संस्कृत भाषा का महत्व | Importance of Sanskrit language

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संस्कृत भाषा देववाणी कहलाती है। यह न केवल भारत की ही महत्त्व पूर्ण भाषा है। अपितु विश्व की प्राचीनतम व श्रेष्ठतम भाषा मानी जाती है।

कुछ समय पहले कुछ पाश्चात्य विद्वानों द्व्रारा मिश्र देश के साहित्य को प्राचीनतम माना जाता था परन्तु अब सभी विद्वान् एक मत से संस्कृत के प्रथम ग्रंथ वेद ( ऋग्वेद ) को सबसे प्राचीन मानते है।

हिंदू धर्म से संबंधित लगभग सभी धार्मिक ग्रंथ संस्कृत में लिखे गए हैं। बौद्ध धर्म विशेषकर महायान तथा जैन धर्म के भी कई महत्वपूर्ण ग्रंथ संस्कृत में लिखे गए हैं। आज भी यज्ञ और पूजा मे संस्कृत मंत्रों का ही प्रयोग किया जाता है।

संस्कृत में मानव जीवन के लिए उपयोगी चारों पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का विवेचन बड़े ही विस्तार से किया गया है। अत: संस्कृत केवल धर्म प्रधान ही है ऐसा नहीं है।

भौतिकवाद दर्शन से सम्बंधित विषयों पर भी प्राचीन ग्रंथकारों का ध्यान गया था। कौटिल्य का अर्थशास्त्र एक विख्यात ग्रंथ है जिसनमें राजनीतिशास्त्र विषयक सारी जानकारी मिलती है। वात्स्यायन द्वारा रचित काम-शास्त्र में गृहस्थ जीवन के लिए क्या करना चाहिए अच्छे ढंग से बताया गया है।

प्राचीन भारतीय जीवन में धर्म को ही अधिक महत्व देने के कारण संस्कृत धार्मिक दृष्टि से भी विशेष गौरव रखता है। साथ ही भारतीय धर्म और दर्शन का सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने के लिए वेद का अध्ययन तथा ज्ञान बहुत ज़रूरी है।

वेद वह मूल स्रोत्र है जहां से विभिन प्रकार की धार्मिक धाराएँ निकल कर मानव हदय को सदा संतुष्ट करती आई हैं, केवल भारतवासियों के लिए ही नहीं बल्कि अन्य देशों तथा पुरे विश्व के लिए भी मार्गदर्शक के रूप में है।

वेदों के प्रभाव का ही फल है कि पश्चिमी विद्वानों ने तुलनात्मक पुराणशास्त्र जैसे नवीन शास्त्र को ढंढ़ निकाला। इस शास्त्र से पता चलता है कि प्राचीन काल में देवताओं के संबंध में लोगों के क्या-क्या विचार थे और किन-किन उपासनाओं के प्रकारों से वे उनकी कृपा प्राप्त करने में सफल होते थे।

विशुद्ध कलात्मक दृष्टि से भी संस्कृत साहित्य का अपना विशेष महत्व है। इस साहित्य में कालिदास जैसे कमनीय कविता लिखने वाले कवि हुए। भवभूति जैसे महान् नाटककार हुए।

बाणभट्ट जैसे गद्य लेखक हुए जिसने अपने सरस काव्य से त्रिलोकसुंदरी कादम्बरी की कमनीय कथा सुना-सुनाकर श्रोताओं को अपना भक्त बनाया, जयदेव जैसे गीतिकाव्य के लेखक विद्यमान थे जिन्होंने अपनी कोमलकांतपदावली के द्वारा सहदयों के चित्त में मध वर्षा की,

श्री हर्ष जैसे पंडित हुए जिन्होंने काव्य और दर्शन का अपूर्व संमिश्रण किया। इस प्रकार इस समृद्ध साहित्य का महत्व अपने आप ही स्पष्ट हो जाता है।

प्राचीनता, अविच्छिन्नता, व्यापकता, धार्मिक व सांस्कृतिक मूल्य तथा कलात्मक दृष्टि से ही नहीं अपितु धर्म व दर्शन के विचारात्मक अध्ययन की दष्टि से भी संस्कृत भाषा का अपना निजी महत्त्व है।

संस्कृत भाषा एक विश्वव्यापी भाषा है, पुनरपि भारत सरकार इस ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दे रही, सरकार की ओर से संस्कृत भाषा को अधिक से अधिक प्रोत्साहन मिलना चाहिए। विद्यालयों में भी अनिवार्य रूप से अध्ययन अध्यापन होना चाहिए।

प्रत्येक भारतीय को भी अपनी भारती ( संस्कृत भाषा ) का अध्ययन अवश्य करना चाहिए और यत्न करना चाहिए कि निकट भविष्य में ही संस्कृत भाषा राष्ट्र भाषा बने तभी हम भारत के भाषा संबंधी प्रान्तीयता आदि के कलह को दूर भगा सकते हैं और तभी हम संसार में सच्ची विश्वशाँति की स्थापना कर सकते हैं।

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