अनुगीता ४ अध्यायः १९ || Anugita 4 Adhyay 19

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अभी तक आपने – महाभारत के आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व) से अनुगीता १, अनुगीता२, अनुगीता ३ का पठन व श्रवण कर लिया है। अब आगे अनुगीता के अंतिम भाग एकोनविंश (19) अध्याय अनुगीता ४ में गुरु-शिष्य के संवाद में मोक्ष प्राप्ति के उपाय का वर्णन है। यहाँ इसका श्लोक सहित हिन्दी अनुवाद दिया जा रहा है।

अनुगीता ४ अध्यायः १९

ब्राह्मण उवाच

यः स्यादेकायने लीनस्तूष्णीं किं चिदचिन्तयन् ।

पूर्वं पूर्वं परित्यज्य स निरारम्भको भवेत् ॥ १॥

सर्वमित्रः सर्वसहः समरक्तो जितेन्द्रियः ।

व्यपेतभयमन्युश्च कामहा मुच्यते नरः ॥ २॥

आत्मवत्सर्वभूतेषु यश्चरेन्नियतः शुचिः ।

अमानी निरभीमानः सर्वतो मुक्त एव सः ॥ ३॥

जीवितं मरणं चोभे सुखदुःखे तथैव च ।

लाभालाभे प्रिय द्वेष्ये यः समः स च मुच्यते ॥ ४॥

न कस्य चित्स्पृहयते नावजानाति किं चन ।

निर्द्वन्द्वो वीतरागात्मा सर्वतो मुक्त एव सः ॥ ५॥

अनमित्रोऽथ निर्बन्धुरनपत्यश्च यः क्व चित् ।

त्यक्तधर्मार्थकामश्च निराकाङ्क्षी स मुच्यते ॥ ६॥

नैव धर्मी न चाधर्मी पूर्वोपचितहा च यः ।

धातुक्षयप्रशान्तात्मा निर्द्वन्द्वः स विमुच्यते ॥ ७॥

अकर्मा चाविकाङ्क्षश्च पश्यञ्जगदशाश्वतम् ।

अस्वस्थमवशं नित्यं जन्म संसारमोहितम् ॥ ८॥

वैराग्य बुद्धिः सततं तापदोषव्यपेक्षकः ।

आत्मबन्धविनिर्मोक्षं स करोत्यचिरादिव ॥ ९॥

अगन्ध रसमस्पर्शमशब्दमपरिग्रहम् ।

अरूपमनभिज्ञेयं दृष्ट्वात्मानं विमुच्यते ॥ १०॥

पञ्च भूतगुणैर्हीनममूर्ति मदलेपकम् ।

अगुणं गुणभोक्तारं यः पश्यति स मुच्यते ॥ ११॥

विहाय सर्वसङ्कल्पान्बुद्ध्या शारीर मानसान् ।

शनैर्निर्वाणमाप्नोति निरिन्धन इवानलः ॥ १२॥

विमुक्तः सर्वसंस्कारैस्ततो ब्रह्म सनातनम् ।

परमाप्नोति संशान्तमचलं दिव्यमक्षरम् ॥ १३॥

अतः परं प्रवक्ष्यामि योगशास्त्रमनुत्तमम् ।

यज्ज्ञात्वा सिद्धमात्मानं लोके पश्यन्ति योगिनः ॥ १४॥

तस्योपदेशं पश्यामि यथावत्तन्निबोध मे ।

यैर्द्वारैश्चारयन्नित्यं पश्यत्यात्मानमात्मनि ॥ १५॥

इन्द्रियाणि तु संहृत्य मन आत्मनि धारयेत् ।

तीव्रं तप्त्वा तपः पूर्वं ततो योक्तुमुपक्रमेत् ॥ १६॥

तपस्वी त्यक्तसङ्कल्पो दम्भाहङ्कारवर्जितः ।

मनीषी मनसा विप्रः पश्यत्यात्मानमात्मनि ॥ १७॥

स चेच्छक्नोत्ययं साधुर्योक्तुमात्मानमात्मनि ।

तत एकान्तशीलः स पश्यत्यात्मानमात्मनि ॥ १८॥

संयतः सततं युक्त आत्मवान्विजितेन्द्रियः ।

