मारण प्रयोग – Maaran Prayog

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श्रीदुर्गा तंत्र यह दुर्गा का सारसर्वस्व है । इस तन्त्र में देवीरहस्य कहा गया है, इसे मन्त्रमहार्णव(देवी खण्ड) से लिया गया है। श्रीदुर्गा तंत्र इस भाग ४ (४) में नवार्ण मंत्र से षट्कर्म प्रयोग में मारण प्रयोग बतलाया गया है।

मारण प्रयोगः            

कार्यपरत्व नवार्ण मंत्र से आगे 

(षट्प्रयोगा यथा तत्रादी मारणप्रयोगः ।)

कर्तव्यदिवसात्पूर्व॑ स्नानार्थ चिन्तयेद्‌बुधः ।

दिनानि विंशतिं वामे पूर्वं कार्यो विधिस्तनोः ॥ ४६ ॥

शरीरशोधनं कार्य मदिराक्षि विनिश्चितम्‌ ।

द्विजपादोदकं सुभ्रु शतानां सरसां तथा ॥४७॥

कूपाष्टनवनद्या षड्वापीनां जलं प्रिये ।

एतज्जलं समागृह्य ताम्रकुम्भेषु निःक्षिपेत्‌ ॥ ४८ ॥

पत्रं बकुलवृक्षस्थ आश्वत्थं वटनिम्बयो: ।

गोदुग्धेनैव सम्पिष्टवा स्नानं कुर्याद्विचक्षण: ॥४९ ॥

त्रिपुण्ड्रधारणं कृत्वा ललाटे रक्तचन्दनै: ।

आसने कम्बलं कृष्णं कृष्णांबरधरः स्वयम्‌ ॥ ५० ॥

मारणे वीरवत्तिष्ठेद्दक्षिणस्यां मुखे कृते ।

कर्तव्यदिवस से पहले स्नान के लिए बुद्धिमान्‌ चिन्तन करे। बीस दिन तक शरीर की वाम विधि करनी चाहिये । हे मदिराक्षि ! निश्चित रूप से शरीर का शोधन करना चाहिये । हे सुभ्रू ! द्विज का पादोदक, सौ तालाबों का जल, आठ कूपों का जल, नौ नदियों का जल, छ तलैयों का जल, यह सब जल संग्रह करके ताम्र के पात्र में डाल देवे । मौलसरी, पीपल, बरगद तथा नीम के पत्ते गोदुग्ध से पीसकर बुद्धिमान स्नान करे। इसके बाद लाल चंदन से ललाट में त्रिपुण्ड धारण करके आसन पर काला कम्बल बिछा कर स्वयं कालेवस्त्र पहन कर मारण में दक्षिण दिशा में मुख करके वीर के समान बैठे ।

