विष्णुकृत देवी स्तोत्र || Devi Stotra by Vishnu

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श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण के तृतीयस्कन्धान्तरगत चतुर्थ अध्याय में वर्णित विष्णुकृत देवी स्तोत्र अथवा ज्ञान-दायिनी सिद्ध देवी-स्तुति के पाठ से श्रीदेवी माँ संसार-समुद्र से रक्षा करती और सब दुःखों को दूर कर देती है । संसार में जब रागात्मक वृत्ति बढ़ जाती है, तो उससे विनाश के समय अन्त में माँ भुवनेश्वरी ही बचाती है । इस दुःख की घड़ी में माँ भगवती रक्षा करती है । माँ आद्यशक्ति ही महा-विद्या, सर्वार्थ-दायिनि और ज्ञान का प्रकाश देनेवाली है ।

देवीस्तोत्रं विष्णुनाकृतम्

श्रीभगवानुवाच –

नमो देव्यै प्रकृत्यै च विधात्र्यै सततं नमः ।

कल्याणै कामदायै च वृद्ध्यै सिद्ध्यै नमो नमः ॥ १॥

सच्चिदानन्दरूपिण्यै संसारारणये नमः ।

पञ्चकृत्यविधात्र्यै ते भुवनेश्यै नमो नमः ॥ २॥

सर्वाधिष्टानरूपायै कूटस्थायै नमो नमः ।

अर्धमात्रार्थभूतायै हृल्लेखायै नमो नमः ॥ ३॥

ज्ञातं मयाऽखिलमिदं त्वयि सन्निविष्टं

त्वत्तोऽस्य सम्भवलयावपि मातरद्य ।

शक्तिश्च तेऽस्य करणे विततप्रभावा

ज्ञाताऽधुना सकललोकमयीति नूनम् ॥ ४॥

विस्तार्य सर्वमखिलं सदसद्विकारं

सन्दर्शयस्यविकलं पुरुषाय काले ।

तत्त्वैश्च षोडशभिरेव च सप्तभिश्च

भासीन्द्रजालमिव नः किल रञ्जनाय ॥ ५॥

न त्वामृते किमपि वस्तुगतं विभाति

व्याप्यैव सर्वमखिलं त्वमवस्थिताऽसि ।

शक्तिं विना व्यवहृतो पुरुषोऽप्यशक्तो

वम्भण्यते जननि बुद्धिमता जनेन ॥ ६॥

प्रीणासि विश्वमखिलं सततं प्रभावैः

स्वैस्तेजसा च सकलं प्रकटीकरोषि ।

अत्स्येव देवि तरसा किल कल्पकाले

को वेद देवि चरितं तव वै भवस्य ॥ ७॥

त्राता वयं जननि ते मधुकैटभाभ्यां

लोकाश्च ते सुवितताः खलु दर्शिता वै ।

नीताः सुखस्य भवने परमां च कोटिं

यद्दर्शनं तव भवानि महाप्रभावम् ॥ ८॥

नाहं भवो न च विरिञ्चि विवेद मातः

कोऽन्यो हि वेत्ति चरितं तव दुर्विभाव्यम् ।

कानीह सन्ति भुवनानि महाप्रभावे

ह्यस्मिन्भवानि रचिते रचनाकलापे ॥ ९॥

अस्माभिरत्र भुवने हरिरन्य एव

दृष्टः शिवः कमलजः प्रथितप्रभावः ।

अन्येषु देवि भुवनेपु न सन्ति किं ते

किं विद्म देवि विततं तव सुप्रभावम् ॥ १०॥

याचेऽम्ब तेऽङ्घ्रिकमलं प्रणिपत्य कामं

चित्ते सदा वसतु रूपमिदं तवैतत् ।

नामापि वक्त्रकुहरे सततं तवैव

सन्दर्शनं तव पदाम्बुजयोः सदैव ॥ ११॥

भृत्योऽयमस्ति सततं मयि भावनीयं

त्वां स्वामिनीति मनसा ननु चिन्तयामि ।

एषाऽऽवयोरविरता किल देवि भूया-

द्व्याप्तिः सदैव जननी सुतयोरिवार्थे ॥ १२॥

त्वं वेत्सि सर्वमखिलं भुवनप्रपञ्चं

