भज गोविन्दं स्तुति Bhaj Govindam Stotra (मोह मुद्गरम्) हिंदी अर्थ सहित

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‘आदि शंकराचार्य ‘ द्वारा रचित भगवान श्री गोविन्द की अत्यंत मधुर स्तुति भज गोविन्दम् ‘आदि शंकराचार्य ‘ द्वारा रचित प्रसिद्ध स्तोत्र है। यह मूल रूप से बारह पदों में सरल संस्कृत में लिखा गया एक सुंदर स्तोत्र है। इसलिए इसे ‘द्वादश मञ्जरिका’ भी कहते हैं। ‘भज गोविन्दम्’ में शंकराचार्य ने संसार के मोह में न पड़ कर भगवान् कृष्ण (गोविन्द) की भक्ति करने का उपदेश दिया है। ‘भज गोविन्दम्’ के अनुसार, संसार असार है और भगवान् का नाम शाश्वत है। शंकराचार्य ने मनुष्य को किताबी ज्ञान में समय ना गँवाकर और भौतिक वस्तुओं की लालसा, तृष्णा व मोह छोड़ कर भगवान् का भजन करने की शिक्षा दी है। इसलिए ‘भज गोविन्दम’ को ‘मोहमुद्गर’ यानि ‘भ्रम-नाशक मुद्गर या मोंगरी’ भी कहा जाता है। शंकराचार्य का कहना है कि अन्तकाल में मनुष्य की सारी अर्जित विद्याएँ और कलाएँ किसी काम नहीं आएँगी, काम आएगा तो बस हरि नाम। इस स्तोत्र को मोहमुदगर भी कहा गया है जिसका अर्थ है- वह शक्ति जो आपको सांसारिक बंधनों से मुक्त कर दे । भज गोविंदम (गोविंद की स्तुति या खोज) जो 8 वीं शताब्दी का एक लोकप्रिय ग्रंथ है, आदि शंकराचार्य द्वारा रचित संस्कृत में भक्ति रचना है। आदि शंकराचार्य की यह कृति भक्ति और भक्ति आंदोलन के द्वारा भगवान गोविंद के प्रति समर्पण की भावना को व्यक्त करती है। इस कृति को आदि शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत दर्शन का सारांश माना जाता है।

इस भजन की रचना से जुड़ी एक कहानी है। ऐसा कहा जाता है कि श्री आदि शंकराचार्य अपने शिष्यों के साथ एक दिन वाराणसी में एक गली में टहल रहे थे, जब वे सड़क पर बार-बार पाणिनि के संस्कृत व्याकरण के नियमों का पाठ करते हुए एक वृद्ध विद्वान के पास आए। उस पर दया करते हुए, आदि शंकराचार्य विद्वान के पास गए और उन्हें सलाह दी कि वे अपनी उम्र में व्याकरण पर अपना समय बर्बाद न करें, बल्कि अपने मन को भगवान की पूजा और आराधना में बदल दें, जो उन्हें जीवन और मृत्यु के इस दुष्चक्र से बचाएगी। । इस अवसर पर “भज गोविंदम” की रचना की गई है।

आदि शंकराचार्य जिन्हें ज्ञान मार्ग या ज्ञान योग जो कि मुक्ति प्राप्त करने योग्य मार्ग हैं का नव जीवनदाता माना जाता है। वह भक्ति मार्ग या भक्ति योग के भी प्रस्तावक थे जो कि मुक्ति प्राप्त करने का अर्थात एक ही लक्ष्य प्राप्त करने का अन्य मार्ग हैं। “जब बुद्धि या ज्ञान परिपक्व हो जाता है और दिल में सुरक्षित रूप से स्थापित हो जाता है, तो यह विज्ञान बन जाता है। जब विज्ञान जीवन में एकीकृत हो जाता हैं और कर्मो में झलकने लगता हैं तो यह भक्ति बन जाता है। ज्ञान जो परिपक्व हो गया है उसे भक्ति कहा जाता है।यदि ज्ञान भक्ति में परिवर्तित नहीं होता है, तो ऐसा ज्ञान व्यर्थ है। “ इस प्रार्थना में, आदि शंकराचार्य आध्यात्मिक विकास के लिए और जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति के लिए भगवान की भक्ति के महत्व पर जोर देते हैं। इस प्रार्थना से इस बात में कोई संदेह नहीं है कि हमारे अहंकारी मतभेदों का त्याग और भगवान के लिए समर्पण मोक्ष के द्वार खोलता है। “भज गोविन्दम” शीर्षक जो कि रचना को परिभाषित करता है , श्री कृष्ण के रूप में सर्वशक्तिमान का आवाहन करता है; इसलिए यह न केवल श्री आदि शंकराचार्य के तात्कालिक अनुयायियों, स्मार्तों , बल्कि वैष्णवों और अन्य लोगों में भी बहुत लोकप्रिय है।

