महाभारत के प्रमुख 17 पात्र Main Characters Of Mahabharat महाभारत की कथा, Mahabharat Story in hindi

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भारतीय संस्कृति के महान ग्रंथों में ‘महाभारत‘ एक ऐसा ग्रंथ है, जो सदियों से मात्र जनमानस को ही नहीं, विश्व-भर की विचारधारा को प्रभावित करता रहा है। ‘रामायण‘ और ‘वेदों‘ की ही भांति ‘महाभारत‘ भी धर्म की सटीक व्याख्या को अदभुत ढंग से प्रस्तुत करने में सफल ग्रंथ है।

महाभारत‘ एक महान रचनाकार महर्षि वेदव्यास की महानतम रचना है। इसमें संपूर्ण मानव जीवन का सार तत्त्व निहित है। यह ग्रंथ संपूर्ण रूप से धर्म का आचरण करते हुए मानव जीवन को परमात्मा के सत्य-स्वरूप की ओर ले जाने वाला है। इस रचना को पढ़कर पाठक का मन द्रवित हो जाता है। कभी वह आनंद की निस्सीम तरंगों में बहता है तो कभी अवसाद की करुणा उसे झकझोर डालती है।

महाभारत‘ में एक स्थान पर लिखा है— ‘हे भरत श्रेष्ठ (अर्जुन)! धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के संदर्भ में जो कुछ भी इस ग्रंथ में है, वही और ग्रंथों में भी मिल जाता है, परंतु जो इसमें है, वह कहीं नहीं है।’

इस ग्रंथ में, जिस विराट सनातन संस्कृति, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष विषयों का वर्णन किया गया है, उसे सर्वत्र इस ग्रंथ के कुछ पात्र, विशेषकर योगीराज कृष्णा, पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, कौरव, पाण्डव, कुंती, द्रौपदी और गांधारी चरित्र वहन करते दिखलाई पड़ते हैं।

श्रीमद्भागवत गीता’ जैसी महान रचना इसी ‘महाभारत’ ग्रंथ का एक अंश है। जिसमें जीवन और जगत के साथ परमात्मा का तादात्म्य सहज रूप में दर्शाया गया है। यह अंश, मानव-जीवन की परमात्मा की ओर अग्रसर होने वाली संपूर्ण यात्रा का प्रशस्त पथ है। इस ग्रंथ में सर्वत्र श्री कृष्ण द्वारा प्रतिपादित धर्म के दर्शन होते हैं। जो कृष्ण कथन के अनुकूल नहीं है, वह अधर्म है और त्याज्य है, परंतु इस ग्रंथ में आने वाले छोटे-बड़े सभी पात्र, सहज मानवीय अनुभूतियों से भी जुड़े हुए हैं।

गुरु द्रोणाचार्य – महाभारत

द्रोणाचार्य भरद्वाज मुनिके पुत्र थे| ये संसारके श्रेष्ठ धनुर्धर थे| महाराज द्रुपद इनके बचपनके मित्र थे| भरद्वाज मुनिके आश्रममें द्रुपद भी द्रोणके साथ ही विद्याध्ययन करते थे|

भरद्वाज मुनिके शरीरन्त होनेके बाद द्रोण वहीं रहकर तपस्या करने लगे| वेद-वेदाङ्गोंमें पारंगत तथा तपस्याके धनी द्रोणका यश थोड़े ही समयमें चारों ओर फैल गया| इनका विवाह शरद्वान मुनिकी पुत्री तथा कृपाचार्यकी बहन कृपीसे हुआ| कृपीसे द्रोणाचार्यको एक पुत्र हो जो बादमें अश्र्वत्थामाके नामसे अमर हो गया|

उस समय शस्त्रास्त्र – विद्याओंमें श्रेष्ठ श्रीपरशुरामजी महेन्द्र पर्वतपर तप करते थे| वे दिव्यास्त्रोंके ज्ञानके साथ सम्पूर्ण धनुर्वेद ब्राह्मणोंको दान करना चाहते थे| यह सुनकर आचार्य द्रोण अपनी शिष्यमण्डलीके साथ मेहन्द्र पर्वतपर गये और उन्होंने प्रयोग, रहस्य तथा संहारविधिके सहित श्रीपरशुरामजीसे सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंका ज्ञान प्राप्त किया| अस्त्र – शस्त्रकी विद्यामें पारंगत होकर द्रोणाचार्य अपने मित्र द्रुपदसे मिलने गये| द्रुपद उस समय पाञ्चालनरेश थे| आचार्य द्रोणने द्रुपदसे कहा – ‘राजन्! मैं आपका बालसखा द्रोण हूँ| मैं आपसे मिलनेके लिये आया हूँ|’ द्रुपद उस समय ऐश्वर्यके मदमें चूर थे| उन्होंने द्रोणसे कहा – ‘तुम मूढ़ हो, पुरानी लड़कपनकी बातोंको अबतक ढो रहे हो, सच तो यह है कि दरिद्र मनुष्य धनवान् का, मूर्ख विद्वानका तथा कायर शूरवीरका मित्र हो ही नहीं सकता|’ द्रुपदीकी बातोंसे अपमानित होकर द्रोणाचार्य वहाँसे उठकर हस्तिनापुरकी ओर चल दिये|

एक दिन कौरव-पाण्डव कुमार परस्पर गुल्ली-डण्डा खेल रहे थे| अक्समात् उनकी गुल्ली कुएँमें गिर गयी| आचार्य द्रोणको उधरसे जाते हुए देखकर राजकुमाररोंने उनसे गुल्ली निकालनेकी प्रार्थना की| आचार्य द्रोणने मुट्ठीभर सींकके बाणोंसे गुल्ली निकाल दी| इसके बाद एक राजकुमारने अपनी अँगूठी कुएँमें डाल दी| आचार्यने उसी विधिसे अँगूठी भी निकाल दी| द्रोणाचार्यके इस अस्त्रकौशलको देखकर राजकुमार आश्चर्यचकित रह गये| राजकुमारोंने कहा – ‘ब्रह्मन्! हम आपको प्रणाम करते हैं| यह अद्भुत अस्त्रकौशल संसारमें आपके अतिरिक्त और किसीके पास नहीं है| कृपया आप अपना परिचय देकर हमारी जिज्ञासा शांत करें|’ द्रोणने उत्तर दिया – ‘मेरे रूप और गुणोंकी बात तुमलोग भीष्मसे कहो| वही तुम्हें हमारा परिचय बतायेंगे|’

राजकुमारोंने जाकर सारी बातें भीष्मजीसे बतायीं| भीष्मजी समझ गये कि द्रोणाचार्यके अतिरिक्त यह कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है| राजकुमारोंके साथ आकर भीष्मने आचार्य द्रोणका स्वागत किया और उनको आचार्यपदपर प्रतिष्ठित करके राजकुमारोंकी शिक्षा-दीक्षाका कार्य सौंप दिया| उन्होंने आचार्यके निवासके लिये धन-धान्यसे पूर्ण सुन्दर भवनकी भी व्यवस्था कर दी| आचार्य वहाँ रहकर शिष्योंको प्रीतिपूर्वक शिक्षा देने लगे| धीरे-धीरे पाण्डव और कौरव राजकुमार अस्त्र-शस्त्र विद्यामें निपुण हो गये| अर्जुन धनुर्विद्यामें सबसे अधिक प्रतिभावन् निकले| आचार्यके कहनेपर उन्होंने द्रुपदको युद्धमें परास्त करके और उन्हें बाँधकर गुरुदक्षिणाके रूपमें गुरुचरणोंमें डाल दिया| अत: वे द्रोणाचार्यके अधिक प्रीतिभाजन बन गये|

महाभारतके युद्धमें भीष्मके गिरनके बाद द्रोणाचार्य कौरव-सेनाके दूसरे सेनापति बनाये गये| वे शरीरसे कौरवोंके साथ रहते हुए भी हृदयसे धर्मात्मा पाण्डवोंकी विजय चाहते थे| इन्होंने महाभारतके युद्धमें अद्भुत पराक्रम प्रदर्शित किया| युद्धमें अश्वत्थामाकी मृत्युका समाचार सुनकर इन्होंने शस्त्रका त्याग कर दिया और धृष्टद्युम्नके हाथों वीरगतिको प्राप्त हुए|

त्यागमूर्ति महाराज उशीनर – महाभारत

महाराज उशीनर त्याग और शरणागतवत्सलताके अनुपम आदर्श थे| उनके राज्यमें प्रजा अत्यन्त सुखी तथा धन-धान्यसे सम्पन्न थी| सभी लोग धर्माचरणमें रत थे|

एक समयकी बात है कि इन्द्रने उनकी धर्मनिष्ठाकी परीक्षा करनेका निश्चय किया| इसके लिये इन्द्रने बाज और अग्निने कबूतरका रूप बनाया| कबूतर बाजके डरसे भयभीत होकर महाराज उशीनरकी गोदमें छिप गया| उन्होंने जब कबूतरको अपनी गोदमें आया देखा तो उसे धीरज देते हुए कहा – ‘कपोत! अब तुझे किसीका डर नहीं है| मैं तुझे अभय देता हूँ| मेरे पास आ जानेपर अब कोई तुझे पकड़नेका विचार भी मनमें नहीं ला सकता| मैं यह काशीका राज्य और अपना जीवनतक तेरी रक्षाके लिये निछावर कर दूँगा| तुम भयको अपने मनसे निकाल दो|’

इतनेमें ही बाज भी वहाँ पहुँच गया| उसने कहा – ‘राजन्! यह कबूतर मेरा भोजन है| इसके मांस और रक्तपर मेरा अधिकार है| यह मेरी भूख मिटाकर मेरी तृप्ति कर सकता है| मुझे भूखकी ज्वाला जला रही है, अत: आप इस कबूतरको छोड़ दीजिये| मैं बड़ी दूरसे इसके पीछे उड़ता हुआ आ रहा हूँ| मेरे नाखून और परोंसे यह काफी घायल हो चुका है| आप इसे बचानेकी चेष्टा न कीजिये| अपने देशमें रहनेवाले मनुष्योंकी रक्षाके लिये आप राजा बनाये गये हैं| भूख-प्याससे तड़फते हुए पक्षीको रोकनेका आपको कोई अधिकार नहीं है| यदि धर्मकी रक्षाके लिये आप कबूतरकी रक्षा करते हों तो मुझ भूखे पक्षीपर भी आपको दृष्टि डालनी चाहिये| देवताओंने सनातन कालसे कबूतरको बाजका भोजन नियत कर रखा है| आज आपने मुझे भोजनसे वञ्चित कर दिया है, इसलिये मैं जी नहीं सकूँगा| मेरे न रहनेपर मेरे स्त्री-बच्चे भी नष्ट हो जायँगे| इस प्रकार आप इस कबूतरको बचाकर कई प्राणियोंकी जानके घातक बनेंगे| जो धर्म दूसरे धर्मका बाधक हो वह धर्म नहीं कुधर्म है| आप धर्म-अधर्मके निर्णयपर दृष्टि रखकर ही स्वधर्मके आचरणका निश्चय करें| यदि आपको कबूतरपर बड़ा स्नेह है तो आप मुझे कबूतरके बराबर अपना ही मांस तराजूपर तौलकर दे दीजिये|’

