अक्षमालिकोपनिषत् || Akshamalika Upanishad, अक्षमालिकोपनिषत्, अक्षमालिका उपनिषद, अक्षमालिका उपनिषद्, अक्षमालिक उपनिषद
अक्षरों की माला जो ‘अ’ वर्ण से प्रारम्भ होकर ‘क्ष’ वर्ण पर समाप्त होती है, उसे ‘अक्षमाला’ कहा जाता है। अक्षमालिकोपनिषत् या अक्षमालिका उपनिषद या अक्षमालिका उपनिषद् या अक्षमालिक उपनिषद ॠग्वेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। इसमें प्रजापति ब्रह्मा और कुमार कार्तिकेय (गुह) के प्रश्नोत्तर को गूंथा गया है। इसमें सर्वप्रथम ‘अक्षमाला’ के विषय में जिज्ञासा की गयी है कि यह क्या है, इसके कितने लक्षण हैं, कितने भेद है, कितने सूत्र हैं, इसे किस प्रकार गूंथा जाता है तथा इसके अधिष्ठाता देवता कौन हैं? इन सभी प्रश्नों का उत्तर इस उपनिषद में दिया गया है। साथ ही फलश्रुति का विवेचन भी किया गया है। प्रश्नोत्तर प्रारम्भ करने से पहले ऋषि शान्तिपाठ करते हैं और परमात्मा से त्रिविध तापों की शान्ति के लिए प्रार्थना करते हैं। प्रारम्भ में प्रजापति ब्रह्मा भगवान गुह (कार्तिकेय) से प्रश्न करते हैं-‘हे भगवन! आप कृपा करके अक्षविधि बताने की कृपा करें कि इसका लक्षण क्या हैं? इसके भेद, सूत्र, गूंथने का प्रकार, अक्षरों का महत्त्व और फल का विवेचन करें।’
अक्षमालिकोपनिषत्
शान्तिपाठ
अकारादिक्षकारान्तवर्णजातकलेवरम् ।
विकलेवरकैवल्यं रामचन्द्रपदं भजे ॥
ॐ वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि
प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि ॥
वेदस्य म आणीस्थः
श्रुतं मे मा प्रहासीरनेनाधीतेनारात्रा-
न्सन्दधाम्यृतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि ॥
तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु अवतु मामवतु
वक्तारमवतु वक्तारम् ॥
हे सच्चिदानंद परमात्मन ! मेरी वाणी मन में प्रतिष्ठित हो जाए। मेरा मन मेरी वाणी में प्रतिष्ठित हो जाए। हे प्रकाशस्वरूप परमेश्वर! मेरे सामने आप प्रकट हो जाएँ।
हे मन और वाणी! तुम दोनों मेरे लिए वेद विषयक ज्ञान को लानेवाले बनो। मेरा सुना हुआ ज्ञान कभी मेरा त्याग न करे। मैं अपनी वाणी से सदा ऐसे शब्दों का उच्चारण करूं, जो सर्वथा उत्तम हों तथा सर्वदा सत्य ही बोलूँ। वह ब्रह्म मेरी रक्षा करे, मेरे आचार्य की रक्षा करे।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
भगवान् शांति स्वरुप हैं अत: वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें।
अक्षमालिका उपनिषद्
अथ अक्षमालिकोपनिषत्
हरिः ॐ । अथ प्रजापतिर्गुहं पप्रच्छ भो ब्रह्मन्नक्षमालाभेदविधिं ब्रूहीति ।
सा किं लक्षणा कति भेदा अस्याः कति सूत्राणि कथं घटनाप्रकारः के वर्णाः
का प्रतिष्ठा कैषाधिदेवता किं फलं चेति ॥१ ॥
प्रजापति ब्रह्मा भगवान गुह (कार्तिकेय) से प्रश्न करते हैं: ‘हे भगवन! आप कृपा करके अक्षविधि बताने की कृपा करें। मुझे बताइये कि अक्षमाला क्या है ? उसके क्या लक्षण हैं? इसके कितने भेद हैं? कितने सूत्र हैं, इसे किस प्रकार गूंथा जाता है तथा इसके अधिष्ठाता देवता कौन हैं? इसके अक्षरों का महत्त्व और फल का विवेचन करें।
तं गुहः प्रत्युवाच प्रवालमौक्तिकस्फटिकशङ्खरजताष्टापदचन्दनपुत्रजीविकाब्जे रुद्राक्षा इति ।
आदिक्षान्तमूर्तिः सावधानभावा ।
सौवर्णं राजतं ताम्रं तन्मुखे मुखं तत्पुच्छे पुच्छं तदन्तरावर्तनक्रमेण योजयेत् ॥ २ ॥
