कल्याणमन्दिरस्तोत्र || Kalyan Mandir Stotra

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जो भव्यजन सावधानबुद्धि से युक्त हो श्रीपार्श्वनाथ स्तोत्र अथवा कल्याण मन्दिर स्तोत्र का पाठ करते हैं वे सब सुखों को भोगकर कर्मरूपी मल-समूह से रहित हो शीघ्र ही (मोक्ष) मुक्ति को पाते हैं।

श्रीपार्श्वनाथस्तोत्र अथवा कल्याण मन्दिर स्तोत्र

( वसन्ततिलका छन्द)

कल्याणमन्दिरमुदारमवद्यभेदि

भीताभयप्रदमनिन्दितमङ्घ्रिपद्मम् ।

संसारसागरनिमजदशेषजन्तु

पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१॥

यस्य स्वयं सुरगुरुगरिमाम्बुराशेः

स्तोत्रं सुविस्तृतमतिर्न विभुर्विधातुम् ।

तीर्थेश्वरस्य कमठस्मयधूमकेतो

स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करिष्ये ॥२॥युग्मम्॥

कल्याणों के मन्दिर, उदार, पापों को नष्ट करनेवाले, संसार से डरे हुए जीवों को अभयपद देनेवाले, प्रशंसनीय और संसाररूपी समुद्र में डूबते हुए समस्त जीवों के लिये जहाज के समान जिनेन्द्र भगवान्के चरणकमल को नमस्कार करके मैं उन पार्श्वनाथस्वामी की स्तुति करता हूँ, जो गौरव के समुद्रस्वरूप और कमठ का मान-मर्दन करनेवाले हैं। जिनकी स्तुति करने के लिये स्वयं विस्तृत बुद्धिवाले बृहस्पति भी समर्थ नहीं है ॥१-२।।

सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप

मस्मादृशाः कथमधीश ! भवन्त्यधीशाः ।।

धृष्टोऽपि कौशिकशिशुयदि वा दिवान्धो

रूपं प्ररूपयति किं किल धर्मरश्मेः ॥३॥

भावार्थ- हे प्रभो! जिस तरह उलूक का बालक सूर्य के रूप का वर्णन नहीं कर सकता, क्योंकि जब तक सूर्य रहता है, तब तक वह अन्धा रहता है, इसी तरह मैं आपके सामान्य स्वरूप का भी वर्णन नहीं कर सकता हूँ, क्योंकि मैं भी मिथ्याज्ञानरूपी अन्धकार से अन्धा होकर आपके दर्शन से वञ्चित रहा हूँ॥३॥

मोहक्षयादनु-भवन्नपि नाथ मत्र्यो

नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत।

कल्पान्तवान्तपयस: प्रकटोऽपि यस्मान्

मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशि: ॥४॥

भावार्थ-हे नाथ ! जिस तरह प्रलयकाल में पानी न होने से साफ-साफ दिखनेवाले समुद्र के रत्नों को कोई नहीं गिन पाता, उसी तरह मिथ्यात्व के अभाव से साफ़-साफ़ दिखनेवाले आपके गुणों को कोई नहीं गिन सकता । क्योंकि वे अनन्तानन्त हैं।॥ ४॥

अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ ! जडाशयोऽपि

कर्तुं स्तवं लसदसंख्यगुणाकरस्य।

बालोऽपि किं न निजबाहुयुगं वितत्य

विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशे: ॥५॥

भावार्थ- हे स्वामिन् ! जैसे बालक शक्ति न रहते हुए भी समुद्र का विस्तार वर्णन करने के लिये तैयार रहता है, वैसे ही मैं भी आपकी स्तुति करने के लिये तैयार हूँ ॥५॥

ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश !

वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः ।

जाता तदेवमसमीक्षितकारितेयं

जल्पन्ति वा निजगिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६॥

भावार्थ-हे प्रभो! आपका स्तवन प्रारम्भ करने के पहले मैंने इस बात का विचार नहीं किया कि आपके जिन गुणों का वर्णन बड़े-बड़े योगी भी नहीं कर सकते हैं, उनका वर्णन मैं कैसे करूँगा ? इसलिये हमारी यह प्रवृत्ति विना विचारे हुई है ॥६॥

आस्तामचिन्त्यमहिमा जिन! संस्तवस्ते

नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति।

तीव्रातपोपहतपान्थजनान्निदाघे

प्रीणाति पद्मसरस: सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥

भावार्थ- हे देव ! आपके स्तवन को तो अचिन्त्य महिमा है ही, पर आपका नाममात्र भी जीवों को संसार के दुखों से बचा लेता है। जैसे ग्रीष्मऋतु में घाम से पीड़ित मनुष्यों को, कमलयुक्त सरोवर तो सुख पहुँचाते ही हैं, पर उन सरोवरों की शीतल हवा भी सुख पहुँचाती है ॥७॥