राजाने कहा ‘बाज! तुमने ऐसी बात कहकर मुझपर बड़ा अनुग्रह किया है| तुम अपनी तृप्तिके लिये मुझसे इच्छानुसार मांस ले सकते हो|’ ऐसा कहकर राजा उशीनर अपना मांस काटकर तराजूपर रखने लगे| यह समाचार सुनकर रानियाँ अत्यन्त दु:खी हुईं और हाहाकार करती हुई बाहर निकल आयीं| सेवकों, मन्त्रियों एवं रानियोंके रोनेसे वहाँ कोलाहल मच गया| राजाका वह साहसपूर्ण कार्य देखकर पृथ्वी काँप उठी, चारों ओर बादलोंकी घटा घिर आयी| महाराज उशीनर इन सारी घटनाओंसे निर्लिप्त होकर अपनी पिंडलियों, भुजाओं और जाँघोंसे मांस काट-काटकर तराजू भर रहे थे| राजाका मांस समाप्त हो गया, फिर भी कबूतरका पलड़ा भारी ही रहा| अब राजा मांस काटनेका काम बन्द करके स्वयं तराजूके पलड़ेपर बैठ गये|

अचानक दृश्य बदल गया| इन्द्र और अग्नि अपने वास्तविक स्वरूपमें आ गये| देवताओंने राजा उशीनरके ऊपर अमृत-वृष्टि कि| उनका शरीर दिव्य हो गया| इतनेमें ही आकाशसे एक दिव्य विमान उतरा| इन्द्रने महाराज उशीनरसे कहा – ‘राजन्! हम आपकी परीक्षा लेनेके लिये आये थे| संसारके इतिहासमें आप-जैसा त्यागवीर कोई नहीं है| आप अपनी परीक्षामें सफल हुए| अब आप इस विमानमें बैठकर स्वर्ग पधारें|’ जो मनुष्य अपने शरणागत प्रणियोंकी रक्षा करता है, वह परलोकमें अक्षय सुखका अधिकारी होता है| सत्य पराक्रमी राजर्षि उशीनर अपने अपूर्व त्यागसे तीनों लोकोंमें विख्यात हो गये|

दानवीर कर्ण – महाभारत

कोमार्यावस्थामें कुन्तीको महर्षि दुर्वासाकी सेवाके फलस्वरूप देवताओंके आवाहनका विलक्षण मन्त्र प्राप्त हुआ| मन्त्रशक्तिके परीक्षणके लिये कुन्तीने भगवान् सूर्यका आवाहन किया और कौमार्यावस्थामें ही कुन्तीके द्वारा एक दिव्य बालककी उत्पत्ति हुई|

लोकापवादके भयसे जन्मसे ही कवच-कुण्डलधारी इस यशस्वी बालकको काष्ठ-पेटिकामें सुरक्षित करके कुन्तीने गङ्गमें प्रवाहित कर दिया| वह पेटिका अधिरथ नामके सूत और उसकी पत्नी राधाको मिली| पेटिकामें सुन्दर बालक देखकर सूत-दम्पतिको विशेष प्रसन्नता हुई| उन्होंने उस बालकको पाल-पोसकर बड़ा किया और उसका नाम कर्ण रखा| इसीलिये कर्णको सूतपुत्र, राधेय आदि नामोंसे भी पुकारते थे| आगे चलकर कर्ण अर्जुनके समान महान् धनुर्धर हुए| दुर्योधनने उन्हें अपना मित्र बना लिया तथा अङ्गदेशका राज्य भी प्रदान किया| कर्णके बलपर दुर्योधनने पाण्डवोंके प्रति अपने वैरभावको अन्ततक शान्त न होने दिया| वे कर्णपर सर्वाधिक विश्वास करते थे|

महान् वीरके साथ कर्ण तपस्वी, उदार और महादानी थे| वे नित्य प्रात:काल गङ्गमें खड़े होकर मन्त्र जप करते थे| कर्णने अपने जीवनकालमें किसी भी याचकको निराश नहीं किया| प्रत्येक याचकको दान-मानसे संतुष्ट करना उनके जीवनका प्रमुख व्रत था| कर्णने कवच और कुण्डल पहने ही जन्म लिया था| जबतक कर्णके पास कवच-कुण्डल रहते, तबतक उनकी मृत्यु नहीं हो सकती थी| इसीलिये अपने अंशसे उत्पन्न अर्जुनकी प्राणरक्षाके लिये इन्द्र ब्राह्मण-वेशमें महादानी एवं महावीर कर्णसे कवच और कुण्डलकी याचना करनेके लिये गये| कर्णने ब्राह्मण-वेशधारी इन्द्रको पहचान लिया, किंतु अपने व्रतकी रक्षाके लिये उन्होंने नि:संकोच अपना कवच-कुण्डल दे दिया| इन्द्रने उनके महान् त्यागसे प्रसन्न होकर उन्हें एक अमोघ शक्ति दी| अर्जुनकी रक्षा करनेके लिये भगवान् श्रीकृष्णने उस शक्तिका प्रयोग घटोत्कचपर करवा दिया, जिससे घटोत्कच मारा गया|

कर्ण महान् कृतज्ञ तथा महाभारतके अद्भुत वीर थे| दुर्योधनको किसी भी अवस्थामें न छोड़ना उनके मित्रधर्मके पालन तथा कृतज्ञताका अनुपम उदाहरण है| सन्धिदूतका कार्य करके लौटते समय भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें अपने रथपर बैठाकर बतलाया कि ‘वे सूतपुत्र नहीं, अपितु कुन्तीपुत्र हैं| यदि वे दुर्योधनका साथ छोड़कर पाण्डव पक्षमें आ जायँ तो राज्यके उत्तराधिकारी वही होंगे|’ इसपर कर्णने कहा – ‘माधव! पाण्डव-पक्षमें आप हैं| अत: अन्तिम विजय पाण्डवोंकी होगी, किंतु दुर्योधनने मुझे मित्रका सम्मान दिया है| इसलिये मैं उसे कदापि नहीं छोड़ सकता|’ कुन्तीने भी गङ्गतटपर कर्णकी जन्मकथा सुनाकर उसे पाण्डव-पक्षमें आनेके लिये कहा| कर्णने वहाँ भी अपनी असमर्थता व्यक्त की, किंतु इतना वचन अवश्य दिया कि ‘पाण्डव पाँच ही रहेंगे| मैं अर्जुनके सिवा तुम्हारे किसी और पुत्रका वध नहीं करूँगा|’ इस वचनका पालन उन्होंने अन्ततक किया|

महाभारतके युद्धमें कर्णने दो दिनतक कौरवपक्षका सेनापति रहकर अद्भुत पराक्रम दिखाया| अन्तमें ब्राह्मणके शापसे उनके रथका पहिया भूमिमें धँस गया, जिसे निकालनेके लिये कर्ण भूमिपर उतरे| उसी समय श्रीकृष्णकी प्रेरणासे अर्जुनने उनका वध कर दिया| कर्ण महादानी और अद्भुत वीरके रूपमें अपनी अमर कीर्ति छोड़ गये| साथ ही दुर्योधनके पाप-सम्बन्धके कारण अपकीर्ति भी छोड़ गये| उच्चकुलमें उत्तम रजवीर्यके संयोगसे उत्पन्न पुरुष कुसंगके परिणामसे कितना गिर जाता है; कर्ण इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं|

दुर्योधन – महाभारत

कलिके अंशावतार दुर्योधन धृतराष्ट्रके ज्येष्ठ पुत्र थे| ये राज्यलोभी, महत्त्वाकाङ्क्षी तथा अपने शुभचिन्तकोंको भी शत्रुकी दृष्टिसे देखनेवाले और बचपनसे पाण्डवोंके कट्टर शत्रु थे|

पाण्डवोंको अन्यायपूर्वक मिटानेका ये सदैव प्रयास करते थे, क्योंकि ये पाण्डवोंको अपने राज्यप्राप्तिमें सबसे बड़ा विघ्न समझते थे| इसलिये इन्होंने भीमसेनको विष देकर मार डालनेका प्रयास किया| पाण्डवोंको कुन्तीसहित लाक्षागृहमें भस्म करानेका कुचक्र रचा, शकुनिकी सहायतासे जुएमें उनका सर्वस्व छीन लिया, पतिव्रता द्रौपदीको भरी सभामें अपमानित किया तथा पाण्डवोंको वनमें भटकनेके लिये बाध्य किया| इस प्रकार इन्होंने राज्यके लोभमें अत्याचारका अन्त कर दिया|

दुर्योधनमें सद्गुण भी थे, किंतु दुर्गुणोंकी बाढ़में वे दब गये| ये राजनीतिमें निपुण थे| धन तथा सम्मान प्रदान करके दूसरोंको भी अपना बना लेनेकी इनमें अद्भुत क्षमता थी| इसलिये भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि, जो पाण्डवोंपर कृपा रखते थे, उनको भी इन्होंने युद्धमें अपने पक्षमें कर लिया| केवल साधुपुरुष धर्मावतार विदुरजी उनके लोभमें नहीं फँसे| इसीलिये दुर्योधन उन्हें अपने शत्रुके रूपमें देखते थे| दुर्योधन गदायुद्धमें अत्यन्त कुशल, महान् तेजस्वी तथा शक्तिशाली योद्धा थे| ये सद्व्यवहारकी महिमा जाननेवाले थे| महाभारतके युद्धमें इनकी सेना सुव्यवस्थित, सुदृढ़ और महान् थी| दुर्योधनके सद्व्यवहारके कारण माद्रीके भाई शल्यने उनके पक्षमें रहना और कर्णका सारथि बनना स्वीकार किया| अश्वत्थामा और कर्णके युद्धको इन्होंने अपनी मृदुवाणीसे बन्द कर दिया| इनकी अमृतमयी वाणीमें धृतराष्ट्र इनके प्रत्येक कार्यमें समर्थन दे देते थे| शान्तिदूत श्रीकृष्णको आकर्षित करनेके लिये दुर्योधनने उनके अपूर्व स्वागत-सत्कारकी व्यवस्था की| वृकस्थलसे हस्तिनापुरतक स्थान-स्थानपर रम्य विश्रामस्थल, रत्नजटित सभास्थल, नाना प्रकारके विचित्र आसन-वसन, अन्न-पान, आहार-विहारकी व्यवस्था भगवान् वासुदेवकी प्रसन्नताके लिये की गयी| किंतु इन सबका लक्ष्य था श्रीकृष्णको अपने पक्षमें करके पाण्डवोंको निर्मूल करना| दुर्योधनने वैरभावकी दीक्षा लेकर भारतमाताके पुत्रोंको युद्धकी प्रज्वलित अग्र्निमें होम कर दिया| अन्तमें सौ भाइयोंके साथ स्वयं भी ये मृत्युके शिकार बने| दूसरेका अनिष्ट चाहकर ये अपना भी हित न कर सके और आनेवाले युगोंके लिये अपना अपयश छोड़ गये|

राज्यसभामें दूतरूपमें आनेवाले श्रीकृष्णकी महिमा धृतराष्ट्रको सुनाकर जब विदुरने उनका सत्कारपूर्वक आतिथ्य करनेकी बात कही, तब अहङ्कारी दुर्योधनने कहा – ‘श्रीकृष्णके विषयमें विदुरजीने जो कुछ कहा है, उसे मैं ठीक मानता हूँ| बुद्धिमान् को ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये, जिससे क्षत्रिय तथा अतिथि-धर्मका अनादर हो| मैं मानता हूँ कि विशाललोचन श्रीकृष्ण तीनों लोकोंमें पूज्यतम हैं, किंतु वे पाण्डवोंके प्रति अनुरक्त हैं| अत: उन्हें नियन्त्रित करना ही ठीक है| यदि वासुदेव पकड़ लिये गये तो सब कार्य अपने-आप सिद्ध हो जाएगा|’ दुर्योधनकी इस बातको सुनकर भीष्मने कहा – ‘धृतराष्ट्र! तुम्हारा यह पुत्र मूर्ख है| यह दुष्ट भगवान् वासुदेवको पकड़नेपर क्षणमात्रमें अपने मन्त्रियोंसहित नाशको प्राप्त हो जायगा|’ इतना कहकर भीष्म वहाँसे उठ गये| भगवान् वासुदेवने दूत बनकर दुर्योधनको भूल-सुधारका एक और अवसर दिया था, किंतु दुर्योधन महान् अहङ्कारी थे| वे न माने| फलत: महाभारतका युद्ध हुआ| दुर्योधनके पक्षके सभी राजा मारे गये और अन्तमें गदायुद्धमें भीमके द्वारा दुर्योधन भी वीरगतिको प्राप्त हुए|