गुह कहते हैं: यह प्रवाल (मूङ्गा), मोती, स्फटिक, शङ्ख, चाँदी, सोने, चन्दन, पुत्र-जीविका, कमल या रुद्राक्ष में से किसी एक पदार्थ से बनाया जाता है । प्रत्येक मनका ‘अ’ से ‘क्ष’ तक उस अक्षर के अधिष्ठाता का ध्यान करते लगाना चाहिए । स्वर्ण सूत्र से मनको को बांधते हुए दोनों तरफ को आपस में जोड़ते है जिसके दायी छोर पर चाँदी और बांये छोर पर ताम्बे का जोड़ लगाएंगे । इस तरह एक माला तैयार होगी ।
यदस्यान्तरं सूत्रं तद्ब्रह्म ।
यद्दक्षपार्श्वे तच्छैवम् ।
यद्वामे तद्वैष्णवम् ।
यन्मुखं सा सरस्वती ।
यत्पुच्छं सा गायत्री ।
यत्सुषिरं सा विद्या ।
या ग्रन्थिः सा प्रकृतिः ।
ये स्वरास्ते धवलाः ।
ये स्पर्शास्ते पीताः ।
ये परास्ते रक्ताः ॥ ३॥
माला के सूत्र को ब्रह्मा मानो । दांये छोर का चाँदी का जोड़ को शिव का स्थान जानो और बांये, ताम्र को विष्णु-स्थान जानो । इसका मुख स्थान को सरस्वती और पुच्छ स्थान को गायत्री जानो । मनको के छेद को ज्ञान और बांधने वाली गाँठ को प्रकृति जानो । स्वरों वाले मनके सफ़ेद होंगे(क्योंकि वो सात्विक गुण दर्शाते हैं) । स्पर्श व्यंजन वाले मनके पीले(सत्व और तमस गुण के कारण) होंगे और बाकि सभी लाल(रजस गुण से) होंगे ।
अथ तां पञ्चभिर्गन्धैरमृतैः पञ्चभिर्गव्यैस्तनुभिः शोधयित्वा
पञ्चभिर्गव्यैर्गन्धोदकेन संस्राप्य तस्मात्सोङ्कारेण पत्रकूर्चेन
स्नपयित्वाष्टभिर्गन्धैरालिप्य सुमनःस्थले निवेश्याक्षतपुष्पैराराध्य प्रत्यक्षमादिक्षान्तैर्वर्णैर्भावयेत् ॥ ४ ॥
तब (विभिन्न मनको के अधिष्ठाताओं का ध्यान करके) उसे ५ प्रकार कि गायों के दूध से धोएं; तत्पश्चात पञ्चगव्य(गोबर,गौमूत्र,घी,दही और दूध से तैयार),पानी में दूब गीली करके, सभी पञ्चगव्य पदार्थो से पृथक पृथक तथा चन्दन के पानी से धोएं । इसके बाद दूब से ॐकार का जाप करते हुए जल छिड़कें । इस पर आठ विभिन्न गंधवाले पदार्थो का लेप करें । इसको पुष्पों के ऊपर रखें । माला के सभी मनको का ‘अ’ से ‘क्ष’ तक जाप करें ।
ओमङ्कार मृत्युञ्जय सर्वव्यापक प्रथमेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ओमङ्कार, मृत्यु के विजेता, सर्वव्यापी, आप पहले मनके में प्रतिष्ठित हों ।
ओमाङ्काराकर्षणात्मकसर्वगत द्वितीयेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ओमाङ्कार, आकर्षणात्मक, सभी जगह उपस्थित, आप दुसरे मनके में प्रतिष्ठित हों ।
ओमिङ्कारपुष्टिदाक्षोभकर तृतीयेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ओमिङ्कार, पुष्टि और स्थिरता प्रदान करने वाले, आप तृतीय मनके में प्रतिष्ठित हों ।
ओमीङ्कार वाक्प्रसादकर निर्मल चतुर्थेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ओमीङ्कार, वाक् निर्मल करने वाले, आप चतुर्थ मनके में प्रतिष्ठित हों ।
ओमुङ्कार सर्वबलप्रद सारतर पञ्चमेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
उकार ! तुम सभी को सभी तरह से बलप्रदाता हो एवं सारयुक्तों में सर्वश्रेष्ठ हो, पाँचवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ।
ओमूङ्कारोच्चाटन दुःसह षष्ठेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ऊकार ! तुम उच्चारण करने वाले तथा दुस्सह अर्थात् न सहे जा सकने वाले हो, इस छठें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ।
ओमृङ्काकार संक्षोभकर चञ्चल सप्तमेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ऋकार ! तुम संक्षोभ अर्थात् चल-चित्तता को करने वाले तथा चंचल हो, इस सातवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ।
ओमॄङ्कार संमोहनकरोजवलाष्टमेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ऋृ कार ! तुम सम्मोहित करने वाले तथा उज्वल हो, इस आठवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ।