हृद्वर्तिनि त्वयि विभो शिथिलीभवन्ति

जन्तो: क्षणेन निबिडा अपि कर्मबन्धा:।

सद्यो भुजङ्गममया इव मध्यभाग-

मभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य ॥८॥

भावार्थ-हे भगवन् ! जिस तरह मयूर के आते ही चन्दन के वृक्ष में लिपटे हुए साँप ढीले पड़ जाते हैं, उसी तरह जीवों के हृदय में आपके आने पर उनके कर्मबन्धन ढीले पड़ जाते हैं ॥८॥

मुच्यन्त एव मनुजा: सहसा जिनेन्द्र !

रौद्रैरुपद्रवशतैस्त्वयि वीक्षितेऽपि।

गोस्वामिनि स्फुरिततेजसि दृष्टमात्रे

चौरैरिवाशु पशव: प्रपलायमानै: ॥९ ॥

भावार्थ- हे नाथ ! जिस तरह तेजस्वी राजा के दिखते ही चोर चुराई हुई गायों को छोड़कर शीघ्र ही भाग जाते हैं, उसी तरह आपके दर्शन होते ही अनेक भयङ्कर उपद्रव मनुष्यों को छोड़कर भाग जाते हैं ॥ ९॥

त्वं तारको जिन ! कथं भविनां त एव

त्वामुद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्त:।

यद्वा दृतिस्तरति यज्जलमेष नून-

मन्तर्गतस्य मरुत: स किलानुभाव: ॥१०॥

भावार्थ- हे जिनेन्द्रदेव ! जिस तरह भीतर भरी हुई वायु के प्रभाव से मसक पानी में तैरती है, उसी तरह आपको हृदय में धारण करनेवाले (मन से आपका चिन्तबन करनेवाले) पुरुष आपके ही प्रभाव से संसार-समुद्र से तैरते हैं ॥१०॥

यस्मिन् हर-प्रभृतयोऽपि हतप्रभावा:

सोऽपि त्वया रतिपति: क्षपित: क्षणेन।

विध्यापिता हुतभुज: पयसाथ येन

पीतं न किं तदपि दुद्र्धरवाडवेन ॥११॥

भावार्थ-जिस काम ने हरि हर ब्रह्मा आदि महापुरुषों को पराजित कर दिया था, उस काम को भी आपने पराजित कर दिया यह आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि जो जल संसार की समस्त अग्नि को नष्ट करता है, उस जल को भी बड़वानल नामक समुद्र की अग्नि नष्ट कर डालती है ॥११॥

स्वामिन्ननल्पगरिमाणमपि प्रपन्नास्-

त्वां जन्तव: कथमहो हृदये दधाना:।

जन्मोदधिं लघु तरन्त्यतिलाघवेन

चिन्त्यो न हन्त महतां यदि वा प्रभाव:॥ १२॥

भावार्थ-हे स्वामिन् ! आश्चर्य है कि अधिक गौरव से युक्त, अत्यन्त वजनदार आपको हृदय में धारण करनेवाले प्राणी संसार-समुद्र को बहुत ही लघुता से कैसे शीघ्र तर जाते हैं। अथवा हर्ष है कि महापुरुषों का प्रभाव चिन्तवन के योग्य नहीं होता है।

श्लोक में आये हुए ‘अनल्पगरिमाणम्’ पद के ‘अधिक वजनदार’ और ‘अत्यन्त गौरव से युक्त श्रेष्ठ’ इस तरह दो अर्थ होते हैं। उनमें से आचार्य ने प्रथम अर्थ को लेकर विरोध बतलाते हुए आश्चर्य प्रकट किया है, और दूसरे अर्थ को लेकर उस विरोध का परिहार किया है ॥१२॥

क्रोधस्त्वया यदि विभो ! प्रथमं निरस्तो-

ध्वस्तास्तदा वद कथं किल कर्मचौरा:।

प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशिरापि लोके

नीलद्रुमाणि विपिनानि न किं हिमानी ॥१३॥

भावार्थ-लोक में ऐसा देखा जाता है कि क्रोधी मनुष्य ही शत्रुओं को जीतते हैं, पर भगवन् ! आपने क्रोध को तो नवमें गुणस्थान में ही जीत लिया था । फिर क्रोध के अभाव में चौदहवें गुणस्थान तक कर्मरूपी शत्रुओं को कैसे जीता ? आचार्य ने इस लोकविरुद्ध बात पर पहले आश्चर्य प्रगट किया, पर जब बाद में उन्हें ख्याल आता है कि ठण्डा तुषार बड़े-बड़े वनों को क्षणभर में जला देता है, अर्थात् क्षमा से भी शत्रु जीते जा सकते हैं, तब वे अपने आश्चर्य का स्वयं समाधान कर लेते हैं ॥१३।।