तथायमात्मनात्मानं साधु युक्तः प्रपश्यति ॥ १९॥

यथा हि पुरुषः स्वप्ने दृष्ट्वा पश्यत्यसाविति ।

तथारूपमिवात्मानं साधु युक्तः प्रपश्यति ॥ २०॥

इषीकां वा यथा मुञ्जात्कश्चिन्निर्हृत्य दर्शयेत् ।

योगी निष्कृष्टमात्मानं यथा सम्पश्यते तनौ ॥ २१॥

मुञ्जं शरीरं तस्याहुरिषीकामात्मनि श्रिताम् ।

एतन्निदर्शनं प्रोक्तं योगविद्भिरनुत्तमम् ॥ २२॥

यदा हि युक्तमात्मानं सम्यक्पश्यति देहभृत् ।

तदास्य नेशते कश्चित्त्रैलोक्यस्यापि यः प्रभुः ॥ २३॥

अन्योन्याश्चैव तनवो यथेष्टं प्रतिपद्यते ।

विनिवृत्य जरामृत्यू न हृष्यति न शोचति ॥ २४॥

देवानामपि देवत्वं युक्तः कारयते वशी ।

ब्रह्म चाव्ययमाप्नोति हित्वा देहमशाश्वतम् ॥ २५॥

विनश्यत्ष्वपि लोकेषु न भयं तस्य जायते ।

क्लिश्यमानेषु भूतेषु न स क्लिश्यति केन चित् ॥ २६॥

दुःखशोकमयैर्घोरैः सङ्गस्नेह समुद्भवैः ।

न विचाल्येत युक्तात्मा निस्पृहः शान्तमानसः ॥ २७॥

नैनं शस्त्राणि विध्यन्ते न मृत्युश्चास्य विद्यते ।

नातः सुखतरं किं चिल्लोके क्व चन विद्यते ॥ २८॥

सम्यग्युक्त्वा यदात्मानमात्मयेव प्रपश्यति ।

तदैव न स्पृहयते साक्षादपि शतक्रतोः ॥ २९॥

निर्वेदस्तु न गन्तव्यो युञ्जानेन कथं चन ।

योगमेकान्तशीलस्तु यथा युञ्जीत तच्छृणु ॥ ३०॥

दृष्टपूर्वा दिशं चिन्त्य यस्मिन्संनिवसेत्पुरे ।

पुरस्याभ्यन्तरे तस्य मनश्चायं न बाह्यतः ॥ ३१॥

पुरस्याभ्यन्तरे तिष्ठन्यस्मिन्नावसथे वसेत् ।

तस्मिन्नावसथे धार्यं स बाह्याभ्यन्तरं मनः ॥ ३२॥

प्रचिन्त्यावसथं कृत्स्नं यस्मिन्कायेऽवतिष्ठते ।

तस्मिन्काये मनश्चार्यं न कथं चन बाह्यतः ॥ ३३॥

संनियम्येन्द्रियग्रामं निर्घोषे निर्जने वने ।

कायमभ्यन्तरं कृत्स्नमेकाग्रः परिचिन्तयेत् ॥ ३४॥

दन्तांस्तालु च जिह्वां च गलं ग्रीवां तथैव च ।

हृदयं चिन्तयेच्चापि तथा हृदयबन्धनम् ॥ ३५॥

इत्युक्तः स मया शिष्यो मेधावी मधुसूदन ।

पप्रच्छ पुनरेवेमं मोक्षधर्मं सुदुर्वचम् ॥ ३६॥

भुक्तं भुक्तं कथमिदमन्नं कोष्ठे विपच्यते ।

कथं रसत्वं व्रजति शोणितं जायते कथम् ।

तथा मांसं च मेदश्च स्नाय्वस्थीनि च पोषति ॥ ३७॥

कथमेतानि सर्वाणि शरीराणि शरीरिणाम् ।

वर्धन्ते वर्धमानस्य वर्धते च कथं बलम् ।

निरोजसां निष्क्रमणं मलानां च पृथक्पृथक् ॥ ३८॥

कुतो वायं प्रश्वसिति उच्छ्वसित्यपि वा पुनः ।

कं च देशमधिष्ठाय तिष्ठत्यात्मायमात्मनि ॥ ३९॥

जीवः कायं वहति चेच्चेष्टयानः कलेवरम् ।

किं वर्णं कीदृशं चैव निवेशयति वै मनः ।

याथातथ्येन भगवन्वक्तुमर्हसि मेऽनघ ॥ ४०॥

इति सम्परिपृष्टोऽहं तेन विप्रेण माधव ।