धर्मराज युधिष्ठिर – महाभारत

महाराज युधिष्ठिर धैर्य, क्षमा, सत्यवादिता आदि दिव्य गुणोंके केन्द्र थे| धर्मके अंशसे उत्पन्न होनेके कारण ये धर्मके गूढ़ तत्त्वोंके व्यावहारिक व्याख्याता तथा भगवान् श्रीकृष्णके अनन्य भक्त थे|

बचपनमें ही इनके पिता महात्मा पाण्डु स्वर्गवासी हो गये, तभीसे ये धृतराष्ट्रको अपने पिताके समान मानकर उनकी प्रत्येक आज्ञाका पालन करते थे| अपने सदाचार और विचारशीलताके कारण युधिष्ठिर बचपनमें ही लोकप्रिय हो गये और प्रजा इन्हें अपने भावी राजाके रूपमें देखने लगी| दुर्योधन इनकी लोकप्रियतासे जलता था और पाण्डवोंका पैतृक अधिकार छीनकर स्वयं राजा बनना चाहता था| इसलिये उसने पाण्डवोंको जलाकर मार डालनेके उद्देश्यसे वारणावतमें लाक्षागृहका निर्माण कराया| उसने अपने प्रज्ञाहीन पिताको बहलाकर कुन्तीसहित पाण्डवोंको वारणावत भेजनेका आदेश भी पारित करा लिया| अपने ताऊकी आज्ञा समझकर युधिष्ठिर अपनी माता और अपने भाइयोंके साथ वारणावत चले गये| किसी तरह विदुरकी सहायतासे पाण्डवोंके प्राण बचे| इधर दुर्योधनने हस्तिनापुरके राज्यपर अपना अधिकार कर लिया|

द्रौपदी-स्वयंवरमें पाण्डवोंकी उपस्थितिका समाचार सुनकर धृतराष्ट्रने विदुरको भेजकर उन्हें बुलवा लिया| उन्होंने युधिष्ठिरको आधा राज्य देकर खाण्डवप्रस्थमें रहनेका आदेश दिया| युधिष्ठिरने उनके आदेशको सहर्ष स्वीकार कर लिया और खाण्डवप्रस्थका नाम बदलकर इन्द्रप्रस्थ रखा तथा उसे अपनी राजधानी बनाकर विशाल राजसूययज्ञका आयोजन किया| राजसूययज्ञमें बड़े-बड़े राजाओंने आकर युधिष्ठिरको बहुमूल्य उपहार दिये और उन्हें अपना सम्राट् स्वीकार किया|

दुर्योधन पाण्डवोंके इस उत्कर्षको देखकर ईर्ष्यासे जल उठा और उसने कपट-द्यूतमें छलपूर्वक पाण्डवोंका सर्वस्व हरण कर लिया| कुलवधु द्रौपदीको नग्न करनेका गर्हित कर्म किया गया| अर्जुन और भीम-जैसे योद्धा कुरुकुलका संहार करनेके लिये तैयार बैठे थे; फिर भी धर्मराजने धर्मके नामपर सब कुछ सुन लिया और सह लिया| जिस दुर्योधनने पाण्डवोंका सर्वस्व अपहरण करके उन्हें दर-दरका भिखारी बना दिया, वही जब अपने भाइयों और कुरुकुलकी वधुओंके साथ चित्रसेन गन्धर्वके द्वारा बन्दी बना लिया गया, तब अजातशत्रु युधिष्ठिरने अपने भाइयोंको आक्रमणका आदेश देते हुए कहा – ‘आपसमें विवाद होनेपर कौरव सौ और हम पाँच भाई हैं, परंतु दूसरोंका सामना करनेके लिये तो हमें मिलकर एक सौ पाँच होना चाहिये| पुरुषसिंहो उठो और जाओ! कुलके उद्धारके लिये दुर्योधनको बलपूर्वक छुड़ाकर ले आओ|’ अपने शत्रुके साथ भी इस प्रकारका सद्व्यवहार महाराज युधिष्ठिरकी अजातशत्रुता, धर्मप्रियता और नीतिज्ञताकी सीमा है|

महाराज युधिष्ठिर निष्काम धर्मात्मा थे| एक बार इन्होंने अपने भाइयों और द्रौपदीसे कहा – ‘मैं धर्मका पालन इसलिये नहीं करता कि मुझे उसका फल मिले| फलके लिये धर्माचरण करनेवाले व्यापारी हैं, धार्मिक नहीं|’ वनमें यक्षरूपी धर्मसे इन्होंने अपने छोटे भाई नकुलको जिलानेकी प्रार्थना की| यक्षके यह पूछनेपर कि ‘तुम अर्जुन और भीम-जैसे यौद्धाओंको छोड़कर नकुलको क्यों जिलाना चाहते हो?’ युधिष्ठिरने कहा – ‘मुझे राज्यकी चिन्ता नहीं है| मैं चाहता हूँ कि मेरी कुन्ती और माद्री दोनों माताओंका एक-एक पुत्र जीवित रहे|’ युधिष्ठिरकी इस समबुद्धिपर यक्षने उनके सभी भाइयों जीवित कर दिया| शरणागत कुत्तेके लिये इन्द्रके प्रस्तावको ठुकराते हुए धर्मराजने कहा – ‘जिस स्वर्गके लिये आश्रित शरणागत धर्मका त्याग करना पड़े, मुझे उस स्वर्गकी कोई आवश्यकता नहीं है|’ सच है, धर्मकी वृद्धिके लिये महराज युधिष्ठिरके चरित्रका मनन करना चाहिये|

धृतराष्ट्र – महाभारत

महाभारत धृतराष्ट्र जन्मान्ध थे| वे भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य तथा विदुरकी सलाहसे राज्यका संचालन करते थे| उन्हें कर्तव्याकर्तव्यका ज्ञान था, किंतु पुत्रमोहके कारण बहुधा उनका विवेक अन्धा हो जाता था और वे बाध्य होकर दुर्योधनके अन्यायपूर्ण आचरणका समर्थन करने लगते थे|

जब दुर्योधनके दुष्कर्मका कुफल सामने आता, तब वे तटस्थ होनेका दिखावा करते थे| सत्यास्त्यका विवेक छोड़कर पुत्रके ऊपर अन्धवात्सल्य रखनेवाले पिताजी जो गति होती है, वही गति अन्तमें धृतराष्ट्रकी भी हुई| उन्होंने अपने सामने सौ पुत्रोंकी अति दर्दनाक मृत्यु देखी|

धृतराष्ट्र परोक्षरूपसे पाण्डवोंसे जलते थे| पाण्डवोंके बढ़ते हुए ऐश्वर्य और बलको वे सह नहीं सकते थे| दुर्योधनने पाण्डवोंको छलपूर्वक नीचा दिखानेके उद्देश्य उन्हें जुआ खेलने के लिये बुलाना चाहा और धृतराष्ट्रने बिना सोचे-समझे इसके लिये अनुमति दे दी| जब विदुरने जुआ खेलने के दोषों और परिणामको बताकर इस दुष्कृत्यका विरोध किया, तब धृतराष्ट्रने कहा – ‘विदुर! यहाँ मैं, भीष्म तथा सभी लोग हैं| दैवने ही द्युतका निर्माण किया है| इसलिये हम इसमें कुछ नहीं कर सकते| मैं दैवको ही बलवान् मानता हूँ और उसीके द्वारा ये सब कुछ हो रहा है|’ द्यूतमें जब द्रौपदी दावँपर रखी गयी, तब भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य और विदुरके सहित सारी सभा स्तब्ध रह गयी, पर धृतराष्ट्र बहुत प्रसन्न हुए और बार-बार पूछने लगे – ‘कौन जीता, कौन जीता!!’ धृतराष्ट्रके लिये इससे बड़ी निन्दनीय बात और क्या हो सकती थी| यदि सर्वसंहारक महाभारत-युद्धका मुख्य कारण धृतराष्ट्रको मानें तो इसमें कोई गलती नहीं है; क्योंकि यदि वे भीष्म, विदुर आदिकी बात मानकर दुर्योधनको नियन्त्रित करते तो महाभारतके महायुद्धको रोका जा सकता था|

महाभारतके कई स्थलोंपर धृतराष्ट्रमें मानवताके उत्कृष्ट रूपका भी दर्शन होता है| द्रौपदीके साथ पाण्डवोंके विवाहकी बात सुनकर धृतराष्ट्रने अहोभाग्य! अहोभाग्य!! कहकर आनन्द प्रदर्शित किया तथा विदुरको भेजकर पाण्डवोंको बुलवाया| पाण्डवोंसे मिलकर उनमें आत्मीयता जाग्रत् हुई| उन्होंने युधिष्ठिरसे कहा – ‘मेरे दुरात्मा पुत्र दम्भ और अहंकारसे भरे हैं| वे मेरा कहना नहीं मानते हैं| इसलिये तुम आधा राज्य लेकर खाण्डवप्रस्थमें निवास करो|’ भगवान् श्रीकृष्णने भी धृतराष्ट्रके इस विचारको सर्वथा उत्तम तथा कौरवोंकी यशवृद्धि करनेवाला बतलाया|

सभापर्वमें महाराज धृतराष्ट्रने द्रौपदीके संदर्भमें दुर्योधनको फटकारा और द्रौपदीको सान्त्वना देते हुए कहा – ‘बहू द्रौपदी! तुम मेरी पुत्र-वधुओंमें सर्वश्रेष्ठ और धर्मपरायणा सती हो| तुम्हारी जो इच्छा हो मुझसे वर माँग लो|’ यह सुनकर द्रौपदीने युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेवको दासभावसे मुक्त करा लिया| महाराज धृतराष्ट्र भगवान् श्रीकृष्णके अन्तरंग भक्त भी थे| इसीलिये उन्होंने अन्धे होते हुए भी भगवत्कृपासे दिव्यदृष्टि प्राप्त करके राजसभामें भगवान् के दिव्यरूपका दर्शन किया था, जो सौभाग्य संसारमें विरले ही प्राप्त करते हैं| वे केवल पुत्रमोहमें पड़कर दुर्योधनके अन्यायोंका निराकरण न करनेके कारण ही दोषके भागी बने| युद्धके अन्तमें कुछ दिन हस्तिनापुरमें रहनेके बाद उन्होंने अपने जीवनका शेष समय अपनी पत्नी गान्धारीके साथ भगवान् की आराधनामें व्यतीत किया| महाराज धृतराष्ट्रने अन्तमें दावान्गिमें भस्म होकर अपने अनित्य देहका त्याग किया|