त्वां योगिनो जिन ! सदा परमात्मरूप

मन्वेषयन्ति हृदयाम्बुजकोशदेशे।

पूतस्य निर्मल-रुचे-र्यदि वा किमन्य

दक्षस्य सम्भवपदं ननु कर्णिकाया:॥१४॥

भावार्थ-बड़े बड़े योगीश्वर ध्यान करते समय अपने हृदयकमल में आपको खोजते हैं, क्योंकि वे समझते हैं कि जैसे कमलबीज की उत्पत्ति कमल कर्णिका में ही होती है, उसी तरह शुद्धात्मस्वरूप आपका सद्भाव भी हृदय-कमल की कर्णिका में ही होगा। श्लोक में आये हुए अक्ष शब्द के ‘कमलबीज-कमलगटा’ और आत्मा (अक्षणाति-जानातीत्यक्षः=आत्मा) इस तरह दो अर्थ होते हैं ॥१४॥

ध्यानाज्जिनेश ! भवतो भविन: क्षणेन

देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति।

तीव्रानलादुपलभावमपास्य लोके

चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदा: ॥ १५॥

भावार्थ- हे जिनेन्द्र ! जिस प्रकार तीव्र अग्नि के सम्बन्ध से अनेक धातुएँ पत्थररूप पूर्व पर्याय को छोड़कर शीघ्र ही जिस तरह सुवर्ण पर्याय को प्राप्त हो जाती हैं, उसी तरह संसार के प्राणी आपके ध्यान से शरीर को छोड़कर क्षणभर में परमात्मा की अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं (अर्थात् वे थोड़े ही समय में शरीर छोड़कर मुक्त हो जाते हैं ॥१५॥

अन्त: सदैव जिन ! यस्य विभाव्यसे त्वं

भव्यै: कथं तदपि नाशयसे शरीरम्।

एतत्स्वरूपमथ मध्यविवर्तिनो हि

यद्विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावा:॥ १६॥

भावार्थ-लोक में रीति प्रचलित है कि जो जहाँ रहता है, अथवा जहाँ जिसका ध्यान सम्मान आदि किया जाता है वह उस जगह का विनाश नहीं करता। पर भगवन् ! आप भव्यजीवों के जिस शरीर में हमेशा सन्मान पूर्वक ध्याये जाते हैं, आप उन्हें उसी विग्रह (शरीर) को नष्ट करने का उपदेश देते हैं । आचार्य को पहले इस लोकविरुद्ध बात पर भारी आश्चर्य होता है, पर जब उनकी दृष्टि विग्रह शब्द के द्वेष अर्थ पर जाती है, तब उनका आश्चर्य दूर हो जाता है। श्लोक में आये हुए विग्रह शब्द के दो अर्थ हैं-एक ‘शरीर’ और दूसरा ‘द्वेष’ इसी तरह ‘मध्यविवर्तिनः’ शब्द के भी दो अर्थ हैं-एक ‘बीच में रहनेवाला’ और दूसरा ‘राग द्वेष से रहित समताभावी ॥१६॥

आत्मा मनीषिभिरयं त्वदभेदबुद्ध्या

ध्यातो जिनेन्द्र ! भवतीह भवत्प्रभाव:।

पानीयमप्यमृत-मित्यनुचिन्त्यमानं

किं नाम नो विषविकारमपाकरोति॥ १७॥

भावार्थ-जो पुरुष अपने आपको आपसे अभिन्न अनुभव करता है अर्थात् जो सोचता है कि ‘भगवन् ! जैसी विशुद्ध आत्मा आपकी है, निश्चय नयसे हमारी आत्मा भी वैसी ही विशुद्ध है, किंतु वर्तमान में कर्मोदय से अशुद्ध हो रही है। यदि मैं भी आपके रास्ते पर चलने का प्रयत्न करूं, तो मेरी आत्मा भी शुद्ध हो जावेगी। ऐसा सोचकर जो शुद्ध होने का प्रयत्न करता है, वह आपके ही समान शुद्ध हो जाता है। जैसे कि यह अमृत है, इस प्रकार निरन्तर चिन्तवन किया गया पानी मन्त्रादि के संयोग से अमृतरूप हो जाता है और विष के विकार को दूर करने लगता है॥१७॥

