कालिका पुराण अध्याय ३१ – Kalika Puran Adhyay 31

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कालिका पुराण अध्याय ३१ में शरभ वाराह युद्ध का वर्णन है।

कालिका पुराण अध्याय ३१

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इसके अनन्तर सब देवगणों ने देव योनियों के साथ और रुद्रदेव के सहित मिलकर भली-भाँति जगत के हित के लिए सलाह की थी। फिर मुनियों के साथ शक्र (इन्द्र) आदि उन सबने निश्चय करके शरण्य, विभु, अज भगवान नारायण की शरणागति में गये थे । उन गोविन्द, वासुदेव जगत के स्वामी के समीप में पहुँचकर सब देवों को प्रणाम किया था और फिर भगवान गरुड़ध्वज का स्तवन किया था।

कालिका पुराण अध्याय ३१  

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गरुड़ध्वज स्तुति:

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कालिका पुराण अध्याय ३१  

मार्कण्डेय मुनि ने कहा – इस प्रकार से देवों के देव, भूतों के भावन करने वालों के भी भावन इस रीति से स्तुति किए गए थे जो इन्द्रदेव के सहित देवगणों के द्वारा स्तवन किए गये थे । मेघ के समान ध्वनि वाले प्रभु ने उन सबसे कहा था ।

श्री भगवान ने कहा- जिस प्रयोजन की सिद्धि के लिए आप लोग यहाँ पर समागात हुए हैं अथवा जो भी कुछ भय आपको हुआ है अथवा वहाँ पर जो भी कुछ कार्य मुझे करना चाहिए हे देवों! वह शीघ्र ही बतलाइए।

देवों ने कहा- यह पौत्री अर्थात् यज्ञ वाराह के क्रीड़ा से यह वसुधा अर्थात् पृथ्वी नित्य विकीर्ण हो रही है और सभी लोक विशेष रूप से क्षुब्ध हो रहे हैं और वह उपसान्त्वना प्राप्त नहीं कर रहे हैं। जिस प्रकार से सूखा हुआ तुम्बी का फल धातों से जर्जरता को प्राप्त हो जाता है ठीक उसी भाँति यह भूमि यज्ञ वाराह के खुरों के प्रहारों से जर्जरित हो गई है ।

उसके जो तीन कालाग्नि के तेज से समान पुत्र हैं जिनके नाम सुवृत्त, कनक और घोर हैं उनके द्वारा भी यह सम्पूर्ण जगत आपतित हो रहा है । उनकी कर्दम लीलाओं से हे जगतों के पति ! मानस आदि सब सरोवर भग्न हो गये हैं और अभी भी प्राकृतिक स्वरूप को प्राप्त नहीं होते हैं । महान बल वाले उनके द्वारा मन्दार आदि देवों के तरु भग्न कर दिए गए हैं । हे देव! वे आज तक भी प्ररोह को प्राप्त नहीं हो रहे हैं । जिस समय से वे सृवृत्त प्रभृति तीनों त्रिकूट पर्वत पर समारोहण किया करते हैं । हे महाबाहो । वहाँ से वे प्लुति करके क्षीर सागर में गिर जाया करते हैं । उस समय में क्षोभ को प्राप्त हुए सागर के जल के समुदायों से यह सम्पूर्ण भूमि प्लावित हो जाया करती है । उस समय में सभी मनुष्य उत्प्लवन को प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् जल से निमग्न हो जाया करते हैं और दशों दिशाओं में जहाँ कभी भी जीवन की रक्षा करते हुए परिभ्रमण करने लगते हैं । जिस समय में यज्ञ वाराह के पुत्र त्रिविष्ट अर्थात् स्वर्ग को गमन नहीं किया करते थे । हे जगत्पते ! सभी पर्वत उस वाराह के पुत्रों ने शिखर पर क्रीड़ा करते हुए अधिक भाग नीचे की ओर गया हुआ कर दिया था । इस प्रकार से विशेष क्रीड़ा करते हुए उनकी क्रीड़ाओं से सम्पूर्ण जगत् हे वैकुण्ठ! नाश के भाव को प्राप्त हो जाता है । हे जगत् के प्रभो ! उससे आप रक्षा कीजिए ।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- भगवान जनार्दन ने इस प्रकार से कहते हुए उनके वाक्य का श्रवण करके भगवान ने देव शंकर से और विशेष रूप से ब्रह्माजी ने कहा। जिसके लिए सभी देवगण और ये समस्त प्रजा महान दुःख को पा रहे हैं और यह सम्पूर्ण जगत शीर्ण हो रहा है । हे शंकर! मैं इस वाराह के शरीर को त्याग करने की इच्छा कर रहा हूँ । निर्वेश में शक्त उसका त्याग करना स्वेच्छा से नहीं हो सकता है। हे शंकर! अब आप यत्न से उसका त्याग कराइए। हे ब्राह्मण! आप भी अपने नेत्रों से पुनः समर के विनाशक शिव को आप्याप्ति कीजिए तथा सब देवगण भी शंकर को आप्यादित करें कि वे इस पौत्री का हनन करने को उद्यत हो जावें । रजस्वला के संसर्ग से तथा विप्रगण के मारने से यह शरीर पापों के करने वाला हो गया है। इस समय में उसका त्याग करना युक्त होता है । यह पाप प्रायश्चितों के द्वारा ही दूर होता है । अतएव मैं प्रायश्चित करूँगा । उसके लिए मेरा शरीर यत्न से साम्यता को प्राप्त होवे ।