भज गोविन्दम् स्तोत्र | Bhaja Govindam stotra

भज गोविन्दं भज गोविन्दं,

गोविन्दं भज मूढ़मते।

संप्राप्ते सन्निहिते काले,

नहि नहि रक्षति डुकृञ् करणे॥१॥

हे मोह से ग्रसित बुद्धि वाले मित्र, गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि मृत्यु के समय व्याकरण के नियम याद रखने से आपकी रक्षा नहीं हो सकती है॥१॥

मूढ़ जहीहि धनागम तृष्णाम्,

कुरु सद्बुद्धिमं मनसि वितृष्णाम्।

यल्ल भसे निज कर्मो पात्तम्,

वित्तं तेन विनोदय चित्तं॥२॥

हे मोहित बुद्धि! धन एकत्र करने के लोभ को त्यागो। अपने मन से इन समस्त कामनाओं का त्याग करो। सत्यता के पथ का अनुसरण करो, अपने परिश्रम से जो धन प्राप्त हो उससे ही अपने मन को प्रसन्न रखो॥२

नारीस्तन भर नाभी देशम्,

दृष्ट्वा मागा मोहा वेशम्।

एतन्मान्सव सादि विकारम्,

मनसि विचिन्तय वारं वारम्॥३॥

स्त्री शरीर पर मोहित होकर आसक्त मत हो। अपने मन में निरंतर स्मरण करो कि ये मांस-वसा आदि के विकार के अतिरिक्त कुछ और नहीं हैं॥३॥

नलिनी दल गत जल मति तरलम्,

तद्वज्जीवित मति शय चपलम्।

विद्धि व्याध्यभि मान ग्रस्तं,

लोक शोक हतं च समस्तम्॥४॥

जीवन कमल-पत्र पर पड़ी हुई पानी की बूंदों के समान अनिश्चित एवं अल्प (क्षणभंगुर) है। यह समझ लो कि समस्त विश्व रोग, अहंकार और दु:ख में डूबा हुआ है॥४॥

यावद्वित्तोपार्जनसक्त:,

तावन्निजपरिवारो रक्तः।

पश्चाज्जीवति जर्जरदेहे,

वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे॥५॥

जब तक व्यक्ति धनोपार्जन में समर्थ है, तब तक परिवार में सभी उसके प्रति स्नेह प्रदर्शित करते हैं परन्तु अशक्त हो जाने पर उसे सामान्य बातचीत में भी नहीं पूछा जाता है॥५॥

यावत्पवनो निवसति देहे,

तावत् पृच्छति कुशलं गेहे।

गत वति वायौ देहा पाये,

भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये॥६॥

जब तक शरीर में प्राण रहते हैं तब तक ही लोग कुशल पूछते हैं। शरीर से प्राण वायु के निकलते ही पत्नी भी उस शरीर से डरती है॥६॥

बाल स्तावत् क्रीडा सक्तः,

तरुण स्तावत् तरुणीसक्तः।

वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः,

परे ब्रह्मणि को ऽपि न सक्तः॥७॥

बचपन में खेल में रूचि होती है , युवावस्था में युवा स्त्री के प्रति आकर्षण होता है, वृद्धावस्था में चिंताओं से घिरे रहते हैं पर प्रभु से कोई प्रेम नहीं करता है॥७॥

का ते कांता कस्ते पुत्रः,

संसारोऽयमतीव विचित्रः।

कस्य त्वं वा कुत अयातः,

तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रातः॥८॥

कौन तुम्हारी पत्नी है, कौन तुम्हारा पुत्र है, ये संसार अत्यंत विचित्र है, तुम कौन हो, कहाँ से आये हो, बन्धु ! इस बात पर तो पहले विचार कर लो॥८॥

सत्संगत्वे निस्संगत्वं,

निस्संगत्वे निर्मोहत्वं।

निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं

निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः॥९॥

सत्संग से वैराग्य, वैराग्य से विवेक, विवेक से स्थिर तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है॥९॥

