कालिका पुराण || Kalika Puran

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अठारह महापुराणों के अतिरिक्त जिन उपपुराणों की गणना की जाती है, उन्हीं में से एक कालिका पुराण भी है। पुराण भारत तथा भारतीय संस्कृति की सर्वोत्तम निधि हैं । ये अनन्त ज्ञान – राशि के भण्डार हैं। इनमें इहलौकिक सुख-शान्ति से युक्त सफल जीवन के साथ-साथ मानवमात्र के वास्तविक लक्ष्य-परमात्मतत्त्व की प्राप्ति तथा जन्म मरण से मुक्त होने का उपाय और विविध साधन बड़े ही रोचक, सत्य और शिक्षाप्रद कथाओं के रूप में उपलब्ध हैं । इसी कारण पुराणों को अत्यधिक महत्त्व और लोकप्रियता प्राप्त है, परंतु आज ये अनेक कारणों से दुर्लभ होते जा रहे हैं ।

कालिका पुराण की महिमा

जो एक बार भी इस कालिका पुराण का पाठ करता है वह सभी कामनाओं को प्राप्त करके अमृतत्व अर्थात् देवत्य को प्राप्त किया करता है । जिससे मन्दिर में यह लिखा हुआ उत्तम पुराण सदा स्थित रहता है, हे द्विजो ! उसको कभी विघ्न नहीं होता जो पुराण सदा स्थित रहता है, हे द्विजो ! उसको कभी विघ्न नहीं होता। जो प्रतिदिन इसका गोपनीय अध्ययन करता है जो कि यह परम तन्त्र है । हे द्विज श्रेष्ठों! उसने यहाँ पर ही सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन कर लिया है। इस कारण से इससे अधिक अन्य कुछ भी नहीं है । विलक्षण पुरुष इसके अध्ययन से कृतकृत्य हो जाता है ।

इसके अध्ययन तथा श्रवण करने वाला पुरुष परम सुखी तथा लोक में बलवान् और दीर्घ आयु वाली भी हो जाता है । जो निरन्तर लोक का पालन करता है और अन्त में विनाश करने वाला है । यह सम्पूर्ण भ्रम या अभ्रम से युक्त है मेरा ही स्वरूप है, अतएव उसके लिए नमस्कार है । योगियों के हृदय में जिसका प्रपञ्च प्रधान पुरुष है, जो पुराणों के अधिपति भगवान् विष्णु और वह भगवान् शिव आप सबके ऊपर प्रसन्न हों। जो उग्र हेतु है, पुराण पुरुष है, जो शाश्वत तथा सनातन रूप ईश्वर है, जो पुराणों का करने वाला और वेदों तथा पुराणों के द्वारा जानने के योग्य है उस पुराण शेष के लिए मैं स्तवन करता हूँ और अभिवादन करता हूँ। जो इस प्रकार से समस्त जगत् का विशेष रूप से स्मरण किया करती है, जो मधुरिपु को भी मोह कर देने वाली हैं, जिसका स्वरूप रमा है और शिवा के स्वरूप से जो भगवान् शंकर का रमण कराया करती है माया आपके विभव को और शुभों को वितरित करे ।

श्री काली के सम्बन्ध में

मार्कण्डेय पुराण के सप्तशती खण्ड में जिन काली देवी का वर्णन है अथवा जिनका जन्म अम्बिका के ललाट से हुआ है वे काली श्री दुर्गा जी के स्वरूपों में से ही एक स्वरूप है तथा आद्या महाकाली से सर्वथा भिन्न है । भगवती आद्या काली अथवा दक्षिणा काली अनादिरूपा सारे चराचर की स्वामिनी हैं जबकि पौराणिक काली तमोगुण की स्वामिनी हैं। दक्षिण दिशा में रहने वाला अर्थात् सूर्य का पुत्र यम काली का नाम सुनते ही डरकर भाग जाता है तथा काली उपासकों को नरक में ले जाने की सामर्थ्य उसमें नहीं है इसलिए श्री काली को दक्षिणा काली और दक्षिण कालिकाभी कहा जाता है । दस महाविद्याओं में काली सर्वप्रधान हैं । अतः इन्हें महाविद्या भी कहा जाता है । वही स्त्रीरूपी वामादक्षिणपर विजय पाकर मोक्ष प्रदायिनी बनी । इसलिए उन्हें तीनों लोकों में दक्षिणा कहा जाता है ।

