 मे उनके पिता का निधन हो गया। रमेश को अपने गांव पिता के अंतिम संस्कार मे जाने के लिए 2 रुपये तक का किराया नही था। पड़ोसियों की मदद से वह अपने गांव गये।उस समय 12वीं की परीक्षा शुरु होने में सिर्फ 4 दिन ही बचे थे। पिता की मौत से वह पूरी तरह टूट चुके थे और परीक्षा के लिए जाना नही चाहते थे। फिर उनकी मां के काफी समझाने के बाद Ramesh चले तो गये लेकिन ध्यान सिर्फ मां के पास ही रहता था।
बरसी से लौटने के बाद उनके अध्यापक ने उन्हें अपने पास बुलवा लिया और वहीं उनकी पढ़ाई होने लगी । 12वीं की परीक्षा का उन्हें बहुत अच्छा परिणाम मिला और उन्होंने 88.5%अंक हासिल हुआ।
फिर Ramesh ने डीएड किया क्योंकि रमेश जानते थे कि इस कोर्स में पैसा कम लगेगा और इसे करने के बाद उन्हें नौकरी भी मिल जाएगी, इसके साथ ही उनकी ग्रेजुएशन भी पूरी हो गई। साल 2009 मे वह एक अध्यापक के रूप मे नियुक्त हुए जिससे उनके घर की थोड़ी परेशानी खत्म हुई।
शुरू हुआ IAS बनने का सफर
रमेश ने अपनी मां से कुछ पैसे लिए और UPSC की तैयारी के लिए पुणे चले गये। रमेश जिस लक्ष्य को हासिल करने निकले थे उन्हें उसका मतलब तक नही पता था और ना ही उनके पास पैसे थे कि रमेश अपना नामांकन अच्छे कोचिंग मे कर सकें।
रमेश ने कोचिंग मे पढ़ा रहे शिक्षक अतुल लांडे से अनुरोध कर कुछ सवालों के जवाब पूछे.. यूपीएससी क्या है? मुझे इंग्लिश नहीं आती मै मराठी मे परीक्षा दे सकता हूँ? क्या मैं इस परीक्षा मे बैठने योग्य हूँ? सर ने उनका उत्तर देते हुए कहा ऐसा कुछ नहीं है जो आप नही कर सकते है। साल 2010 मे रमेश ने यूपीएससी का परीक्षा दिया, लेकिन वह असफल रहें।
एक दिन उन्होंने गांव के लोगों के सामने ये प्रतिज्ञा ली कि वो जब तक बड़े अधिकारी नहीं बनेंगे गांव नहीं लौटेंगे। फिर क्या था बस लक्ष्य को पाने का जुनून और हौसला लिए वह अपनी तैयारी मे जुट गयें। Ramesh ने एसआईएसी की परीक्षा मे सफलता हासिल किया और उन्हे स्कॉलरशिप मिला। जिससे उन्हे यूपीएससी की पढ़ाई मे मदद मिली। कुछ अन्य जरूरतें थी जिनको रमेश ने पोस्टर पेन्ट करके पूरी की।
साल 2011 मे एक विकलांग लड़के ने साबित किया की इंसान को अगर जिन्दगी की रेस मे हिस्सा लेना है तो उसके पैर नहीं, बल्कि जज़्बे और हौसलों की जरूरत है। एक अनपढ़ माता- पिता का बेटा, जिसने चूड़ियां बेचीं, जिला परिषद स्कूल मे पढ़ाई की, पोस्टर पेंट किए, वह विकलांग लड़का यूपीएससी की परीक्षा में सफल हो चुका था।
प्रतिज्ञा पूरी कर गाँव लौटे
जो गांव लौटा वह रमेश नहीं बल्कि IAS ऑफिसर रमेश गोरख घोलप था। रमेश जब गांव आए तब वहाँ के लोगों के चेहरे पर एक अलग सी चमक थी सबने IAS ऑफिसर की जोरदार स्वागत की। रमेश ने यूपीएससी के साथ ही एमपीएससी की भी परीक्षा दी थी। इसका परिणाम आया तब उन्होंने एक नया इतिहास रच डाला। रमेश महाराष्ट्र मे टॉप कर 1800 में से 1244 नंबर एमपीएससी में ला चुके थे। रमेश की मां ने विलाप भरें शब्दों मे कहा आज मैं बहुत खुश हूँ, मेरे बेटे ने आज मेरा हर कर्ज अदा कर दिया।
30 जून 2019 को रमेश को झारखंड के कोडरमा मे 22वें डीसी के रूप मे अपना पदाभार संभाला। रमेश की मां ने उनसे एक बात कही थी बेटा सबसे पहले तो उन गरीबों की सुनना जिनके हालात हमारे जैसे थे क्योंकि कल जो हमारे हालात थे, वैसे आज बहुत सारे हैं।
रमेश अपनी मां की बातों का पालन करते हुए आगे बढ़े। वह जनता के लिए दरबार लगाते और उनकी परेशानियों से सीधे तरीके से रूबरू होते। वह गरीब और लाचार महिलाओं की पेंसन 3 घण्टे के अंदर ही मंजूर करा देते। अब तक वो लगभग 900 अधिक बच्चों का मनोबल भी बढ़ा चुके हैं जो उनके तरह कुछ करना चाहते थे लेकिन बुरे हालात की वजह से बिखर गये थे।
रमेश जब खूंटी और बोकारो जिले के डीसी बने तब उन्होंने रॉकेल के हॉकर्स, राशन दुकानदार, अनियमितता के अपराध, और कालाबाजारी वालों को जेल भेजा। एक ही दिन में सब जाँच परताल कर लगभग 40 दुकानदारों के लाइसेंस सस्पेंड कर दिये। सरकारी अस्पतालों की स्थिति सुधारने के बाद उन्होंने जरूरतमंदो की मदद की।
रमेश उनलोगों के लिए ज्यादा काम करते हैं, जो लोग अपनी आम जरूरतों को भी पुरा नही कर सकते। एक पैर पर ही आज इन्होंने सारी दुनिया माप ली। रमेश के लगन और ज़ज्बे को सलाम करता है।