वयसि गते कः कामविकारः,

शुष्के नीरे कः का सारः।

क्षीणे वित्ते कः परिवारः,

ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः॥१०॥

आयु बीत जाने के बाद काम भाव नहीं रहता, पानी सूख जाने पर तालाब नहीं रहता, धन चले जाने पर परिवार नहीं रहता और तत्त्व ज्ञान होने के बाद संसार नहीं रहता॥१०॥

मा कुरु धन जन यौवन गर्वं,

हरति निमेषात्कालः सर्वं।

मायामयमिदमखिलम् हित्वा,

ब्रह्मपदम् त्वं प्रविश विदित्वा॥११॥

धन, शक्ति और यौवन पर गर्व मत करो, समय क्षण भर में इनको नष्ट कर देता है| इस विश्व को माया से घिरा हुआ जान कर तुम ब्रह्म पद में प्रवेश करो॥११॥

दिन यामिन्यौ सायं प्रातः,

शिशिर वसन्तौ पुनरा यातः।

कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्

तदपि न मुन्च्त्याशा वायुः॥१२॥

दिन और रात, शाम और सुबह, सर्दी और बसंत बार-बार आते-जाते रहते है काल की इस क्रीडा के साथ जीवन नष्ट होता रहता है पर इच्छाओं का अंत कभी नहीं होता है॥१२॥

द्वादश मंजरिका भिर शेषः

कथितो वैया करण स्यैषः।

उपदेशो भू द्विद्या निपुणैः,

श्री मच्छंकर भगवच्चरणैः॥१२अ॥

बारह गीतों का ये पुष्पहार, सर्वज्ञ प्रभुपाद श्री शंकराचार्य द्वारा एक वैयाकरण को प्रदान किया गया॥१२अ॥

काते कान्ता धन गत चिन्ता,

वातुल किं तव नास्ति नियन्ता।

त्रि जगति सज्जन सं गति रैका,

भवति भवार्ण वतरणे नौका॥१३॥

तुम्हें पत्नी और धन की इतनी चिंता क्यों है, क्या उनका कोई नियंत्रक नहीं है। तीनों लोकों में केवल सज्जनों का साथ ही इस भवसागर से पार जाने की नौका है॥१३॥

जटिलो मुण्डी लुञ्छितकेशः,

काषा याम्बर बहु कृत वेषः।

पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः,

उदर निमित्तं बहु कृत वेषः॥१४॥

बड़ी जटाएं, केश रहित सिर, बिखरे बाल , काषाय (भगवा) वस्त्र और भांति-भांति के वेष ये सब अपना पेट भरने के लिए ही धारण किये जाते हैं, अरे मोहित मनुष्य तुम इसको देख कर भी क्यों नहीं देख पाते हो॥१४॥

अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं,

दशन विहीनं जतं तुण्डम्।

वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं,

तदपि न मुञ्चत्या शापिण्डम्॥१५॥

क्षीण अंगों, पके हुए बालों, दांतों से रहित मुख और हाथ में दंड लेकर चलने वाला वृद्ध भी आशा पाश से बंधा रहता है॥१५॥

अग्रे वह्निः पृष्ठे भानुः,

रात्रौ चुबुक समर्पित जानुः।

कर तल भिक्षस्तरु तल वासः,

तदपि न मुञ्चत्या शापाशः॥१६॥

सूर्यास्त के बाद, रात्रि में आग जला कर और घुटनों में सर छिपाकर सर्दी बचाने वाला, हाथ में भिक्षा का अन्न खाने वाला, पेड़ के नीचे रहने वाला भी अपनी इच्छाओं के बंधन को छोड़ नहीं पाता है॥१६॥

कुरुते गङ्गा सागर गमनं,

व्रत परि पालन मथवा दानम्।

ज्ञान विहीनः सर्व मतेन,

मुक्तिं न भजति जन्मशतेन॥१७॥

किसी भी धर्म के अनुसार ज्ञान रहित रह कर गंगासागर जाने से, व्रत रखने से और दान देने से सौ जन्मों में भी मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती है॥१७॥

सुर मंदिर तरु मूल निवासः,

शय्या भूतल मजिनं वासः।

सर्व परिग्रह भोग त्यागः,

कस्य सुखं न करोति विरागः॥१८॥

देव मंदिर या पेड़ के नीचे निवास, पृथ्वी जैसी शय्या, अकेले ही रहने वाले, सभी संग्रहों और सुखों का त्याग करने वाले वैराग्य से किसको आनंद की प्राप्ति नहीं होगी॥१८॥

योग रतो वाभोग रतोवा,

सङ्ग रतो वा सङ्ग विहीनः ।

यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं,

नन्दति नन्दति नन्दत्येव॥१९॥

कोई योग में लगा हो या भोग में, संग में आसक्त हो या निसंग हो, पर जिसका मन ब्रह्म में लगा है वो ही आनंद करता है, आनंद ही करता है॥१९॥