प्रत्यब्रुवं महाबाहो यथा श्रुतमरिन्दम ॥ ४१॥

यथा स्वकोष्ठे प्रक्षिप्य कोष्ठं भाण्ड मना भवेत् ।

तथा स्वकाये प्रक्षिप्य मनो द्वारैरनिश्चलैः ।

आत्मानं तत्र मार्गेत प्रमादं परिवर्जयेत् ॥ ४२॥

एवं सततमुद्युक्तः प्रीतात्मा नचिरादिव ।

आसादयति तद्ब्रह्म यद्दृष्ट्वा स्यात्प्रधानवित् ॥ ४३॥

न त्वसौ चक्षुषा ग्राह्यो न च सर्वैरपीन्द्रियैः ।

मनसैव प्रदीपेन महानात्मनि दृश्यते ॥ ४४॥

सर्वतः पाणिपादं तं सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।

जीवो निष्क्रान्तमात्मानं शरीरात्सम्प्रपश्यति ॥ ४५॥

स तदुत्सृज्य देहं स्वं धारयन्ब्रह्म केवलम् ।

आत्मानमालोकयति मनसा प्रहसन्निव ॥ ४६॥

इदं सर्वरहस्यं ते मयोक्तं द्विजसत्तम ।

आपृच्छे साधयिष्यामि गच्छ शिष्ययथासुखम् ॥ ४७॥

इत्युक्तः स तदा कृष्ण मया शिष्यो महातपाः ।

अगच्छत यथाकामं ब्राह्मणश्छिन्नसंशयः ॥ ४८॥

वासुदेव उवाच

इत्युक्त्वा स तदा वाक्यं मां पार्थ द्विजपुङ्गवः ।

मोक्षधर्माश्रितः सम्यक्तत्रैवान्तरधीयत ॥ ४९॥

कच्चिदेतत्त्वया पार्थ श्रुतमेकाग्रचेतसा ।

तदापि हि रथस्थस्त्वं श्रुतवानेतदेव हि ॥ ५०॥

नैतत्पार्थ सुविज्ञेयं व्यामिश्रेणेति मे मतिः ।

नरेणाकृत सञ्ज्ञेन विदग्धेनाकृतात्मना ॥ ५१॥

सुरहस्यमिदं प्रोक्तं देवानां भरतर्षभ ।

कच्चिन्नेदं श्रुतं पार्थ मर्त्येनान्येन केन चित् ॥ ५२॥

न ह्येतच्छ्रोतुमर्होऽन्यो मनुष्यस्त्वामृतेऽनघ ।

नैतदद्य सुविज्ञेयं व्यामिश्रेणान्तरात्मना ॥ ५३॥

क्रियावद्भिर्हि कौन्तेय देवलोकः समावृतः ।

न चैतदिष्टं देवानां मर्त्यै रूपनिवर्तनम् ॥ ५४॥

परा हि सा गतिः पार्थ यत्तद्ब्रह्म सनातनम् ।

यत्रामृतत्वं प्राप्नोति त्यक्त्वा दुःखं सदा सुखी ॥ ५५॥

एवं हि धर्ममास्थाय योऽपि स्युः पापयोनयः ।

स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥ ५६॥

किं पुनर्ब्राह्मणाः पार्थ क्षत्रिया वा बहुश्रुताः ।

स्वधर्मरतयो नित्यं ब्रह्मलोकपरायणाः ॥ ५७॥

हेतुमच्चैतदुद्दिष्टमुपायाश्चास्य साधने ।

सिद्धेः फलं च मोक्षश्च दुःखस्य च विनिर्णयः ।

अतः परं सुखं त्वन्यत्किं नु स्याद्भरतर्षभ ॥ ५८॥

श्रुतवाञ्श्रद्दधानश्च पराक्रान्तश्च पाण्डव ।

यः परित्यजते मर्त्यो लोकतन्त्रमसारवत् ।

एतैरुपायैः स क्षिप्रं परां गतिमवाप्नुयात् ॥ ५९॥

एतावदेव वक्तव्यं नातो भूयोऽस्ति किं चन ।

षण्मासान्नित्ययुक्तस्य योगः पार्थ प्रवर्तते ॥ ६०॥

इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिके पर्वणि अनुगीतापर्वणि एकोनविंषोऽध्यायः ॥