श्रृणुष्व चापरं कर्म भूमिशोधनमुत्तमम्‌ ॥ ५१ ॥  

मारणेनाष्टकोणेन कुर्यद्भमिस्थलं बुधः ।

पञ्चकूपोद्धृतं तोयं गृह्वीयादेकपाणिना ॥ ५२॥

श्मशानभस्म सिन्दूरमजारक्तं तिलं तथा ।

गोमयं वृद्धधेन्वास्तु मृदं वंशादधस्तलात् ॥ ५३ ॥

एभिर्विलेपयेद्भूमिमष्टकोणसमन्विताम्‌ ।

स्वदक्षिणकरांगुष्ठाद्गृहित्वा रुधिरं प्रिये ॥ ५४ ॥

भुङ्गराजरसं रक्तचन्दनं केसरोंद्भवम्‌ ।

कर्पूरकदलीपत्रजलं हिंगुरसं शुभे ॥ ५५॥

एतत्सर्व॑ च संपेष्य एकस्मिन्कारयेद्बुधः ।

श्मशानकाष्ठमानीय तेन कृत्वा च लेखनीम्‌ ॥ ५६ ॥

नवांगुलप्रमाणां नवार्णयनत्रं लिखेत्सुधीः ।

पूजनं यन्त्रराजस्य जगन्मातुश्शुभे भृणु ॥ ५७॥

स्ववामजानुरुधिरं रक्तचन्दनमिश्रितम्‌।

पिष्ठा सर्षपतैलेन सिन्दूरं कदलीजलम्‌ ॥५८॥

कुशान्सप्त समान्बध्वा ऊर्णसूत्रेण साधकः ।

तेनैव स्रापयेद्यन्त्रं वामहस्तेन भामिनी ॥ ५९ ॥

रक्तपुष्पं चन्दनं च रक्तसूत्र च तण्डुलम्‌ ।

सिन्दुरं वटवृक्षस्य दुग्धं विम्बाफलं तथा ॥ ६० ॥

एतान्सर्वान्विशालाक्षि. शोधयेत्साधकस्सदा ।

एतैः प्रपूजयेद्यन्त्रं महामाया प्रसीदति ॥ ६१ ॥

दूसरा भूमिशोधन का कर्म सुनो । सुधी मारण के लिये अष्टकोण भूमिस्थल बनाये । पॉच कूएँ से एक हाथ से निकाला गया जल ग्रहण करे। श्मशान भस्म, सिन्दूर, बकरे का खून, तिल, वृद्ध गाय का गोबर, बसवारी की मिट्टी इन सब से अष्टकोण युक्त भूमि को लीपे । हे प्रिये ! अपने दाहिने हाथ के अंगूठे से रक्त लेकर भाँगरें का रस, लाल चन्दन, केशर, कपूर, केले के पत्र का रस, हिंगुल यह सब पीसकर लेप तैयार करे । श्मशान की लकड़ी से नव अंगुल की कमल बनाकर सुधी नवार्ण मन्त्र लिखे । हे शुभे! जगन्माता तथा मन्त्रराज की पूजा सुनो। हे  भामिनि ! लाल चन्दन मिश्रित अपनी बाईं जाघ का खून, सरसों के तेल के साथ केले के जल में पीसकर सात समान कुशों को उनसे बाँध कर उसी के बाएँ हाथ से यन्त्र को स्नान कराये । लाल फूल, लाल चन्दन, लाल सूत तथा चावल, सिन्दूर, बरगद का दूध तथा बिम्बाफल, हे विशालाक्षि ! इन सबों को साधक सदा शोधन करे । इनसे यन्त्र की पूजा करे । इससे महामाया प्रसन्न होती है । यन्त्र-पूजन का मन्त्र यह है :

ऊँ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी ।

दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तु ते ।

इति मन्त्रेण सर्व दद्यात् ।

विस्मृतं न मयोक्त वै सामान्यं कथितं शुभे।

हे शुभे ! मुझसे जो भूल गया है उसे तो मैंने तुम्हें बतलाया नहीं, जो सामान्य है वही मैंने तुमसे कहा है ।

अतः परं श्रृणुष्वाद्य विधिं धूपस्य निर्मलम्‌ ॥ ६२॥

साधकानां ध्रुवं सिद्धिर्धूपेनैव प्रजायते ।

मारणे कारणं देवि धूपमेव निगद्यते ॥ ६३ ॥

धूपमाहात्यमतुलं डामरे कथित माया ।

धूपवार्ता न जानन्ति डामरे विमुख नराः ॥ ६४ ॥

कथंसिद्धिर्भवेत्तेषां विपरीते शुभानने ।

इसके आगे तुम धूप की निर्मल विधि सुनो । साधकों को निश्चित रूप से धूप से सिद्धि होती है। हे देवि ! मारण में धूप को ही कारण कहा गया है । मैंने डामर तन्त्र में धूप का अतुल माहात्म्य कहा । डामर से विमुख मनुष्य धूप की वार्ता नहीं जानते । हे शुभानने ! इस विपरीत स्थिति में उन्हें कहाँ से सिद्धि प्राप्त हो ?

गोरोचनं च कर्पूरं काश्मीरवनसम्भवम्‌ ॥ ६५ ॥

एलाफलं लवङ्ग च मृगनाभिः सुरा तथा ।

लम्बकर्णस्य मांसं च गोघृतं सुरभीपयः ॥ ६६ ॥

देवदारु सिता रक्तचन्दनं श्वेतसंज्ञकम्‌ ।

नागरस्तगरो वालक्षरो मोहनगन्धिका ॥ ६७॥

एतान्सर्वास्तु संपेष्य कारयेदेकमिश्रितम्‌ ।

धूपयेद्धूपमन्त्रेण  कार्यसिद्धिर्भवेद्ध्रुवम्‌ ।। ६८ ॥

सप्त मन्त्र पठित्वा तु साधकों गद्गदाकृतिः।

एकचित्तं समाधाय धूपं कुर्याद्विचक्षण: ॥६९॥

मारणे कारणं देवि दीपएव निगद्यते ।

गोरोचन, काश्मीरवन सम्भूत कपूर, इलाइची लवंग, कस्तूरी, शराब, लम्बकर्ण का मांस, गोघृत, गाय का दूध, देवदारु, चीनी, लाल चन्दन, सफेद चन्दन, नागरमोंथा, तगर, बालक्षर, मोहनगन्धी, इन सब को पीस कर एक में मिला लेवे । इसे धूप मन्त्र से धूपित करे तो कार्यसिद्धि होती है । सात बार मन्त्र को पढ़कर गद्गद आकृति वाला होकर एकाग्रचित्त हो बुद्धिमान मनुष्य धूप दे । धूप देने का मन्त्र यह है :