भगवद् गीता किञ्चिद धीता,

गङ्गा जल लव कणिका पीता।

सकृदपि येन मुरारि समर्चा,

क्रियते तस्य यमेन न चर्चा॥२०॥

जिन्होंने भगवदगीता का थोड़ा सा भी अध्ययन किया है, भक्ति रूपी गंगा जल का कण भर भी पिया है, भगवान कृष्ण की एक बार भी समुचित प्रकार से पूजा की है, यम के द्वारा उनकी चर्चा नहीं की जाती है॥२०॥

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं,

पुनरपि जननी जठरे शयनम्।

इह संसारे बहुदुस्तारे,

कृपया ऽपारे पाहि मुरारे॥२१॥

बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु, बार-बार माँ के गर्भ में शयन, इस संसार से पार जा पाना बहुत कठिन है, हे कृष्ण ! कृपा करके मेरी इससे रक्षा करें॥२१॥

रथ्या चर्पट विरचित कन्थः,

पुण्यापुण्य विवर्जित पन्थः।

योगी योग नियोजित चित्तो,

रमते बालोन्मत्तव देव॥२२॥

रथ के नीचे आने से फटे हुए कपडे पहनने वाले, पुण्य और पाप से रहित पथ पर चलने वाले, योग में अपने चित्त को लगाने वाले योगी, बालक के समान आनंद में रहते हैं॥२२॥

कस्त्वं को ऽहं कुत आयातः,

का मे जननी को मे तातः।

इति परि भावय सर्वम सारम्,

विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारम्॥२३॥

तुम कौन हो, मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मेरी माँ कौन है, मेरा पिता कौन है? सब प्रकार से इस विश्व को असार समझ कर इसको एक स्वप्न के समान त्याग दो॥२३॥

त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णुः,

व्यर्थं कुप्यसि मय्य सहिष्णुः।

भव सम चित्तः सर्वत्र त्वं,

वाञ्छस्य चिरा द्यदि विष्णुत्वम्॥२४॥

तुममें, मुझमें और अन्यत्र भी सर्वव्यापक विष्णु ही हैं, तुम व्यर्थ ही क्रोध करते हो, यदि तुम शाश्वत विष्णु पद को प्राप्त करना चाहते हो तो सर्वत्र समान चित्त वाले हो जाओ॥२४॥

शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ,

मा कुरु यत्नं विग्रह सन्धौ।

सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं,

सर्वत्रोत्सृज भेदा ज्ञानम्॥२५॥

शत्रु, मित्र, पुत्र, बन्धु-बांधवों से प्रेम और द्वेष मत करो, सबमें अपने आप को ही देखो, इस प्रकार सर्वत्र ही भेद रूपी अज्ञान को त्याग दो॥२५॥

कामं क्रोधं लोभं मोहं,

त्यक्त्वा ऽऽत्मानं भावय को ऽहम्।

आत्म ज्ञान विहीना मूढाः,

ते पच्यन्ते नरक निगूढाः॥२६॥

काम, क्रोध, लोभ, मोह को छोड़ कर, स्वयं में स्थित होकर विचार करो कि मैं कौन हूँ, जो आत्म- ज्ञान से रहित मोहित व्यक्ति हैं वो बार-बार छिपे हुए इस संसार रूपी नरक में पड़ते हैं॥२६॥

गेयं गीता नाम सहस्रं,

ध्येयं श्रीपति रूपम जस्रम्।

नेयं सज्जन सङ्गे चित्तं,

देयं दीन जनाय च वित्तम्॥२७॥

भगवान विष्णु के सहस्त्र नामों को गाते हुए उनके सुन्दर रूप का अनवरत ध्यान करो, सज्जनों के संग में अपने मन को लगाओ और गरीबों की अपने धन से सेवा करो॥२७॥

सुखतः क्रियते रामा भोगः,

पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः।

यद्यपि लोके मरणं शरणं,

तदपि न मुञ्चति पापाचरणम्॥२८॥

सुख के लिए लोग आनंद-भोग करते हैं जिसके बाद इस शरीर में रोग हो जाते हैं। यद्यपि इस पृथ्वी पर सबका मरण सुनिश्चित है फिर भी लोग पापमय आचरण को नहीं छोड़ते हैं॥२८॥