त्वामेव वीततमसं परवादिनोऽपि

नूनं विभो हरिहरादिधिया प्रपन्ना:।

किं काचकामलिभिरीश सितोऽपि शङ्खो

नो गृह्यते विविधवर्णविपर्ययेण ॥१८॥

भावार्थ-हे भगवन् ! जिस तरह आँख पर रंगदार चश्मा अथवा कामला (पीलिया) रोगवाला मनुष्य सफेद शंख को नाना प्रकार से ग्रहण करता है, उसी मिथ्यात्व के उदय से अन्य मतावलम्बी पुरुष आपको ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर आदि, मानकर पूजते हैं ॥ १८ ॥

धर्मोपदेशसमये सविधानुभावा-

दास्तां जनो भवति ते तरुरप्यशोक:।

अभ्युद्गते दिनपतौ समहीरुहोऽपि

किं वा विबोधमुपयाति न जीवलोक:॥ १९॥

भावार्थ-इस श्लोक में अशोक शब्द के दो अर्थ होते हैं एक अशोक वृक्ष और दूसरा शोक रहित । इसी तरह विबोध शब्द के भी दो अर्थ हैं-एक विशेष ज्ञान और दूसरा हरा-भरा तथा प्रफुल्लित होना । हे भगवन् ! जब आपके पास में रहनेवाला वृक्ष भी अशोक हो जाता है, तब आपके पास रहनेवाला मनुष्य अशोक=शोक रहित हो जावे तो इसमें क्या आश्चर्य है? यह ‘अशोकवृक्ष प्रातिहार्य का वर्णन है ॥१९॥

चित्रं विभो ! कथमवाङ्मुखवृन्तमेव

विष्वक्पतत्यविरला सुरपुष्पवृष्टि:।

त्वद्-गोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश!

गच्छन्ति नूनमध एव हि बन्धनानि॥ २०॥

भावार्थ-इस श्लोक में सुमनस् शब्द के दो अर्थ हैं-एक फूल और दूसरा विद्वान् या देव । इसी तरह बन्धन शब्द के भी दो अर्थ है-एक फूलों का बन्धन-डण्ठल और दूसरा कर्मों के प्रकृति आदि चार तरह के बन्ध । हे भगवन् ! जो आपके पास रहता है, उसके कर्मों के बन्धन नीचे चले जाते हैं-नष्ट हो जाते हैं। इसी लिये तो आपके ऊपर जो फूलों की वर्षा होती है, उनमें फूलों के बन्धन नीचे होते हैं और पाँखुरी ऊपर । यह ‘पुष्पवृष्टि’ प्रातिहार्य का वर्णन है ।। २०॥

स्थाने गभीरहृदयोदधिसम्भवाया:

पीयूषतां तव गिर: समुदीरयन्ति।

पीत्वा यत: परमसम्मदसङ्गभाजो

भव्या व्रजन्ति तरसाप्यजरामरत्वम्॥ २१॥

भावार्थ-लोक में प्रचलित है कि अमृत गहरे समुद्र से निकला था और उसका पान करने से देव लोग आनन्दित होते हुए अजर = बुढ़ापा रहित तथा अमर = मृत्यु रहित हो गये थे। भगवन् ! आपकी वाणी भी आपके गंभीर हृदयरूपी समुद्र से पैदा हुई है और उसके सेवन करने से लोक परम सुखी हो अजर अमर हो जाते हैं-मुक्त हो जाते हैं। ऐसी हालत में लोग यदि यह कहें कि आपकी वाणी अमृत है, तो ठीक ही कहते हैं। यह ‘दिव्यध्वनि’ प्रातिहार्य का वर्णन है ॥ २१ ॥

स्वामिन्! सुदूरमवनम्य समुत्पतन्तो

मन्ये वदन्ति शुचय: सुरचामरौघा:।

येऽस्मै नतिं विदधते मुनिपुङ्गवाय

ते नूनमूध्र्वगतय: खलु शुद्धभावा:॥ २२॥

भावार्थ- हे भगवन् ! जब देव लोग आप पर चँवर ढोरते हैं, तब वे चँवर पहले नीचे की ओर झुकते हैं और बाद में ऊपर को जाते हैं, सो मानों लोगों से यह कहते हैं कि भगवान को झुककर नमस्कार करने वाले पुरुष हमारे समान ही ऊपर को जाते हैं, अर्थात् स्वर्ग मोक्ष को पाते हैं । यह ‘चमर’ प्रातिहार्य का वर्णन है ।। २२।।