अनुगीता ४ हिन्दी अनुवाद

सिद्ध ब्राह्मण ने कहा- काश्यप! जो मनुष्य (स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में क्रमश:) पूर्व-पूर्व का अभिमान त्यागकर कुछ भी चिन्तन नहीं करता और मौन भाव से रहकर सब के एकमात्र अधिष्ठान पर ब्रह्म परमात्मा में लीन रहता है, वही संसार बन्धन से मुक्त होता है। जो सबका मित्र, सब कुछ सहने वाला, मनोनिग्रह में तत्पर, जितेन्द्रिय, भय और क्रोध से रहित तथा आत्मवान है, वह मनुष्य बन्धन से मुक्त हो जाता है। जो नियमपरायण और पवित्र रहकर सब प्राणियों के प्रति अपने जैसा बर्ताव करता है, जिसके भीतर सम्मान पाने की इच्छा नहीं है तथा जो अभिमान से दूर रहता है, वह सर्वथा मुक्त ही है। जो जीवन मरण, सुख दु:ख, लाभ-हानि तथा प्रिय-अप्रिय आदि द्वन्द्वों को समभाव से देखता है, वह मुक्त हो जाता है। जो किसी के द्रव्य का लोभ नहीं रखता, किसी की अवहेलना नहीं करता, जिसके मन पर द्वन्द्वों का प्रभाव नहीं पड़ता और जिसके चित्त की आसक्ति दूर हो गयी है, वह सर्वथा मुक्त ही है। जो किसी को अपना मित्र, बन्धु या संतान नहीं मानता, जिसने सकाम धर्म, अर्थ और काम का त्याग कर दिया है तथा जो सब प्रकार की आकांक्षाओं से रहित है, वह मुक्त हो जाता है। जिसकी न धर्म में आसक्ति है न अधर्म में, जो पूर्व संचित कर्मों को त्याग चुका है, वासनाओं का क्षय हो जाने से जिसका चित्त शान्त हो गया है तथा जो सब प्रकार के द्वन्द्वों से रहित है, वह मुक्त हो जाता है। जो किसी भी कर्म का कर्ता नहीं बनता, जिसके मन में कोई कामना नहीं है, जो इस जगत को अश्वत्थ के समान अनित्य-काल तक न टिक सकने वाला समझता है तथा जो सदा इसे जन्म, मृत्यु और जरा से युक्त जानता है, जिसकी बुद्धि वैराग्य में लगी है और जो निरन्तर अपने दोषों पर दृष्टि रखता है, वह शीघ्र ही अपने बन्धन का नाश कर देता है। जो आत्मा को गन्ध, रस, स्पर्श, शब्द, परिग्रह, रूप से रहित तथा अज्ञेय मानता है, वह मुक्त हो जाता है। जिसकी दृष्टि में आत्मा पांच भौतिक गुणों से हीन, निराकार, कारण रहित तथा निर्गुण होते हुए भी (माया के सम्बन्ध से) गुणों का भोक्ता है, वह मुक्त हो जाता है। जो बुद्धि से विचार करके शारीरिक और मानसिक सब संकल्पों का त्याग कर देता है, वह बिना ईंधन की आग के समान धीरे-धीरे शान्ति को प्राप्त हो जाता है। जो सब प्रकार के संस्कारों से रहित, द्वन्द्व और परिग्रह से रहित हो गया है तथा जो तपस्या के द्वारा इन्द्रिय-समूह को अपने वश में करके (अनासक्त) भाव से विचरता है, वह मुक्त ही है। जो सब प्रकार के संस्कारों से मुक्त होता है, वह मनुष्य शान्त, अचल, नित्य, अविनशी एवं सनातन पर ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। अब मैं उस परम उत्तम योग शास्त्र का वर्णन करूँगा, जिसके अनुसार योग-साधन करने वाले योगी पुरुष अपने आत्मा का साक्षात्कार कर लेते हैं। मैं उसका यथावत उपदेश करता हूँ। मनोनिग्रह के जिन उपायों द्वारा चित्त को इस शरीर के भीतर ही वशीभूत एवं अन्तमुर्ख करके योगी जन नित्य आत्मा का दर्शन करता है, उन्हें मुझसे श्रवण करो।

