काली स्तोत्रम् || Kali Stotram

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काली हिन्दू धर्म की एक प्रमुख देवी हैं। यह सुन्दर रूप वाली भगवती दुर्गा का काला और भयप्रद रूप है, जिसकी उत्पत्ति राक्षसों को मारने के लिये हुई थी। उनको ख़ासतौर पर बंगाल, ओडिशा और असम में पूजा जाता है। काली की व्युत्पत्ति काल अथवा समय से हुई है जो सबको अपना ग्रास बना लेता है। माँ का यह रूप है जो नाश करने वाला है पर यह रूप सिर्फ उनके लिए हैं जो दानवीय प्रकृति के हैं जिनमे कोई दयाभाव नहीं है। यह रूप बुराई से अच्छाई को जीत दिलवाने वाला है अत: माँ काली अच्छे मनुष्यों की शुभेच्छु है और पूजनीय है। इनको महाकाली भी कहते हैं। माँ काली की प्रसन्नता के लिए काली स्तोत्रम् का पाठ करें।

|| काली-स्तोत्रम् ||

प्राग् देहस्थो यदाऽहं तव चरणयुगं नाश्रितो नाऽर्चितोऽहं

तेनाद्याकीर्तिवर्ग-र्जठरजदहनैवाद्धर्यमानो बलिष्ठैः।

क्षिप्त्वा जन्मान्तरान्न: पुनरिह भविता क्वाश्रयः क्वाऽपि सेवा

क्षन्तव्यो मेऽपराधः प्रकटितवदने कामरूपे कराले॥१॥

हे माते! इसके पहले जब मैं पूर्वजन्म में था, तब मैंने आपके दोनों चरण-कमलों का आश्रय प्राप्त नहीं किया, और आपका पूजनादि भी नहीं किया, इसी कारणवश मैं नौ मास पर्यन्त माता के पेट की भयंकर अग्नि में दग्ध हुआ था। फिर अन्य जन्म धारण करने पर फिर आपकी सेवा,अर्चना आदि मैं कर सकता हूँ अथवा नहीं। इसलिए प्रकटितवदन, कामरुप, भयंकरकालिके! मेरे इस अपराध को आप क्षमा करें ॥१॥

बाल्ये बालाऽभिलाषै-र्जडित-जडमति-र्बाललीलाप्रसक्तो

न त्वां जानामि मातः! कलिकलुषहरां भोग-मोक्षप्रदात्रीम्।

नाचारो नैव पूजा न च यजनकथा न स्मृतिर्नैव सेवा

क्षन्तव्यो मेऽपराधः प्रकटितवदने कामरूपे कराले॥ २ ॥

बाल्यकाल में बालस्वभाव से युक्त होने के कारण मैं मूर्ख सदैव बालकों की क्रीड़ा में लगा रहा । हे माते! कलियुग के पाप को नष्ट करनेवाली भोग एवं मोक्ष प्रदत्त करनेवाली मैंने आपके स्वरूप को पहचाना नहीं। इसलिए विधि-विधान से पूजन, यज्ञ और कथा तथा आपका स्मरण और सेवा भी कभी नहीं की । इसलिए हे माते! प्रकटितवदन, कामरुप, विकरालकालिके! मेरे इस अपराध को आप क्षमा प्रदान करें ॥२॥

प्राप्तोऽहं यौवनं चेद् विषधरसदृशैरिन्द्रियैर्दृष्टगात्रो

नष्टप्रज्ञः परस्त्री-परधन-हरणे सर्वदा साऽभिलाषः।

त्वत्पादाम्भोजयुग्मं क्षणमपि मनसा न स्मृतोऽहं कदापि

क्षन्तव्यो मेऽपराधः प्रकटितवदने कामरूपे कराले॥ ३ ॥

हे माते! जब मैंने युवावस्था में प्रवेश किया, तब भयंकर सर्प के तुल्य इन्द्रियादिकों के द्वारा स्वयं अपना शरीर डंसा दिया। क्योंकि मेरी मति नष्ट हो गई थी और मैं अन्य स्त्री एवं दूसरे के धन को प्राप्त करने में सदैव लगा रहता था। यही कारण है कि मैंने आपके दोनों चरण-कमलों का एकक्षण भी हृदय से स्मरण नहीं किया । इसलिए हे जननि! प्रकटितवदन, कामरुप, भयंकरकालिके! आप मेरे इस अपराध को क्षमा प्रदान करें॥३॥

प्रौढा भिक्षाभिलाषी सुत-दुहितृ-कलत्रार्थमन्नादिचेष्ट:

क्व प्राप्स्ये कुल यामीत्यनुदिनमनिशं चिन्तया भग्नदेहः ।

नो ते ध्यानं न चास्था न च भजनविधिर्नामसंकीर्तनं वा

क्षन्तव्यो मेऽपराधः प्रकटितवदने कामरूपे कराले॥४॥

जिस समय मैंने प्रौढ़ावस्था में प्रवेश किया, उस समय पुत्र, कन्या और पत्नी के लिये अन्न, द्रव्यादि को प्राप्त करने में लगा रहा। कैसे धन प्राप्त करूँ और कहाँ जाऊँ? इस प्रकार के प्रतिदिन की चिन्ता से मेरा शरीर क्षीण हो गया । इतना कष्ट पाने पर भी मैंने न तो आपका ध्यान किया, न आपमें आस्था रक्खी और न ही आपका भजनकीर्तन किया । इसलिए हे माता कालिके! मेरे इस अपराध को आप क्षमा प्रदान करें ॥ ४ ॥

वृद्धत्वे बुद्धिहीनः कृशविवशतनुः श्वास-कासातिसारैः

कर्मानर्होऽक्षिहीनः प्रगलितदशनः क्षुत्पिपासाभिभूतः।

पश्चात्तापेन दग्धो मरणमनुदिनं ध्येयमात्रं न चाऽन्यत्

क्षन्तव्यो मेऽपराधः प्रकटितवदने कामरूपे कराले॥५॥

जिस समय मुझे वृद्धावस्था प्राप्त हुई, उस समय मैं बुद्धिहीन, शक्तिहीन और कृश, तनु श्वास, कास रोग से ग्रसित होकर शुभकर्म करने में अयोग्य हो गया, मैं नेत्रहीन, दन्तहीन, सदैव भूख-प्यास से पीड़ित पश्चात्ताप से दुःखी हमेशा अपनी मृत्यु की कामना करने वाला हुआ । इसलिए अतिभयंकररूप को धारण करनेवाली माता कालिके आप मेरे इस अपराध को क्षमा प्रदान करें ॥ ५ ॥

कृत्वा स्नानं दिनादौ क्वचिदपि सलिलं नो कृतं नैव पुष्पं

ते नैवेद्यादिकं च क्वचिदपि न कृतं नाऽपि भावो न भक्तिः।

न न्यासो नैव पूजा न च गुणकथनं नाऽपि चाऽर्चा कृता ते

क्षन्तव्यो मेऽपराधः प्रकटितवदने कामरूपे कराले॥ ६॥

प्रातःकाल स्नानादि क्रिया से निवृत्त होने के पश्चात् भी मैंने कभी भी आपको स्नान, पुष्प, नैवेद्य आदि से आपकी भाव-भक्ति नहीं की, न ही मैंने हृदयादिन्यास, पूजन, अर्चन और आपका गुणानुवाद भी नहीं किया । इसलिए हे माता कालिके! मेंरे इस अपराध को आप क्षमा प्रदान करें ॥ ६ ॥

जानामि त्वां न चाऽहं भव-भयहरणीं सर्वसिद्धिप्रदात्रीं

नित्यानन्दोदयाढ्यां त्रितयगुणमयीं नित्यशुद्धोदयाढ्याम्।

मिथ्याकर्माभिलाषैरनुदिनमभितः पीडितो दुःखसङ्घै:

क्षन्तव्यो मेऽपराधः प्रकटितवदने कामरूपे कराले॥ ७ ॥

प्रत्येक दिन चारों ओर अनेक दुःखों में पीड़ित झूठे कर्म में प्रवृत्त, मैंने संसार के भयपूर्ण नष्ट करनेवाली, सभी अणिमादि सिद्धि को प्रदान करने वाली, नित्य आनंद देनेवाली, सत्त्व, रज, तमगुणरूपा, त्रिगुणात्मिका मैंने आपको नहीं जाना । अतः हे माताकालिके! मेरे इस अपराध को क्षमा प्रदान करें ॥ ७॥

कालार्भां श्यामलाङ्गीं विगलित चिकुरां खड्गमुण्डाभिरामां

त्रासत्राणेष्टदात्रीं कुणपगणशिरोमालिनीं दीर्घनेत्राम्।

संसारस्यैकसारं भवजननहरां भावितो भावनाभिः

क्षन्तव्यो मेऽपराधः प्रकटितवेदने कामरूपे कराले॥८॥

काले रंग के बादलों के तुल्य, श्यामलाङ्गी, बिखरे केशोंवाली खड्ग मुण्ड से सुशोभित, भयंकर कष्ट से रक्षा करनेवाली. अपने माथे पर कुणप धारण करनेवाली, लम्बे नेत्रों से युक्त,संसार की एकमात्र सारभूता, मोक्ष प्रदत्त करनेवाली, केवल भावनामात्र से ही प्रसन्न होनेवाली, हे माता कालि! आप मेरे इस अपराध को क्षमा प्रदान करें ॥ ८॥