मुझे सदा ही प्रजा का पालन करना ही चाहिए। वह प्रजा नित्य ही दुःखित हुआ करती है और वह मेरे ही द्वारा दुःखित हो रही है अतएव प्रजा की भलाई के लिए मैं शरीर का त्याग कर दूँगा ।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इस रीति से वे दोनों ब्रह्मा और शंकर उस समय में वासुदेव प्रभु के द्वारा कहे गये थे । तब उन्होंने वासुदेव प्रभु के कहा था कि जैसा भी आपने कहा है वही मुझे सब करना ही चाहिए। भगवान वासुदेव ने भी उन सब देवगणों को विदा करके वाराह के तेज का आहरण करने के लिए वे फिर ध्यान में परायण हो गए थे। जब धीरे-धीरे माधव प्रभु उस तेज का अपहरण करते हैं तो उस समय में वह वाराह का देह सत्व से हीन हो गया था। जब सभी देवों ने उस देह को तेज से हीन समझ लिया था उसी समय में देव अद्भुत यज्ञ वाराह के समीप में प्राप्त हुए थे । ब्रह्मा आदि समस्त देव उमा के स्वामी महोदव के समीप में गये थे कि उस समय में उस तेज को कामदेव के शासन करने के लिए अधीन करें। फिर इसके अनन्तर सभी देवों के समुदाय ने अपना-अपना तेज भगवान वृषभध्वज में समायोजित कर दिया था उससे वे भगवान शम्भु बहुत ही अधिक बलवान हो गये थे ।

इसके अनन्तर शरभ के वाले रूप उसी क्षण में गिरीश हो गये थे । वे ऊपर और नीचे भाग से आठों पादों से युक्त अत्यन्त भैरव हो गये । वह वाराह का शरीर दो लाख योजन ऊँचाई वाला था और डेढ़ लाख योजन विस्तार से युक्त था। ऊपर की ओर वह वाराह का शरीर एक लाख योजन के विस्तार वाला था । आधा लाख योजन पाश्वर्व में विस्तृत था। उस समय में ऐसा वह वाराह शरीर वर्तमान हो गया था। इसके अनन्तर उस यज्ञ पौत्री ने शिर पर चन्द्र का स्पर्श करने वाले शरभ के रूप वाले उमापति महादेव का दर्शन किया था । उनका स्वरूप लम्बी नाक, और नखों वाला था तथा काले अंगार के समान प्रभा से युक्त था। उनका मुख दीर्घ था, महान शरीर से समन्वित था और उसमें आठ दाढ़ें थीं, जटायें धारण करने वाली पूँछ थी तथा लम्बे कानों वाला परमाधिक भयानक स्वरूप था। उसके चार पद पृष्ठ भाग में थे तथा चार अधर में थे। वह महान घोर शब्द कर रहे थे तथा बारम्बार उछाल खा रहे थे। इसके अनन्तर आगमन करते हुए उनको देखकर तो तुरन्त ही क्रोध से दौड़ लगा रहे थे । सुवृत्त, कनक और घोर वहाँ पर क्रोध से मूर्च्छित होते हुए प्राप्त हो गये थे ।

फिर वे तीनों भाई महान शरीरधारी शरभ के समीप में आ गये थे और उन्होंने एक ही साथ पौत्र घातों से उत्क्षेप किया था जो कि महान बल से समन्वित थे। वे सब जितने प्रमाण वाले शरभ था उतने ही प्रमाण वाले उस समय में हो गये थे। वे तीनों पौत्री माया के द्वारा शरभ के उत्पक्षेप अवसर पर बन गये थे । वह शरभ पृथ्वी के भाग में गहन जल के सागर में पतित हो गया था । मकरों के निवास स्थान सागर में सृवृत्त कनक और घोर के गिर जाने पर वाराह भी अपने पुत्रों के स्नेह से वशीभूत होकर और क्रोध से हे द्विजसत्तमो ! उछाल खाकर सहसा उस जल से समुदाय वाले सागर में गिर गया था । उस समय में वे सब वाराह और शरभ उछाल खाते हुओं ने दिव्यलोक में सब देवों का और समस्त नक्षत्रों का भग्न कर दिया था। उनमें कुछ देवगण तो निहित हो गए थे और कुछ भूमि में नियति हो गये थे और उनमें कुछ देवज्ञान से समन्वित थे जो महर्लोक का समुपाश्रय ग्रहण करके वहाँ पर संस्थित हो गये थे ।