इन्द्रियों को विषयों की ओर से हटाकर मन में और मन को आत्मा में स्थापित करे। इस प्रकार पहले तीव्र तपस्या करके फिर मोक्षोपयोगी उपाय का अवलम्बन करना चाहिये। मनीषी ब्राह्मण को चाहिये कि वह सदा तपस्या में प्रवृत्त एवं यत्नशील होकर योग शास्त्रों का उपाय का अनुष्ठान करे। इससे वह मन के द्वारा अन्त:करण में आत्मा का साक्षात्कार करता है। एकान्त में रहने वाला साधक पुरुष यदि अपने मन को आत्मा में लगाये रखने में सफल हो जाता है तो वह अवश्य ही अपने में आत्मा का दर्शन करता है। जो साधक सदा संयमपरायण, योगयुक्त, मन को वश में करने वाला और जितेन्द्रिय है, वही आत्मा से प्रेरित होकर बुद्धि के द्वारा उसका साक्षात्कार कर सकता है। जैसे मनुष्य सपने में किसी अपरिचित पुरुष को देखकर जब पुन: उसे जाग्रत अवस्था में देखता है, तब तुरंत पहचान लेता है कि ‘यह वही है।’ उसी प्रकार साधन परायण योगी समाधि अवस्था में आत्मा को जिस रूप में देखता है, उसी रूप में उसके बाद भी देखता रहता है। जैसे कोई मनुष्य मूँज से सींक को अलग करके दिखा दे, वैसे ही योगी पुरुष आत्मा को इस देह से पृथक करके देखता है। यहाँ शरीर को मूँज कहा गया है और आत्मा को सींक। योग वेत्ताओं ने देह और आत्मा के पार्थक्य को समझने के लिये यह बहुत उत्तम दृष्टान्त दिया है। देहधारी जीव जब योग के द्वारा आत्मा का यथार्थ रूप से दर्शन कर लेता है, उस समय उसके ऊपर त्रिभुवन के अधीश्वर का भी आधिपत्य नहीं रहता है। वह योगी अपनी इच्छा के अनुसार विभिन्न प्रकार के शरीर धारण कर सकता है, बुढ़ापा और मृत्यु को भी भगा देता है, वह न कभी शोक करता है न हर्ष। अपनी इंद्रियों को वश में रखने वाला योगी पुरुष देवताओं का भी देवता हो सकता है। वह इस अनित्य शरीर का त्याग करके अविनाशी ब्रह्म को प्राप्त होता है। सम्पूर्ण प्राणियों का विनाश होने पर भी उसे भय नहीं होता। सबके क्लेश उठाने पर भी उसको किसी से क्लेश नहीं पहुँचता। शान्तचित्त एवं नि:स्पृह योगी आसक्ति और स्नेह से प्राप्त होने वाले भयंकर दु:ख शोक तथा भय से विचलित नहीं होता। उसे शस्त्र नहीं बींध सकते, मृत्यु उसके पास नहीं पहुँच पाती, संसार में उससे बढ़कर सुखी कहीं कोई नहीं दिखायी देता। वह मन को आत्मा में लीन करके उसी में स्थित हो जाता है तथा बुढ़ापा के दु:खों से छुटकारा पाकर सुख से सोता-अक्षय आनन्द का अनुभव करता है। वह इस मानव शरीर का त्याग करके इच्छानुसार दूसरे बहुत से शरीर धारण करता है। योगजनित ऐश्वर्य का उपभोग करने वाले योगी को योग से किसी तरह विरक्त नहीं होना चाहिये। अच्छी तरह योग का अभ्यास करके जब योगी अपने में ही आत्मा का साक्षात्कार करने लगाता है, उस समय वह साक्षात इन्द्र के पद को पाने की इच्छा नहीं करता है। एकान्त में ध्यान करने वाले पुरुष को जिस प्रकार योग की प्राप्ति होती है, वह सुनो- जो उपदेश पहले श्रुति में देखा गया है, उसका चिन्तन करके जिस भाग में जीव का निवास माना गया है, उसी में मन को भी स्थापित करे। उसके बाहर कदापि न जाने दे।

