Ashfaqulla Khan Autobiography | अशफाक़उल्ला खान का जीवन परिचय : भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के स्वतंत्रता सेनानी थे।
अशफाक उल्ला खान, भारत के प्रसिद्ध अमर शहीद क्रांतिकारियों में गिने जाते है। उन्होने रामप्रसाद बिस्मिल के साथ मिलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना की। वर्ष 1925 में उन्होने चंद्रशेखर आजाद और राजेन्द्र लाहीडि जैसे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर काकोरी कांड को अंजाम दिया। उन्होने वारसी और हसरत के नाम से हिन्दी और उर्दू में कई कविताएं और गजलें लिखी।
जीवन परिचय | |
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व्यवसाय | भारतीय स्वतंत्रता सेनानी |
जाने जाते हैं | वर्ष 1922 में ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान काकोरी ट्रेन डकैती मामले के मास्टरमाइंड में से एक होने के नाते |
शारीरिक संरचना | |
आँखों का रंग | काला |
बालों का रंग | काला |
व्यक्तिगत जीवन | |
जन्मतिथि | 22 अक्टूबर 1900 (सोमवार) |
जन्मस्थान | शाहजहांपुर, संयुक्त प्रांत, ब्रिटिश भारत (वर्तमान- उत्तर प्रदेश) |
मृत्यु तिथि | 19 दिसंबर 1927 (सोमवार) |
मृत्यु स्थल | फैजाबाद, संयुक्त प्रांत, ब्रिटिश भारत (वर्तमान- उत्तर प्रदेश, भारत) |
आयु (मृत्यु के समय) | 27 वर्ष |
मृत्यु का कारण | काकोरी ट्रेन डकैती मामले में अशफाकउल्ला खान को ब्रिटिश सरकार ने फांसी पर लटका दिया था। |
राशि | तुला (Libra) |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
गृहनगर/राज्य | शाहजहांपुर, संयुक्त प्रांत, ब्रिटिश भारत (वर्तमान- उत्तर प्रदेश) |
जाति | अशफाकउल्ला खान जनजाति के एक मुस्लिम पठान परिवार से ताल्लुक रखते थे। |
प्रेम संबन्ध एवं अन्य जानकारियां | |
वैवाहिक स्थिति | अविवाहित |
गर्लफ्रेंड | ज्ञात नहीं |
परिवार | |
पत्नी | लागू नहीं |
माता/पिता | पिता– शफीकुल्लाह खान माता– मजहरुनिसा |
भाई | बड़े भाई– 3 • छोटा उल्ला खान • रियासतुल्लाह खान • तीसरे का नाम ज्ञात नहीं |
अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ, भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के एक प्रमुख क्रान्तिकारी थे। उन्होंने काकोरी काण्ड में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। ब्रिटिश शासन ने उनके ऊपर अभियोग चलाया और १९ दिसम्बर सन् १९२७ को उन्हें फैजाबाद जेल में फाँसी पर लटका कर मार दिया गया। राम प्रसाद बिस्मिल की भाँति अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ भी उर्दू भाषा के बेहतरीन शायर थे।
उनका उर्दू तखल्लुस, जिसे हिन्दी में उपनाम कहते हैं, हसरत था। उर्दू के अतिरिक्त वे हिन्दी व अँग्रेजी में लेख एवं कवितायें भी लिखा करते थे। उनका पूरा नाम अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ वारसी हसरत था। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के सम्पूर्ण इतिहास में बिस्मिल और अशफ़ाक़ की भूमिका निर्विवाद रूप से हिन्दू-मुस्लिम एकता का अनुपम आख्यान है।
अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ का जन्म उत्तर प्रदेश के शहीदगढ शाहजहाँपुर में रेलवे स्टेशन के पास स्थित कदनखैल जलालनगर मुहल्ले में २२ अक्टूबर १९०० को हुआ था। उनके पिता का नाम मोहम्मद शफीक उल्ला ख़ाँ था। उनकी माँ मजहूरुन्निशाँ बेगम बला की खूबसूरत खबातीनों (स्त्रियों) में गिनी जाती थीं। अशफ़ाक़ ने स्वयं अपनी डायरी में लिखा है कि जहाँ एक ओर उनके बाप-दादों के खानदान में एक भी ग्रेजुएट होने तक की तालीम न पा सका वहीं दूसरी ओर उनकी ननिहाल में सभी लोग उच्च शिक्षित थे।
उनमें से कई तो डिप्टी कलेक्टर व एस. जे. एम. (सब जुडीशियल मैजिस्ट्रेट) के ओहदों पर मुलाजिम भी रह चुके थे। १८५७ के गदर में उन लोगों (उनके ननिहाल वालों) ने जब हिन्दुस्तान का साथ नहीं दिया तो जनता ने गुस्से में आकर उनकी आलीशान कोठी को आग के हवाले कर दिया था। वह कोठी आज भी पूरे शहर में जली कोठी के नाम से मशहूर है। बहरहाल अशफ़ाक़ ने अपनी कुरबानी देकर ननिहाल वालों के नाम पर लगे उस बदनुमा दाग को हमेशा – हमेशा के लिये धो डाला।
बचपन से इन्हें खेलने, तैरने, घुड़सवारी और बन्दुक चलने में बहुत मजा आता था. इनका कद काठी मजबूत और बहुत सुन्दर था.बचपन से ही इनके मन देश के प्रति अनुराग था. देश की भलाई के लिये चल रहे आंदोलनों की कक्षा में वे बहुत रूचि से पढाई करते थे. धीरे धीरे उनमें क्रांतिकारी के भाव पैदा हुए. वे हर समय इस प्रयास में रहते थे कि किसी ऐसे व्यक्ति से भेंट हो जाय जो क्रांतिकारी दल का सदस्य हो. जब मैनपुरी केस के दौरान उन्हें यह पता चला कि राम प्रसाद बिस्मिल उन्हीं के शहर के हैं तो वे उनसे मिलने की कोशिश करने लगे.
धीरे धीरे वे राम प्रसाद बिस्मिल के संपर्क में आये और बाद में उनके दल के भरोसेमंद साथी बन गए. इस तरह से वे क्रांतिकारी जीवन में आ गए. वे हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे. उनके लिये मंदिर और मस्जिद एक समान थे. एक बार शाहजहाँपुर में हिन्दू और मुसलमान आपस में झगड़ गए और मारपीट शुरू हो गयी. उस समय अशफाक बिस्मिल के साथ आर्य समाज मन्दिर में बैठे हुए थे. कुछ मुसलमान मंदिर पर आक्रमण करने की फ़िराक में थे.
अशफाक ने फ़ौरन पिस्तौल निकाल लिया और गरजते हुए बोले – मैं भी कट्टर मुस्लमान हूँ लेकिन इस मन्दिर की एक एक ईट मुझे प्राणों से प्यारी हैं. मेरे लिये मंदिर और मस्जिद की प्रतिष्ठा बराबर है. अगर किसी ने भी इस मंदिर की नजर उठाई तो मेरी गोली का निशाना बनेगा. अगर तुम्हें लड़ना है तो बाहर सड़क पर जाकर खूब लड़ो. यह सुनकर सभी के होश उड़ गए और किसी का साहस नहीं हुआ कि उस मंदिर पर हमला करे.