हे द्विज श्रेष्ठों ! नक्षत्र विमान से महीबल में पतित हो गये थे वे सब ज्वालाओं की मालाओं से समाकुल दिखलाई दे रहे थे। उनके उत्पतन में जो वेग था वह बहुत ही अधिक दारुण था। उनसे अत्यधिक वेग वाला वायु उत्पन्न हो गया था जो बहुत ही अधिक दारुण था । उस वायु से प्रेरित हुए पर्वत पृथ्वीतल में गिर गये थे और कुछ पर्वत पुनः ही पर्वतों में पतित हो गये थे। वह वृक्षों का और जन्तुओं का विभर्दित करके बारम्बार निपातित हो गये थे । कुछ तो पर्वतों के आघातों से महीतल में नृत्यमान हो रहे थे। उन पर्वतों ने गमन करते हुओं ने बहुत सी प्रजाओं का भग्न कर दिया था। वायु के वेग से भूतल में पर्वत दिखलाई दिए थे। उनसे सदृश्यमान होते हुए अर्थात् रगड़ खाते हुए अन्य पर्वत गमन करते हुए से प्रतीत हो रहे थे । अम्भीनिधि में पतित हुए वाराहों से और शरभ से दिखाई दे रहे थे। महान ऊँचे पर्वतों से जल की राशियाँ उत्क्षिप्त हो गयी थी ।

एक ही क्षण सब सागर बिना जल वाले हो गये थे क्योंकि वे सब जल की राशियों समुत्पिक्षप्त होकर पृथ्वी जल में समागत हो गई थीं । उत्प्लावित हुई समस्त प्रजा एक ही क्षण में क्षय को प्राप्त हो गयी थी । प्लवमान होती हुई अर्थात् डुबकियाँ खाती हुई प्रजा सभी ओर से क्रियमाण हो गयी थीं । उस समय में बहुत ही अधिक करुण दृश्य हो गया था। मरने वाले लोग परस्पर में विलाप कर रहे थे। कुछ लोग कह रहे थे हा पिता, हा माता! हा तात ! हा सुता! इस प्रकार से कहते हुए परमभीत और आर्त्त मनुष्य करुणापूर्वक विलाप कर रहे थे। जिस देश में वाराहों के साथ शरभ निपातित हुआ था यहाँ पर ही अधोभाग में गई हुई पृथ्वी पादों के वेग से विदारित हो गई थी। दूसरा पृथ्वी का प्रान्त पर्वतों के साथ उत्थित हुआ था जन लोकों में उनके प्रभञ्जनों सृजन किया था । उस समय में शरभ ने जन लोकों में संयुक्त पृथ्वी को पोत्रियों कचला भी सम्बद्धा को निःश्रेणी की ही भाँति देखा था । वह विस्मय से आविष्ट हुआ भीतर भ्रान्त एवं पीड़ित था । इसके अनन्तर पौत्रीगण वे सब पौत्राघात से युद्ध करने लगे थे तथा उन्होंने खुरों के प्रहरों के द्वारा दाढ़ों से और महान दारुण गात्र से क्षेत्रों से ही युद्ध किया था ।

इसके अनन्तर एक ही उस महान शरभ उन चारों पौत्रियों के साथ एक सहस्त्र वर्ष पर्यन्त एकान्त में दाढ़ों के अग्रभागों से, तीक्ष्ण नक्षों से, खुरों से, लांगुल के प्रहारों के द्वारा और महान शब्द वाले तुण्डाघातों से चारों उन पौत्रियों के साथ लड़ा था अर्थात् उसने युद्ध किया था । उनके प्रहारों से, वेगों से, भ्रमणों से और गमनागमनों से, आस्फोटितों से तथा अरावों से पृथक-पृथक देह के पातों से पाताल में समस्त पन्नग कद्रुजों के साथ विनिष्ट हो गये थे । इसके उपरान्त वे सब सागर का परित्याग करके पृथ्वी के मध्य में समागत हो गये थे। ये परस्पर युद्ध करते हुए रहे थे फिर यह पृथ्वी सम हो गई थी। शेष भगवान भी बड़े भारी यत्न से बल के द्वारा कच्छप को अवष्टब्ध करके भग्नशीर्ष वाले प्रत्यापित होते हुए बड़े दुःख के साथ इस पृथ्वी को धारण करने वाले हुए थे अर्थात् बड़ी कठिनाई से उन्होंने पृथ्वी को धारण किया था । अनन्त के वामनीभूत होने पर और पृथ्वी तल के समत्व को प्राप्त हो जाने पर सागरों के और पर्वतों के चलायमान होने के समस्त जन्तुओं के विनष्ट हो जाने पर त्रिपौत्रि शरभों के युद्धमान होने पर सागरों के द्वारा सम्पूर्ण जगत के आलुप्त होने पर उस समय में जलमय में चिन्ता से आविष्ट सुरश्रेष्ठ पितामह भगवान हरि से बोला- हे भगवान्! सुर-असुर और मनुष्यों के सहित समस्त भुवन विध्वंस हो गया है, यह पृथ्वी विशीर्ण हो गई है और स्थावर तथा जंगम (चेतन) नष्ट हो गये हैं ।

