गीता माहात्म्य अध्याय १८ || Gita Mahatmya Adhyay 18

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इससे पूर्व आपने श्रीमद्भगवद्गीता के अठ्ठारहवां अध्याय पढ़ा।१८वें अध्याय की संज्ञा मोक्षसंन्यास योग है। इसमें गीता के समस्त उपदेशों का सार एवं उपसंहार है। यहाँ पुन: बलपूर्वक मानव जीवन के लिए तीन गुणों का महत्व कहा गया है। पृथ्वी के मानवों में और स्वर्ग के देवताओं में कोई भी ऐसा नहीं जो प्रकृति के चलाए हुए इन तीन गुणों से बचा हो। मनुष्य को बहुत देख भालकर चलना आवश्यक है जिससे वह अपनी बुद्धि और वृत्ति को बुराई से बचा सके और क्या कार्य है, क्या अकार्य है, इसको पहचान सके। धर्म और अधर्म को, बंध और मोक्ष को, वृत्ति और निवृत्ति को जो बुद्धि ठीक से पहचनाती है, वही सात्विकी बुद्धि है और वही मानव की सच्ची उपलब्धि है।

इस प्रकार भगवान ने जीवन के लिए व्यावहारिक मार्ग का उपदेश देकर अंत में यह कहा है कि मनुष्य को चाहिए कि संसार के सब व्यवहारों का सच्चाई से पालन करते हुए, जो अखंड चैतन्य तत्व है, जिसे ईश्वर कहते हैं, जो प्रत्येक प्राणी के हृद्देश या केंद्र में विराजमान है, उसमें विश्वास रखे, उसका अनुभव करे। वही जीव की सत्ता है, वही चेतना है और वही सर्वोपरि आनंद का स्रोत है। अब यहाँ गीता के इस अध्याय १८ का माहात्म्य अर्थात् इसके पढ़ने सुनने की महिमा के विषय में पढेंगे।

गीता माहात्म्य – अध्याय १८

श्रीपार्वतीजी ने कहाः भगवन् ! आपने सत्रहवें अध्याय का माहात्म्य बतलाया। अब अठारहवें अध्याय के माहात्म्य का वर्णन कीजिए।

श्रीमहादेवजी न कहाः गिरिनन्दिनी ! चिन्मय आनन्द की धारा बहाने वाले अठारहवें अध्याय के पावन माहात्म्य को जो वेद से भी उत्तम है, श्रवण करो। वह सम्पूर्ण शास्त्रों का सर्वस्व, कानों में पड़ा हुआ रसायन के समान तथा संसार के यातना-जाल को छिन्न-भिन्न करने वाला है। सिद्ध पुरुषों के लिए यह परम रहस्य की वस्तु है। इसमें अविद्या का नाश करने की पूर्ण क्षमता है। यह भगवान विष्णु की चेतना तथा सर्वश्रेष्ठ परम पद है। इतना ही नहीं, यह विवेकमयी लता का मूल, काम-क्रोध और मद को नष्ट करने वाला, इन्द्र आदि देवताओं के चित्त का विश्राम-मन्दिर तथा सनक-सनन्दन आदि महायोगियों का मनोरंजन करने वाला है। इसके पाठमात्र से यमदूतों की गर्जना बन्द हो जाती है। पार्वती ! इससे बढ़कर कोई ऐसा रहस्यमय उपदेश नहीं है, जो संतप्त मानवों के त्रिविध ताप को हरने वाला और बड़े-बड़े पातकों का नाश करने वाला हो। अठारहवें अध्याय का लोकोत्तर माहात्म्य है। इसके सम्बन्ध में जो पवित्र उपाख्यान है, उसे भक्तिपूर्वक सुनो। उसके श्रवणमात्र से जीव समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।