अर्थंमऽनर्थम् भावय नित्यं,

नास्ति ततः सुख लेशः सत्यम्।

पुत्रा दपि धन भजाम् भीतिः,

सर्व त्रैषा विहिता रीतिः॥२९॥

धन अकल्याणकारी है और इससे जरा सा भी सुख नहीं मिल सकता है, ऐसा विचार प्रतिदिन करना चाहिए | धनवान व्यक्ति तो अपने पुत्रों से भी डरते हैं ऐसा सबको पता ही है॥२९॥

प्राणायामं प्रत्याहारं,

नित्यानित्य विवेक विचारम्।

जाप्य समेत समाधि विधानं,

कुर्व वधानं महद वधानम्॥३०॥

प्राणायाम, उचित आहार, नित्य इस संसार की अनित्यता का विवेक पूर्वक विचार करो, प्रेम से प्रभु-नाम का जाप करते हुए समाधि में ध्यान दो, बहुत ध्यान दो॥३०॥

गुरु चरणाम्बुज निर्भर भक्तः,

संसाराद चिराद्भव मुक्तः।

सेन्द्रिय मानस नियमा देवं,

द्रक्ष्यसि निज हृदयस्थं देवम्॥३१॥

गुरु के चरण कमलों का ही आश्रय मानने वाले भक्त बनकर सदैव के लिए इस संसार में आवागमन से मुक्त हो जाओ, इस प्रकार मन एवं इन्द्रियों का निग्रह कर अपने हृदय में विराजमान प्रभु के दर्शन करो॥३१॥

मूढः कश्चन वैयाकरणो,

डुकृञ्करणाध्ययन धुरिणः।

श्रीमच्छम्कर भगवच्छिष्यै,

बोधित आसिच्छोधित करणः॥३२॥

इस प्रकार व्याकरण के नियमों को कंठस्थ करते हुए किसी मोहित वैयाकरण के माध्यम से बुद्धिमान श्री भगवान शंकर के शिष्य बोध प्राप्त करने के लिए प्रेरित किये गए॥३२॥

भजगोविन्दं भजगोविन्दं,

गोविन्दं भजमूढमते।

नाम स्मरणा दन्य मुपायं,

नहि पश्यामो भव तरणे॥३३॥

गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि भगवान के नाम जप के अतिरिक्त इस भव-सागर से पार जाने का अन्य कोई मार्ग नहीं है॥३३॥

श्री कृष्ण जी के नाम : श्री कृष्ण जी के १०८ नाम हैं जिन्हे कृष्ण जी के प्रिय नाम कहे जाते हैं। कृष्ण जी के १०८ नाम हैं यथा कृष्ण ,कमलनाथ, वासुदेव, सनातन, वसुदेवात्मज, पुण्य, लीलामानुष विग्रह, श्रीवत्स कौस्तुभधराय, यशोदावत्सल, हरि, चतुर्भुजात्त चक्रासिगदा, सङ्खाम्बुजा युदायुजाय, देवाकीनन्दन, श्रीशाय, नन्दगोप प्रियात्मज, यमुनावेगा संहार, बलभद्र प्रियनुज, पूतना जीवित हर, शकटासुर भञ्जन, नन्दव्रज जनानन्दिन, सच्चिदानन्दविग्रह, नवनीत विलिप्ताङ्ग, नवनीतनटन, मुचुकुन्द प्रसादक, षोडशस्त्री सहस्रेश, त्रिभङ्गी, मधुराकृत, शुकवागमृताब्दीन्दवे, गोविन्द3, योगीपति आदि जिन में से गोपाल, गोविन्द, मोहन, हरी, बांके बिहारी, श्याम ज्यादा लोकप्रिय हैं।

श्री कृष्ण जी का रंग : कुछ लोगों का मानना है की श्री कृष्ण जी का रंग मेघ श्यामल था, मतलब काला नीला और सफ़ेद। ऐसी मान्यता है की गोपियाँ कृष्ण के सांवले रंग के कारन उन्हें चिढ़ाती थी। चूँकि श्री कृष्ण जी विष्णु जी का अवतार थे इसलिए उनके अंदर सागर का नीला रंग समां गया था इसलिए उनका रंग कुछ नीला सा था। एक पौराणिक कथा के अनुसार श्री कृष्ण जी के बाल्य काल में वो बलराम और अपने मित्रों के साथ यमुना नदी के तट पर खेला करते थे। जो भी उस नदी में जाता था उसको कालिया सांप खा जाता था लेकिन श्री कृष्ण ने नदी में जाकर कालिया सांप का वध किया जिससे उनका रंग श्याम हो गया था।

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