Aruna Asaf Ali Autobiography | अरुणा आसफ़ अली का जीवन परिचय : स्वाधीनता संग्राम की ग्रांड ओल्ड लेडी

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वैसे भारत की आज़ादी की लड़ाई में कई महिला नेता शामिल रही हैं। आज उन्हीं में एक महिला नेता के बारे में हम जानेंगे जिन पर ब्रिटिश सरकार ने आवारा होने का आरोप लगाकर जेल भेज दिया था। उस महिला का नाम था अरुणा आसफ़ अली। उन्होंने ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में अहम भूमिका निभाई थी। उन्हें स्वाधीनता संग्राम की ‘ग्रांड ओल्ड लेडी ‘ भी कहा जाता है। अरुणा आसफ़ अली का जन्म 16 जुलाई साल 1909 में हरियाणा के कालका शहर में एक हिंदू बंगाली परिवार में हुआ था। उनकी मां का नाम अम्बालिका देवी और पिता का नाम उपेन्द्र नाथ गांगुली था, उनका नैनीताल में होटल का व्यवसाय था। अरुणा ने अपनी स्कूली पढ़ाई लौहार के सेक्रेड हार्ट कान्वेंट स्कूल से की और बाद में नैनीताल के ऑल सेंट्स कॉलेज से अपना ग्रैजुएशन किया। अपने ग्रेजुएशन के बाद वह कलकत्ता के प्रतिष्ठित गोखले मेमोरियल में शिक्षक के तौर कार्यरत थीं।

साल 1928 में अरुणा की मुलाकात इलाहाबाद में आसफ़ अली से हुई थी, जो पेशे से वकील थे और भारतीय नेशनल कांग्रेस के मुख्य सदस्य थे। दोनों के विचारों में काफी समानता थी, जिसके बाद दोनों ने शादी भी कर ली। अरुणा ने अपने माता- पिता की इच्छा के विरुद्ध आसफ़ अली से विवाह किया था। आसफ़ अली उन तीनों लोगों में से एक थे जिन्होंने असेंबली मे बम डालने के बाद गिरफ्तार हुए भगत सिंह का अदालत में केस लड़ा था। साल 1930 में अरुणा ने नमक सत्याग्रह में भाग लिया था और इस सत्याग्रह के दौरान उन्होंने सार्वजनिक सभाओं को संबोधित भी किया। ब्रिटिश सरकार ने उन पर आवारा होने का आरोप लगाकर उन्हें जेल भेज दिया। साल 1931 में गांधी- इरविन समझौते के बाद भी वह जेल में ही रहीं, जबकि सभी राजनीतिक कैदियों के रिहा कर दिया गया था।

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8 अगस्त साल 1942 को, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने अपने बॉम्बे अधिवेशन में ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पारित किया। आंदोलन को रोकने के लिए ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया, तब 8 अगस्त को अरुणा ने मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान में झंड़ा फहराकर इस आंदोलन की अध्यक्षता की। इस घटना के बाद अरुणा अंडरग्राउंड हो गईं। ब्रिटिश सरकार ने उनकी संपत्ति को जब्त कर बेच दी और उन्हें पकड़ने के लिए 5000 रुपए के ईनाम की घोषणा की। इसी बीच अरुणा की तबीयत खराब हो गई और यह खबर सुनकर गांधी जी ने उन्हें समर्पण करने की सलाह दी। 26 जनवरी 1946 को ब्रिटिश सरकार ने उनका गिरफ्तारी का वारंट रद्द कर दिया जिसके बाद उन्होंने सरेंडर कर दिया। इसके बाद अरुणा नेता जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया के संपर्क में आई।

साल 1948 में अरुणा ने समाजवादी नेताओं के साथ मिलकर एक सोशलिस्ट पार्टी बनाई। साल 1955 में उनकी सोशलिस्ट पार्टी भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी में शामिल हो गई। और अरुणा इस पार्टी की केंद्रीय समिति की सदस्य और ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस की अपाध्यक्ष बन गई। साल 1958 में दिल्ली को अरुणा के रुप में अपनी पहली मेयर मिली। साल 1960 में उन्होंने एक मीडिया पब्लिशिंग हाउस की स्थापना की। अरुणा आसफ़ अली ने ‘Words Of Freedom: Ideas Of a Nationनामक किताब लिखी थी। साथ ही उन्होंने डॉ राम मनोहर लोहिया के साथ मिलकर इंकलाब’ नामक एक मासिक पत्रिका का संचालन भी किया था। जिसमें उन्होंने मार्च 1944 में लिखा था, “आज़ादी की लडा़ई के लिए हिंसा- अहिंसा की बहस में नहीं पड़ना चाहिए, क्रांति का यह समय बहस में खोने का नहीं है। मैं चाहती हूं, इस समय देश का हर नागरिक अपने ढंग से क्रांति का सिपाही बने।” देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद भी अरुणा आसफ़ अली देश और समाज कल्याण के कामों लगी रहीं। उन्होंने महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए महिला शिक्षा के लिए भी काम किया।

साल 1975 में उन्हें लेनिन शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया और साल 1991 में उन्हें अंतरराष्ट्रीय ज्ञान के लिए जवाहर लाल नेहरू पुरस्कार मिला। 26 जुलाई साल 1996 में, अरुणा ने 87 साल की उम्र में दिल्ली में अपनी आखिरी सांसे ली। मरणोंपरांत उन्हें साल 1997 में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया। और इसी साल भारत सरकार ने उनके नाम पर एक डाक टिकट भी जारी की। उनकी याद में दक्षिण दिल्ली में एक सड़क का नाम अरुणा आसफ़ अली मार्ग रखा गया। भारत की आजादी के संघर्ष के इतिहास में अरुणा आसफ़ अली के अमूल्य योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है।

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