पतिव्रता गान्धारी – महाभारत

संसारकी पतिव्रता देवियोंमें गान्धारीका विशेष स्थान है| ये गन्धर्वराज सुबलकी पुत्री और शकुनिकी बहन थीं| इन्होंने कौमार्यावस्थामें भगवान् शंकरकी आराधना करके उनसे सौ पुत्रोंका वरदान प्राप्त किया था|

जब इनका विवाह नेत्रहीन धृतराष्ट्रसे हुआ, तभीसे इन्होंने अपनी आँखोंपर पट्टी बाँध ली| इन्होंने सोचा कि जब हमारे पति नेत्रहीन हैं, तब मुझे भी संसारको देखनेका अधिकार नहीं है| पतिके लिये इन्द्रियसुखके त्यागका ऐसा उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता| इन्होंने ससुरालमें आते ही अपने श्रेष्ठ आचरणसे पति एवं उनके परिवारको मुग्ध कर दिया|

देवी गान्धारी पतिव्रता होनेके साथ अत्यन्त निर्भीक और न्यायप्रिय महिला थीं| इनके पुत्रोंने जब भरी सभामें द्रौपदीके साथ अत्याचार किया, तब इन्होंने दु:खी होकर उसका खुला विरोध किया| जब इनके पति महाराज धृतराष्ट्रने दुर्योधनकी बातोंमें आकर पाण्डवोंको दुबारा द्यूतके लिये आमन्त्रित किया, तब इन्होंने जुएका विरोध करते हुए अपने पतिदेवसे कहा – ‘स्वामी! दुर्योधन जन्म लेते ही गीदड़की तरहसे रोया था| उसी समय परम ज्ञानी विदुरजीने उसका त्याग कर देनेकी सलाह दी थी| मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह कुल-कलङ्क कुरुवंशका नाश करके ही छोड़ेगा| आप अपने दोषोंसे सबको विपत्तिमें मत डालिये| इन ढीठ मूर्खोंकी हाँ-में-हाँ मिलाकर इस वंशके नाशका कारण मत बनिये| कुलकलङ्क दुर्योधनको त्यागना ही श्रेयस्कर है| मैंने मोहवश उस समय विदुरकी बात नहीं मानी, उसीका यह फल है| राज्यलक्ष्मी क्रूरके हाथमें पड़कर उसीका सत्यानाश कर देती हैं| बिना विचारे काम करना आपके लिये बड़ा दु:खदायी सिद्ध होगा|’ गान्धारीकी इस सलाहमें धर्म, नीति और निष्पक्षताका अनुपम समन्वय है|

जब भगवान् श्रीकृष्ण सन्धिदूत बनकर हस्तिनापुर गये और दुर्योधनने उनके प्रस्तावको ठुकरा दिया तथा बिना युद्धके सूईके अग्रभर भी जमीन देना स्वीकार नहीं किया| इसके बाद गान्धारीने उसको समझाते हुए कहा – ‘बेटा! मेरी बात ध्यानसे सुनो| भगवान् श्रीकृष्ण, भीष्म, द्रोणाचार्य तथा विदुरजीने जो बातें तुमसे कहीं हैं, उन्हें स्वीकार करनेमें ही तुम्हारा हित है| जिस प्रकार उद्दण्ड घोड़े मार्गमें मूर्ख सारथिको मार डालते हैं, उसी प्रकार यदि इन्द्रियोंको वशमें न रखा जाय तो मनुष्यका सर्वनाश हो जाता है| इन्द्रियाँ जिसके वशमें हैं, उसके पास राज्यलक्ष्मी चिरकालतक सुरक्षित रहती हैं| भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनको कोई नहीं जीत सकता| तुम श्रीकृष्णकी शरण लो| पाण्डवोंका न्यायोचित भाग तुम उन्हें दे दो और उनसे सन्धि कर लो| इसीमें दोनों पक्षोंका हित है| युद्ध करनेमें कल्याण नहीं है|’ दुष्ट दुर्योधनने गान्धारीके इस उत्तम उपदेशपर ध्यान नहीं दिया, जिसके कारण महाभारतके युद्धमें कौरवपक्षका संहार हुआ|

देवी गान्धारीने कुरुक्षेत्रकी भूमिमें जाकर वहाँ महाभारतके महायुद्धका विनाशकारी परिणाम देखा| उनके सौ पुत्रोंमेंसे एक भी पुत्र शेष नहीं बचा| पाण्डव तो किसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्णकी कृपासे गान्धारीके क्रोधसे बच गये, किंतु भावीवश भगवान् श्रीकृष्णको उनके शापको शिरोधार्य करना पड़ा और यदुवंशका परस्पर कलहके कारण महाविनाश हुआ| महाराज युधिष्ठिरके राज्याभिषेकके बाद देवी गान्धारी कुछ समयतक पाण्डवोंके साथ रहीं और अन्तमें अपने पतिके साथ तपस्या करनेके लिये वनमें चली गयीं| उन्होंने अपने पतिके साथ अपने शरीरको दावान्गिमें भस्म कर डाला| गान्धारीने इस लोकमें पतिसेवा करके परलोकमें भी पतिका सान्निध्य प्राप्त किया| वे अपने नश्वर देहको छोड़कर अपने पतिके साथ ही कुबेरके लोकमें गयीं| पतिव्रता नारियोंके लिये गान्धारीका चरित्र अनुपम शिक्षाका विषय है|

भगवान् वेदव्यास – महाभारत

भगवान् वेदव्यास एक अलौकिक शक्तिसम्पन्न महापुरुष थे| इनके पिताका नाम महर्षि पराशर और माताका नाम सत्यवती था| इनका जन्म एक द्वीपके अन्दर हुआ था और वर्ण श्याम था, अत: इनका एक नाम कृष्णद्वैपायन भी है|

वेदोंका विस्तार करनेके कारण ये वेदव्यास तथा बदरीवनमें निवास करने कारण बादरायण भी कहे जाते हैं| इन्होंने वेदोंके विस्तारके साथ महाभारत, अठारह महापुराणों तथा ब्रह्मसूत्रका भी प्रणयन किया| शास्त्रोंकी ऐसी मान्यता है कि भगवान् ने चौबीस अवतारोमें की जाती है| व्यासस्मृतिके नामसे इनके द्वारा प्रणीत एक स्मृतिग्रन्थ भी है| भारतीय वाड्मय एवं हिन्दू-संस्कृति व्यासजीकी ऋणी है| संसारमें जबतक हिन्दू-जाति एवं भारतीय संस्कृति जीवित है, तबतक व्यासजीका नाम अमर रहेगा|

महर्षि व्यास त्रिकालदर्शी थे| जब पाण्डव एकचक्रा नगरीमें निवास कर रहे थे, तब व्यासजी उनसे मिलने आये| उन्होंने पाण्डवोंको द्रौपदीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त सुनाकर कहा कि ‘यह कन्या विधाताके द्वारा तुम्हीं लोगोंके लिये बनायी गयी है, अत: तुम लोगोंको द्रौपदी-स्वयंवरमें सम्मिलित होनेके लिये अब पाञ्चालनगरीकी ओर जाना चाहिये|’ महाराज द्रुपदको भी इन्होंने द्रौपदीके पूर्वजन्मकी बात बताकर उन्हें द्रौपदीका पाँचों पाण्डवोंसे विवाह करनेकी प्रेरणा दी थी|

महाराज युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञके अवसरपर व्यासजी अपने शिष्योंके साथ इन्द्रप्रस्थ पधारे| वहाँ इन्होंने युधिष्ठिरको बताया कि – ‘आजसे तेरह वर्ष बाद क्षत्रियोंका महासंहार होगा, उसमें दुर्योधनके विनाशमें तुम्हीं निमित्त बनोगे|’ पाण्डवोंके वनवासकालमें भी जब दुर्योधन दु:शासन तथा शकुनिकी सलाहसे उन्हें मार डालनेकी योजना बना रहा था, तब व्यासजीने अपनी दिव्य दृष्टिसे उसे जान लिया| इन्होंने तत्काल पहुँचकर कौरवोंको इस दुष्कृत्यसे निवृत्त किया| इन्होंने धृतराष्ट्रको समझाते हुए कहा – ‘तुमने जुएमें पाण्डवोंका सर्वस्व छीनकर और उन्हें वन भेजकर अच्छा नहीं किया| दुरात्मा दुर्योधन पाण्डवोंको मार डालना चाहता है| तुम अपने लाडले बेटेको इस कामसे रोको, अन्यथा इसे पाण्डवोंके हाथसे मरनेसे कोई नहीं बचा पायगा|’

भगवान् व्यासजीने सञ्जयको दिव्य दृष्टि प्रदान की, जिससे युद्ध-दर्शनके साथ उनमें भगवान् के विश्वरूप एवं दिव्य चतुर्भुजरूपके दर्शनकी भी योग्यता आ गयी| उन्होंने कुरुक्षेत्रकी युद्धभूमिमें भगवान् श्रीकृष्णके मुखारविन्दसे नि:सृत श्रीमभ्दगवद्रीताका श्रवण किया, जिसे अर्जुनके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं सुन पाया|

एक बार जब धृतराष्ट्र वनमें रहते थे, तब महाराज युधिष्ठिर अपने परिवारसहित उनसे मिलने गये| व्यासजी भी वहाँ आये| धृतराष्ट्रने उनसे जानना चाहा कि महाभारतके युद्धमें मारेगये वीरोंकी क्या गति हुई? उन्होंने व्यासजीसे एक बार अपने मरे हुए सम्बन्धियोंका दर्शन करानेकी प्रार्थना की| धृतराष्ट्रके प्रार्थना करनेपर व्यासजीने अपनी अलौकिक शक्तिके प्रभावसे गङ्गजीमें खड़े होकर युद्धमें मरे हुए वीरोंका आवाहन किया और युधिष्ठिर, कुन्ती तथा धृतराष्ट्रके सभी सम्बन्धियोंका दर्शन कराया| वैशम्पायनके मुखसे इस अद्भुत वृत्तान्तको सुनकर राजा जनमेजयके मनमें भी अपनी पिता महाराज परीक्षित् का दर्शन करने की लालसा पैदा हुई| व्यासजी वहाँ उपस्थित थे| उन्होंने महाराज परीक्षित् को वहाँ बुला दिया| जनमेजयने यज्ञान्त स्नानके समय अपने पिताको भी स्नान कराया| तदनन्तर महाराज परीक्षित् वहाँसे चले गये| अलौकिक शक्तिसे सम्पन्न तथा महाभारतके रचयिता महर्षि व्यासके चरणोंमें शत-शत नमन है|

भगवान् श्रीकृष्ण – महाभारत

महाभारत धर्म, अर्थ, काम और मोक्षको प्रदान करनेवाला कल्पवृक्ष है| यह विविध कथारूपी रत्नोंका तथा अज्ञानके अन्धकारको विनष्ट करनेवाला सूर्य है| इस ग्रन्थके मुख्य विषय तथा इस महायुद्धके महानायक भगवान् श्रीकृष्ण हैं|

नि:शस्त्र होते हुए भी भगवान् श्रीकृष्ण ही महाभारतके प्रधान योद्धा हैं| इसलिये सम्पूर्ण महाभारत भगवान् वासुदेवके ही नाम, रूप, लीला और धामका संकीर्तन है| नारायणके नामसे इस ग्रन्थके मङ्गलाचरणमें व्यासजीने सवर्प्रथम भगवान् श्रीकृष्णकी ही वन्दना की है|

