केतु स्तोत्रम् || Ketu stotram

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भारतीय ज्योतिष के अनुसार राहु और केतु, सूर्य एवं चंद्र के परिक्रमा पथों के आपस में काटने के दो बिन्दुओं के द्योतक हैं जो पृथ्वी के सापेक्ष एक दुसरे के उलटी दिशा में (१८० डिग्री पर) स्थित रहते हैं। चुकी ये ग्रह कोई खगोलीय पिंड नहीं हैं, इन्हें छाया ग्रह कहा जाता है। सूर्य और चंद्र के ब्रह्मांड में अपने-अपने पथ पर चलने के कारण ही राहु और केतु की स्थिति भी साथ-साथ बदलती रहती है। तभी, पूर्णिमा के समय यदि चाँद केतु (अथवा राहू) बिंदु पर भी रहे तो पृथ्वी की छाया परने से चंद्र ग्रहण लगता है, क्योंकि पूर्णिमा के समय चंद्रमा और सूर्य एक दुसरे के उलटी दिशा में होते हैं। ये तथ्य इस कथा का जन्मदाता बना कि “वक्र चंद्रमा ग्रसे ना राहू”। अंग्रेज़ी या यूरोपीय विज्ञान में राहू एवं केतु को क्रमशः उत्तरी एवं दक्षिणी लूनर नोड कहते हैं। केतू मोक्ष का कारक ग्रह है। केतू यदि ख़राब हो तो विभिन्न प्रकार से कष्ट देता है। इन कष्टों से छुटकारा पाने के लिए नित्य केतुस्तोत्रम् का पाठ करें। यहाँ केतू का दो स्तोत्रम् दिया जा रहा है ।
|| अथ केतुस्तोत्रप्रारम्भः ||
ॐ अस्य श्री केतुस्तोत्रमहामन्त्रस्य वामदेव ॠषिः ।
अनुष्टुप्छन्दः । केतुर्देवता ।
केतुप्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।
गौतम उवाच ।
मुनीन्द्र सूत तत्त्वज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ।
सर्वरोगहरं ब्रूहि केतोः स्तोत्रमनुत्तमम् ॥ १॥
सूत उवाच ।
श्रृणु गौतम वक्ष्यामि स्तोत्रमेतदनुत्तमम् ।
गुह्याद्गुह्यतमं केतोः ब्रमणा कीर्तितं पुरा ॥ २॥
आद्यः कराळवदनो द्वितीयो रक्तलोचनः ।
तृतीयः पिङ्गळाक्षश्च चतुर्थो ज्ञानदायकः ॥ ३॥
पञ्चमः कपिलाक्षश्च षष्ठः कालाग्निसन्निभः ।
सप्तमो हिमगर्भश्च् तूम्रवर्णोष्टमस्तथा ॥ ४॥
नवमः कृत्तकण्ठश्च दशमः नरपीठगः ।
एकादशस्तु श्रीकण्ठः द्वादशस्तु गदायुधः ॥ ५॥
द्वादशैते महाक्रूराः सर्वोपद्रवकारकाः ।
पर्वकाले पीडयन्ति दिवाकरनिशाकरौ ॥ ६॥
नामद्वादशकं स्तोत्रं केतोरेतन्महात्मनः ।
पठन्ति येऽन्वहं भक्त्या तेभ्यः केतुः प्रसीदति ॥ ७॥
कुळुक्थधान्ये विलिखेत् षट्कोणं मण्डलं शुभम् ।
पद्ममष्टदळं तत्र विलिखेच्च विधानतः ॥ ८॥
नीलं घटं च संस्थाप्य दिवाकरनिशाकरौ ।
केतुं च तत्र निक्षिप्य पूजयित्वा विधानतः ॥ ९॥
स्तोत्रमेतत्पठित्वा च ध्यायन् केतुं वरप्रदम् ।
ब्राह्मणं श्रोत्रियं शान्तं पूजयित्वा कुटुम्बिनम् ॥ १०॥
केतोः कराळवक्त्रस्य प्रतिमां वस्त्रसंयुताम् ।
कुम्भादिभिश्च संयुक्तां चित्रातारे प्रदापयेत् ॥ ११॥
दानेनानेन सुप्रीतः केतुः स्यात्तस्य सौख्यदः ।
वत्सरं प्रयता भूत्वा  पूजयित्वा विधानतः ॥ १२॥
मूलमष्टोत्तरशतं ये जपन्ति नरोत्तमाः ।
तेषां केतुप्रसादेन न कदाचिद्भयं भवेत् ॥ १३॥
   इति केतुस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
|| केतुस्तोत्रम् २ ||
ॐ धूम्रा द्विबाहवः सर्वे गोदानो विकृताननाः ।
गृध्रयानासनस्थाश्च पान्तु नः शिखिनन्दनाः ॥ १॥
श्रीभैरव्युवाच ।
धन्या चानुगृहीतास्मि कृतार्थास्मि जगत्प्रभो ।
यच्छ्रुतं त्वन्मुखाद्देव केतुस्तोत्रमिदं शुभम् ॥ २॥
श्रीपरमेश्वर उवाच –
श्रृणु देवि प्रवक्ष्यामि केतुस्तवमिमं परम् ।
सर्वपापविशुद्धात्मा स रोगैर्मुच्यते ध्रुवम् ॥ ३॥
श्वेतपीतारुणः कृष्णः क्वचिच्चामीकरप्रभः
शिवार्चनरतः केतुर्ग्रहपीडां व्यपोहतु ॥ ४॥
नमो घोरायाघोराय महाघोरस्वरूपिणे ।
आनन्देशाय देवाय जगदानन्ददायिने ॥ ५॥
नमो भक्तजनानन्ददायिने विश्वभाविने ।
विश्वेशाय महेशाय केतुरूपाय वै नमः ॥ ६॥
नमो रुद्राय सर्वाय वरदाय चिदात्मने ।
त्र्यक्षाय त्रिनिवासाय नमः सङ्कटनाशिने ॥ ७॥
त्रिपुरेशाय देवाय भैरवाय महात्मने ।
अचिन्त्याय चितिज्ञाय नमश्चैतन्यरूपिणे ॥ ८॥
नमः शर्वाय चर्च्याय दर्शनीयाय ते नमः ।
आपदुद्धरणायापि भैरवाय नमो नमः ॥ ९॥
नमो नमो महादेव व्यापिने परमात्मने ।
नमो लघुमते तुभ्यं ग्राहिणे सूर्यसोमयोः ॥ १०॥
नमश्चापद्विनाशाय भूयो भूयो नमो नमः ।
नमस्ते रुद्ररूपाय चोग्ररूपाय केतवे ॥ ११॥
नमस्ते सौररूपाय शत्रुक्षयकराय च ।
महातेजाय वै तुभ्यं पूजाफलविवर्धिने ॥ १२॥
वह्निपुत्राय ते दिव्यरूपिणे प्रियकारिणे ।
सर्वभक्ष्याय सर्वाय सर्वग्रहान्तकाय ते ॥ १३॥
नमः पुच्छस्वरूपाय महामृत्युकराय च ।
नमस्ते सर्वदा क्षोभकारिणे व्योमचारिणे ॥ १४॥
नमस्ते चित्ररूपाय मीनदानप्रियाय च ।
दैत्यदानवगन्धर्ववन्द्याय महते नमः ॥ १५॥
य इदं पठते नित्यं प्रातरुत्थाय मानवः ।
ग्रहशान्तिर्भवेत्तस्य केतुराजस्य कीर्तनात् ॥ १६॥
यः पठेदर्धरात्रे तु वशं तस्य जगत्त्रयम् ।
इदं रहस्यमखिलं केतुस्तोत्रं तु कीर्तितम् ॥ १७॥
सर्वसिद्धिप्रदं गुह्यमायुरारोग्यवर्धनम् ।
गुह्यं मन्त्रं रहस्यं तु तव भक्त्या प्रकाशितम् ॥ १८॥
अभक्ताय न दातव्यमित्याज्ञा पारमेश्वरि ॥ १९॥
श्रीदेव्युवाच –
भगवन्भवतानेन केतुस्तोत्रस्य मे प्रभो ।
कथनेन महेशान सत्यं क्रीतास्म्यहं त्वया ॥ २०॥
श्री ईश्वर उवाच ।
इदं रहस्यं परमं न देयं यस्य कस्यचित् ।
गुह्यं गोप्यतमं चेयं गोपनीयं  स्वयोनिवत् ॥ २१॥
अग्निपुत्रो महातेजाः केतुः सर्वग्रहान्तकः ।
क्षोभयन्यः प्रजाः सर्वाः स केतुः प्रीयतां मम ॥ २२॥
इति केतुस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