श्यामं गभीरगिरमुज्ज्वलहेमरत्न-

सिंहासनस्थमिह भव्यशिखण्डिनस्त्वाम्।

आलोकयन्ति रभसेन नदन्तमुच्चैश्-

चामीकराद्रिशिरसीव नवाम्बुवाहम्॥ २३॥

भावार्थ- हे प्रभो ! जिस तरह सुवर्णमय मेरु पर्वत उमड़े हुए गर्जना करनेवाले काले मेघ को देखकर मयूरों को बहुत ही आनन्द होता है, उसी तरह दिव्यध्वनि करते हुए तथा सोने के सिंहासन पर विराजमान श्यामवर्णवाले आपके दर्शनकर भव्यजीवों को अत्यन्त आनन्द होता है। उनका मन मयूर की तरह नाचने लगता है। यह ‘सिंहासन’ प्रातिहार्य का वर्णन है ॥२३॥

उद्गच्छता तव शितिद्युतिमण्डलेन

लुप्तच्छदच्छवि-रशोकतरुर्बभूव ।

सान्निध्यतोऽपि यदि वा तव वीतराग!

नीरागतां व्रजति को न सचेतनोऽपि॥ २४॥

भावार्थ-यह ‘भामण्डल’ प्रातिहार्य का वर्णन है। हे भगवन ! आपकी श्यामल कान्ति के संसर्ग से अशोक वृक्ष की लालिमा दब गई, सो ठीक ही है वीतराग (ललाई रहित, दूसरे पक्ष में स्नेह रहित ) के समीप से कौन सचेतन-प्राणी वीतराग (ललाई रहित, दूसरे पक्ष में स्नेह रहित) नहीं हो जाता ? अर्थात् सभी हो जाते हैं । इस श्लोक में राग पद दो अर्थवाला है-अनुराग-प्रेम-स्नेह और दूसरा लालिमा-ललाई ।।२४।।

भो ! भो ! प्रमादमवधूय भजध्वमेन-

मागत्य निर्वृतिपुरीं प्रति सार्थवाहम्।

एतन्निवेदयति देव जगत्त्रयाय

मन्ये नदन्नभिनभ: सुरदुन्दुभिस्ते॥ २५॥

भावार्थ-हे प्रभो! आकाश में जो देवों का नगाड़ा बज रहा है, वह मानों तीन लोक के जीवों को चिल्ला चिल्लाकर सचेत कर रहा है कि जो मोक्षनगरी की यात्रा के लिए जाना चाहते हैं, वे प्रमाद छोड़कर भगवान् पार्श्वनाथ की सेवा करें। यह ‘दुन्दुभि’ प्रातिहार्य का वर्णन है ॥ २५ ॥

उद्योतितेषु भवता भुवनेषु नाथ!

तारान्वितो विधुरयं विहताधिकार:।

मुक्ताकलाप-कलितोल्लसितातपत्र

व्याजात्त्रिधा धृततनुध्र्रुवमभ्युपेत:॥ २६॥

भावार्थ- हे प्रभो! जब आपने अपनी कांति वा ज्ञान से तीनों लोकों को प्रकाशित कर दिया, तब मानों चन्द्रमा का प्रकाश करने रूप अधिकार छीन लिया गया। इसलिये वह तीन छत्र का वेष धरकर आपकी सेवा में अपना अधिकार वापिस चाहने के लिये उपस्थित हुआ है। छत्रों में जो मोती लगे हुए हैं, वे मानों चन्द्रमा के परिवार स्वरूप तारागण हैं । यह ‘छत्रत्रय’ प्रातिहार्य का वर्णन है ।। २६ ॥

स्वेन प्रपूरितजगत्त्रयपिण्डितेन

कान्तिप्रतापयशसामिव सञ्चयेन।

माणिक्यहेमरजत-प्रविनिर्मितेन

सालत्रयेण भगवन्नभितो विभासि ॥ २७॥

भावार्थ-हे भगवन् ! समवसरण भूमि में जो आपके चारों ओर माणिक्य सुवर्ण और चाँदी के बने हुए तीन कोट है, वे मानों आपकी कान्ति प्रताप और यश का वह समूह है, जो कि तीनों जगत्में फैलकर पिण्डरूप हो गया है॥२७॥