देव, गन्धर्व, दैत्य, सरीसृप के ही धन वाले मुनिगण सब, हे जगतों के नाथ! इस समय में विध्वंस हो गये हैं। आप ही सबके पालन करने वाले हैं और आप ही जगत के प्रभु अर्थात् स्वामी हैं । इस कारण से आप हम सबका और इस पृथ्वी का, हे जगत् के स्वामिन! पालन कीजिए। आप ही वाराह का शरीर हैं आप स्वयं ही इसका उपसंहार करिए । हे महाबाहो ! चर और अचरों के साथ इस पृथ्वी को संस्थापित करिए ।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- उन भगवान जनार्दन ने इस ब्रह्माजी के वचन का श्रवण करके अच्युत प्रभु उस समय में सबकी संस्थापना करने के लिए यत्न किया था । इसके उपरान्त भगवान हरि रोहित मत्स्य के रूप को धारण करने वाले होकर इस समय में वेदों के सहित सात मुनियों को धारण करने वाले हुए थे । वे श्रुति की रक्षा के परायण होकर जगत के हित के साधन करने के लिए सभी श्रुति के श्रेष्ठ कोविदों का धारण किया था । उन मुनियों के शुभ नाम बतलाये जा रहे हैं, उन मुनियों में वशिष्ठ, कश्यप, विश्वामित्र, गौतम मुनि और महती तपश्चर्या में संस्थित जमदग्नि तथा तप के निधि भरद्वाज मुनि थे। इन सबको अपने पृष्ठ भाग पर रखकर जल के मध्य में महान नौका में मुनीन्द्र को बिठाकर स्थित हुए थे । इसके अनन्तर शिव को सान्त्वना देने के लिए भगवान जनार्दन वहाँ पर गये थे जहाँ पर उन्होंने पौत्रियों के साथ युद्ध किया था ।

अति पौत्र पहनों से वराही के साथ भ्रान्त, निष्पीडित, प्याप्त ( खुले ) मुख से संयुत तथा श्वासों को लेते हुए हरि को देखकर समागत हुए थे वाराह ने पूर्व में होने वाली नृसिंह भगवान की मूर्ति का स्मरण किया था । उनके द्वारा स्मरण किए हुए वाराह ने सखा वाराह के हित में भगवान नृसिंह समागत हुए थे। उस अवसर पर आए हुए उन भगवान नृसिंह का वीक्षण करके उनके कामों को अपने ही तेज में ले लिया था । वाराहों के साथ शरभ ने देखा था कि वह तेज सबके तुल्य विष्णु भगवान के अन्दर प्रवेश कर गया था। तेज से रहित भगवान नृसिंह का ज्ञान प्राप्त करके वाराह ने निःश्वासों के समूह को छोड़ा था अर्थात् वे बहुत कुछ निःश्वास लेने लग गये थे । फिर तो बहुत से वाराह समुद्भूत हो गये थे जिनका बहुत बड़ा आकार था और अद्भुत एवं तीक्ष्ण दाढ़ों वाले थे । वे वाराह शरभगिरीश मायाधारी और भय रहित होते हुए पीड़ित करने वाले थे। उस समय में भी नृसिंह भगवान के साथ युद्ध किया था और बहुत अधिक गिरीश का मर्दन किया था । एक क्षण में तो पक्षियों के समान स्वरूप वाले थे और क्षण में गौऐं, तुरंग और मनुष्य हो जाते थे । एक ही क्षण में नृसिंह वाराह के रूप वाले थे और वे किसी क्षण में गोमायु ( शृंगाल) और वैकृतिक अर्थात् बिगड़े हुए हो जाते थे । उस युद्ध में वाराहों में अनेक भाँति के महाभयंकर स्वरूप वितन्यमान किए थे ।

उस अवसर पर भर्ग को उनके द्वारा निपीड़ित देखकर उन गिरिश के समीप में भगवान् माधव आ गये थे । भगवान विष्णु ने अपने कर कमल से गिरीश का स्पर्श किया था और फिर उसने अपना तेज पुनः उनमें निर्धारित कर दिया। इसके अनन्तर प्रभाविष्णु भगवान विष्णु के कर से स्पर्श होते हुए ही वह अत्यधिक प्रसन्न हृष्ट और बलवान हो गये थे। इसके अनन्तर शरभ में बहुत ऊँचा, बलवान और दृढ़नाद (गर्जन की ध्वनि ) किया था जिससे ये चौदह भुवन भर गए थे अर्थात् चौदह भुवनों में फैलकर पहुँच गया था। इस रीति से नाद करने वाले उसके मुख से जो भी सीकर अर्थात् जल के कण निकले थे उनसे महान शरीरों से धारण करने वाले तथा विशाल ओज से समन्वित समुत्पन्न हो गये । जिस प्रकार से वाराह के निःश्वास से नाना रूपों को धारण करने वाले गुण हुए थे। ये वैसे ही वाराह थे प्रत्युत उनसे भी अधिक बलवान थे । श्वान, वाराह, उष्ट्र के रूप वाले, प्लव, गोमायु और गौ के मुख से संयुत, रीछ, मातंग, मार्जार और शिशुमार के स्वरूप वाले कुछ सिंह और व्याघ्र के मुख वाले और कुछ सर्प और भूकक के समान मुख वाले थे, हंस की सी ग्रीवा से युक्त हय के समान वाले तथा दूसरे महिष के समान आकृति वाले थे।