सर्वज्ञता परिसमाप्तिनितान्तभूमिः ।

किं पामरेण जगदम्ब निवेदनीयं

यद्युक्तमाचर भवानि तवेङ्गितं स्यात् ॥ १३॥

ब्रह्मा सृजत्यवति विष्णुरुमापतिश्च

संहारकारक इयं तु जने प्रसिद्धिः ।

किं सत्यमेतदपि देवि तवेच्छया वै

कर्तुं क्षमा वयमजे तव शक्तियुक्ताः ॥ १४॥

धात्री धराधरसुते न जगद्बिभर्ति

आधारशक्तिरखिलं तव वै बिभर्ति ।

सूर्योऽपि भाति वरदे प्रभया युतस्ते

त्वं सर्वमेतदखिलं विरजा विभासि ॥ १५॥

ब्रह्माऽहमीश्वरवरः किल ते प्रभावा-

त्सर्वे वयं जनियुता न यदा तु नित्याः ।

केऽन्ये सुराः शतमखप्रमुखाश्च नित्या

नित्या त्वमेव जननी प्रकृतिः पुराणा ॥ १६॥

त्वं चेद्भवानि दयसे पुरुषं पुराणं

जानेऽहमद्य तव संनिधिगः सदैव ।

नोचेदहं विभुरनादिरनीह ईशो

विश्वात्मधीरिति तमःप्रकृतिः सदैव ॥ १७॥

विद्या त्वमेव ननु बुद्धिमतां नराणां

शक्तिस्त्वमेव किल शक्तिमतां सदैव ।

त्वं कीर्तिकान्तिकमलामलतुष्टिरूपा

मुक्तिप्रदा विरतिरेव मनुष्यलोके ॥ १८॥

गायत्र्यसि प्रथमवेदकला त्वमेव

स्वाहा स्वधा भगवती सगुणार्धमात्रा ।

आम्नाय एव विहितो निगमो भवत्यै

सञ्जीवनाय सततं सुरपूर्वजानाम् ॥ १९॥

मोक्षार्थमेव रचयस्यखिलं प्रपञ्चं

तेषां गताः खलु यतो ननु जीवभावम् ।

अंशा अनादिनिधनस्य किलानघस्य

पूर्णार्णवस्य वितता हि यथा तरङ्गाः ॥ २०॥

जीवो यदा तु परिवेत्ति तवैव कृत्यं

त्वं संहरस्यखिलमेतदिति प्रसिद्धम् ।

नाट्यं नटेन रचितं वितथेऽन्तरङ्गे

कार्ये कृते विरमसे प्रथितप्रभावा ॥ २१॥

त्राता त्वमेव मम मोहमयाद्भवाब्धे-

स्त्वामम्बिके सततमेमि महार्तिदे च ।

रागादिभिर्विरचिते वितथे किलान्ते

मामेव पाहि बहुदुःखकरे च काले ॥ २२॥

नमो देवि महाविद्ये नमामि चरणौ तव ।

सदा ज्ञानप्रकाशं मे देहि सर्वार्थदे शिवे ॥ २३॥

इति श्रीमद्देवीभागवतमहापुराणे तृतीयस्कन्धान्तरगतम्

चतुर्थोऽध्याये विष्णुनाकृतं देवीस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
विष्णुकृत देवी स्तोत्र भावार्थ सहित

श्रीभगवानुवाच –

नमो देव्यै प्रकृत्यै च विधात्र्यै सततं नमः ।

कल्याणै कामदायै च वृद्ध्यै सिद्ध्यै नमो नमः ॥ १॥

प्रकृतिदेवी को नमस्कार है। भगवती विधात्री को निरंतर नमस्कार है। जो कल्याणस्वरूपिणी है, मनोरथ पूर्ण करनेवाली है तथा वृद्धि एवं सिद्धिस्वरूपा है, उन भगवती को बार-बार नमस्कार है।

सच्चिदानन्दरूपिण्यै संसारारणये नमः ।

पञ्चकृत्यविधात्र्यै ते भुवनेश्यै नमो नमः ॥ २॥

जिनका सचिदानन्दमय विग्रह है, जो संसार की उत्पत्ति स्थान है तथा जो सृष्टि, स्थिति, संहार, अनुग्रह एवं तिरोभावरूप पाँच कृत्यों का विधान करती है, उन भगवती भुवनेश्वरी को प्रणाम है।