ब्रह्मा विष्णुस्तथेशः परिणमति सदा त्वत्पदाम्भोजयुग्मं

भाग्याभावान्न चाऽहं भवजननि भवत्पादयुग्मं भजामि।

नित्यं लोभ-प्रलोभैः कृतवशमतिः कामुकस्त्वा प्रयाचे

क्षन्तव्यो मेऽपराधः प्रकटितवदने कामरूपे कराले॥९ ॥

ब्रह्मा, विष्णु, शिव (ये तीनों देवता) आपके दोनों चरण-कमल की निरन्तर सेवा करते रहते हैं । हे भवजननि! भाग्यहीन होने के कारण मैं आपके चरण-कमल की सेवा भी न कर सका। क्योंकि मैं अति कामुक और काम, क्रोध, लोभादि के वश में रहनेवाला था। इसलिए मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि हे माते! आप मेरे इस अपराध को क्षमा प्रदान करें ॥ ९ ॥

रागद्वेषैः प्रमत्तः कलुषयुततनुः कामनाभोगलुब्धः

कार्याऽकार्याविचारी कुलमतिरहितः कौलसङ्खर्विहीनः।

क्व ध्यानं ते क्व चाऽर्चा क्व च मनु जपन्नैव किञ्चित् कृतोऽहं

क्षन्तव्यो मेऽपराधः प्रकटितवदने कामरूपे कराले॥१०॥

मै राग-द्वेष के वशीभूत, पापी, सदैव कामना के भोग से ग्रसित, अनभिज्ञ, अकुलीन, अपने कुटुम्ब वर्ग से रहित हूँ। इसलिए मैंने आपका ध्यान, पूजन, जप आदि नहीं किया। अतः हे माते! आप मेरे इस अपराध को क्षमा प्रदान करें ॥१०॥

रोगी दुःखी दरिद्रः परवशकृपणः पांशुल: पापचेता

निद्रालस्यप्रसक्तः सुजठरभरणे व्याकुलः कल्पितात्मा।

किं ते पूजाविधानं त्वयि क्व च नुमतिः क्वानुरागः क्व चास्था

क्षन्तव्यो मेऽपराधः प्रकटितवदने कामरूपे कराले॥११॥

मै रोगों से ग्रसित, दुःखी, दरिद्र, पराधीन, व्यभिचार में आसक्त, पापकर्म को करनेवाला, निद्रा एवं आलस्य से युक्त था। एकमात्र अपना पेट भरने में ही लगा रहा। इसलिए मेरी बुद्धि आपके पूजन में आसक्त नहीं हुई, न ही आपके प्रति प्रेम, अनुराग एवं आस्था ही रही। इसलिए हे माता कालिके! मेरे इस अपराध को क्षमा प्रदान

करें॥११॥

मिथ्याव्यामोहरागैः परिवृतमनसः क्लेशसङ्खान्वितस्य

क्षुन्निद्रौघान्वितस्य स्मरणविरहिणः पापकर्मप्रवृते: ।

दारिद्युस्य क्व धर्मः क्व च जननि रुचिः क्व स्थितिः साधुसङ्गै:

क्षन्तव्यो मेऽपराधः प्रकटितवदने कामरूपे कराले॥१२॥

झूठ बोलना, व्यामोहादि राग से युक्त चित्तवाले, क्लेशसमूह से ग्रसित, भूख, निद्रा से पीड़ित, आपके स्मरण में हीन, पापकर्म में निरन्तर में प्रवृत्त, हे जननि! ऐसे मुझ दरिद्र का न तो कोई धर्म है, न ही आपमें प्रेम और न ही अच्छे व्यक्तियों की संगति प्राप्त हुई है। इसलिए हे माता कालिके! आप मेरे इस अपराध को क्षमा करें ॥१२॥

मातस्तातस्य देहाज्जननि जठरगः संस्थितस्त्वद्वशेऽह

त्वं हर्त्रा कारयित्री करणगुणमयी कर्महेतुस्वरूपा।

त्वं बुद्धिश्चित्तसंस्थाऽप्यहमतिभवती सर्वमेतत् क्षमस्व

क्षन्तव्यो मेऽपराधः प्रकटितवदने कामरूपे कराले॥१३॥

हे माते! पिता के देह द्वारा माताश्री के गर्भ में स्थित होने के कारण मै आपके अधीन हूँ। क्योंकि आपही संसार की हर्ता, उत्पादयित्रि, त्रिगुणात्मिका, कर्महेतुरूपा है। क्योंकि आपही मेरी बुद्धि एवं हृदय में व्याप्त हैं। फिर भी मैं आपको पहचान न सका। इसलिए हे माता कालिके! आप मेरे इस अपराध को क्षमा प्रदान करें ॥१३॥