ॐ सर्वबाधाप्रशमनं त्रैलोक्याखिलेश्वरि

एवमेतत्त्वया: कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ।

इति मन्त्रेण धूपं दद्यात् ।

लोहदीप: प्रकर्त्तव्यस्तिलस्य तैलमेव च ॥ ७० ॥

पीततैलं गुरु शुक्लं तैलनिम्बश्च निश्चितम्‌ ।

श्मशानसूत्रमानीय वामहस्तेन भामिनी ॥ ७१ ॥

वर्तिका तेन कार्या तु अंगुलत्रयमिता ।

त्रिकोणां पृथ्वी लिप्त्वा अंगुलयत्रसम्मिताम्‌  ॥ ७२ ॥

तस्या मध्ये लिखेद्यन्त्रं नवाक्षरयुत प्रिये ।

लेखनी कीचकी कार्या नवांगुलयुता शुभा ॥ ७३ ॥

लिखेद्यन्त्रं चन्दनेन रक्तेन मधुना सह ।

स्थापयेद्यन्त्रराजस्य अधोभागे च सन्निधौ ॥ ७४ ॥

अस्मिन्दीपे महामायां कालिकां रुधिरप्रियाम्‌ ।

ज्वलज्जिह्वां सदा ध्यायेच्छत्रुसंहारकारिणीम्‌ ॥ ७५ ॥

इति ध्यात्वा महामाया: पूजयेद्रक्तचन्दनैः ।

एभिस्तवैश्व मां नित्यमेष मन्त्रे निवेदयेत्‌ ॥ ७६ ॥

हे देवि ! मारण में दीप को ही कारण कहा जाता है । लोहे का दीप बनाना चाहिये और तील का तेल उसमें डालना चाहिये । पीली सरसों का तेल, अगर, कपूर, नीम का तेल निश्चित है । हे भामिनी! बायें हाथ में श्मशान से सूत्र लाकर तीन अंगुल लम्बी बत्ती बनानी चाहिये। तीन अंगुल माप की त्रिकोण पृथिवी को लीप कर उसके बीच नवाक्षर युक्त यन्त्र लिखना चाहिये । बाँस की नौ अंगुल लम्बी कमल बनानी चाहिये । यन्त्र को लाल चन्दन से मधु से लिखना चाहिये। यन्त्रराज के नीचे भाग के निकट स्थापित करे । इस दीप में रक्तप्रिय, जलती जीभवाली, रुधिरप्रिय, कालिका, महामाया, शत्रुसंहारिणी को सदा ध्यान करे । इससे ध्यान करके लाल चन्दन से महामाया की पूजा करे एवं इनसे तथा स्तुतियों से यह मन्त्र में निवेदित करे।