महाभारतके आदिपर्वमें भगवान् श्रीकृष्णका प्रथम दर्शन द्रौपदी-स्वयंवरके अवसरपर होता है| जब अर्जुनके लक्ष्यवेध करनेपर द्रौपदी उनके गलेमें जयमाला डालती है तब कौरवपक्षके लोग तथा अन्य राजा मिलकर द्रौपदीको पानेके लिये युद्धकी योजना बनाते हैं| उस समय भगवान् श्रीकृष्णने उनको समझाते हुए कहा कि ‘इन लोगोंने द्रौपदीको धर्मपूर्वक प्राप्त किया है, अत: आप लोगोंको अकारण उत्तेजित नहीं होना चाहिये|’ भगवान् श्रीकृष्णको धर्मका पक्ष लेते हुए देखकर सभी लोग शान्त हो गये और द्रौपदीके साथ पाण्डव सकुशल अपने निवासपर चले गये|

धर्मराज युधिष्ठिरके राजसूययज्ञमें जब यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि यहाँ सर्वप्रथम किसकी पूजा की जाय तो उस समय महात्मा भीष्मने कहा कि ‘वासुदेव ही इस विश्वके उत्पत्ति एवं प्रलयस्वरूप हैं और इस चराचर जगत्का अस्तित्व उन्हींसे है| वासुदेव ही अव्यक्त प्रकृति, सनातन कर्ता और समस्त प्राणियोंके अधीश्वर हैं, अतएव वे ही प्रथम पूजनीय हैं|’ भीस्मके इस कथनपर चेदिराज शिशुपालने श्रीकृष्णकी प्रथम पूजाका विरोध करते हुए उनकी कठोर निन्दा की और भीष्मपितामहको भी खरी-खोटी सुनायी| भगवान् श्रीकृष्ण धैर्यपूर्वक उसकी कठोर बातोंको सहते रहे और जब वह सीमा पार करने लगा, तब उन्होंने सुदर्शन चक्रके द्वारा उसका सिर धड़से अलग कर दिया| सबके देखते-देखते शिशुपालके शरीरसे एक दिव्य तेज निकला और भगवान् श्रीकृष्णमें समा गया| इस अलौकिक घटनासे यह सिद्ध होता है कि कोई कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो, भगवान्के हाथों मरकर वह सायुज्य मुक्ति प्राप्त करता है|

पाण्डवोंके एकमात्र रक्षक तो भगवान् श्रीकृष्ण ही थे, उन्हींकी कृपा और युक्तिसे ही भीमसेनके द्वारा जरासन्ध मारा गया और युधिष्ठिरका राजसूययज्ञ सम्पन्न हुआ| राजसूययज्ञका दिव्य सभागार भी मयदानवने भगवान् श्रीकृष्णके आदेशसे ही बनाया| द्यूतमें पराजित हुए पाण्डवोंकी पत्नी द्रौपदी जब भरी सभामें दु:शासनके द्वारा नग्न की जा रही थी, तब उसकी करुण पुकार सुनकर उस वनमालीने वस्त्रावतार धारण किया| शाकका एक पत्ता खाकर भक्तभयहारी भगवान् ने दुर्वासाके कोपसे पाण्डवोंकी रक्षा की|

युद्धको रोकनेके लिये श्रीकृष्ण शान्तिदूत बने, किंतु दुर्योधनके अहंकारके कारण युद्धारम्भ हुआ और राजसूययज्ञके अग्रपूज्य भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुनके सारथि बने| संग्रामभूमिमें उन्होंने अर्जुनके माध्यमसे विश्र्वको गीतारूपी दुलर्भ रत्न प्रदान किया| भीष्म, द्रोण, कर्ण और अश्र्वत्थामा – जैसे महारथियोंके दिव्यास्त्रोंसे उन्होंने पाण्डवोंकी रक्षा की| युद्धका अन्त हुआ और युधिष्ठिरका धर्मराज्य स्थापित हुआ| पाण्डवोंका एकमात्र वशंधर उत्तराका पुत्र परीक्षित् अश्र्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रके प्रभावसे मृत उत्पन्न हुआ, किंतु भगवान् श्रीकृष्णकी कृपासे ही उसे जीवनदान मिला| अन्तमें गान्धारीके शापको स्वीकार करके महाभारतके महानायक भगवान् श्रीकृष्णने उद्दण्ड यादवकुलके परस्पर गृहयुद्धमें संहारके साथ अपनी मानवी लीलाका संवरण किया|

महाबली भीम – महाभारत

महाभारतके अद्वितीय योद्धा महाबली भीमकी बल और पौरुषमें तुलना करनेवाला उस समय कोई नहीं था| इनका जन्म वायुदेवके अंशसे हुआ था| इनके जन्मके समय यह आकाशवाणी हुई थी कि यह कुमार बलवानोंमें सर्वश्रेष्ठ होगा|

वस्तुत: भीमसेन शारीरिक बलमें अपने युगके सर्वश्रेष्ठ योद्धा थे| बचपनमें खेल-खेलमें ये धृतराष्ट्रके पुत्रोंको बार-बार पराजित कर दिया करते थे| दुर्योधन इनसे विशेष जलन रखता था| एक दिन वह जलक्रीड़ाके बहाने पाण्डवोंको गङ्गतटपर ले गया| वहाँ उसने भीमको मार डालनेके उद्देश्यसे उनके भोजनमें कालकूट विष मिलाकर खिला दिया| विषके प्रभावसे अचेत हो जानेपर दुर्योधनने उन्हें लतओंसे बाँधकर गङ्गजीमें डाल दिया| जलमें डूबकर बेहोशीकी दशामें वे नागलोक पहुँच गये| वहाँ नागोंके डँसनेसे कालकूटका प्रभाव समाप्त हो गया और भीमसेन होशमें आ गये| उन्होंने सर्पोंको मारना शुरू कर दिया| सर्पोंने उनकी शिकायत नागराज वासुकिसे की, तब नागराज वासुकिके साथ आर्यक भी भीमको देखनेके लिये आये| आर्यक कुन्तीके पिता शूरसेनके नाना थे| अपने दौहित्रके दौहित्र भीमसेनको पहचानकर उन्हें विशेष प्रसन्नता हुई| भीमसेनको उन्होंने वहाँके कुण्डोंका अमृत-रस पिलाकर दस हजार हाथियोंका बल प्रदान कर दिया| महाबलवान् एवं अद्भुत पराक्रमी भीमसेन अपनी माता और भाइयोंके बहुत काम आते थे| वारणावतके लाक्षागृहसे निकलनेपर जब इनकी हिडिम्ब राक्षससे मुठभेड़ हुई तो इन्होंने खेल-ही-खेलमें उस पराक्रमी राक्षसका वध कर डाला और उसके भयसे अपने परिवारकी रक्षा की|

भीमसेनकी यह विशेषता थी कि ये अन्याय होते देखकर उसका प्रतिकार करनेके लिये तुरन्त तैयार हो जाते थे| अपने प्राणको खतरेमें डालकर दूसरोंको कष्टसे मुक्ति दिलाना इनकी सहज स्वभाव था| दस हजार हाथियोंका बल रखनेपर भी ये किसीके प्रति अत्याचार नहीं करते थे| अपनी माता तथा बड़े भाई महाराज युधिष्ठिरके ये अत्यन्त ही आज्ञाकारी थे| एकचक्रा नगरीमें माता कुन्तीके आदेशसे अत्याचारी बकासुरका वध करके इन्होंने समाजको उसके भयसे मुक्ति दिलायी| वीरताकी तो ये प्रतिमूर्ति थे| भगवान् श्रीकृष्णके साथ जाकर इन्होंने प्रबल पराक्रमी जरासन्धका मल्लयुद्धमें वध किया| द्रौपदीके चीरहरणके प्रसंगमें दु:शासनके दुष्कृत्यको देखकर इन्होंने क्रोधमें आकर सभी कौरवोंको युद्धमें मार डालने तथा दु:शासनको मारकर उसका रक्तपान करनेकी प्रतिज्ञा कर डाली और उस प्रणका निर्वाह भी किया| भीमसेन अद्भुत योद्धा होनेके साथ नीतिशास्त्रके भी अच्छे ज्ञाता थे| उनकी नीतिज्ञताका पता उस समय चलता है जब भगवान् श्रीकृष्ण सन्धिदूत बनकर कौरव-सभाकी ओर प्रस्थान कर रहे थे| उस समय भीमसेनने कहा – ‘मधुसूदन! कौरवोंके बीचमें आप ऐसी बात करें, जिससे शान्ति स्थापित हो जाय| दुर्योधन दुरात्मा और दुराग्रही है| वह मर जायगा, पर झुकना नहीं स्वीकार करेगा| वहाँ आपका कथन धर्म-अर्थसे युक्त, कल्याणकारी और प्रिय होना चाहिये|’

धृतराष्ट्रने भीमकी वीरताका वर्णन करते हुए कहा है कि ‘महाबाहु भीम इन्द्रके समान तेजस्वी हैं| मैं अपनी सेनामें युद्धमें उनका सामना करनेवाला किसीको भी नहीं देखता| वे अस्त्रविद्यामें द्रोणके समान, वेगमें वायुके समान और क्रोधमें महेश्वरके तुल्य हैं|’ धृतराष्ट्रका यह कथन सर्वथा सत्य है| भीमसेन महाभारतके अद्वितीय योद्धा थे| महाभारतके युद्धमें उन्होंने अद्भुत पराक्रमका प्रदर्शन किया| अन्तमें दुर्योधनको गदायुद्धमें परास्त करके इन्होंने पाण्डवोंके लिये विजयश्री प्राप्त की|

महारानी कुन्ती – महाभारत

हमारे यहाँ शास्त्रोंमें अहल्या, मन्दोदरी, तारा, कुन्ती और द्रौपदी – ये पाँचों देवियाँ नित्य कन्याएँ कही गयी हैं| इनका नित्य स्मरण करनेसे मनुष्य पापमुक्त हो जाता है| महारानी कुन्ती वसुदेवजीकी बहन और भगवान् श्रीकृष्णकी बुआ थीं|

जन्मसे लोग इन्हें पृथाके नामसे पुकारते थे| ये महाराज कुन्तीभोजको गोद दे दी गयी थीं तथा वहीं इनका लालन-पालन हुआ| अत: कुन्तीके नामसे विख्यात हुईं| ये बाल्यकालसे ही अतिथिसेवी तथा साधु-महात्माओंमें अत्यन्त आस्था रखनेवाली थीं| एक बार महर्षि दुर्वासा महाराज कुन्तीभोजके यहाँ आये और बरसातके चार महीनोंतक वहीं ठहर गये| उनकी सेवाका कार्य कुन्तीने सँभाला| महर्षि कुन्तीकी अनन्य निष्ठा और सेवासे परम प्रसन्न हुए और जाते समय कुन्तीको देवताओंके आवाहनका मन्त्र दे गये| उन्होंने कहा कि ‘संतान-कामनासे तुम जिस देवताका आवाहन करोगी, वह अपने दिव्य तेजसे तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जायगा और उससे तुम्हारा कन्याभाव भी नष्ट नहीं होगा|’ दुर्वासाके चले जानेके बाद इन्होंने कुतूहलवश भगवान् सूर्यका आवाहन किया| फलस्वरूप सूर्यदेवके द्वारा कर्णकी उत्पत्ति हुई| लोकापवादके भयके कारण इन्होंने नवजात कर्णको पेटिकामें बन्द करके नदीमें डाल दिया| वह पेटिका नदीमें स्नान करते समय अधिरथ नामके सारथिको मिली| उसने कर्णका लालन-पालन किया|