त्वं भूमिस्त्वं जलं च त्वमसि हुतवहस्त्वं जगद्वायुरूपा

त्वं चाऽऽकाशं मनश्च प्रकृतिरसि महत्पूर्विका पूर्वपूर्वा।

आत्मा त्वं चाऽसि मातः! परमसि भवती त्वत्परं नैव किञ्चित्

क्षन्तव्यो मेऽपराधः प्रकटितवदने कामरूपे कराले॥१४॥

आप ही पृथ्वी, जल, अग्नि, संसार,पवन, आकाश, मन, महाप्रकृतिरूप, भूमि आदि प्रकृतिपर्यन्त पूर्व-पूर्वक कर्मानुसार हैं। हे माते! आप ही इस सम्पूर्ण चराचर की आत्मा है और सबसे अलग हैं, अर्थात् आपसे कुछ भी परे नहीं है। इसलिए हे महाकालि! आप मेरे इस अपराध को क्षमा प्रदान करें ॥ १४ ॥

त्वं काली त्वं च तारा त्वमसि गिरिसुता सुन्दरी भैरवी त्वं

त्वं दुर्गा छिन्नमस्ता त्वमसि च भुवना त्वं लक्ष्मीः शिवा त्वम्।

धूमा मातङ्गिनी त्वं त्वमसि च बगला मङ्गलादिस्तवाख्या

क्षन्तव्यो मेऽपराधः प्रकटितवदने कामरूपे कराले॥१५॥

हे माता कालि! काली, तारा, पार्वती, सुंदरी, भैरवी, दुर्गा, छिन्नमस्ता,भुवनेश्वरी, कमलात्मिका (लक्ष्मी), शिवा, धूमा, मातंगी,कमला और मंगला आदि के नामों से आप विख्यात हैं। इस प्रकार की हे माता! आप मेरे सम्पूर्ण अपराधों को क्षमा प्रदान करें ॥१५॥

|| काली-स्तोत्रम् फलश्रुतिः ||

स्तोत्रणानेन देवीं परिणमति जनो यः सदा भक्तियुक्तो

दुष्कृत्या दुर्गसङ्घ परितरति शतं विघ्नता नाशमेति।

नाधिव्याधिः कदाचिद् भवति यदि पुन: सर्वदा सापराध:

सर्वं तत्कामरूपे त्रिभुवनजननि क्षामये पुत्रबुद्धया॥१६॥

जो साधक श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक काली के इस स्तोत्र का सदैव पाठ करते हैं, उनके सम्पूर्ण दुष्कर्म और सैकड़ों विघ्न अपने-आप नष्ट हो जाते हैं। इसका पाठ करनेवाले साधक को आधि-व्याधि कभी नहीं आती है। वह साधक सदैव अपराधी होने पर भी हे कामरूपे! हे तीनों लोकों को जन्म देनेवाली माते! इसे अपना पुत्र जानकर उस साधक के सभी त्रिविध ताप-पाप आदि को नष्ट करें ॥१६॥

ज्ञाता वक्ता कवीशो भवति धनपतिर्दानशीलो दयात्मा

निःपापी नि:कलङ्की कुलपतिकुशलः सत्यवाग् धार्मिकश्च।

नित्यानन्दो दयाढयः पशुगणविमुखः सत्पथाचारशील:

संसाराब्धिं सुखेन प्रतरित गिरिजापाद-युग्मावलम्बात्॥१७॥

इस स्तोत्र के जानने वाले साधक, ज्ञानी, बोलने में कुशल, कविता करने में कुशल, दयालु, दानी, धन के स्वामी, पाप और कलंक से रहित, सत्य बोलनेवाले, धर्म पर चलनेवाले, अपने कुल की रक्षा करने में कुशल, नित्यानंदरूप, दयालु, पशु बुद्धि से रहित, अच्छे मार्ग का आश्रय लेने वाले होते हैं । जो साधकगण पार्वती के चरण-कमल का सेवन करते हैं, वे इस संसाररूपी सागर को सहसा ही सुखपूर्वक पार कर लेते हैं ॥१७॥

॥ काली-स्तोत्रम् समाप्तम् ।।

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