दिव्यस्रजो जिन नमत्त्रिदशाधिपाना-

मुत्सृज्य रत्नरचितानपि मौलिबन्धान् ।

पादौ श्रयन्ति भवतो यदि वापरत्र

त्वत्सङ्गमे सुमनसो न रमन्त एव ॥ २८॥

भावार्थ- श्लोक में आए हुए सुमनस् शब्द के दो अर्थ हैं एक पुष्प और दूसरा विद्वान् पुरुष । हे भगवन् ! नमस्कार करते समय देवों के मुकुटों में लगी हुई फूलों की मालाएँ जो आपके चरणों में गिर जाती है, मानों वे पुष्पमालाए आपसे इतना अधिक प्रेम करती हैं, कि उनके पीछे देवों के रत्नों से बने हुए मुकुटों को भी छोड़ देती हैं। सुमनस्= फूलों का (दूसरे पक्ष में विद्वानों का) आपमें अगाध प्रेम होना उचित ही है। श्लोक का तात्पर्य यह है कि आपके लिए बड़े बड़े इन्द्र भी नमस्कार करते हैं ।। २८॥

त्वं नाथ ! जन्मजलधेर्विपराङ्मुखोऽपि

यत्तारयस्यसुमतो निजपृष्ठलग्नान् ।

युक्तं हि पार्थिवनिपस्य सतस्तवैव

चित्रं विभो ! यदसि कर्मविपाकशून्य:॥ २९॥

भावार्थ-जिस तरह घड़ा पानी में अधोमुख होकर अपनी पीठ पर स्थित लोगों को नदी-नाले आदि से पार कर देता है, उसी तरह आप यद्यपि राग न होने से संसार-समुद्र से पराङ्मुख रहते हैं, तथापि अपने अनुयायियों को उससे पार लगा देते हैं-मोक्ष प्राप्त करा देते हैं। पर जब घड़ा अग्नि से पकाया हुआ हो तभी पानी में तैर कर दूसरों को पार करता है । कच्चा घड़ा पानी में गल कर घुल जाता है। किन्तु आप पाक रहित हो, यह आश्चर्य की बात है। उसका परिहार यह है, कि आप कर्मों के उदय से रहित हैं। श्लोक में आये हुए विपाक शब्द के दो अर्थ है-आग से किसी कोमल मिट्टी की वस्तु का कठोर होना और कर्मों का उदय आना ।। २९।।

विश्वेश्वरोऽपि जनपालक ! दुर्गतस्त्वं

किं वाक्षरप्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश!

अज्ञानवत्यपि सदैव कथञ्चिदेव

ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्वविकासहेतु:॥ ३० ॥

भावार्थ-इस श्लोक में विरोधाभास अलङ्कार है। विरोधाभास अलङ्कार में शब्द के सुनते समय तो विरोध मालूम होता है, पर अर्थ विचारने पर बाद में उसका परिहार हो जाता है। जहाँ इस अलङ्कार का मूल श्लेष होता है, वहाँ बहुत ही अधिक चमत्कार पैदा हो जाता है। देखिये– भगवन् ! आप विश्वेश्वर होकर भी दुर्गत हैं । यह पूरा विरोध है। भला, जो जगत्का ईश्वर है, वह दरिद्र कैसे हो सकता है ? विश्वेश्वर होकर भी दुर्गत = कठिनाई से जाने जा सकते हैं। इसी तरह आप अक्षर प्रकृति अक्षर स्वभाववाले होकर भी अलिपि लिखे नहीं जा सकते । यह विरोध है। जो क ख आदि अक्षरों जैसा है, वह लिखा क्यों न जावेगा ? परन्तु दोनों शब्दों का श्लेष विरोध को दूर कर देता है। आप अक्षरप्रकृति-अविनश्वर स्वभाववाले होकर भी अलिपि =आकार रहित हैं-निराकार हैं । इसी प्रकार अज्ञानवति अपि अज्ञान युक्त होने पर भी आपमें विश्वविकाशि ज्ञानं स्फुरति संसार के सब पदार्थों को जाननेवाला ज्ञान स्फुरायमान होता है, यह विरोध है। जो अज्ञानयुक्त है, उसमें पदार्थों का ज्ञान कैसा ? पर इसका भी नीचे लिखे अनुसार परिहार हो जाता है-अज्ञान अवति अपि त्वयि-अज्ञानी मनुष्यों की रक्षा करनेवाले आपमें हमेशा केवलज्ञान जगमगाता रहता है ॥३०॥

प्राग्भारसम्भृत-नभांसि रजांसि रोषा-

दुत्थापितानि कमठेन शठेन यानि।

छायापि तैस्तव न नाथ हता हताशो

ग्रस्तस्त्वमी-भिरयमेव परं दुरात्मा॥ ३१ ॥

भावार्थ-जव भगवान् पार्श्वनाथ तपस्या कर रहे थे, तब उनके पूर्वभव के बैरी कमठ के जीव ने उन पर धूल उड़ाकर भारी उपसर्ग किया था। लोक में यह देखा जाता है कि जो सूर्य पर धूल फेंकता है, उससे सूर्य की जरा भी कान्ति नष्ट नहीं होती, पर वही धूलि फेंकनेवाले के ऊपर गिरती है। श्लोक में आये हुए रज शब्द के दो अर्थ हैं-एक धूलि, दूसरा कर्म । कमठ के जीवने भगवान् पर उपसर्ग कर कर्मों का बन्ध किया था, इस बात को कवि ने लोक-प्रचलित उक्त उदाहरण से स्पष्ट किया है ॥३१॥