शरीर के भीतर रहते हुए वह आत्मा जिस आश्रय में स्थित होता है, उसी में बाह्य और आभ्यन्तर विषयों सहित मन को धारण करे। मूलाधार आदि किस आश्रय में चिन्तन करके जब वह सर्वस्वरूप परमात्मा का साक्षात्कार करता है, उस समय उसका मन प्रत्यक स्परूप आत्मा से भिन्न कोई ‘बाह्य’ वस्तु नहीं रह जाता। निर्जन वन में इन्द्रिय समुदाय को वश में करके एकाग्रचित्त हो शब्द शून्य अपने शरीर के बाहर और भीतर प्रत्येक अंग में परिपूर्ण परब्रह्म परमात्मा का चिन्तन करे। दन्त, तालु, जिह्वा, गला, ग्रीवा, हृदय तथा हृदय बन्धन (नाड़ी मार्ग) को भी परमात्मरूप से चिन्तन करे। मधुसूदन! मेरे ऐसा कहने पर उस मेधावी शिष्य ने पुन: जिसका निरूपण करना अत्यन्त कठिन है, उस मोक्षधर्म के विषय में पूछा- ‘यह बारंबार खाया हुआ अन्न उदर में पहुँचकर कैसे पचता है? किस तरह उसका रस बनता है और किस प्रकार वह रक्त के रूप में परिणत हो जाता है? स्त्री शरीर में मांस, मेदा, स्नायु और हड्डियाँ कैसे होती हैं? देहधारियों के समस्त शरीर कैसे बढ़ते हैं? बढ़ते हुए शरीर का बल कैसे बढ़ता है? जिनका सब ओर से अवरोध है, उन मलों का पृथक पृथक नि:सारण कैसे होता है? यह जीव कैसे साँस लेता, कैसे अच्छ्वास खींचता और किस स्थान में रहकर इस शरीर में सदा विद्यमान रहता है? चेष्टाशील जीवात्मा इस शरीर का भार कैसे वहन करता है? फिर कैसे और किस रंग के शरीर को धारण करता है। निष्पाप भगवन! यह सब मुझे यथार्थरूप से बताइये।’ शत्रुदमन महाबाहु माधव! उस ब्राह्मण के इस प्रकार पूछने पर मैंने जैसा सुना था वैसा ही उसे बताया। जैसे घर का सामान अपने कोटे में डालकर भी मनुष्य उन्हीं के चिन्तन में मन लगाये रहता है, उसी प्रकार इन्द्रियरूपी चंचल द्वादरों से विचरने वाले मन को अपनी काया में ही स्थापित करके वहीं आत्मा का अनुसंधान करे और प्रमाद को त्याग दे। इस प्रकार सदा ध्यान के लिये प्रयत्न करने वाले पुरुष का चित्त शीघ्र ही प्रसन्न हो जाता है और वह उस परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है, जिसका साक्षात्कार करके मनुष्य प्रकृति एवं उसके विकारों को स्वत: जान लेता है। उस परमात्मा का इन चर्म चक्षुओं से दर्शन नहीं हो सकता, सम्पूर्ण इन्द्रियों से भी उसको ग्रहण नहीं किया जा सकता, केवल बुद्धिरूपी दीपक ही सहायता से ही उस महान आत्मा का दर्शन होता है। वह सब ओर हाथ पैर वाला, सब ओर नेत्र और सिर वाला तथा सब ओर कान वाला है, क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है। तत्त्वज्ञ जीव अपने आपको शरीर से पृथक देखता है। वह शरीर के भीतर रहकर भी उसका त्याग करे उसकी पृथकता का अनुभव करके अपने स्वरूप भूत केवल परब्रह्म परमात्मा का चिन्तन करता हुआ बुद्धि के सहयोग से आत्मा का साक्षात्कार करता है। उस समय वह यह सोचकर हँसता सा रहता है कि अहो! मृगतृष्णा में प्रतीत होने वाले जल की भाँति मुझ में ही प्रतीत होने वाले इस संसार ने मुझे अब तक व्यर्थ ही भ्रम में डाल रखा था। जो इस प्रकार परमात्मा का दर्शन करता है, वह उसी का आश्रय लेकर अन्त में मुझमें ही मुक्त हो जाता है। (अर्थात अपने आप में ही परमात्मा का अनुभव करने लगता है।)