ओम्लृङ्कारविद्वेषणकर मोहक नवमेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
लृकार ! तुम विद्वेष को प्रकट कर देने वाले एवं सभी कुछ जाननेवाले अत्यंत गोपनीय हो, इस नौवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ।
ओम्लॄङ्कार मोहकर दशमेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
लृकार ! तुम मोहकारी हो, इस दसवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ।
ओमेङ्कार सर्ववश्यकर शुद्धसत्त्वैकादशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
एकार ! तुम सभी को वश में करनेवाले तथा शुद्ध सत्य हो, इस ग्यारहवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ।
ओमैङ्कार शुद्धसात्त्विक पुरुषवश्यकर द्वादशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ऐकार ! तुम शुद्ध सात्विक हो तथा पुरुषों को अपने वश में करनेवाले हो, इस बारहवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ।
ओमोङ्काराखिलवाङ्मय नित्यशुद्ध त्रयोदशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ओकार ! तुम अखिल वाङ्मय (समस्त शब्द समूह) हो एवं नित्य पवित्र हो, इस तेरहवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ।
ओमौङ्कार सर्ववाङ्मय वश्यकर चतुर्दशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
औकार ! तुम भी अक्षर समूह रूप सभी को वश में करने वाले तथा शान्त स्वरूप हो, इस चौदहवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ।
ओमङ्कार गजादिवश्यकर मोहन पञ्चदशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
अंकार ! तुम हाथी आदि को अपने वश में करने वाले एवं मोहित करने वाले हो, इस पन्द्रहवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ !
ओमःकार मृत्युनाशनकर रौद्र षोडशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
अ:कार ! तुम मृत्यु विनाशक एवं रौद्र (अति भयानक) हो, इस सोलहवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ।
ॐ कङ्कार सर्वविषहर कल्याणद सप्तदशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ककार ! तुम सम्पूर्ण विषों को विनष्ट करने वाले एवं कल्याणप्रदाता हो, इस सत्रहवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ।
ॐ खङ्कार सर्वक्षोभकर व्यापकाष्टादशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
खकार! तुम सभी को क्षुभित करने वाले एवं सर्वत्र व्याप्त रहते हो, इस अट्ठारहवें अक्ष में स्थित हो जाओ।
ॐ गङ्कार सर्वविघ्नशमन महत्तरैकोनविंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
गकार ! तुम सभी विघ्नों को शांत करने वाले एवं बड़ों में भी अति विशाल हो, इस उन्नीसवें अक्ष में प्रतिष्ठा प्राप्त करो।
ॐ घङ्कार सौभाग्यद स्तम्भनकर विंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
घकार! तुम सौभाग्य-प्रदाता और स्तम्भन गति को अवरुद्ध करने वाले कर्त्त हो, इस बीसवें अक्ष में प्रतिष्ठा प्राप्त करो।
ॐ ङकार सर्वविषनाशकरोग्रैकविंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ङकार ! तुम सभी विषयों के विनाशक एवं उग्र भयानक हो, इस इक्कीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ।
ॐ चङ्काराभिचारघ्न क्रूर द्वाविंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
चकार ! तुम अभिचार नाशक तथा अत्यन्त क्रूर हो, इस बाइसवें अक्ष में स्थित हो जाओ।
ॐ छङ्कार भूतनाशकर भीषण त्रयोविंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