सर्वाधिष्टानरूपायै कूटस्थायै नमो नमः ।

अर्धमात्रार्थभूतायै हृल्लेखायै नमो नमः ॥ ३॥

सर्वाधिष्ठानमयी भगवती अर्थात् अखिल-विश्व के स्थावर और जंगम पदार्थों की निवास-स्वरुपा और परिपूर्णा देवी को नमस्कार है। अर्ध-मात्रा वाले अक्षरों के अर्थ को धारण करने वाली और हृदय-देश में लेखन-शक्ति के रुप में निवास करने वाली देवी को नमस्कार है।

ज्ञातं मयाऽखिलमिदं त्वयि सन्निविष्टं त्वत्तोऽस्य सम्भवलयावपि मातरद्य ।

शक्तिश्च तेऽस्य करणे विततप्रभावा ज्ञाताऽधुना सकललोकमयीति नूनम् ॥ ४॥

माता! मैं जान गया, यह सम्पूर्ण संसार तुम्हारे भीतर विराजमान है। इस जगत की सष्टि और संहार तुम्ही से होते हैं। तुम्हारी ही व्यापक माया इस संसार को सजाती है। अब मैंने तुम्हारा पूर्ण परिचय प्राप्त कर लिया कि तुम अखिलजगन्मयी हो-इसमें कोई संदेह नहीं।

विस्तार्य सर्वमखिलं सदसद्विकारं सन्दर्शयस्यविकलं पुरुषाय काले ।

तत्त्वैश्च षोडशभिरेव च सप्तभिश्च भासीन्द्रजालमिव नः किल रञ्जनाय ॥ ५॥

सारा विश्व सत् और असत्मय विकारस्वरूप है। तुम समय-समय पर चेतन पुरुष को इसका विस्तार दिखाया करती हो। सोलह एवं सात तत्त्वों से तुम्हारा विग्रह सम्पन्न है। हमें इन्द्रजाल की भाँति तुम्हारा साक्षात्कार होता है। यह निश्चय है कि तुम मनोरञ्जन के लिये लीला कर रही हो।

न त्वामृते किमपि वस्तुगतं विभाति व्याप्यैव सर्वमखिलं त्वमवस्थिताऽसि ।

शक्तिं विना व्यवहृतो पुरुषोऽप्यशक्तो वम्भण्यते जननि बुद्धिमता जनेन ॥ ६॥

तुम्हारी शक्ति से वंचित होने पर कोई भी वस्तु अपने रूप में प्रतीत नहीं होती। तुम्हीं अखिल विश्व में व्याप्त होकर विराजमान हो। माता ! बुद्धिमान पुरुष कहते हैं कि यदि तुम्हारी शक्ति अलग हो जाय तो जगत की व्यवस्था करने में पुरुष को सफलता मिलनी असम्भव है।

प्रीणासि विश्वमखिलं सततं प्रभावैः स्वैस्तेजसा च सकलं प्रकटीकरोषि ।

अत्स्येव देवि तरसा किल कल्पकाले को वेद देवि चरितं तव वै भवस्य ॥ ७॥

तुम अपने प्रभाव से सम्पूर्ण संसार को संतुष्ट करने में सदा संलग्न रहती हो । तुम्हारे तेज से सारा जगत् उत्पन्न हुआ है। देवी! प्रलयकाल के समय तम संसार को भक्षण कर लेती हो । भगवती! तम्हारे वैभव के चरित्र को कौन जान सकता है।

त्राता वयं जननि ते मधुकैटभाभ्यां लोकाश्च ते सुवितताः खलु दर्शिता वै ।

नीताः सुखस्य भवने परमां च कोटिं यद्दर्शनं तव भवानि महाप्रभावम् ॥ ८॥

माता! तुमने मधु-कैटभ के चंगुल से हमारी रक्षा की। मणिद्वीप आदि विस्तृत लोक दिखलाये। उन द्वीपों के आनन्द-भवन में हमें पहुँचाया और हम करोड़ों उत्तम दृश्य देखने में सफल हुए। भवानी ! यह सब तुम्हारी ही महान् कृपा है।

नाहं भवो न च विरिञ्चि विवेद मातः कोऽन्यो हि वेत्ति चरितं तव दुर्विभाव्यम् ।

कानीह सन्ति भुवनानि महाप्रभावे ह्यस्मिन्भवानि रचिते रचनाकलापे ॥ ९॥

माता ! जब मैं, शंकर और ब्रह्मा भी तुम्हारे अचिन्त्य प्रभाव से अपरिचित हैं, तब दूसरा कौन है, जो उसे जान सके। तुम्हारे बनाये हुए जितने भुवन हैं, तुम्हारे इस शक्तिसम्पन्न नख-दर्पण में हमें उनकी झाँकी मिली है।

