भूतडामरतन्त्रम् – Bhoot Damar Tantram

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भूतडामरतन्त्रम्– भूत शब्द प्राणिमात्र, दिव्य, लौकिक भूत, प्रेत, पिशाच, दानव, पंचमहाभूत, यम, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव का वाचक है। डामर का अर्थ है – डरावना ।

व्याकरण शास्त्र के अनुसार तन्त्रशब्द तन्धातु से बना है जिसका अर्थ है विस्तार। शैव सिद्धान्त के कायिक आगममें इसका अर्थ किया गया है, तन्यते विस्तार्यते ज्ञानम् अनेन्, इति तन्त्रम् (वह शास्त्र जिसके द्वारा ज्ञान का विस्तार किया जाता है)। तन्त्र की निरुक्ति तन’ (विस्तार करना) और त्रै’ (रक्षा करना), इन दोनों धातुओं के योग से सिद्ध होती है। इसका तात्पर्य यह है कि तन्त्र अपने समग्र अर्थ में ज्ञान का विस्तार करने के साथ उस पर आचरण करने वालों का त्राण (रक्षा) भी करता है।

तन्त्र का शाब्दिक उद्भव इस प्रकार माना जाता है – तनोति त्रायति तन्त्र। जिससे अभिप्राय है तनना, विस्तार, फैलाव इस प्रकार इससे त्राण होना तन्त्र है।

इन अर्थों का वाचक है – भूतडामरतन्त्र

तन्त्र श्रृंखला में साधकों व पाठकों के लाभार्थ आगमतन्त्र से भूतडामर महातन्त्र अथवा  भूतडामरतन्त्र क्रमशः दिया जा रहा है। यह ग्रन्थ कितना प्राचीन है, कब किसने लिखा, ये बातें स्पष्ट रूप से कह पाना कठिन हैं; तथापि समाज व लोक कल्याण दृष्टिकोण से इसे दिया जा रहा है। इसमें निहित मंत्रजपादि को साधक योग्य गुरु के परामर्श से ही अथवा स्वविवेक और अपनी जिम्मेदारी से करें। इस ग्रन्थ में १६ पटल हैं। इनके प्रमुख विषयों का उल्लेख विषय सूची में है । तन्त्र की सिद्धि गुरु के निर्देशों और उपासक की श्रद्धा- भक्तिपूर्ण तत्परता पर निर्भर करती है।

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