छकार ! तुम भूत विनाशक एवं भयानक हो, इस तेईसवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ।
ॐ जङ्कार कृत्यादिनाशकर दुर्धर्ष चतुर्विंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
जकार! तुम कृत्या आदि (डाकिनी आदि) के नाशक एवं दुर्धर्ष हो, इस चौबीसवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ।
ॐ झङ्कार भूतनाशकर पञ्चविंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
झकार! तुम भूत नाशक हो, इस पच्चीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ।
ॐ ञकार मृत्युप्रमथन षड्विंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
जकार! तुम मृत्यु को मथित कर देने वाले हो, इस छब्बीसवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ।
ॐ टङ्कार सर्वव्याधिहर सुभग सप्तविंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
टकार! तुम समस्त रोगों के विनाशक एवं सुन्दर हो, इस सत्ताइसवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ।
ॐ ठङ्कार चन्द्ररूपाष्टाविंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ठकार ! तुम चन्द्र स्वरूप हो, इस अट्ठाइसवें अक्ष में स्थित हो जाओ।
ॐ डङ्कार गरुडात्मक विषघ्न शोभनैकोनत्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
डकार ! तुम गरुड़ के सदृश विष नाशक तथा सुन्दर हो, इस उन्तीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ।
ॐ ढङ्कार सर्वसम्पत्प्रद सुभग त्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
ढकार ! तुम समस्त प्रकार के सम्पत्ति प्रदाता एवं सौम्य-शालीन हो, इस तीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ।
ॐ णङ्कार सर्वसिद्धिप्रद मोहकरैकत्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
णकार! तुम सभी सिद्धियों के प्रदाता एवं मोहित (मोहयुक्त) करने वाले हो, इस इकतीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ।
ॐ तङ्कार धनधान्यादिसम्पत्प्रद प्रसन्न द्वात्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
तकार ! तुम धन एवं धान्य आदि सम्पत्तियों के देने वाले एवं सदैव प्रसन्नमय हो, इस बत्तीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ।
ॐ थङ्कार धर्मप्राप्तिकर निर्मल त्रयस्त्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
थकार! तुम धर्म की प्राप्ति कराने वाले एवं निर्मल हो, इस तैंतीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ।
ॐ दङ्कार पुष्टिवृद्धिकर प्रियदर्शन चतुस्त्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
दकार ! तुम पुष्टिकर्ता एवं वृद्धिकर्ता हो, सुन्दर दृष्टिगोचर होने वाले हो, इस चौंतीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ।
ॐ धङ्कार विषज्वरनिघ्न विपुल पञ्चत्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
धकार! तुम विष एवं ज्चर विनाशक हो तथा बहुत विशाल भी हो, इस पैंतीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ।
ॐ नङ्कार भुक्तिमुक्तिप्रद शान्त षट्त्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
नकार ! तुम भोग, मोक्ष-प्रदाता एवं शान्तरूप हो, इस छत्तीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ।
ॐ पङ्कार विषविघ्ननाशन भव्य सप्तत्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
पकार ! तुम विष और विघ्नों के नाशक एवं कल्याणकारी हो, इस सैंतीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ।
