कालिका पुराण अध्याय ३० – Kalika Puran Adhyay 30

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कालिका पुराण अध्याय ३० में शंकर वाराह संवाद का वर्णन है।

कालिका पुराण अध्याय ३०

ऋषियों ने कहा- जो भगवान शम्भु के द्वारा पूर्व में चार प्रकार के भूत ग्राम सृष्ट किये थे अर्थात जो चार तरह के भूत ग्रामों का पूर्व में सृजन किया था वे किस प्रयोजन की सिद्धि के लिए समुत्पन्न हुए थे और किस तरह से उनको अनेकरूपता हुई थी ? उनका आधा शरीर तो वाराह का है और आधा दन्ताबल है । कुछ-कुछ गणों के अवयव तो सिंह, व्याघ्र के शरीर से हुए थे । वे गण किस कारण महान क्रूर थे और महान ओज वाले थे। किन भागों वाले थे यह सब हम लोग श्रवण करने की इच्छा रखते हैं हे द्विजश्रेष्ठ ! हमारी ऐसी ही इच्छा है ।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- हे मुनियों! अब आप लोग श्रवण कीजिये कि जिस रीति से भगवान शम्भु के गण हुए थे और जिसके लिए वे समुत्पन्न हुए थे और जिस कारण से वे एकरूप वाले नहीं थे । यह विषय बहुत ही अधिक गोपनीय है और यह धर्म, अर्थ और काम के प्रदान करने वाला है । यह परम तेज है और निरन्तर परम तप है । इस महान आख्यान का श्रवण करके पुरुष इस लोक में और परलोक में दुःख नहीं प्राप्त किया करता है । यह आख्यान यश देने वाला है, धर्म से युक्त है, आयु की वृद्धि करने वाला है और परम तुष्टि तथा पुष्टि का प्रदान करने वाला है ।

ईश्वर ने कहा- हे विभो ! आपने जिसके वाराह के स्वरूप को कल्पित किया था वह आपने पूर्ण कर दिया है कि आपने इस पृथ्वी को यथावत् स्थापित कर दिया है। आपके ही प्रसाद से सब सागरों का संस्थान और नदियों का तथा क्षिति का संस्थान हुआ था और ब्रह्मा के द्वारा की हुई सृष्टि भी उत्पन्न हुई थी । आप सबसे परिपूर्ण हैं, यज्ञमय हैं तथा तेज से परिपूर्ण हैं आप समस्त गुरुओं के भी गुरु हैं तथा आप पर से भी पर हैं । हे जगत्पते! विकीर्ण हुई पृथ्वी आपको वहन करने में समर्थ नहीं है । पहले आपके द्वारा स्थापित शैलों के संघातों से यन्त्रित यह पृथ्वी है । उस कारण से हे जगतों के स्वामिन्! इस वाराह के शरीर को त्याग दीजिए। यह जगत से परिपूर्ण, जगत् के रूप वाले और जगत के कारणों का भी कारण है । हे विभो ! आपके वाराह के शरीर को धारण करने में अन्य कौन समर्थ हो सकता है ? विशेष रूप से आपके द्वारा ही यह सकाम पृथ्वी जल में घर्षित हुई है । यह स्त्री के रूप वाली ने आपके तेजों से दारुण गर्भ को धारण किया था। हे जगत्पते! रजस्वला इसमें समर्थ होती हुई जिसने गर्भ को धारण किया था । उससे जो समय होने वाला है यह भी दुर्यश का आदान करेगा । यह असुरों के भाव को प्राप्त करते ही देवों और गन्धर्वों की हिंसा करने वाला होगा । यह लोकेश ने मुझसे दक्ष की सन्निधि में कहा था । मालिन के साथ रति से समुत्पन्न यह आपका अनिष्ट करने वाला दुष्ट है । हे लोकेश ! इस वाराह के कामुक स्वरूप का आप त्याग कर दीजिए। आप ही लोकों के भावन करने वाले हैं और सृष्टि, स्थिति और संहार के करने वाले हैं । हे महाबलवान आप लोकों के हित के सम्पादन करने के लिए इस शरीर को त्याग करके पुनः समय के सम्प्राप्त होने पर अन्य काम को पौत्र करेंगे ।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा – महान आत्मा वाले भगवान् शंकर के इस वचन का श्रवण करके वाराह की मूर्ति को धारण करने वाले भगवान महादेव जी से कहा ।

श्री भगवान ने कहा- हे परमेश्वर ! जैसा आप कह रहे हैं उस वचन का मैं पूर्णतया पालन करूँगा और इस यज्ञ वाराह के शरीर का मैं त्याग कर दूँगा। उसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है। समय के प्राप्त हो जाने पर फिर अन्य उत्तम वाराह के रूप को धारण करूँगा जो अत्यन्त दुराधर्य है और लोकों के पावन करने के लिए हैं ।