अस्माभिरत्र भुवने हरिरन्य एव दृष्टः शिवः कमलजः प्रथितप्रभावः ।

अन्येषु देवि भुवनेपु न सन्ति किं ते किं विद्म देवि विततं तव सुप्रभावम् ॥ १०॥

देवी ! हमने इस लोक में दूसरे ही ब्रह्मा, विष्णु और शंकर देखे हैं। सब में वैसी ही असीम शक्ति थी। क्या अन्य लोकों में ये नहीं हैं ? देवी ! तुम्हारे इस फैले हुए अचिन्त्य ऐश्वर्य को हम कैसे जानें ?

याचेऽम्ब तेऽङ्घ्रिकमलं प्रणिपत्य कामं चित्ते सदा वसतु रूपमिदं तवैतत् ।

नामापि वक्त्रकुहरे सततं तवैव सन्दर्शनं तव पदाम्बुजयोः सदैव ॥ ११॥

माता ! चरण-कमलों में मस्तक झुकाकर मैं तुमसे यही माँगता हूँ कि तुम्हारा यह रूप निरन्तर मेरे हृदय में बसा रहे, मेरे मुँह से तुम्हारा नाम-कीर्तन होता रहे तथा नेत्र तुम्हारे चरणकमलों की झाँकी से कभी वञ्चित न हों।

भृत्योऽयमस्ति सततं मयि भावनीयं त्वां स्वामिनीति मनसा ननु चिन्तयामि ।

एषाऽऽवयोरविरता किल देवि भूया-द्व्याप्तिः सदैव जननी सुतयोरिवार्थे ॥ १२॥

आर्ये ! मेरे प्रति तुम्हारा यह भाव बना रहे कि यह मेरा सेवक है और मैं मन में सदा तुम्हें अपनी स्वामिनी माना करूँ। माता-पुत्र की अपने भाँति यह अव्यभिचारिणी धारणा हम दोनों के हृदय में सदा विद्यमान रहे।

त्वं वेत्सि सर्वमखिलं भुवनप्रपञ्चं सर्वज्ञता परिसमाप्तिनितान्तभूमिः ।

किं पामरेण जगदम्ब निवेदनीयं यद्युक्तमाचर भवानि तवेङ्गितं स्यात् ॥ १३॥

जगदम्बा ! तुम जगत के सम्पूर्ण प्रपञ्च को जानती हो; क्योंकि सारे ज्ञान की अन्तिम सीमा तुम्हीं में समाप्त हो गयी है। मैं तुमसे क्या निवेदन करूँ ? भवानी ! जो उचित हो, वही करो। तुम्हारी इच्छा के अनुकूल ही कार्य होना चाहिये।

ब्रह्मा सृजत्यवति विष्णुरुमापतिश्च संहारकारक इयं तु जने प्रसिद्धिः ।

किं सत्यमेतदपि देवि तवेच्छया वै कर्तुं क्षमा वयमजे तव शक्तियुक्ताः ॥ १४॥

ब्रह्मा सृष्टि करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और रुद्र संहार तुम करते हैं; पर जब तुम्हारी इच्छा से हममें शक्ति उत्पन्न होती है, तभी हम इस कार्य के सम्पादन के अधिकारी होते हैं।

धात्री धराधरसुते न जगद्बिभर्ति आधारशक्तिरखिलं तव वै बिभर्ति ।

सूर्योऽपि भाति वरदे प्रभया युतस्ते त्वं सर्वमेतदखिलं विरजा विभासि ॥ १५॥

गिरिराजनन्दिनी! तुम । सबकी माता हो। जगत का पालन करना और उसे टिकाये रखना तुम्हारा स्वाभाविक कार्य है। वरदायिनी भगवती ! तुम्हारी शक्ति से सम्पन्न होने पर ही सूर्य जगत्को प्रकाशित करता है। तुम शुद्धस्वरूपा हो, यह सारा संसार तुम्हीं से उद्भासित हो रहा है ।