ॐ फङ्काराणिमादिसिद्धिप्रद ज्योतीरूपाष्टत्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
फकार ! तुम अणिमा, महिमा एवं गरिमा आदि अष्ट सिद्धियों से सम्पन्न एवं प्रकाशमय हो, इस अड़तीसवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ।
ॐ बङ्कार सर्वदोषहर शोभनैकोनचत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
बकार ! तुम समस्त दोषों के हरणकर्ता एवं सौंदर्यमय हो, इस उन्तालीसवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ।
ॐ भङ्कार भूतप्रशान्तिकर भयानक चत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
भकार! तुम भूत-बाधा का शमन करने वाले एवं भयानक हो, इस चालीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ।
ॐ मङ्कार विद्वेषिमोहनकरैकचत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
मकार ! तुम विद्वेष करने वाले को संमोहित कर लेने वाले अथवा विद्वेषी और मोह करने वाले हो, इस इकतालीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ।
ॐ यङ्कार सर्वव्यापक पावन द्विचत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
यकार ! तुम सर्वत्र संव्याप्त एवं परम पवित्र हो, इस बयालीसवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ।
ॐ रङ्कार दाहकर विकृत त्रिचत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
रकार ! तुम दाह (जलन, तपन) उत्पन्न करने वाले एवं विकृत हो, इस तैंतालीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ।
ॐ लङ्कार विश्वंभर भासुर चतुश्चत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
लकार ! तुम विश्व को पोषण करने वाले एवं तेजस्वी हो, इस चौवालीसवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ।
ॐ वङ्कार सर्वाप्यायनकर निर्मल पञ्चचत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
वकार ! तुम सबको तृप्त (पुष्ट) करने वाले एवं निर्मल हो, पैंतालीसवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ।
ॐ शङ्कार सर्वफलप्रद पवित्र षट्चत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
शकार ! तुम सभी तरह के फलों को देने वाले एवं पवित्र हो, इस छियालीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ।
ॐ षङ्कार धर्मार्थकामद धवल सप्तचत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
षकार ! तुम धर्म, अर्थ एवं काम को देने वाले तथा श्वेत-शुभ्र हो, इस सैंतालीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ।
ॐ सङ्कार सर्वकारण सार्ववर्णिकाष्टचत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ ।
सकार! तुम समस्त वस्तुओं के कारण तथा सभी वर्गों से सम्बन्धित हो, इस अड़तालीसवें अक्ष में स्थित हो जाओ।
ॐ हङ्कार सर्ववाङ्मय निर्मलैकोनपञ्चाशदक्षे प्रतितिष्ठ ।
हकार! तुम समस्त वांग्मय (समस्त अक्षरों या साहित्य) के स्वरूप वाले एवं निर्मल हो, इस उनचासवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ।
ॐ ळङ्कार सर्वशक्तिप्रद प्रधान पञ्चाशदक्षे प्रतितिष्ठ ।
ळकार! तुम सम्पूर्ण शक्तियों के प्रदाता एवं प्रधान हो, इस पचासवें अक्ष में स्थित हो जाओ।
ॐ क्षङ्कार परापरतत्त्वज्ञापक परंज्योतीरूप शिखामणौ प्रतितिष्ठ ॥५ ॥
हे क्षकार ! तुम परात्पर तत्त्व को बतलाने वाले एवं परम ज्योति स्वरूप हो, इस शिखामणि में मेरुमाला या प्रधान मनका के प्रतिनिधि के रूप में स्थित हो जाओ।
अथोवाच ये देवाः पृथिवीपदस्तेभ्यो नमो
भगवन्तोऽनुमदन्तु शोभायै पितरोऽनुमदन्तु