एवं दीपो मया प्रोक्तो मालायाश्च विधि श्रृणु ।

इस प्रकार मैंने दीप बतला दिया अब माला की विधि सुनो ।

सर्पास्थिसम्भवा माला कदलीतन्तुग्रन्थिता ॥ ७७ ॥

मोरणे कथिता देवि साधकानां हिताय च  ॥

चण्डिकायै यन्त्रराजे अर्चयित्वा च वीटकम्‌ ॥ ७८॥ 

पश्चादेकैकमुद्धृत्तव चर्वयेच्छनकै: सुधी ।  

यावज्जपसमाप्तिः स्यात्तावत्ताम्बूलचर्वणम्‌ ॥ ७९ ॥   

दशलक्षं जपेन्मन्त्र वैश्येष्वर्द्ध निगद्यते ।  

ब्राह्मणे द्विगुणां देवि शूद्राणामर्द्धकार्द्धकम् ॥८०॥

स्त्रीणां च द्विगुणं प्रोक्तं यतः सा शक्तिरूपिणी ।

मारणं वर्जितं स्त्रीषु यतश्चान्यानि कारयेत् ॥ ८१॥ 

स्त्रीषु च मारणं मोहत्कर्तुर्मृत्युर्न संशयः । 

जपसंख्यादशांशेन नित्य होमं च कारयेत्‌ ॥ ८२॥

केले के सूत से गुँथी हुई साँप की हड्डियों की माला हे देवि ! मारण तथा साधकों के हित के लिए कही गयी है। चण्डिका के लिए यन्त्रराज में पान के बीड़े की पूजा करके बाद में सुधी एक-एक उठाकर धीरे – धीरे चबाये । जब तक जप की समाप्ति न हो तब तक पान को चबाना चाहिये । दश लाख मन्त्र का जप करे । वैश्य में आधा कहा जाता है । हे देवि ! ब्राह्मण में दूना तथा शूद्र में चौथाई कहा गया है । स्त्रियों के लिए दूना कहा गया है क्योंकि वे शक्तिरूपिणी हैं । स्त्रियों में मारण वर्जित है इसलिए अन्य कर्म करना चाहिये । मोहवश स्त्रियों में मारण करने से मृत्यु होती है इसमें संशय नहीं है। जप संख्या से दशांश नित्य होम करे । मारण के जप का मंत्र यह है :

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे देवदत्तं रं रं खेखे मारय मारय रंरं शीघ्र भस्मी कुरुकुरु स्वाहा ।

गोमहिष्योर्धृतं वामे अजादुग्धं च तण्डुलम्‌ ।

लवङ्गं चैव कर्पूरं सर्षपं हिंगुमेव च ॥८३॥ 

शाएकुली तु गोधूमस्य गुडेन मिश्रिते शुभे।  

चिञ्चिणीकाष्ठमानीय खनेत्कुण्डं त्रिकोणकम्‌  ८४ ॥।  

काष्ठाश्चतुरंगुलान्कृत्वा जुहुयाच्चण्डिकाप्रिया: ।

मन्त्रं नवाक्षरं प्रोक्तं मारणे कथितं मया ॥ ८५॥

हे वामे ! गाय, भैंस का घी, बकरी का दूध, लवंग, कपूर, सरसों, हिंगुल, हे शुभे ! गेहूं के आटे में गुड़ मिलाकर बनी पूड़ी । चिंचिडी काष्ठ लाकर त्रिकोण कुण्ड खोदे । लकड़ियों को चार अंगुल का करके चण्डिका का उपासक होम करे । मैंने मारण में यह नवाक्षर मन्त्र कहा है ।

मारणे मोहने वश्ये भोजनं त्वेकमुच्यते ।

तृतीयप्रहरे देवि भोज्यं लवणवर्जितम्‌ ॥८६॥

माषस्य द्विदलं सुभ्रु तण्डुलं मिलितद्वयम्‌ ।  

गोघृतं मधुसंयुक्ते मिश्रितं पयसा प्रिये।। ८७॥

मारण, मोहन तथा वशीकरण में एक बार भोजन कहा गया है । हे देवि ! तीसरे पहर नमक वर्जित भोजन करना चाहिये । हे सुभ्रु ! हे प्रिये ! उड़द की दाल, चावल, दोनों मिलाकर गाय का घी शहद से युक्त दूध में मिलाकर खाना चाहिये ।

प्रभावे भोजनं देव्यायत्प्राप्तं तत्तदेव हि।

भोजने क्लेशसङ्कर्तु: प्रयोगोऽफलदो भवेत्‌ ॥८८॥।

विधिर्वै मन्त्रराजस्य कथितः प्राणवल्लभे ।

हे देवि ! भोजन के अभाव में जो प्राप्त हो वही भोजन करे । भोजन में क्लेश करने वाले का प्रयोग असफल होता है । हे प्राणवल्लभे ! मन्त्रराज की यह विधि मैंने बता दी ।

शैवेन शाक्तिविप्रेण कर्तव्यं निश्चितं प्रिये ॥ ८९॥

मयोक्तं देवि मन्त्रराज चण्डिकायाः प्रियस्य च ।

कार्य विचक्षणेनैव चण्डिकाकिङ्करेण वै ॥९०॥

हे प्रिये ! शैव और शाक्त विप्र द्वारा निश्चित रूप से इसे करना चाहिये । हे देवि! चण्डिका को प्रिय मेरे द्वारा कहे गये इस मन्त्र का प्रयोग विलक्षणचण्डिका के सेवक को अवश्य करना चाहिये।

इति मारण प्रयोग ।

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