Janmashtami : सुखी और खुश रहने के लिए गीता के ये 5 उपदेश हैं बड़े काम के

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महाभारत युद्ध की रणभूमि में भगवान श्रीकृष्‍ण ने अपने प्रिय सखा और श्रेष्‍ठ धनुर्धर अर्जुन को गीता के उपदेश दिए थे। भगवान कृष्‍ण को कलियुग में होने वाले भ्रष्‍टाचार, वैमनस्‍य और स्‍वार्थ के बारे में पहले ही ज्ञात हो चुका था, इसलिए उन्‍होंने अर्जुन को माध्‍यम बनाकर ये उपदेश समस्‍त मानव जाति के कल्‍याण हेतु दिए थे। धर्म के मार्ग पर चलते हुए भी मनुष्‍य कैसे अपने जीवन की सारी मुश्किलों को दूर सकता है, यह बताते हैं गीता के ये 5 उपदेश…

1 कर्म करने में ही अधिकार है

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥

भावार्थ : तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। अत: तू फल की इच्‍छा किए बिना कर्म किए जा। तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।

इसका अर्थ है कि मनुष्‍य को भविष्‍य की चिंता किए बिना वर्तमान में रहते हुए सिर्फ अपने काम पर फोकस करना चाहिए। अगर हम वर्तमान में मेहनत और लगन से काम करेंगे तो भविष्‍य में उसका सुफल ही प्राप्‍त होगा।

2 जो द्वेष न करता हो

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥

भावार्थ: ऐसा मनुष्‍य जो न कभी अति हर्षित होता है, न द्वेष करता है और न शोक करता है। और जो न कामना करता है तथा शुभ और अशुभ सम्‍पूर्ण कर्मों का त्‍यागी है। वह भक्तियुक्‍त मनुष्‍य मुझे अतिप्रिय है।

इसका अर्थ कोई अति विशिष्‍ट कार्य बन जाने पर हमें अति हर्षित होने से बचना चाहिए। ऐसा करने से गलती होने की आशंका बढ़ जाती है। हमें किसी दूसरे से जलन भी नहीं करनी चाहिए।

3 कर्म है जरूरी

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥

भावार्थ: नि: संदेह कोई भी मनुष्‍य किसी भी काल में क्षण मात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता। क्‍योंकि मनुष्‍य समुदाय प्र‍कृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्‍य है।

इसका अर्थ है कि हर मनुष्‍य के लिए धरती पर कोई न कोई कार्य मौजूद है, जो कि वह करने के लिए बाध्‍य है। प्रत्‍येक व्‍यक्ति में कोई न कोई खूबी जरूर होती है। बस जरूरत हो‍ती है अपने अंदर छिपे हुनर को पहचानकर कार्य करने की।

4 जो इंद्रियों को सिर्फ ऊपर से रोकता है

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥

भावार्थ: जो मंद बुद्धि मनुष्‍य समस्‍त इंन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोकता है। मन से उन इंद्रियों के विषयों का चिंतन करता रहता है, वह मिथ्‍याचारी अर्थात दंभी कहा जाता है।

इसका अर्थ है कि ऐसा व्‍यक्ति जो अपनी इंद्रियों पर केवल ऊपर से नियंत्रण करने का दिखावा करता है और अंदर से उसका मन चलायमान रहता है, ऐसा व्‍यक्ति झूठा और कपटी कहलाता है।

5 परमात्‍मा को सच्‍चे मन से स्‍वीकारना

एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः॥

भावार्थ: जो पुरुष मेरी इस परमैश्‍वर्यरूप विभूति को और योग‍शक्ति को तत्‍व से जानता है, वह निश्‍चल भक्तियोग से युक्‍त हो जाता है। इसमें कोई भी संदेह नहीं है।

इसका अर्थ है कि जो व्‍यक्ति ईश्‍वर शक्ति को सच्‍चे मन से स्‍वीकार करता है और परमात्‍मा में पूरी आस्‍था रखता है भगवान उसका कभी बुरा नहीं होने देते।

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