दूसरे मनुष्य के समान आकार वाले थे और फिर मृग तथा मेघ के सदृश मुख से समन्वित थे । कुछ केवल कबन्ध ही थे जिनके मुख नहीं थे । कुछ बिना हाथों वाले और कुछ बहुत हाथों से युक्त थे। उनके कुछ शरभ के सदृश आकारवाले थे और दूसरे कृकलास के जैसे मुख से संयुत थे । कुछ मत्स्य के सदृश मुख से युक्त थे और कुछ ग्राह के से मुख वाले थे, कुछ बहुत छोटे, कुछ बहुत बड़े बल वाले तथा कुछ कृश थे । कुछ ऐसे थे जिनके चार पैर थे, कुछ आठ पैरों से युक्त कुछ तीन एवं दो पैरों वाले थे। कुछ एक ही पैर वाले थे और कुछ बहुत अधिक हाथों से संयुक्त थे । कुछ यक्ष तथा किंपुरुषों के समान थे। कुछ पशुओं के समान आकार वाले थे तो कुछ पंखों से संयुत थे । कुछ लम्बे उदर वाले थे तो कुछ महान उदर से संयुक्त थे । कुछ ऐसे थे जिनके उदर दीर्घ थे तथा स्थूल केशों से समन्वित एवं कुछ बहुत कानों वाले तथा कुछ बिना ही कानों वाले थे । कुछ उनमें ऐसे थे जिनके स्थूल अधर थे तो कुछ दीर्घ दाँतों से समन्वित थे और दूसरे बड़ी लम्बीदाढ़ी मूँदों वाले थे। हे विप्रो ! सभी ओर चौदह भुवनों में जो प्राणधारी थे उनके रूप की समानता को प्राप्त हुए थे । इस भुवन में कोई भी जन्तु अथवा स्थावर या जंगम नहीं था जिनके समान रूप से भगवान् शंकर के गण उत्पन्न न हुए हों। वे सब भिन्दिपाल, खग, परिघ और तोमरों से समन्वित थे ।

शकुल, आस और गदाओं से, पाशों से खट्वांग से, त्रिशूलों से, कपालों से, शक्तियों से, दोत्रों से, क्षुणियों से, ईषाग्रों से, यष्टियों से, त्रिकण्टकों से, पाशों से, परशुओं से, बाणों से और कोणदण्डों से महान भीषण थे। सभी महान बल वाले और जटा और चन्द्रकाल से युक्त थे । कुछ मार्ग के रूप से, वाहन से और भूषणों तुल्य जटा, अर्धचन्द्र और शुभ्रांशु और शुभ्रशीर्ष वाले महा बलवान थे । उनमें कुछ अर्धनारीश्वर थे और कुछ ऐसे ही थे जैसे रुद्रदेव ही होंवे । कुछ तो अपने सुन्दर रूप से तथा मोहने वाले स्वरूम से कामदेव के तुल्य थे जो वनिताओं के समुदाय के साथ रति करने में समुत्सुक थे। सभी आकाश में चरण करने वाले थे और सभी स्वतन्त्रता से गमन करने वाले थे । उनमें कुछ नीलकमल के सदृश श्याम वर्ण वाले थे तो कुछ शुक्ल और लोहित थे । कुछ रक्त, पीत तथा विचित्र वर्ण से संयुत और दूसरे हरि एवं कपिल थे । कुछ आधे पीत, आधे रक्त, आधे भाग में नील और दूसरे धवल थे ।