ब्रह्माऽहमीश्वरवरः किल ते प्रभावा-त्सर्वे वयं जनियुता न यदा तु नित्याः ।

केऽन्ये सुराः शतमखप्रमुखाश्च नित्या नित्या त्वमेव जननी प्रकृतिः पुराणा ॥ १६॥

मैं, ब्रह्मा और शंकर-हम सभी तुम्हारी कृपा से ही विद्यमान हैं। हमारा आविर्भाव और तिरोभाव हुआ करता है। केवल तुम्हीं नित्य हो, जगज्जननी हो, प्रकृति और सनातनी देवी हो।

त्वं चेद्भवानि दयसे पुरुषं पुराणं जानेऽहमद्य तव संनिधिगः सदैव ।

नोचेदहं विभुरनादिरनीह ईशो विश्वात्मधीरिति तमःप्रकृतिः सदैव ॥ १७॥

विद्या त्वमेव ननु बुद्धिमतां नराणां शक्तिस्त्वमेव किल शक्तिमतां सदैव ।

त्वं कीर्तिकान्तिकमलामलतुष्टिरूपा मुक्तिप्रदा विरतिरेव मनुष्यलोके ॥ १८॥

यह निश्चय है कि बुद्धिमान् मनष्यों की बुद्धि और शक्तिशाली जनों की शक्ति तुम्हीं हो। कीर्ति, कान्ति और कमला तुम्हारे नाम हैं। तुम शुद्धस्वरूपा हो । कभी तुम्हारा मुख मलिन नहीं होता। मुक्ति देना तुम्हारा स्वभाव ही है। मर्त्यलोक में पधारने पर भी तुम सदा विरक्त रहती हो ।

गायत्र्यसि प्रथमवेदकला त्वमेव स्वाहा स्वधा भगवती सगुणार्धमात्रा ।

आम्नाय एव विहितो निगमो भवत्यै सञ्जीवनाय सततं सुरपूर्वजानाम् ॥ १९॥

वेदों का मुख्य विषय गायत्री तुम्ही हो। स्वाहा, स्वधा, भगवती और ॐ-ये तुम्हारे रूप है। तुम्ही ने देवताओं की रक्षा के लिये में वेदशास्त्रों का निर्माण किया है।

मोक्षार्थमेव रचयस्यखिलं प्रपञ्चं तेषां गताः खलु यतो ननु जीवभावम् ।

अंशा अनादिनिधनस्य किलानघस्य पूर्णार्णवस्य वितता हि यथा तरङ्गाः ॥ २०॥

परिपूर्ण समुद्र की तरंग के समान सम्पूर्ण प्राणी अनित्य हैं। ये सभी अजन्मा ब्रह्माजी के अंश हैं। अपना स्वयं कोई स्वार्थ न रहनेपर भी उन जीवों का उद्धार करने के लिए ही तुम इस अखिल जगत्की रचना करती हो।

जीवो यदा तु परिवेत्ति तवैव कृत्यं त्वं संहरस्यखिलमेतदिति प्रसिद्धम् ।

नाट्यं नटेन रचितं वितथेऽन्तरङ्गे कार्ये कृते विरमसे प्रथितप्रभावा ॥ २१॥

नाट्य दिखलानेवाले नट की भाँति तुम्हीं संसार की सृष्टि और संहार किया करती हो। तुम्हारा यह प्रभाव सर्वसाधारण को विदित है।

त्राता त्वमेव मम मोहमयाद्भवाब्धे-स्त्वामम्बिके सततमेमि महार्तिदे च ।

रागादिभिर्विरचिते वितथे किलान्ते मामेव पाहि बहुदुःखकरे च काले ॥ २२॥

हे मां ! मोह से परिपूर्ण इस संसार-समुद्र में मेरी रक्षा करनेवाली तू ही है । तू ही सब दुःखों को दूर करनेवाली है । संसार में जब रागात्मक वृत्ति बढ़ जाती है, तो उससे विनाश के समय अन्त में तू ही बचाती है । इस दुःख की घड़ी में मेरी रक्षा करो ।

नमो देवि महाविद्ये नमामि चरणौ तव ।

सदा ज्ञानप्रकाशं मे देहि सर्वार्थदे शिवे ॥ २३॥

देवी ! तुम महाविद्यास्वरूपिणी हो, तुम्हारा विग्रह कल्याणमय है, तुम सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण कर देती हो। मैं बार-बार तुम्हारे चरणों में मस्तक झुकाता हूँ।

इति श्रीमद्देवीभागवतमहापुराणे तृतीयस्कन्धान्तरगतम्

चतुर्थोऽध्याये विष्णुनाकृतं देवीस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

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