द्विजश्रेष्ठ! यह सारा रहस्य मैंने तुम्हें बता दिया। अब मैं जाने की अनुमति चाहता हूँ। विप्रवर! तुम भी सुखपूर्वक अपने स्थान को लौट जाओ। श्रीकृष्ण! मेरे इस प्रकार कहने पर वह कठोर व्रत का पालन करने वाला मेरा महातपस्वी शिष्य ब्राह्मण काश्यप इच्छानुसार अपने अभीष्ट स्थान को चला गया। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- अर्जुन! मोक्ष धर्म का आश्रय लेने वाले वे सिद्ध महात्मा श्रेष्ठ ब्राह्मण मुझ से यह प्रसंग सुनाकर वहीं अन्तर्धान हो गये। पार्थ! क्या तुमने मरे बताये हुए इस उपदेश को एकाग्रचित्त होकर सुना है? उस युद्ध के समय भी तुमने रथ पर बैठे-बैठे इसी तत्त्व को सुना था। कुन्तीनन्दन! मेरा तो ऐसा विश्वास है कि जिसका चित्त व्यग्र है, जिसे ज्ञान का उपदेश नहीं प्राप्त है, वह मनुष्य इस विषय को सुगमतापूर्वक नहीं समझ सकता। जिसका अन्त:करण शुद्ध है वही इसे जान सकता है। भरतश्रेष्ठ! यह मैंने देवताओं का परम गोपनीय रहस्य बताया है। पार्थ! इस जगत में किसी भी मनुष्य ने इस रहस्य का श्रवण नहीं किया है। अनघ! तुम्हारे सिवा दूसरा कोई मनुष्य इसे सुनने का अधिकारी भी नहीं है। जिसका चित्त दुविधा में पड़ा हुआ है, वह इस समय इसे अच्छी तरह नहीं समझ सकता। कुन्तीकुमार! क्रियावान पुरुषों से देवलोक भरा पड़ा है। देवताओं का यह अभीष्ट नहीं है कि मनुष्य के मर्त्यरूप की निवृत्ति हो। पार्थ! जो सनातन ब्रह्म है, वही जीव की परम गति है। ज्ञानी मनुष्य देह को त्यागकर उस ब्रह्म में ही अमृतत्त्व को प्राप्त होता है और सदा के लिये सुखी हो जाता है। इस आत्मदर्शन रूप धर्म का आश्रय लेकर वैश्य और शूद्र तथा जो पाप योनि के मनुष्य हैं वे परमगति को प्राप्त हो जाते हैं। पार्थ! फिर जो अपने धर्म में प्रेम रखते और ब्रह्मलोक की प्राप्ति के साधन में लगे रहते हैं, उन बहुश्रुत ब्राह्मण और क्षत्रियों की तो बात ही क्या है? इस प्रकार मैंने तुम्हें मोक्षधर्म का युक्तियुक्त उपदेश किया है। उसके साधन के उपाय भी बतलाये हैं और सिद्धि, फल, मोक्ष तथा दु:ख के स्वरूप का भी निर्णय किया है। भरतश्रेष्ठ! इससे बढ़कर दूसरा कोई सुखदायक धर्म नहीं है। पाण्डुनन्दन! जो कोई बुद्धिमान, श्रद्धालु और पराक्रमी मनुष्य लौकिक सुख को सारहीन समझकर उसे त्याग देता है, वह उपर्युक्त इन उपायों के द्वारा बहुत शीघ्र परम गति को प्राप्त कर लेता है। पार्थ! इतना ही कहने योग्य विषय है। इससे बढ़कर कुछ भी नहीं है। जो छ: महीने तक निरन्तर योग का अभ्यास करता है, उसका योग अवश्य सिद्ध हो जाता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व में उन्नीसवां अध्याय पूरा हुआ।

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