कुछ कृष्ण और पीत वर्ण से युक्त थे तथा कपितय अर्द्धकृष्ण और शुक्ल वर्ण से रञ्जित थे । एक ही वर्ण वाले, कतिपय दो वर्णों से संयुत तथा दूसरे तीन वर्णों से समन्वित थे । कुछ चार पाँच और छः वर्णों से युक्त थे और हे द्विजो ! कुछ दश गुणों वाले थे। सभी गज वादन करने वाले थे जिनमें कुछ डिण्डिम, पट्टह, शंख, भेरी, आनक, सकहल, गोमुख, मण्डूक, झर्झर, झर्झरी, समर्दल, वीणा, तन्त्री, पञ्चतन्त्री, शकर और दर्दर, कुण्ड, सतालकर तलिकाओं को वादन करते हुए सभी गण बार-बार हँसने वाले थे । वे सब वाराह की ओर मुख वाले होते हुए स्थित हो गये थे । उन सबसे वृषभध्वज भगवान शरभ ने कहा । इन वाराह के गणों का विहनन कर दो। ये निश्चय ही अपने क्रूर कर्मों द्वारा, क्रूर दृष्टि से, क्रूर युद्धों के द्वारा क्रूर होकर महान बल वाले थे । इसके अनन्तर वे सब गण अनेक आकार वाले और नाना श्रेष्ठ आयुधों से समन्वित थे । उन क्रूर दिखलाई देने वालों ने वाराह के गणों के साथ युद्ध किया था ।

ये सभी आकाश में सञ्चरण करने वाले थे उन्होंने जल से पूर्ण तीनों जगतों का परित्याग करके दोनों पक्ष के गण आकाश में ही युद्ध कर रहे थे । इसके पश्चात भगवान हर के प्रमथों ने वाराह के गणों को एक क्षण में महान वायु जिस तरह से मेघों को हटा देता है और विनष्ट कर दिया करता है वैसे ही महान बल के रखने वाले सभी वाराह के गणों को मार दिया था । उस सब वाराह के वीर गणों के निहित हो जाने पर वराह ने चिन्तन किया था कि वह क्या पहले और पीछे ऐसा वृत्त उपस्थित हुआ है । उसके उपरान्त चिन्तन करते हुए उसके हृदय में भगवान जनार्दन ने गमन करके वह सभी कुछ वाराह वपु हित को विज्ञापित कर दिया था । इसके अनन्तर उस समय में देह का परित्याग करने के लिए महान बलशाली ने नरसिंह को दाढ़ों के अग्रभाग के घातों से विभक्त कर दिया था । शरभ भगवान भर्ग ने मध्य में दो भागों में कर दिया था । नरसिंह के दो भागों में विभक्त होने पर उसके नर भाग से नर ही समुत्पन्न हुआ था जो दिव्य रूपशाली महान ऋषि था । उसके पाँच मुखों के भाग से नारायण श्रुत हुआ था ।

वह महान तेज वाले महामुनि जनार्दन हो गये थे । नर और नारायण दोनों महती मति वाले इस दृष्टि के हेतु हो गये थे । उन दोनों का प्रभाव बहुत ही दुर्धर्ष था और शास्त्र में, वेद में और तपों में सब उनका प्रभाव सहन करने के योग्य नहीं था । मत्स्य मूर्ति रक्षक के स्वरूप वाली नौका उन दोनों को निर्धारित किया था और फिर वाराह हरि देव शरभ के समीप में प्राप्त हुए । मुझे समस्त जगतों के हित के सम्पादन करने के लिए वपु का त्याग अवश्य ही करना चाहिए। यह पूर्व में मैंने प्रतिज्ञा की थी उसी के लिए यह समुद्यम किया जा रहा है । वह समुद्यम भगवान हरि के द्वारा, शम्भु के द्वारा और ब्रह्म के द्वारा किया जा रहा है। ऐसा भली-भाँति चिन्तन करके उस समय में परमेश्वर शूकर के शरभ महान बलवान देव महादेव से कहा था- हे महादेव! आप मुझे परित्याग कर दो। मैं बिना किसी संशय के इस शरीर का त्याग करूँगा । यह मेरे शरीर का ज्ञात समस्त जगतों के और देवों के तथा ऋत्विजों के हित के सम्पादन करने के ही लिए हैं । देह के प्रतीकों के समूहों से यज्ञ का यूप प्रकल्पित करके, हे महाभागे ! पृथक-पृथक शामित्र के सहित स्रुवा आदि की कल्पना की है ।