इतना कहकर महान कार्य वाले वे वहाँ पर ही अन्तर्धान हो गए थे जो इस जगत के गुरु हैं और इस जगत के सृजन करने वाले हैं जो जगत् के धाता हैं और जगत् के स्वामी हैं । उन देव के अन्तर्धान हो जाने पर देवों के देव महेश्वर प्रभु देवगणों के तथा अपने गणों के साथ- ही अपने स्थान को गमन कर गये थे । भगवान वाराह भी लोकालोक नामक पर्वत पर स्वयं चले गये थे और वहाँ पर वे अपनी पत्नी वाराही के साथ रमण करने लग गये थे जो कि परमसुन्दर स्वरूप वाली पृथ्वी थी। वह उस उत्तम पर्वत में बहुत लम्बे समय तक रमण करते हुए वह लोकेशपौत्री और परमाधिक कामुक तोष को प्राप्त नहीं हुए थे अर्थात् रमण करने पर भी उनको संतोष नहीं हुआ था। पौत्री के स्वरूप वाली पृथ्वी के साथ रमण किए जाने वाले से तीन पुत्र समुत्पन्न हुए थे । हे द्विजोत्तमो ! आप अब उनके नामों को भी श्रवण करिए। वे सुवृत्त, कनक और घोर नामों वाले थे जो कि सभी महान बल से समन्वित थे । वे शिशु ही सुवर्ण के मेरु पर्वत के पृष्ठ पर व प्रस्तर में, गह्वरों में और सरोवरों में परस्पर में संसक्त हुए रमण करते थे ।

हे द्विजो! वह वाराह उन पुत्रों से परिवृत्त अपनी भार्या के साथ रमण करने वाले थे और उस समय में उन्होंने शरीर के त्याग करने का कुछ भी ध्यान नहीं किया था। किसी समय में महान बलवान् वह कर्दमों अन्तर में शिशुओं के साथ संश्लिष्ट होकर भार्या के साथ कर्दम क्रीड़ा किया करता था । कीच के लेप से संयुत मधु पिंगल वराह शोभित हुए थे। जिस प्रकार से सन्ध्या का मेघ जल का क्षरण किया करता है उसी भाँति वह भी जल का क्षरण करने वाले थे । वह पुत्रों के सहित और पृथ्वी भार्या के साथ परम प्रीत और वह मध्य में निम्न हो गये थे । सुवृत्त ने और घोर तथा कनक ने सुवर्ण के व प्रपोत्र पातों से विदारित कर दिया था । मेरु पर्वत के पृष्ठ भाग पर सुरों के द्वारा जो भी सुवर्ण द्वारा रचित हुए थे उसके पुत्रों ने यत्नपूर्वक उनको भग्न कर दिया था ।

मानस आदि तो देवों के सरोवर थे उस समय में उसके पुत्रों ने अर्थात् शिशुओं के पौत्र धात्रों से सब ओर आविल अर्थात् यतिन कर दिए थे। वनिता के स्वरूप वाली पृथ्वी ने पौत्रिण से रमण किया और स्थावर रूप से सुदृढ़ सुख को प्राप्त किया करती हैं । सुवृत्त आदि के द्वारा सभी ओर सागरों का अवगाहन करके पत्रौद्यों के द्वारा विकीर्ण रत्न वाले सब ही आकुलकृत हो गये थे । उस समय में इधर-उधर क्रीड़ा करने वाले पौत्री शिशुओं के द्वारा वहाँ पर जगतों को तथा नदियों को और कल्प द्रुमों को भग्न कर दिया था । जगत के भरण करने वाले वाराह ने स्वयं ही जगत् की पीड़ा को जानते हुए भी सुतों के स्नेह से उनका निवारण नहीं किया था। सुवृत्त कनक और घोर जब दिव्यलोक में आगमन करते हैं उस अवसर पर देवों का समुदाय परमभीत होकर दशों दिशाओं में भाग जाया करते हैं। इस प्रकार से अपने पुत्रों के तथा भार्या के साथ जो यज्ञ पौत्री था वह क्रीड़ा करता हुआ भी किसी भी समय में कोई तुष्टि के प्राप्त करने वाले नहीं हुए थे अर्थात् उनको सन्तोष नहीं हुआ था । नित्य नित्य ही उनकी कामवासना बढ़ती ही जाती है और ऐसा प्रदिष्ट हो गये थे कि वह अपने शरीर का त्याग करने की इच्छा नहीं किया करते हैं ।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे त्रिंशत्तमोऽध्यायः॥ ३० ॥

आगे जारी……….कालिका पुराण अध्याय 31

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