यद्गर्जदूर्जित घनौघमदभ्रभीम

भ्रश्यत्तडिन्-मुसल-मांसल-घोरधारम् ।

दैत्येन मुक्तमथ दुस्तरवारि दध्रे

तेनैव तस्य जिन! दुस्तरवारिकृत्यम् ॥ ३२ ॥

भावार्थ- हे भगवन् ! आप पर मूसलाधार पानी वर्षाकर कमठ के जीवने उपसर्ग किया था, उससे आपका क्या बिगड़ा? परन्तु उसी ने अपने लिये ‘दुस्तरवारिकृत्ये’ दुष्ट तलवार का कार्य अर्थात् घाव कर लिया-ऐसे कर्मो का बन्ध किया जो तलवार के समान दुःखदायी हुए थे। श्लोक में ‘दुस्तरवारि’ शब्द दो बार आया है, उनमें से पहले का अर्थ कठिनाई से तरने योग्य जल है, और दूसरे का अर्थ दुष्ट तरवारि-तलवार है ।। ३२ ।।

ध्वस्तोध्र्वकेश-विकृताकृतिमत्र्यमुण्ड-

प्रालम्बभृद्भयदवक्त्र विनिर्यदग्रि:।

प्रेतव्रज: प्रति भवन्तमपीरितो य:

सोऽस्याभवत्प्रतिभवं भवदु:खहेतु:॥ ३३॥

भावार्थ-हे भगवन् ! कमठ के जीवने आपको तपस्या से विचलित करने के लिये जो पिशाच दौड़ाये थे, उनसे आपका कुछ भी बिगाड़ नहीं हुआ, परन्तु उस पिशाच को ही भारी कर्मबन्ध हुआ, जिससे उसे अनेक भवों में दुःख उठाने पड़े ॥३३॥

धन्यास्त एव भुवनाधिप ! ये त्रिसन्ध्य-

माराधयन्ति विधिवद् विधुतान्यकृत्या:।

भक्त्योल्लसत्पुलकपक्ष्मलदेहदेशा: ।

पादद्वयं तव विभो! भुवि जन्मभाज:॥३४॥

भावार्थ-हे भगवन् ! संसार में उन्हीं का जन्म सफल है, जो भक्तिपूर्वक आपके चरणों की आराधना करते हैं ॥३४।।

अस्मिन्नपार-भव- वारिनिधौ मुनीश!

मन्ये न मे श्रवणगोचरतां गतोऽसि।

आकर्णिते तु तव गोत्रपवित्रमन्त्रे

किं वा विपद्विषधरी सविधं समेति॥ ३५ ॥

भावार्थ-हे प्रभो ! जो मैं संसार में अनेक दुःख उठा रहा हूँ, उससे विश्वास होता है कि मैंने कभी भी आपका पवित्र नाम नहीं सुना ॥ ३५॥

जन्मान्तरेऽपि तव पादयुगं न देव!

मन्ये मया महितमीहितदानदक्षम्।

तेनेह जन्मनि मुनीश ! पराभवानां

जातो निकेतनमहं मथिताशयानाम्॥ ३६ ॥

भावार्थ-हे भगवन ! जो मैं तरह तरह के तिरस्कारों का पात्र हो रहा हूँ, उससे स्पष्ट पता चलता है, कि मैंने आपके चरणों की पूजा नहीं की। क्योंकि आपके चरणों के पुजारियों का कभी किसी जगह भी तिरस्कार नहीं होता ॥ ३६॥

नूनं न मोहतिमिरावृतलोचनेन

पूर्वं विभो! सकृदपि प्रविलोकितोऽसि।

मर्माविधो विधुरयन्ति हि मामनर्था:

प्रोद्यत्प्रबन्धगतय: कथमन्यथैते॥ ३७ ॥

भावार्थ-भगवन् ! मैंने मिथ्यात्व के उदय से अन्धे होकर कभी भी आपके दर्शन नहीं किये । यदि दर्शन किये होते तो आज ये दुःख मुझे दुःखी कैसे करते ? क्योंकि आपके दर्शन करनेवालों को कभी कोई भी अनर्थ दुःख नहीं पहुँचा सकते ।।३७।।

आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि

नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या।

जातोऽस्मि तेन जनबान्धव! दु:खपात्रम्

यस्मात्िक्रया: प्रतिफलन्ति न भावशून्या:॥ ३८ ॥

भावार्थ-इससे पहिले तीन श्लोकों में कहा गया था कि हे भगवन् ! मैंने ‘आपका नाम नहीं सुना’ ‘चरणों की पूजा नहीं की’ और ‘दर्शन नहीं किये’ इसलिये मैं दुःख उठा रहा हूँ। अब इस श्लोक में पक्षान्तररूप से कहते हैं कि मैंने आपका नाम भी सुना, पूजा भी की, और दर्शन भी किये, फिर भी दुःख मेरा पिण्ड नहीं छोड़ते, उसका कारण सिर्फ यही मालूम होता है, कि मैंने भक्तिपूर्वक आपका ध्यान नहीं किया। केवल आडम्बररूप से ही उन कामों को किया है न कि भावपूर्वक भी। यदि भाव से करता तो कभी दुःख नहीं उठाने पड़ते ।। ३८ ।।

त्वं नाथ ! दु:खिजनवत्सल! हे शरण्य!

कारुण्यपुण्यवसते ! वशिनां वरेण्य!

भक्त्या नते मयि महेश ! दयां विधाय

दु:खाङ्कुरोद्दलनतत्परतां विधेहि ॥ ३९ ॥

भावार्थ-आप शरणागत प्रतिपालक हैं, दयालु हैं और समर्थ भी हैं। इसलिये आपसे विनम्र प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरे दुःखों को दूर करने के लिये तत्पर हो जाईये ॥ ३९॥

नि:संख्यसारशरणं शरणं शरण्य-

मासाद्य सादितरिपु-प्रथितावदानम्।

त्वत्पादपङ्कजमपि प्रणिधानवन्ध्यो

वन्ध्योऽस्मि चेद्भुवनपावन! हा हतोऽस्मि॥४०॥

भावार्थ-हे भगवन् ! आपके पवित्र और दयालु चरणों को पाकर भी जो मैं उनका ध्यान नहीं कर रहा हूँ, उससे मेरा जन्म निष्फल जा रहा है, और मैं कर्मों के द्वारा दुःखी किया जा रहा हूँ॥४०॥

देवेन्द्रवन्द्य! विदिताखिलवस्तुसार!

संसारतारक ! विभो! भुवनाधिनाथ!

त्रायस्व देव! करुणाहृद ! मां पुनीहि

सीदन्तमद्य भयदव्यसनाम्बुराशे:॥ ४१॥

भावार्थ-हे भगवन् ! आप हर एक तरह से समर्थ हैं, इसलिये आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझे इस दुःख-समुद्र में डूबने से बचाइये, और हमेशा के लिये कर्म-मैल से रहित कर दीजिये ॥ ४१॥

यद्यस्ति नाथ ! भवदङि घ्रसरोरुहाणां

भक्तेः फलं किमपि सन्ततसंचितायाः ।

तन्मे त्वदेकशरणस्य शरण्य ! भूयाः

स्वामी ! त्वमेव भुवनेत्र भवान्तरेऽपि ॥४२॥

भावार्थ-हे भगवन् ! स्तुति कर मैं आपसे अन्य किसी फल की चाह नहीं रखता। सिर्फ यह चाहता हूँ कि आप ही मेरे हमेशा स्वामी रहें । अर्थात् जब तक मुझे मोक्ष प्राप्त नहीं हुआ है, तब तक आप ही मेरे स्वामी रहें। “तुम होहु भव भव स्वामि मेरे, मैं सदा सेवक रहूँ” ॥४२॥

इत्थं समाहितधियो विधिवज्जिनेन्द्र !

सांद्रोल्लसत्पुलककञ्चुकितांगभागाः ।

त्वद्विम्बनिर्मलमुखाम्बुजवद्धलक्ष्या

ये संस्तवं तव विभो ! रचयंति भव्याः ॥४३॥

आर्या-जननयनकुमुदचन्द्र ! प्रभास्वराः स्वर्गसम्पदोभुक्त्वा ।

ते विगलितमलनिचया अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते ॥४४॥

भावार्थ- हे भगवन् ! जो भक्ति से गद्गद चित्त हो आपकी स्तुति करते हैं, वे स्वर्ग के सुख भोग बहुत जल्दी आठ कर्मों का नाशकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।

“स्वर्गनके सुख भोगकर, पावे मोक्ष निदान ।”

इति श्रीकुमुदचन्द्राचार्य अपरनाम श्रीसिद्धसेनदिवाकरेण प्रणीतं कल्याण मन्दिरस्तोत्रं-श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

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