कुन्तीका विवाह महाराज पाण्डुसे हुआ था| एक बार महाराज पाण्डुके द्वारा मृगरूपधारी किन्दम मुनिकी हिंसा हो गयी| मुनिने मरते समय उन्हें शाप दे दिया| इस घटनाके बाद महाराज पाण्डुने सब कुछ त्यागकर वनमें रहनेका निश्चय किया| महारानी कुन्ती भी पतिसेवाके लिये वनमें चली गयीं| पतिके आदेशसे कुन्तीने धर्म, पवन और इन्द्रका आवाहन किया, जिससे युधिष्ठिर, भीम और अर्जुनकी उत्पत्ति हुई| अपनी सौत माद्रीको भी इन्होंने अश्विनीकुमारोंके आवाहनका मन्त्र बतलाकर उन्हें नकुल और सहदेवकी माता बननेका सौभाग्य प्रदान किया| महाराज पाण्डुके शरीरान्त होनेके बाद माद्री तो उनके साथ सती हो गयी, किंतु कुन्ती बच्चोंके पालन-पोषणके लिये जीवित रह गयीं|

जब दुर्योधनने पाँचों पाण्डवोंको लाक्षागृहमें भस्म करानेका कुचक्र रचा, तब माता कुन्ती भी उनके साथ थीं| पाण्डवोंपर यह अत्यन्त विपत्तिका काल था| माता कुन्ती सब प्रकारसे उनकी रक्षा करती थीं| दयावती तो वे इतनी थीं कि अपने शरण देनेवाले ब्राह्मण-परिवारकी रक्षाके लिये उन्होंने अपने प्रिय पुत्र भीमको राक्षसका भोजन लेकर भेज दिया और भीमने राक्षसको यमलोक भेजकर पुरवासियोंको सुखी कर दिया| पाण्डवोंका वनवासकाल बीत जानेके बाद जब दुर्योधनने उन्हें सूईके अग्रभागके बराबर भी भूमि देना स्वीकार नहीं किया तो माता कुन्तीने भगवान श्रीकृष्णके द्वारा अपने पुत्रोंको आदेश दिया – क्षत्राणी जिस समयके लिये अपने पुत्रोंको जन्म देती है, वह समय अब आ गया है| पाण्डवोंको युद्धके द्वारा अपना अधिकार प्राप्त करना चाहिये|’

पाण्डवोंकी विजय हुई, किंतु वीरमाता कुन्तीने राज्यभोगमें सम्मिलित न होकर धृतराष्ट्र और गान्धारीके साथ वनमें तपस्वी-जीवन बिताना स्वीकार किया| कुन्तीके वन जाते समय भीमसेनने कहा कि ‘यदि आपको अन्तमें जाकर वनमें तपस्या ही करनी थी तो आपने हमलोगोंको युद्धके लिये प्रेरित करके इतना बड़ा नरसंहार क्यों करवाया?’ इसपर कुन्तीदेवीने कहा – ‘तुम लोग क्षत्रियधर्मका त्याग करके अपमानपूर्ण जीवन न व्यतीत करो, इसलिये हमने तुम्हें युद्धके लिये उकसाया था; अपने सुखके लिये नहीं|’ भगवान् के निरन्तर स्मरणके लिये उनसे विपत्तिपूर्ण जीवनकी याचना करनेवाली माता कुन्ती धन्य हैं|

महारानी द्रौपदी – महाभारत

महारानी द्रौपदीकी उत्पत्ति यज्ञकुण्डसे हुई थी| ये महराज द्रुपदकी अयोनिजा कन्या थीं| इनका शरीर कृष्णवर्णके कमलके जैसा कोमल और सुन्दर था, अत: इन्हें ‘कृष्णा’ भी कहा जाता था| इनका रूप और लावण्य अनुपम एवं अद्वितीय था|

इनके जन्मके समय आकाशवाणी हुई थी – ‘देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये एवं उन्मत्त क्षत्रियोंके संहारके लिये ही इस रमणीरत्नका जन्म हुआ है| इसके द्वारा कौरवोंको बड़ा भय होगा|’ स्वयंवरमें अर्जुनके द्वारा लक्ष्यभेद करनेपर द्रौपदी पाण्डवोंको प्राप्त हुईं| कई दैवी कारणोंसे द्रौपदी पाँचों पाण्डवोंकी पत्नी हुईं| ये पाँचों पाण्डवोंको अपने शील, स्वभाव और प्रेममय व्यवहारसे प्रसन्न रखती थीं|

जब कपटसे द्यूतमें महाराज युधिष्ठिर अपने राजपाट, धन-वैभव तथा स्वयंके साथ द्रौपदी-तकको हार गये, तब दु:शासन दुर्योधनके आदेशसे द्रौपदीको एकवस्त्रावस्थामें खींचकर भरी सभामें ले आया| सभामें रोते-रोते द्रौपदीने सभासदोंसे अपनी रक्षा के लिये प्रार्थना की| दुष्ट दु:शासन उन्हें भरी सभामें नग्न करना चाहता था| भीष्म, द्रोणने अपनी आँखें मूँद लीं, विदुर सभासे उठकर चले गये| जब द्रौपदी चारों ओरसे निराश हो गयीं, तब उन्होंने आर्तस्वरमें भगवान् श्रीकृष्णको पुकारा| ‘हे कृष्ण, हे गोविन्द! क्या तुम नहीं जानते कि मैं कौरवोंके द्वारा अपमानित हो रही हूँ| कौरवरूपी समुद्रमें डूबती हुई मुझ अबलाका उद्धार करो| कौरवोंके बीच विपन्नावस्थाको प्राप्त मुझ शरणागतकी रक्षा करो|’ भक्तके लिये भगवान् को वस्त्रावतार लेना पड़ा और दस हजार हाथियोंके बलवाला दु:शासन साड़ी खींचते-खींचते थक गया, किंतु साड़ी का अन्त नहीं मिला और द्रौपदीकी लाज बच गयी| जिसके रक्षक नन्दनन्दन भगवान् श्यामसुन्दर हों, उसका भला कोई क्या बिगाड़ सकता है!

एक बार दुर्योधनकी प्रेरणासे सरल हृदय महक्रोधी महर्षि दुर्वासा अपने दस हजार शिष्योंके साथ वनमें महाराज युधिष्ठिरके पास पहुँचे| दुर्योधनने सोचा कि इतने अधिक अतिथियोंका जंगलमें धर्मराज युधिष्ठिर आतिथ्य न कर सकेंगे, फलत: उन्हें दुर्वासाकी क्रोधाग्निमें जलकर भस्म होना पड़ेगा और हमारा राज्य निष्कण्टक हो जायगा|

जंगलमें भगवान् सूर्यकी कृपासे द्रौपदीको एक बटलोई प्राप्त हुई थी, उसमें यह गुण था कि जबतक द्रौपदी भोजन न कर ले, तबतक कितने भी अतिथियोंको भोजन कराया जाय, वह पात्र अक्षय बना रहता था| दुर्योधनके कहनेपर दुर्वासा ठीक उस समय पहुँचे जब द्रौपदी सबको भोजन करानेके बाद स्वयं भी भोजन करके बर्तन मल चुकी थीं| धर्मराजने क्रोधी दुर्वासाका स्वागत किया और उन्हें शिष्योंसहित भोजनके लिये आमन्त्रित कर दिया| दुर्वासा भोजन तैयार करनेमें शीघ्रता करनेके लिये कहकर नदीमें स्नान करनेके लिये चले गये| द्रौपदीको मात्र भगवान् द्वारकेशका सहारा था| उन्होंने आर्तस्वरमें इस भयंकर विपत्तिसे त्राण पानेके लिये उन्हींको पुकारा| भक्तभयहारी भगवान् उसी क्षण द्रौपदीके समक्ष प्रकट हो गये और उन्होंने बटलोईमें लगा हुआ शाकका एक पता खाकर विश्वको तृप्त कर दिया| दुर्वासाको अपनी शिष्य मण्डलीके साथ बिना बताये पलायन करना पड़ा और पाण्डवोंकी रक्षा हुई|

महारानी द्रौपदी वनवास और राज्यकाल दोनों समय अपने पतियोंकी छाया बनकर उनके दु:ख-सुखकी संगिनी रहीं| किसीको कभी भी शिकायतका अवसर नहीं मिला| उन्होंने अपने पुत्रघाती गुरुपुत्र अश्वत्थामाको क्षमादान देकर दया और उदारताका अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया| इस प्रकार महारानी द्रौपदीका चरित्र पातिव्रत्य, दया और भगवद्भक्तिका अनुपम उदाहरण है|

महावीर अभिमन्यु – महाभारत

अर्जुन एवं सुभद्राका पुत्र अभिमन्यु महाभारत महाकाव्यका अद्भुत पात्र है| भगवान् श्रीकृष्णका यह भानजा अर्जुनके समान ही श्रेष्ठ धनुर्धर था| यह वीर्यमें युधिष्ठिरके समान, आचारमें श्रीकृष्णके समान, भयंकर कर्म करनेवालोंमें भीमके समान, विद्या-पराक्रममें अर्जुनके समान तथा विनयमें नकुल और सहदेवके समान था| अभिमन्युका विवाह महाराज विराटकी पुत्री उत्तराके साथ हुआ था|

महाभारतके युद्धमें भीष्मके बाद द्रोणाचार्य कौरव-सेनाके सेनापति बनाये गये| दुर्योधनके उकसानेपर उन्होंने अर्जुनकी अनुपस्थितिमें चक्रव्यूहका निर्माण कर डाला, जिसे अर्जुनके अतिरिक्त कोई तोड़ नहीं सकता था| महाराज युधिष्ठिर इस आसन्न संकटको देखकर निराश और दु:खी होकर बैठे थे| अपने पक्षके लोगोंको हताश देखकर सुभद्राकुमार अभिमन्युने कहा – ‘महाराज! आप चिन्ता न करें| आचार्यने सोचा होगा कि अर्जुन आज दूर हैं, चक्रव्यूह रचाकर पाण्डवोंपर विजय पायें, किंतु मेरे रहते उनकी यह मनोकामना कभी पूर्ण नहीं होगी| मैं कल अकेला ही इस व्यूहका भेदन करके कौरवोंका मान-मर्दन करूँगा|’

युधिष्ठिरने पूछा – ‘बेटा! पहले यह बताओ कि तुम चक्रव्यूह-भेदनकी क्रिया जानते हो| अर्जुनकी यह दिव्य विद्या तुम्हारे साथ कैसे आयी?’ अभिमन्युने बताया – ‘बात उस समयकी है, जब मैं माताके गर्भमें था| एक बार उन्हें निद्रा नहीं आ रही थी और उनकी तबीयत घबरा रही थी| पिताजी उनका मन बहलानेके लिये उन्हें चक्रव्यूह-भेदनकी कला बतलाने लगे| उन्होंने चक्रव्यूहके छ: द्वार तोड़नेतककी बात बतायी थी, किंतु आगे माताजीको निद्रा आ गयी और पिताजीने सुनाना बन्द कर दिया| अत: मैं चक्रव्यूहमें प्रवेश करके उसके छ: द्वार तोड़ सकता हूँ, किंतु सातवाँ द्वार तोड़कर निकलनेकी विद्या मुझे नहीं आती|’ इसपर भीमसेनने कहा कि सातवाँ द्वार तो मैं अपनी गदासे ही तोड़ दूँगा|