अपने चार भाइयो में अशफाकुल्ला सबसे छोटे थे. उनके बड़े भाई रियासत उल्लाह खान पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के सहकर्मी थे. जब मणिपुर की घटना के बाद बिस्मिल को भगोड़ा घोषित किया गया तब रियासत अपने छोटे भाई अश्फाक को बिस्मिल की बहादुरी के किस्से सुनाते थे. तभी से अश्फाक को बिस्मिल से मिलने की काफी इच्छा थी, क्योकि अश्फाक भी एक कवी थे और बिस्मिल भी एक कवी ही थे. 1920 में जब बिस्मिल शाहजहाँपुर आये और जब उन्होंने स्वयं को व्यापार में वस्त कर लिया, तब अश्फाक ने बहोत सी बार उनसे मिलने की कोशिश की थी लेकिन उस समय बिस्मिल ने कोई ध्यान नही दिया था.
1922 में जब नॉन-कोऑपरेशन (असहयोग आन्दोलन) अभियान शुरू हुआ और जब बिस्मिल ने शाहजहाँपुर में लोगो को इस अभियान के बारे में बताने के लिये मीटिंग आयोजित की तब एक पब्लिक मीटिंग में अशफाकुल्ला की मुलाकात बिस्मिल से हुई थी और उन्होंने बिस्मिल को अपने परिचय भी दिया की वे अपने सहकर्मी के छोटे भाई है. उन्होंने बिस्मिल को यह भी बताया की वे अपने उपनाम ‘वारसी’ और ‘हसरत’ से कविताये भी लिखते है.
और बाद में कुछ समय तक साथ रहने के बाद अश्फाक और बिस्मिल भी अच्छे दोस्त बन गये. अश्फाक जब भी कुछ लिखते थे तो तुरंत बिस्मिल को जाकर दिखाते थे और बिस्मिल उनकी जांच कर के गलतियों को सुधारते भी थे. कई बाद तो बिस्मिल और अश्फाक के बीच कविताओ और शायरियो की जुगलबंदी भी होती थी, जिसे उर्दू भाषा में मुशायरा भी कहा जाता है.
प्रारंभिक जीवन (Ashfaqulla Khan Early Life)
अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ का जन्म 22 अक्टूबर 1900 को उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर जिले के जलालनगर में हुआ था। इनका पूरा नाम अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ वारसी ‘हसरत’ था। इनका परिवार आर्थिक रूप से संपन्न था। इनके पिता का नाम मोहम्मद शफीक उल्ला ख़ाँ था जो कि पठान परिवार से सम्बन्ध रखते थे। इनकी माता का नाम मजहूर-उन-निसा था जो कि एक गृहिणी महिला थी। अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ परिवार में सबसे छोटे थे और उनके तीन बड़े भाई थे। परिवार में सब उन्हें प्यार से अच्छू कहते थे। बचपन से ही अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ को खेलने, घुड़सवारी, निशानेबाजी और तैरने का बहुत शौक था और वे उर्दू में कविता भी किया करते थे। बचपन से अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ में देश के प्रति कुछ करने का जज्बा था। वे हमेशा इस प्रयास में रहते थे कि किसी क्रांतिकारी दल का हिस्सा बना जाएं। इसके लिए वे कई लोगों से संपर्क करते रहते थे। किये थे काम हमने भी, जो कुछ भी हमसे बन पाए, ये बातें तब की हैं आज़ाद थे और था शबाब अपना. मगर अब तो को कुछ भी है उम्मीदें बस वो तुम से हैं, जवान तुम हो लबे-बीम आ चुका है आफताब अपना।
क्रांतिकारी जीवन (Ashfaqulla Khan Revolutionary Life)
अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ का दिल शुरू से ही देश की सेवा में अपना योगदान देने का रहा और इसी के साथ धीरे-धीरे उनमें क्रान्तिकारी भावनाएं पैदा होने लगी जिस कारण उनके ह्रदय में बस ही ख्याल आता रहा की काश कोई ऐसे क्रांतिकारी नेता से मुलाकात हो जाए जो क्रांतिकारी संगठन से जुड़ा हो। उसी दौरान ‘मैनपुरी षड़यन्त्र’ का मामला तेजी पर था और इसकी चर्चा हर तरफ हो रही थी। तभी उन्हें एक खबर मिली की इस घटना में एक योवक के नाम वारण्ट निकला हैं और वह शाहजहाँपुर का रहने वाला हैं। इस खबर की जानकारी लगते ही अशफ़ाक़ जी का चेहरा खिल सा उठा उनके शहर में ही उन्हें वो मिल गया जिसकी तलाश थी।
ख़ुशी ऐसी थी उन्हें जैसे मानो उन्हें घर बैठे कोई खजाना मिल गया है। वह युवक और कोई नहीं महान क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल थे जो इनके बचपन के दोस्त थे। इस घटना के बाद रामप्रसाद बिस्मिल अंग्रेजी सरकार को चकमा दे कर फ़रार थे। इस के बाद वे क्रान्तिकारी जीवन में प्रवेश कर गए। और इसके बाद हिन्दु-मुस्लिम एकता के पुजारी अशफ़ाक़ ने एक नयी उर्जा के साथ प्रयत्न किया कि उनकी ही तरह अन्य मुस्लिम नवयुवक भी क्रान्तिकारी दल के सदस्य बनें और देश की आज़ादी के लिए कार्य करे।
पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव (Proposal for Full Swaraj)
1921 में कांग्रेस द्वारा अहमदाबाद में अधिवेशन हुआ जिसमे उनकी मुलाकात मौलाना हसरत मोहानी से हुई जो कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में गिने जाते थे। मौलाना हसरत मोहानी द्वारा देश के हित में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव रखा गया तब इस प्रस्ताव के लिए गाँधी जी ने अपना विरोध जाहिर किया। इस विरोध को लेकर कांग्रेसी स्वयंसेवकों में गुस्सा हद से ज्यादा आ गया और शाहजहाँपुर के कांग्रेसी स्वयंसेवकों के साथ अशफ़ाक़ जी ने भी गान्धी जी के विरोध में काफी हंगामा मंचाया। जिसके फलस्वरूप महात्मा गांधी के ना चाहते हुए भी पूर्ण स्वराज के प्रस्ताव को अपनी मंजूरी दे दी और प्रस्ताव को स्वीकार किया।
रामप्रसाद बिस्मिल से मुलाक़ात (Ashfaqulla Khan Meeting with Ramprasad Bismil)
1922 में असहयोग आन्दोलन के दौरान रामप्रसाद बिस्मिल ने शाहजहाँपुर में एक बैठक का आयोजन किया। उस बैठक के दौरान बिस्मिल ने एक कविता पढ़ी थी। जिस पर अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ ने आमीन कहकर उस कविता की तारीफ की। बाद में रामप्रसाद बिस्मिल ने उन्हें बुलाकर परिचय पुछा। जिसके बाद अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ ने बताया की वह रियासत ख़ाँ जी का छोटा सगा भाई और उर्दू शायर भी हैं। कुछ समय बाद वे दोनों बहुत ही अच्छे दोस्त बन गए। जिसके बाद अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ ने रामप्रसाद बिस्मिल के संघठन “मातृवेदी” के सक्रीय सदस्य के रूप में कार्य करना शुरू कर दिया।
काकोरी ट्रेन लूट में भूमिका (Ashfaqulla Khan Role in Kakori Train Robbery)