इसके अनन्तर तीन पुत्रों के द्वारा वे उनका जगतों के हित के लिए निबंध करें। इस जगत से परिपूर्ण को सुवृत्त, घोर और कनक से रक्षा करो। यज्ञ से देव और प्रजा, यज्ञ से अन्य नियोगी यह सभी कुछ यज्ञ से ही सदा होने वाला है। यह सब जगत यज्ञों से परिपूर्ण है । मालिनी पृथ्वी पुनः जिससे इस गर्भ को धारण किया था वह देवी स्वयं उस समुत्पन्न पुत्र का भली-भाँति रक्षण करेगी। जिस समय में काल प्राप्त होता है उसी समय में देवी आयुष्मान बोलती है । उसके वध के विषय में जब काम से अत्यन्त आर्त्त होती है तभी इसका वध करेगी। जिस समय में भग्न हुई भारती पृथ्वी को नीचे की ओर होगी तभी भृंगी वाराह के रूप से उसी समय मैं उसका उद्धार करूँगा । तब आपका पुत्र अपने शरीर को कृतकृत्य अर्थात् सफल समझकर उसका त्याग कर देगा । इस प्रकार से यज्ञ वाराह के कहे जाने पर जो कि बलवान थे एक महान तेज जो ज्वालाओं की महामालाओं से दीप्त था, महाकाल था वह तेज करोड़ों सूर्यों के समान देदीप्यमान था और महान अद्भुत था। वह उस समय में वाराह के शरीर से निकलकर भगवान हरि के शरीर में प्रवेश कर गया था । हे द्विजो ! उन भगवान विष्णु में वाराह के तेज से प्रविष्ट होने पर फिर भगवान हरि ने सुवृत्त, कनक और घोर से तेज से प्रविष्ट होने पर फिर भगवान हरि ने सुवृत्त, कनक और घोर से तेज को स्वयं ही आदान कर लिया था। उनके शरीर में भी तेज का भाग अलग-अलग निकलकर ज्वालाओं की माला से अत्यधिक दीप्त हो गया । वह भगवान हरि के शरीर में प्रवेश कर गया था जैसे उनका पिता को ठीक वैसे ही प्रविष्ट हो गया था । इसके अनन्तर भगवान हरि, ब्रह्मा और महादेव वराह के उस वचन की प्रतिज्ञा करके और बार-बार ओमयह कहा था । ओम्यह स्वीकृति के लिए प्रयुक्त होता है । उनके शरीर के परित्याग करने में उत्तम यत्न किया था । उसके उपरान्त शरभ के तुण्ड के प्रहारों से कुछ के मध्य में वाराह से शरीर का भेदन करके उसे जल में गिरा दिया था। उसका प्रथम पतन करके उसी भाँति सुवृत्त, कनक और घोर को कण्ठ भाग में भेदन कर-करके हनन कर दिया था ।

प्राणों के परित्याग कर देने वाले वे सब महार्णव के जल में गिर गये थे । जल में पात करने के अवसर में घोर ध्वनि का विस्तार करते हुए कालानल के समय कान्ति वाले हो गये थे । वाराहों के पतित हो जाने पर ब्रह्मा, विष्णु तथा हर फिर समागत होकर सृष्टि की रचना करने के लिए चिन्तन करने लगे थे। उस अवसर पर हर के समस्त गण भर्ग के समीप में समागत हो गये थे । वे महाभाग चार भागों में विभाजित होकर उपस्थित हुए थे । हे द्विज सत्तमों! वे प्रथम छत्तीस सहस्त्र थे । वहाँ पर एक भाग में सोलह सहस्त्र संस्थित हुए थे । जो निश्चित रूप से अनेक स्वरूपों के धारण करने वाले थे । वे जटा जूटों में चन्द्रमा के अर्धभाग के द्वारा विभूषित थे । वे सभी सम्पूर्ण ऐश्वर्य से समन्वित थे और ध्यान में तत्पर हो रहे थे । वे सब योगी थे तथा पद, मात्सर्य, दम्भ और अहंकार से रहित थे । उनके समस्त पाप क्षीण हो गये थे और महान भाग वाले भगवान शम्भू के अत्यधिक प्रीति के करने वाले थे । उन्होंने परिग्रह रोग की कभी भी आकांक्षा नहीं की थी। वे सभी संसार से विमुख थे और योग से तत्पर योगी थे ।

ध्यान की अवस्था में विराजमान् इन भगवान् महादेव को परिवारित करके धृत व्रत थे । वे रुचि से एक परिषद का निर्माण करके क्लम से रहित होते हुए स्थित थे । जिस समय में ही अम्बिका देवी के स्वामी परमज्योति का चिन्तन किया करते हैं उसी समय में वे समस्त उनको वेष्टित कर लिया करते हैं। जो यति व्रत वाले थे वे सोलह करोड़ कहे गऐ हैं। वे सब सिंह और व्याघ्र आदि के समान रूप वाले और अणिमा आदि सिद्धियों के द्वारा संयुत थे। अन्य कामुक शम्भु के सचिव अर्थात् प्रणय विधान के मन्त्री थे । भगवान् हर के ही समान रूप से वे वृषभध्वज विशद हो रहे थे तथा वे उमादेवी के तुल्य सुन्दर स्वरूप वाले प्रमदाओं से समागत थी । विचित्र माल्यों के आवरणों से युक्त थीं तथा हिमस्त्र की गन्ध से मण्डित थीं । उमा देवी की सहायता से संयुत और क्रीड़ा करते हुए भगवान शम्भु के पीछे भूषित होती हुई अनुगमन कर रही थीं। शृंगार और वेष के आभरण वाले वे आठ करोड़ गण थे । उनमें अन्य अर्ध नारीश्वर थे जो हर के समीप थे ।