मेरुगिरि के शिखर अमरावती नामवाली एक रमणीय पुरी है। उसे पूर्वकाल में विश्वकर्मा ने बनाया था। उस पुरी में देवताओं द्वारा सेवित इन्द्र शची के साथ निवास करते थे। एक दिन वे सुखपूर्वक बैठे हुए थे, इतने ही में उन्होंने देखा कि भगवान विष्णु के दूतों से सेवित एक अन्य पुरुष वहाँ आ रहा है। इन्द्र उस नवागत पुरुष के तेज से तिरस्कृत होकर तुरन्त ही अपने मणिमय सिंहासन से मण्डप में गिर पड़े। तब इन्द्र के सेवकों ने देवलोक के साम्राज्य का मुकुट इस नूतन इन्द्र के मस्तक पर रख दिया। फिर तो दिव्य गीत गाती हुई देवांगनाओं के साथ सब देवता उनकी आरती उतारने लगे। ऋषियों ने वेदमंत्रों का उच्चारण करके उन्हें अनेक आशीर्वाद दिये। गन्धर्वों का ललित स्वर में मंगलमय गान होने लगा। इस प्रकार इस नवीन इन्द्र का सौ यज्ञों का अनुष्ठान किये बिना ही नाना प्रकार के उत्सवों से सेवित देखकर पुराने इन्द्र को बड़ा विस्मय हुआ। वे सोचने लगेः ‘इसने तो मार्ग में न कभी पौंसले (प्याऊ) बनवाये हैं, न पोखरे खुदवाये है और न पथिकों को विश्राम देने वाले बड़े-बड़े वृक्ष ही लगवाये है। अकाल पड़ने पर अन्न दान के द्वारा इसने प्राणियों का सत्कार भी नहीं किया है। इसके द्वारा तीर्थों में सत्र और गाँवों में यज्ञ का अनुष्ठान भी नहीं हुआ है। फिर इसने यहाँ भाग्य की दी हुई ये सारी वस्तुएँ कैसे प्राप्त की हैं? इस चिन्ता से व्याकुल होकर इन्द्र भगवान विष्णु से पूछने के लिए प्रेमपूर्वक क्षीरसागर के तट पर गये और वहाँ अकस्मात अपने साम्राज्य से भ्रष्ट होने का दुःख निवेदन करते हुए बोलेः ‘लक्ष्मीकान्त ! मैंने पूर्वकाल में आपकी प्रसन्नता के लिए सौ यज्ञों का अनुष्ठान किया था। उसी के पुण्य से मुझे इन्द्रपद की प्राप्ति हुई थी, किन्तु इस समय स्वर्ग में कोई दूसरा ही इन्द्र अधिकार जमाये बैठा है। उसने तो न कभी धर्म का अनुष्ठान किया है न यज्ञों का फिर उसने मेरे दिव्य सिंहासन पर कैसे अधिकार जमाया है?’ श्रीभगवान बोलेः इन्द्र ! वह गीता के अठारहवें अध्याय में से पाँच श्लोकों का प्रतिदिन पाठ करता है। उसी के पुण्य से उसने तुम्हारे उत्तम साम्राज्य को प्राप्त कर लिया है। गीता के अठारहवें अध्याय का पाठ सब पुण्यों का शिरोमणि है। उसी का आश्रय लेकर तुम भी पद पर स्थिर हो सकते हो। भगवान विष्णु के ये वचन सुनकर और उस उत्तम उपाय को जानकर इन्द्र ब्राह्मण का वेष बनाये गोदावरी के तट पर गये। वहाँ उन्होंने कालिकाग्राम नामक उत्तम और पवित्र नगर देखा, जहाँ काल का भी मर्दन करने वाले भगवान कालेश्वर विराजमान हैं। वही गोदावर तट पर एक परम धर्मात्मा ब्राह्मण बैठे थे, जो बड़े ही दयालु और वेदों के पारंगत विद्वान थे। वे अपने मन को वश में करके प्रतिदिन गीता के अठारहवें अध्याय का स्वाध्याय किया करते थे। उन्हें देखकर इन्द्र ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उनके दोनों चरणों में मस्तक झुकाया और उन्हीं अठारहवें अध्याय को पढ़ा। फिर उसी के पुण्य से उन्होंने श्री विष्णु का सायुज्य प्राप्त कर लिया। इन्द्र आदि देवताओं का पद बहुत ही छोटा है, यह जानकर वे परम हर्ष के साथ उत्तम वैकुण्ठधाम को गये।

अतः यह अध्याय मुनियों के लिए श्रेष्ठ परम तत्त्व है। पार्वती ! अठारहवे अध्याय के इस दिव्य माहात्म्य का वर्णन समाप्त हुआ। इसके श्रवण मात्र से मनुष्य सब पापों से छुटकारा पा जाता है। इस प्रकार सम्पूर्ण गीता का पापनाशक माहात्म्य बतलाया गया। महाभागे ! जो पुरुष श्रद्धायुक्त होकर इसका श्रवण करता है, वह समस्त यज्ञों का फल पाकर अन्त में श्रीविष्णु का सायुज्य प्राप्त कर लेता है।

गीता माहात्म्य अध्याय १८ समाप्त ।

गीता माहात्म्य समाप्त ।

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