इन क्रांतिकारियों का ऐसा मानना था की केवल अहिंसा के बल पर हम भारत को आज़ादी नही दिलवा सकते और इसीलिये उनका ऐसा मानना था की ब्रिटिशो को हराने के लिये बम, पिस्तौल और दुसरे हथियारों का उपयोग करना बहोत जरुरी है। राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफाकुल्ला और 8 क्रांतिकारियों ने मिलकर ट्रेन को लूटा। उन 8 क्रांतिकारियों में राजेन्द्र लहिरी, बंगाल के सचिन्द्र नाथ बक्षी, इतावाह के मुकुन्दी लाल, बनारस के मन्मथ नाथ और शाहजहाँपुर के मुरारी लाल शामिल थे।
9 अगस्त 1925 को रेल से ले जाये जा रहे सरकारी खजाने को क्रान्तिकारियों द्वारा लखनऊ के पास काकोरी रेलवे स्टेशन के पास लूट लिया गया। इस काण्ड को पंडित रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ और 8 क्रांतिकारियों ने मिलकर अंजाम दिया था। इस कांड में अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इस ट्रेन डकैती में कुल 4601 रुपये लूटे गए थे। जिसके बाद ये सभी क्रांतिकारी फरार हो गए। परन्तु पुलिस ने बिस्मिल के साझीदार बनारसीलाल से मिलकर इस डकैती का सारा भेद प्राप्त कर लिया।
शहीद अशफाकुल्ला खान (Shaheed Ashfaqulla Khan)
26 सितम्बर 1925 की रात में बिस्मिल के साथ समूचे हिन्दुस्तान से इस काकोरी कांड में शामिल सभी क्रांतिकारियो को गिरफ्तार कर लिया गया। दो लोग अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ और शचीन्द्रनाथ बख्शी को तब गिरफ्तार किया गया जब इस कांड का मुख्य फैसला आ चुका था। 19 दिसम्बर 1927 की शाम फैजाबाद जेल की काल कोठरी में काकोरी कांड, सरकारी खजाना लूटने के जुर्म में फांसी दे दी गई।
राम प्रसाद बिस्मिल से दोस्ती :
चौरी-चौरा कांड के बाद जब महात्मा गांधी ने अपना असयोग आंदोलन वापस ले लिया था, तब हजारों की संख्या में युवा खुद को धोखे का शिकार समझ रहे थे. अशफ़ाक उल्ला खां उन्हीं में से एक थे. उन्हें लगा अब जल्द से जल्द भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति मिलनी चाहिए. इस उद्देश्य के साथ वह शाहजहांपुर के प्रतिष्ठित और समर्पित क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल के साथ जुड़ गए. आर्य समाज के एक सक्रिय सदस्य और समर्पित हिंदू राम प्रसाद बिस्मिल अन्य धर्मों के लोगों को भी बराबर सम्मान देते थे.
वहीं दूसरी ओर एक कट्टर मुसलमान परिवार से संबंधित अशफ़ाक उल्ला खां भी ऐसे ही स्वभाव वाले थे. धर्मों में भिन्नता होने के बावजूद दोनों का मकसद सिर्फ देश को स्वराज दिलवाना ही था. यही कारण है कि जल्द ही अशफ़ाक, राम प्रसाद बिस्मिल के विश्वासपात्र बन गए. धीरे-धीरे इनकी दोस्ती भी गहरी होती गई.
काकोरी कांड :
जब क्रांतिकारियों को यह लगने लगा कि अंग्रेजों से विनम्रता से बात करना या किसी भी प्रकार का आग्रह करना फिजूल है तो उन्होंने विस्फोटकों और गोलीबारी का प्रयोग करने की योजना बनाई. इस समय जो क्रांतिकारी विचारधारा विकसित हुई वह पुराने स्वतंत्रता सेनानियों और गांधी जी की विचारधारा से बिलकुल उलट थी. लेकिन इन सब सामग्रियों के लिए अधिकाधिक धन की आवश्यकता थी.
इसीलिए राम प्रसाद बिस्मिल ने अंग्रेजी सरकार के धन को लूटने का निश्चय किया. उन्होंने सहारनपुर-लखनऊ 8 डाउन पैसेंजर ट्रेन में जाने वाले धन को लूटने की योजना बनाई. 9 अगस्त, 1925 को राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफ़ाक उल्ला खां समेत आठ अन्य क्रांतिकारियों ने इस ट्रेन को लूटा.