शोभायै ज्ञानमयीमक्षमालिकाम् ॥६॥
इसके पश्चात् बोले- ‘जो देवता पृथिवी में विचरण करने वाले हैं, उन्हें हम प्रणाम करते हैं। हे भगवन् ! मेरे द्वारा इस माला को स्वीकार करने का समर्थन करें। इसकी शोभा (प्रतिष्ठा) हेतु पितृगण अनुमोदन करें। इस ज्ञानरूपा अक्षमालिका को प्राप्त कर (अग्निष्वात्त आदि) पितर अनुमोदन करें।
अथोवाच ये देवा अन्तरिक्षसदस्तेभ्यः
ॐ नमो भगवन्तोऽनुमदन्तु शोभायै पितरोऽनुमदन्तु
शोभायैज्ञानमयीमक्षमालिकाम् ॥७॥
इसके उपरान्त वे पुनः बोले-जो देवता अन्तरिक्ष में निवास करने वाले हैं, उन्हें नमन-वंदन है। वे भगवान् पितरों के साथ इस ज्ञानमयी माला में प्रतिष्ठित हों, इसकी शोभा के लिए अनुमोदन करें।
अथोवाच ये देवा दिविषदस्तेभ्यो नमो
भगवन्तोऽनुमदन्तु शोभायै पितरोऽनुमदन्तु
शोभायै ज्ञानमयीमक्षमालिकाम् ॥८॥
तत्पश्चात् पुनः बोले- जो देवता स्वर्ग में निवास करने वाले हैं, वे ज्ञानस्वरूपिणी अक्षमालिका में स्थित हों, वरप्रदाता बनकर पितरों के सहित इसकी शोभा हेतु अनुमोदन करें।
अथोवाच ये मन्त्रा या विद्यास्तेभ्यो
नमस्ताभ्यश्चोन्नमस्तच्छक्तिरस्याः
प्रतिष्ठापयति ।। ॥९॥
तत्पश्चात् पुनः बोले- इस लोक में (सात करोड़ के लगभग) जो मंत्र हैं और जो (चौंसठ कला स्वरूप) विद्याएँ हैं, उन्हें नमस्कार है। उनकी शक्तियाँ इसमें प्रतिष्ठित हों।
अथोवाच ये ब्रह्मविष्णुरुद्रास्तेभ्यः
सगुणेभ्य ॐ नमस्तद्वीर्यमस्याः
प्रतिष्ठापयति ।। ॥१०॥
इसके बाद पुन: बोले -जो ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्र हैं, उन्हें बारम्बार नमन-वंदन है, उनके पराक्रम को नमस्कार है, उनका वीर्य (पराक्रम-पुरुषार्थी इसमें स्थित हो।
अथोवाच ये साङ्ख्यादितत्त्वभेदास्तेभ्यो
नमो वर्तध्वं विरोधेऽनुवर्तध्वम् ।॥११॥
पुनः बोले- जो सांख्यादिक (दर्शनों में छियानवे) तत्त्व हैं, उन्हें नमस्कार है, वृद्धि प्रदान करें, विरोध दूर करें।
अथोवाच ये शैवा वैष्णवाः शाक्ताः
शतसहस्रशस्तेभ्यो नमोनमो भगवन्तोऽ-
नुमदन्त्वनुगृह्णन्तु ।॥१२॥
इसके पश्चात् पुनः बोले- जो शैव, वैष्णव एवं शाक्त सैकड़ों एवं सहस्रों की संख्या में निवास करते हैं, उन्हें नमस्कार है, वे सभी भगवान् हम सभी पर कृपा करें, अनुमोदन करें।
अथोवाच याश्च मृत्योः प्राणवत्यस्ताभ्यो
नमोनमस्तेनैतं मृडयत मृडयत ।॥१३॥
अन्त में इस प्रकार बोले- मृत्यु की जो उपजीव्य (आश्रित) शक्तियाँ हैं, उन्हें नमस्कार है, आप सभी लोग इस नमन-वन्दन से, स्तुति से प्रसन्न हों। इस अक्षमालिका द्वारा अपने उपासकों को सुख प्रदान करें।
पुनरेतस्यां सर्वात्मकत्वं भावयित्वा भावेन
पूर्वमालिकामुत्पाद्यारभ्य तन्मयीं
महोपहारैरुपहृत्य आदिक्षान्तैरक्षरैरक्ष-
मालामष्टोत्तरशतं स्पृशेत् ।॥१४॥
पुन: इस मालिका में सर्वात्मिकता (सर्वविध पूर्णता) की भावना करते हुए इसी भावना में पूर्व मालिका (आधी माला) को पिरोकर पुन: आधी पचास मनकों में उसी प्रकार आवृत्ति करके १०० की संख्या पूर्ण करे। पुनः शेष आठ मनकों में ‘अ, क, च, ट,त,प,य,श’- इस अष्टवर्ग को पूर्वोक्त क्रम से नियोजित करे। तब मनकों की संख्या एक सौ आठ हो जाती है। (मेरु में तो वही पूर्वोक्त ‘क्ष’ ही रहेगा। इस तरह से मालिका की योजना एक-एक पिरोकर पूर्ण करे) ।
अथ पुनरुत्थाप्य प्रदक्षिणीकृत्यों नमस्ते
भगवति मन्त्रमातृकेऽक्षमाले
सर्ववशङ्कर्योंनमस्ते भगवति मन्त्रमातृकेऽ-
क्षमालिके शेषस्तम्भिन्योंनमस्ते भगवति
मन्त्रमातृकेऽक्षमाले उच्चाटन्योंनमस्ते
भगवति मन्त्रमातृकेऽक्षमाले विश्वामृत्यो