दूसरे दिन प्रात:काल युद्ध आरम्भ हुआ| चक्रव्यूहके मुख्य द्वारका रक्षक जयद्रथ था| जयद्रथने अर्जुनके अतिरिक्त शेष पाण्डवोंको जीतनेका भगवान् शंकरसे वरदान प्राप्त किया था| अभिमन्युने अपनी बाण-वर्षासे जयद्रथको मूर्च्छित कर दिया और व्यूहके भीतर चला गया, किंतु भगवान् शंकरके वरदानसे भीमसेन आदि अन्य योद्धाओंको जयद्रथने रोक दिया| इसलिये भीमसेन आदि अभिमन्युकी सहायताके लिये भीतर न जा सके|

अपने रथपर बैठकर अकेले अभिमन्युने अपनी प्रचण्ड बाण-वर्षासे शत्रुओंको व्याकुल कर दिया| कौरवसेनाके हाथी, घोड़े और सैनिक कट-कटकर गिरने लगे| चारों ओर हाहाकार मच गया| द्रोणाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, शकुनि, शल्य, दुर्योधन आदि महारथी अभिमन्युके हाथों बार-बार परास्त हुए| अकेले अभिमन्यु प्रलय बनकर भयंकर संहार करते रहे| उस समय उन्हें रोकनेका साहस किसीके पास नहीं था| द्रोणाचार्यने स्पष्ट कह दिया – ‘इस बालकके हाथमें धनुष-बाण रहते, इसे जीतना असम्भव है|’ अन्तमें कर्णादि छ: महारथियोंने अभिमन्युपर अन्यायपूर्वक आक्रमण किया| उन लोगोंने अभिमन्युके रथके घोड़ों और सारथिको मार दिया, उसके रथको छिन्न-भिन्न कर दिया तथा धनुष भी काट दिया| फिर अभिमन्युने अपने रथका पहिया उठाकर ही शत्रुओंको मारना शुरू कर दिया| उसी समय दु:शासनके पुत्रने पीछेसे उसके सिरमें गदाका प्रहार किया, जिससे महाभारका यह अद्भुत योद्धा वीरगतिको प्राप्त हुआ|

वीरवर अर्जुन – महाभारत

इन्द्रके अंशसे उत्पन्न महावीर अर्जुन वीरता, स्फूर्ति, तेज एवं शस्त्र-संचालनमें अप्रतिम थे| पृथ्वीका भार हरण करने तथा अत्याचारियोंको दण्ड देनेके लिये साक्षात् भगवान् नर-नारायणने ही श्रीकृष्ण और अर्जुनके रूपमें अवतार लिया था| यद्यपि समस्त पाण्डव श्रीकृष्णके भक्त थे, किंतु अर्जुन तो भगवान् श्यामसुन्दरके अभिन्न सखा तथा उनके प्राण ही थे|

वीरवर अर्जुनने अकेले ही द्रुपदको परास्त करके तथा उन्हें लाकर गुरु द्रोणाचार्यके चरणोंमें डाल दिया| इस प्रकार गुरुके इच्छानुसार गुरुदक्षिणा चुकाकर इन्होंने संसारको अपने अद्भुत युद्ध-कौशलका प्रथम परिचय दिया| अपने तप और पराक्रमसे इन्होंने भगवान् शंकरको प्रसन्न करके पाशुपतास्त्र प्राप्त किया| दूसरे लोकपालोंने भी प्रसन्न होकर इन्हें अपने-अपने दिव्यास्त्र दिये| देवराजके बुलानेपर ये स्वर्ग गये तथा अनेक देव-विरोधी शत्रुओंका दमन किया| स्वर्गकी सर्वश्रेष्ठ अप्सरा उर्वशीके प्रस्तावको ठुकराकर इन्होंने अद्भुत इन्द्रियसंयमका परिचय दिया| अन्तमें उर्वशीने रुष्ट होकर इनको एक वर्षतक नपुंसक रहनेका शाप दिया|

महाभारतके युद्धमें रण-निमन्त्रणके अवसरपर भगवान् श्रीकृष्णने दुर्योधनसे कहा कि ‘एक ओर मेरी नारायणी सेना रहेगी तथा दूसरी ओर मैं नि:शस्त्र होकर स्वयं रहूँगा| भले ही आप पहले आये हैं, किंतु मैंने अर्जुनको पहले देखा है| वैसे भी आपसे आयुमें ये छोटे हैं| अत: इन्हें माँगनेका अवसर पहले मिलना चाहिये|’ भगवान् के इस कथनपर अर्जुनने कहा – ‘प्रभो! मैं तो केवल आपको चाहता हूँ| आपको छोड़कर मुझे तीनों लोकोंका राज्य भी नहीं चाहिये| आप शस्त्र लें या न लें, पाण्डवोंके एकमात्र आश्रय तो आप ही हैं|’ अर्जुनकी इसी भक्ति और निर्भरताने भगवान् श्रीकृष्णको उनका सारथि बननेपर विवश कर दिया| यही कारण है कि तत्त्ववेत्ता ऋषियोंको छोड़कर श्रीकृष्णने केवल अर्जुनको ही गीताके महान् ज्ञानका उपदेश दिया| महाभारतके युद्धमें दयामय श्रीकृष्ण माताकि भाँति इनकी सुरक्षा करते रहे|

महाभारतके युद्धमें छ: महारथियोंने मिलकर अन्यायपूर्वक अभिमन्युका वध कर डाला| अभिमन्युकी मृत्युका मुख्य कारण जयद्रथको जानकर दूसरे दिन सूर्यास्तके पूर्व अर्जुनने उसका वध करनेका प्रण किया| वध न कर पानेपर स्वयं अग्निमें आत्मदाह करनेकी उन्होंने दूसरी प्रतिज्ञा भी की| भक्तके प्रणकी रक्षाका दायित्व तो स्वयं भगवान् का है| दूसरे दिन घोर संग्राम हुआ| श्रीकृष्णको अर्जुनके प्रणरक्षाकी व्यवस्था करनी पड़ी| सायंकाल श्रीहरिने सूर्यको ढककर अन्धकार कर दिया| सूर्यास्त हुआ जानकर अर्जुन चिंतामें बैठनेके लिये तैयार हो गये| अन्तमें जयद्रथ भी अपने सहयोगियोंके साथ अर्जुनको चिढ़ानेके लिये आ गया| अचानक श्रीकृष्णने अन्धकार दूर कर दिया| सूर्य पश्चिम दिशामें चमक उठा| भगवान् ने कहा – ‘अर्जुन! अब शीघ्रता करो! दुराचारी जयद्रथका सिर काट लो, किंतु ध्यान रहे, वह जमीनपर न गिरने पाये; क्योंकि इसके पिताने भगवान् शिवसे वरदान माँगा है कि जयद्रथके सिरको जमीनपर गिरनेवालेके सिरके सौ टुकड़े हो जाँयगे|’ अर्जुनने बाणके द्वारा जयद्रथका मस्तक काटकर उसे सन्ध्योपासन करते हुए उसके पिताकी ही अँजलीमें गिरा दिया| फलत: पिता-पुत्र दोनों ही मृत्युको प्राप्त हुए| इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णकी कृपासे अनेक विपत्तियोंसे पाण्डवोंकी रक्षा हुई और अन्तमें युद्धमें उन्हें विजय भी मिली| वस्तुत: अर्जुन और श्रीकृष्ण अभिन्न हैं| जहाँ धर्म है, वहाँ श्रीकृष्ण हैं और जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं विजय है|

श्रीभीष्मपितामह – महाभारत

महात्मा भीष्म आदर्श पितृभक्त, आदर्श सत्यप्रतिज्ञ, शास्त्रोंके महान् ज्ञाता तथा परम भगवद्भक्त थे| इनके पिता भारतवर्षके चक्रवर्ती सम्राट् महाराज शान्तनु तथा माता भगवती गङ्ग थीं|

महर्षि वसिष्ठके शापसे ‘द्यौ’ नामक अष्टम वसु ही भीष्मके रूपमें इस धराधामपर अवतीर्ण हुए थे| बचपनमें इनका नाम देवव्रत था| एक बार इनके पिता महराज शान्तनु कैवर्तराजकी पालिता पुत्री सत्यवतीके अनुपम सौन्दर्यपर मुग्ध हो गये| कैवर्तराजने उनसे खा कि ‘मैं अपनी पुत्रीका विवाह आपसे तभी कर सकता हूँ, जब इसके गर्भसे उत्पन्न पुत्रको ही आप अपने राज्यका उत्तराधिकारी बनानेका वचन दें|’ महाराज शान्तनु अपने शीलवान् पुत्र देवव्रतके साथ अन्याय नहीं करना चाहते थे; अत: उन्होंने कैवर्तराजकी शर्तको अस्वीकार कर दिया, किंतु सत्यवतीकी आसक्ति और चिन्तामें वे उदास रहने लगे| जब भीष्मको महाराजकी चिन्ता और उदासीका कारण मालूम हुआ, तब इन्होंने कैवर्तराजके सामने जाकर प्रतिज्ञा की कि ‘आपकी कन्यासे उत्पन्न पुत्र ही राज्यका उत्तराधिकारी होगा|’ जब कैवर्तराजको इसपर भी संतोष नहीं हुआ तो इन्होंने आजन्म ब्रह्मचर्यका पालन करनेका दूसरा प्रण किया| देवताओंने इस भीष्म-प्रतिज्ञाको सुनकर आकाशसे पुष्पवर्षा की और तभीसे देवव्रतका नाम भीष्म प्रसिद्ध हुआ| इनके पिताने इनपर प्रसन्न होकर इन्हें इच्छामृत्युका दुर्लभ वर प्रदान किया|

सत्यवतीके गर्भसे महाराज शान्तनुको चित्राङ्गद और विचित्रवीर्य नामके दो पुत्र हुए| महाराजकी मृत्युके बाद चित्रांगद राजा बनाये गये, किंतु गन्धर्वोंके साथ युद्धमें उनकी मृत्यु हो गयी| विचित्रवीर्य अभी बालक थे| उन्हें सिंहासनपर आसीन करके भीष्मजी राज्यका कार्य देखने लगे| विचित्रवीर्यके युवा होनेपर उनके विवाहके लिये काशिराजकी तीन कन्याओंका बलपूर्वक हरण करके भीष्मजीने संसारको अपने अस्त्र – कौशलका प्रथम परिचय दिया| काशीनरेश की बड़ी कन्या अम्बा शाल्वसे प्रेम करती थी, अत: भीष्मने उसे वापस भेज दिया; किंतु शाल्वने उसे स्वीकार नहीं किया| अम्बाने अपनी दुर्दशाका कारण भीष्मको समझकर उनकी शिकायत परशुरामजीसे की| परशुरामजीने भीष्मसे कहा कि ‘तुमने अम्बाका बलपूर्वक अपहरण किया है, अत: तुम्हें इससे विवाह करना होगा, अन्यथा मुझसे युद्धके लिये तैयार हो जाओ|’ परशुरामजीसे भीष्मका इक्कीस दिनोंतक भयानक युद्ध हुआ| अन्तमें ऋषियोंके करनेपर लोककल्याणके लिये परशुरामजीको ही युद्ध-विराम करना पड़ा| भीष्म अपने प्रणपर अटल रहे|