ब्रिटिश सरकार क्रांतिकारियों के इस बहादुरी भरे कदम से भौंचक्की रह गई थी. इसलिए इस बात को बहुत ही सीरियसली लेते हुए सरकार ने कुख्यात स्कॉटलैंड यार्ड को इसकी तफ्तीश में लगा दिया. एक महीने तक CID ने भी पूरी मेहनत से एक-एक सुबूत जुटाए और बहुत सारे क्रांतिकारियों को एक ही रात में गिरफ्तार करने में कामयाब रही. 26 सितंबर 1925 को पंडित रामप्रसाद बिस्मिल को भी गिरफ्तार कर लिया गया. और सारे लोग भी शाहजहांपुर में ही पकड़े गए.
पर अशफाक बनारस भाग निकले. जहां से वो बिहार चले गए. वहां वो एक इंजीनियरिंग कंपनी में दस महीनों तक काम करते रहे. वो गदर क्रांति के लाला हरदयाल से मिलने विदेश भी जाना चाहते थे. अपने क्रांतिकारी संघर्ष के लिए अशफाक उनकी मदद चाहते थे. इसके लिए वो दिल्ली गए जहां से उनका विदेश जाने का प्लान था. पर उनके एक अफगान दोस्त ने, जिस पर अशफाक को बहुत भरोसा था, उन्हें धोखा दे दिया. और अशफाक को गिरफ्तार कर लिया गया.
देश पर शहीद हुए इस शहीद की यह रचना :
• कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखाएँगे, आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे।
• हटने के नहीं पीछे, डर कर कभी जुल्मों से, तुम हाथ उठाओगे, हम पैर बढ़ा देंगे।
• बेशस्त्र नहीं है हम, बल है हमें चरखे का, चरखे से जमीं को हम, ता चर्ख गुँजा देंगे।
• परवा नहीं कुछ दम की, गम की नहीं, मातम की, है जान हथेली पर, एक दम में गवाँ देंगे।
• उफ़ तक भी जुबां से हम हरगिज न निकालेंगे, तलवार उठाओ तुम, हम सर को झुका देंगे।
• सीखा है नया हमने लड़ने का यह तरीका, चलवाओ गन मशीनें, हम सीना अड़ा देंगे।
• दिलवाओ हमें फाँसी, ऐलान से कहते हैं, खूं से ही हम शहीदों के, फ़ौज बना देंगे।
• मुसाफ़िर जो अंडमान के तूने बनाए ज़ालिम, आज़ाद ही होने पर, हम उनको बुला लेंगे।
विचार :
• देश भक्ति अपने साथ हर तरह की परेशानियां और दर्द लाती है, मगर जो व्यक्ति इसे चुनता है । उसके लिए ये सभी परेशानियां और दर्द, आराम और आसानी में बदल जाती है। इसलिए हम अपने लक्ष्य के प्रति इतने उत्साहित रहते है ।
• सिर्फ इस देश के प्रति प्रेम की वज़ह से इतना सब कुछ सेहता हुँ ।
• मेरा कोई सपना नही है, और अगर है तो सिर्फ एक है, और वो है की तुम मेरे बच्चो उसी के लिए संघर्षरत रहो जिसके लिए मैं खत्म हो रहा हुँ ।
• भाई और दोस्त रोयेंगे मेरे जाने के बाद मगर मैं रो रहा हुँ उनके व्यव्हार,बेवफाई और जो रूखापन है उनमें अपनी मातृभूमि के प्रति की वजह से ।
• मत रोना बच्चो,मत रोना कोई । मैं अमर हुँ ! मैं अमर हुँ !!
• “किये थे काम हमने भी जो कुछ भी हमसे बन पाये,ये बातें तब की हैं आज़ाद थे और था शबाब अपना; मगर अब तो जो कुछ भी हैं उम्मीदें बस वो तुमसे हैं,जबाँ तुम हो लबे-बाम आ चुका है आफताब अपना.”
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