मृत्युञ्जयस्वरूपिणि सकललोकोद्दीपिनि सकललोक-
रक्षाधिके सकललोकोज्जीविके सकललोकोत्पादिके
दिवाप्रवर्तिके रात्रिप्रवर्तिके नद्यन्तरं यासि
देशान्तरं यासि द्वीपान्तरं यासि लोकान्तरं
यासि सर्वदा स्फुरसि सर्वहृदि वाससि ।
नमस्ते परारूपे नमस्ते पश्यन्तीरूपे नमस्ते
मध्यमारूपे नमस्ते वैखरीरूपे सर्वतत्त्वात्मिके
सर्वविद्यात्मिके सर्वशक्त्यात्मिके सर्वदेवात्मिके
वसिष्ठेन मुनिनाराधिते विश्वामित्रेण
मुनिनोपजीव्यमाने नमस्ते नमस्ते ।॥१५॥
अक्षमालिका की स्तुति करने के पश्चात् (उसे) उठाकर प्रदक्षिणा (परिक्रमा) करके (पुनः हाथ जोड़कर प्रार्थना करे), हे भगवती मन्त्रमातृके ! हे अक्षमाले ! तुम सभी को अपने वश में करने वाली हो, तुमको नमन-वन्दन है। हे मन्त्र मातृके ! हे अक्षमाले ! तुम सभी की गति स्तम्भित करने वाली, उच्चाटन अर्थात् विक्षिप्तता, करने वाली हो, तुम्हें प्रणाम है। हे मन्त्रमातृके ! हे अक्षमाले! तुम सभी की मृत्यु स्वरूप एवं मृत्युञ्जय स्वरूपिणी हो तथा तुम सबको उद्दीप्त करने वाली हो। इसके साथ ही तुम समस्त लोकों की रक्षा करने वाली, सम्पूर्ण विश्व की प्राणदात्री, सभी कुछ उत्पन्न करने वाली, दिन तथा रात्रि की प्रवर्तक एवं नदियों से दूसरी नदियों, समस्त देश, द्वीपों, लोक में संचरण करने की शक्ति रखने वाली हो, समस्त स्थलों में तुम विराजमान हो एवं हृदय में स्फुरणा के रूप में सतत प्रकाशित होने वाली, सभी प्राणियों के हृदयों में निवास करती हो। परा, पश्यन्ती, मध्यमा एवं वैखरी आदि जो वाणियाँ हैं, तुम उन्हीं का स्वरूप हो। समस्त तत्त्व-रूपों को धारण करने वाली, सर्वविद्या, सभी शक्तियों की अधिष्ठात्री, समस्त देवगणों की आराध्या हो। तुम वसिष्ठ मुनि के द्वारा वन्दित एवं विश्वामित्र मुनि के द्वारा उपसेव्यमान अर्थात् सेवा-शुश्रूषा किए जाने वाली हो, तुमको बारम्बार नमस्कार-प्रणाम है।
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति ।
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति ।
तत्सायंप्रातः प्रयुञ्जानः पापोऽपापोभवति ।
एवमक्षमालिकया जप्तो मन्त्रः सद्यः सिद्धिकरो
भवतीत्याह भगवान्गुहः प्रजापतिमित्युपनिअषत् ॥
इस उपनिषद् का प्रात:काल के समय में पाठ करने वाला मनुष्य रात्रि में किये गये पाप-कृत्यों से मुक्त हो जाता है और सायंकाल के समय में इसका पाठ करने वाला मनुष्य दिन में किये गये पापों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य सायं-प्रात: दोनों संध्याओं में निरन्तर इस उपनिषद् को पढ़ता है, वह बहुत बड़ा पाप-कृत्य करने वाला हो, तो भी पाप-मुक्त हो जाता है। भगवान् गुह ने प्रजापति से अन्त में यही कहा कि इस प्रकार से अभिमन्त्रित-पूजित अक्षमाला के द्वारा जप किया हुआ मन्त्र शीघ्रातिशीघ्र सिद्धि प्रदान करने वाला होता है।
अक्षमालिकोपनिषत्
अक्षमालिका उपनिषद
अक्षमालिका उपनिषद्
अक्षमालिक उपनिषद शान्तिपाठ
ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि
प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि ॥ वेदस्य म आणीस्थः
श्रुतं मे मा प्रहासीरनेनाधीतेनाहोरात्रा-
न्सन्दधाम्यृतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि ।
तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु अवतु मामवतु
वक्तारमवतु वक्तारम् ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इस श्लोक का भावार्थ ऊपर लिखा है ।
हरिः ॐ तत्सत् ॥
इत्यक्षमालिकोपनिषत्समाप्त ॥
अक्षमालिकोपनिषत् या अक्षमालिका उपनिषद या अक्षमालिका उपनिषद् या अक्षमालिक उपनिषद समाप्त ॥