भगवान शंकर ने ही सदृश रूप वाले ध्यान में संस्थित में प्रवेश कर गये थे जिस समय में उमादेवी के साथ भगवान हर सुख के सहित रमण किया करते थे। वे द्वारपाल भी अर्ध नारीश्वर हैं जो नित्य ही आकाश के मार्ग के द्वारा गमन करते हुए उनके पीछे ही अनुगमन किया करते हैं । ध्यान में संस्थित करने वाले ईश्वर का सलिल आदि के द्वारा परिचर्या किया करते हैं । अनेक शास्त्रों के धारण करने वाले शम्भु भगवान के वे गण प्रमथ किया करते हैं। वह महान बलवान शूर संख्या में नौ करोड़ थे। दूसरे गायन करने वाले थे जो ताल मृदंग आदि के द्वारा वादन किया करते हैं तथा नृत्य करते हैं और मधुर स्वर में गाते हैं । वे अनेक रूपों के धारण करने वाले वे संख्या में तीन करोड़ थे । वे निरन्तर विचरण करने वाले महेश्वर भगवान के पीछे गमन किया करते हैं । वे सभी मायावी, शूर थे और सब शास्त्रों के अर्थ के पारगामी ज्ञाता थे । सब जगह सभी कुछ के ज्ञान रखने वाले और सभी सर्वत्र सदा गमन करने वाले थे ।

वे सब मूहूर्त मात्र में सम्पूर्ण भुवन में जाकर फिर गति के द्वारा पुनः भव को प्राप्त हो जाया करते थे । वे सब महान बल से युक्त थे तथा अणिमा महिमा आदि आठों प्रकार के ऐश्वर्यों से समन्वित थे । दूसरे रुद्र नामों वाले जरा और अर्धचन्द्र से मण्डित थे । वे देवेन्द्र के आदेश से सदा ही स्वर्ग में रहा करते हैं। उनकी संख्या एक करोड़ थी और वे सब विशेष बलवान थे। वे सदा ही हर के गण भगवान शम्भू की सेवा किया करते हैं तथा जो धर्मिष्ठ हैं अर्थात धर्म का समादर करने वाले हैं उनका पालन किया करते हैं। जो पाशुपत व्रत के धारण करने वाले हैं उनके ऊपर निरन्तर अनुग्रह किया करते हैं । जो प्रयत आत्माओं वाले योगीजन हैं उनके विघ्नों का निरन्तर हनन किया करते हैं। ये भगवान हर के गण जो कि समस्त संख्या में छत्तीस करोड़ थे । ये गण वाराह के गणों के नाश करने के लिए तथा समस्त जगतों के हित सम्पादन करने के लिए और भगवान शंकर की सेवा के लिए समुत्पन्न हुए थे । वाराह के गणों को देखकर तथा नसिंह हरि को अवलोकित करके स्वयं शरभ के स्वरूप वाला होता हुआ और ध्यान करते हुए उस समय में नाद किया था ।

उनके सीकरों से (जल कणों से) जो उत्पन्न हुए थे इसी कारण से उनके स्वरूप भी बहुत थे। क्रूर दृष्टि से, क्रूर गति से, क्रूर युद्धों से, क्रूर कृत्यों से वाराह के इन गणों का हनन करने वाले थे क्योंकि भगवान कपर्दी (शिव) ने कहा है । अतएव वे क्रूर कर्मों के करने वाले और भयंकर समुत्पन्न हुए थे । वे महान ओज वाले सदा क्रूर हैं।वे कर्मों को नहीं किया करते हैं। दृष्टिमात्र से ही वे क्रूर हैं वे कार्यों से क्रूर नहीं थे । वे फल, पुष्प, जल, पाक तथा मूल को भोग करते हैं। वनों पर्वतों की शिखरों में फलादि जो निवेदित किये जाते हैं उनका ग्रहण करते हैं और आहरण करने के जो पत्र पुष्पादिक हैं उनका प्राशन किया करते हैं। भर्ग का जो भोग होता है उसी भोग वाले वे महान ओज वाले भी थे। चैत्र की चतुर्दशी को छोड़कर वे आमिषों का प्राशन नहीं किया करते हैं। फिर सब गण भी वहाँ पर आमिषों का उपभोग किया करते हैं ।

वाराह के गणों के निहत हो जाने पर वे गण मार्ग के समीप में पहुँचकर स्वयं चारों भागों वाले होकर भूतकर्म का गान करते थे । चार भाग वाले में उनका भूतत्व उस समय में हो गया था। जो पूर्व में लोक और वेद में विदित भूतग्राम चार प्रकार का था क्योंकि यह उनसे भी अधिक था। अतएव वह भूतग्राम कहा जाया करता है । यह सब आपको बतला दिया है जिस तरह से शम्भु के गणभूत हैं । वे जो भी आहार वाले हैं, जैसे आकार वाले हैं और जो कृत्य करने वाले हैं वे महान ओज से युक्त हैं। जो इस महान अद्भुत आख्यान का नित्य श्रवण किया करता है वह दीर्घ आयु वाला, सदा उत्साह से सम्पन्न और योग से युक्त होता है ।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे एकत्रिंशत्तमोऽध्यायः॥ ३१ ॥

आगे जारी……….कालिका पुराण अध्याय ३२   

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