महाभारतके युद्धमें भीष्मको कौरवपक्षके प्रथम सेनानायक होनेका गौरव प्राप्त हुआ| इस युद्धमें भगवान् श्रीकृष्णने शस्त्र न ग्रहण करनेकी प्रतिज्ञा की थी| एक दिन भीष्मने भगवान् को शस्त्र ग्रहण करानेकी प्रतिज्ञा कर ली| इन्होंने अर्जुनको अपनी बाण-वर्षासे व्याकुल कर दिया| भक्तवत्सल भगवान् ने भक्तके प्राणकी रक्षाके लिये अपनी प्रतिज्ञाको भंग कर दिया और रथका टूटा हुआ पहिया लेकर भीष्मकी ओर दौड़ पड़े| भीष्म मुग्ध हो गये भगवान् की इस भक्तवत्सलतापर| अठारह दिनोंके युद्धमें दस दिनोंतक अकेले घमासान युद्ध करके भीष्मने पाण्डवपक्षको व्याकुल कर दिया और अन्तमें शिखण्डीके माध्यमसे अपनी मृत्युका उपाय स्वयं बताकर महाभारतके इस अद्भुत योद्धाने शरशय्यापर शयन किया| शास्त्र और शस्त्रके इस सूर्यको अस्त होते हुए देखकर भगवान् श्रीकृष्णने इनके माध्यमसे युधिष्ठिरको धर्मके समस्त अङ्गोंका उपदेश दिलवाया| सूर्यके उत्तरायण होनेपर पीताम्बरधारी श्रीकृष्णकी छविको अपनी आँखोंमें बसाकर महात्मा भीष्मने अपने नश्वर शरीरका त्याग किया|

सञ्जय – महाभारत

सञ्जयका जन्म सूत जातिमें हुआ था| ये बड़े ही बुद्धिमान, नीतिज्ञ, स्वामिभक्त तथा धर्मज्ञ थे| इसीलिये धृतराष्ट्र इनपर अत्यन्त विश्वास करते थे| ये धृतराष्ट्रके मन्त्री भी थे और उनको सदैव हितकर सलाह दिया करते थे|

जब पाण्डवोंका द्यूतमें दुर्योधनने सर्वस्व हरण कर लिया, तब इन्होंने उसके दुर्व्यवहारकी कड़ी आलोचना करते हुए धृतराष्ट्रसे कहा – ‘महाराज! अब आपके कुलका नाश सुनिश्चित है| भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य और विदुरजीने आपके पुत्रको बहुत मना किया, फिर भी उसने अयोनिजा एवं पतिपरायणा द्रौपदीको भरी सभामें अपमानित कर भयंकर युद्धको निमन्त्रण दिया है|’ धृतराष्ट्रने सञ्जयकी बातका अनुमोदन करते हुए अपनी कमजोरीको हृदयसे स्वीकार किया, जिसके कारण वे दुर्योधनके अत्याचारको रोक न सके|

सञ्जय सामनितिके भी बड़े पक्षपाती थे| इन्होंने युद्ध रोकनेकी बड़ी चेष्टा की| ये धृतराष्ट्रकी ओरसे सन्धिचर्चा करनेके लिये उपप्लव्य गये| इन्होंने पाण्डवोंकी सच्ची प्रशंसा करते हुए उन्हें युद्धसे विरत रहनेकी सलाह दी| पाण्डवोंने तो इनकी बात मान भी ली, किंतु दुर्योधनने इनके सन्धिके प्रस्तावको तिरस्कारपूर्वक ठुकरा दिया, जिससे युद्ध अनिवार्य हो गया|

जब दोनों ओरसे युद्धकी तैयारी पूर्ण हो गयी और दोनों पक्षोंकी सेनाएँ कुरुक्षेत्रकी युद्धभूमिमें आ डटीं, तब भगवान् व्यासने सञ्जयको दिव्यदृष्टिका वरदान देते हुए धृतराष्ट्रसे कहा – ‘ये सञ्जय तुम्हें युद्धका वृत्तान्त सुनायेंगे| सम्पूर्ण युद्धक्षेत्रमें कोई ऐसी बात न होगी, जो इनसे छिपी रहे|’ उसी समयसे सञ्जय दिव्यदृष्टिसे सम्पन्न हो गये| ये वहीं बैठे-बैठे युद्धकी सारी बातें प्रत्यक्षकी भाँति जान लेते और उन्हें ज्यों-की-त्यों धृतराष्ट्रको सुना देते थे| श्रीमद्भगवद्गीताका उपदेश भी इन्होंने अर्जुनकी भाँति भगवान् के विश्वरूप और चतुर्भुजरूपके दर्शनका सौभाग्य अर्जुनके अतिरिक्त महाभाग सञ्जयको ही प्राप्त हुआ|

सञ्जयको भगवान् श्रीकृष्णके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान था| इन्होंने महर्षि वेदव्यास, देवी गान्धारी तथा महात्मा विदुरके सामने भगवान् श्रीकृष्णकी महिमा सुनाते हुए कहा – ‘भगवान् श्रीकृष्ण तीनों लोकोंके एकमात्र स्वामी और साक्षात् परमेश्वर हैं| मैंने ज्ञानदृष्टिसे श्रीकृष्णको पहचाना है| बिना ज्ञानके कोई उनके वास्तविक स्वरूपको नहीं जान सकता| मैं कभी कपटका आश्रय नहीं लेता, किसी मिथ्या धर्मका आचरण नहीं करता तथा ध्यानयोगके द्वारा मेरा अन्त:करण शुद्ध हो गया है| इसीलिये मुझे भगवान् श्रीकृष्णके वास्तविक स्वरूपका ज्ञान हो गया है| प्रमाद, हिंसा और भोग – इन तीनोंका त्याग ही ज्ञानका वास्तविक साधन है| इन्हींके त्यागसे परम पदकी प्राप्ति सम्भव है|’ इसके बाद स्वयं भगवान् वेदव्यासने सञ्जयकी प्रशंसा करते हुए धृतराष्ट्रसे कहा – ‘सञ्जयको पुराणपुरुष भगवान् श्रीकृष्णके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान है| इनकी सलाहसे तुम जन्म-मरणके महान् भयसे मुक्त हो जाओगे|’

इससे सिद्ध होता है कि सञ्जय श्रीकृष्णके स्वभाव और प्रभावको यथार्थरूपसे जानते थे| इन्होंने युद्धके पूर्व ही यह घोषित कर दिया था कि ‘जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण और गाण्डीवधारी अर्जुन हैं वहींपर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है – ऐसा मेरा दृढ़ मत है|’ स्वामिभक्त सञ्जय अन्ततक धृतराष्ट्र और गान्धारीके साथ रहे और उनके दावाग्निमें शरीर त्याग करनेके बाद हिमालयकी ओर चले गये|

सती उत्तरा – महाभारत

जब महाराज विराटने यह सुना कि उनके पुत्र उत्तरने समस्त कौरव-पक्षके योद्धाओंको पराजित करके अपनी गायोंको लौटा लिया है, तब वे आनन्दातिरेकमें अपने पुत्रकी प्रशंसा करने लगे|

इसपर कङ्क (युधिष्ठिर) ने कहा कि जिसका सारथि बृहन्नला (अर्जुन) हो, उसकी विजय तो निश्चित ही है – महाराज विराटको यह असह्य हो गया कि राज्यसभामें पासा बिछानेके लिये नियुक्त, ब्राह्मण कङ्क उनके पुत्रके बदले नपुंसक बृहन्नलाकी प्रशंसा करे| उन्होंने पासा खींचकर मार दिया और कङ्ककी नासिकासे रक्त निकलने लगा| सैरन्ध्री बनी हुई द्रौपदी दौड़ी और सामने कटोरी रखकर कङ्ककी नासिकासे निकलते हुए रक्तको भूमिपर गिरनेसे बचाया| जब उन्हें तीसरे दिन पता लगा कि उन्होंने कङ्कके वेशमें अपने यहाँ निवास कर रहे महाराज युधिष्ठिरका ही अपमान किया है, तब उन्हें अपने-आपपर अत्यन्त खेद हुआ| उन्होंने अनजानमें हुए अपराधोंके परिमार्जन और पाण्डवोंसे स्थायी मैत्री-स्थापनाके उद्देश्यसे अपनी पुत्री उत्तरा और अर्जुनके विवाहका प्रस्ताव किया| इसपर अर्जुनने कहा – ‘राजन्! मैंने कुमारी उत्तराको बृहन्नलाके रूपमें वर्षभर नृत्य और संगीतकी शिक्षा दी है| यदि मैं राजकुमारीको पत्नीरूपमें स्वीकार करता हूँ तो लोग मुझपर और आपकी पुत्रीके चरित्रपर संदेह करेंगे और गुरु-शिष्यकी परम्पराका अपमान होगा| राजकुमारी मेरे लिये पुत्रीके समान है| इसलिये अपने पुत्र अभिमन्युकी पत्नीके रूपमें मैं उन्हें स्वीकार करता हूँ| भगवान् श्रीकृष्णके भानजेको जामाताके रूपमें स्वीकार करना आपके लिये भी गौरवकी बात होगी|’ सभीने अर्जुनकी धर्मनिष्ठाकी प्रशंसा की और उत्तराका विवाह अभिमन्युसे सम्पन्न हो गया|

महाभारतके संग्राममें अर्जुन संसप्तकोंसे युद्ध करनेके लिये दूर चले गये और द्रोणाचार्यने उनकी अनुपस्थितिमें चक्रव्यूहका निर्माण किया| भगवान् शंकरके वरदानसे जयद्रथने सभी पाण्डवोंको व्यूहमें प्रवेश करनेसे रोक दिया| अकेले अभिमन्यु ही व्यूहमें प्रवेश कर पाये| महावीर अभिमन्युने अद्भुत पराक्रमका प्रदर्शन किया| उन्होंने कौरवपक्षके प्रमुख महारथियोंको बार-बार हराया| अन्तमें सभी महारथियोंने एक साथ मिलकर अन्यायपूर्वक अभिमन्युका वध कर दिया| उत्तरा उस समय गर्भवती थीं| भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें आश्वासन देकर पतिके साथ सती होनेसे रोक दिया|

जब अश्वत्थामाने द्रौपदीके पाँच पुत्रोंको मार डाला तथा शिविरमें आग लगाकर भाग गया, तब अर्जुनने उसको पकड़कर द्रौपदीके सम्मुख उपस्थित किया| वध्य होनेके बाद भी द्रौपदीने उसे मुक्त करा दिया, किंतु उस नराधमने कृतज्ञ होनेके बदले पाण्डवोंका वंश ही निर्मूल करनेके लिये ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया| उत्तराकी करुण पुकार सुनकर भगवान् श्रीकृष्णने सूक्ष्मरूपसे उनके गर्भमें प्रवेश करके पाण्डवोंके एक मात्र वंशधरकी ब्रह्मास्त्रसे रक्षा की, किंतु जन्मके समय बालक मृत पैदा हुआ|

यह समाचार सुनकर भगवान् श्रीकृष्णने सूतिकागृहमें प्रवेश किया| उत्तरा पगलीकी भाँति मृत बालकको गोदमें उठाकर कहने लगी – ‘बेटा! त्रिभुवनके स्वामी तुम्हारे सामने खड़े हैं| तू धर्मात्मा तथा शीलवान् पिताका पुत्र है| यह अशिष्टता अच्छी नहीं| इन सर्वेश्वरको प्रणाम कर| सोचा था कि तुझे गोदमें लेकर इन सर्वाधारके चरणोंमें मस्तक रखूँगी, किंतु सारी आशाएँ नष्ट हो गयीं|’ भक्तवत्सल भगवान् ने तत्काल जल छिड़ककर बालकको जीवनदान दिया| सहसा बालकका श्वास चलने लगा| चारों ओर आनन्दकी लहर दौड़ गयी| पाण्डवोंका यही वंशधर परीक्षित् के नामसे प्रसिद्ध हुआ| भगवद्भक्ति और विश्वासकी अनुपम प्रतीक सती उत्तरा धन्य हैं|

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