श्री काली की उपासना से समस्त विघ्न उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार प्रज्जवलित अग्नि में सभी पतंगे भस्म हो जाते हैं । कालिका पुराण का पाठ करनेवाले साधक की वाणी गंगा के प्रवाह की भाँति गद्य-पद्यमयी हो जाती है और उसके दर्शन मात्र से ही प्रतिवादी लोग निष्प्रभ हो जाते हैं। उसके हाथ में सभी सिद्धियाँ बनी रहती हैं इसमें संदेह नहीं है । मार्गशीर्ष मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी कालाष्टमी होती है जो उपासक इन दिन काली की सन्निधि में उपवास कर जागरण करते हैं, वे सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं । सात अँगुल से लेकर बारह अँगुल तक की प्रतिमा घर पर रखने का शास्त्रों का मत है । किन्तु इससे अधिक परिमाण की मूर्ति मन्दिर के लिए उत्तम कही गई है ।

काली देवी की प्रतिष्ठा माघ और आश्विन मास में उत्तम तथा समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली होती है। इन मासों में भी विशेष रूप से कृष्ण पक्ष में प्रतिष्ठा करना श्रेष्ठ माना गया है ।

श्री काली का स्वरूप

काली देवी का वर्णश्याम है जिसमें सभी रंग सन्निहित हैं। भक्तों के विकार – शून्य हृदयरूपी शमशान में उनका निवास है । भगवती चित्तशक्ति में समाहिम प्राणशक्तिरूपी शव के आसन पर स्थित हैं । उनके ललाट पर अमृततत्व बोधक चन्द्रमा है और वे त्रिगुणातीत निर्विकार केशिनी हैं । सूर्य, चन्द्र और अग्नि ये तीनों उनके नेत्र हैं जिनसे वे तीनों कालों को देखती हैं । वे सतोगुण रूपी उज्ज्वल दाँतों से रजोगुण तमोगुण रूपी जीभ को दबाये हुए हैं। सारे संसार का पालन करने में सक्षम होने के कारण वे उन्नत पीनपयोधरा हैं । वे पचास मातृका अक्षरों की माला धारण करती हैं। तथा मायारूपी आवरण से मुक्त हैं तथा सभी जीव मोक्ष न होने तक उनके आश्रित रहते हैं ।

वे निष्काम भक्तों के मायारूपी पाश को ज्ञानरूपी तलवार से काट देती हैं। वे कालरूपी शक्ति को वास्तविक शक्ति देने वाली विराट् भगवती हैं ।

इसके अतिरिक्त रक्तबीजमर्दिनी श्री काली का स्वरूप वर्णन इस प्रकार है-

सम्पूर्ण विकराल देह चमकते हुए काले रंग की है । उनकी बड़ी-बड़ी डरावनी आँखें और मुख से जीभ को बाहर निकाले हुए हैं, जो गहरे लाल रंग की है। वह नरमुण्डों की माला तथा कटे हुए हाथों का आसन धारण किए हुए हैं । उनके एक हाथ में खड्ग, दूसरे में त्रिशूल, तीसरे में खप्पर तथा चौथे हाथ में भक्तों को आशीर्वाद प्रदान करती हैं ।

काली की महिमा

देवी वरदान देने में बहुत चतुर हैं इसलिए उन्हें दक्षिणा कहा जाता है ।

• जिस प्रकार कार्य की समाप्ति पर दक्षिणा फल देने वाली होती है उसी प्रकार देवी भी सभी फलों की सिद्धि को देती हैं ।

दक्षिणामूर्ति भैरव ने उनकी सर्वप्रथम पूजा की इस कारण भी भगवती का नाम दक्षिणाकाली है ।

पुरुष को दक्षिण और शक्ति को वामाकहा जाता है। वही वामा दक्षिण पर विजय पाकर महामोक्ष देने वाली बनी ।

• भगवती काली अनादिरूपा आद्या विद्या हैं । हे ब्रह्मस्वरुपिणी एवं कैवल्यदात्री हैं ।

पाँचों तत्वों तक शक्ति तारा की स्थिति है और सबके अन्त में काली ही स्थित हैं । अर्थात् जब महाप्रलय में आकाश का भी लय हो जाता है । तब यही भगवती काली चित्तशक्ति के रूप में विद्यमान रहती हैं ।

इन्हीं भगवती की वेद में भद्रकाली के रूप में स्तुति की गई हैं । ये अजन्मा और निराकार स्वरूपा हैं । भावुक आराधक अपनी भावनाओं तथा देवी के गुण कर्मों के अनुरूप उनके काल्पनिक साकार रूप की स्तुति करते हैं। अपने ऐसे भक्तों को भगवती काली मुक्ति प्रदान करती हैं।

• भगवती काली अपने उपासकों पर स्नेह रखने वाली तथा उनका कल्याण करने वाली हैं ।

इस प्रकार भगवती की दक्षिणाकाली के नाम से अनेकानेक उपलब्धियाँ हैं। जिस भक्त को जो भी उपलब्धि हो, या जो भी सिद्धि चाहे उसे उसी रूप में महाकाली को स्वीकार करना चाहिए।

आगे जारी……….कालिका पुराण अध्याय १

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