केतु स्तोत्र के लाभ / फ़ायदे || Ketu Stotram Ke Labh / Fayde

  • केतु ग्रह की महादशा और अंतर्दशा आपके लिए विपरीत चल रही है तो Ketu Stotram का पाठ करना आपके लिए लाभदायक रह सकता हैं।
  • Ketu Graha Stotram का पाठ केतु ग्रह के बुरे गोचर के समय करना भी जातक को फायदेमद रहता हैं।
  • यदि आपके जीवन में केतु ग्रह से संबधित कोई रोग या बीमारी हो रही हो तो Ketu Stotram का पाठ उस समय जरूर करना चाहिए।
  • जातक की कुंडली अनुसार केतु ग्रह मारकेश हो और आपके जीवन में केतु ग्रह प्रभावित कर रहा हो तो भी Ketu Stotram का पाठ करना आपको बहुत ज्यादा लाभ दे सकता हैं।
  • यदि आप अपने जीवन में केतु ग्रह से होने वाले नुकसान या बुरे प्रभाव से किसी भी तरह से ग्रस्त चल रहे हो तो भी Ketu Stotram का पाठ करने से आपके जीवन में सुधार देखने को जरूर मिलेगा।
  • Ketu Graha Stotram का रोजाना पाठ पाठ करने से केतु ग्रह को मजबूत बनाया जा सकता हैं।
  • यदि कुंडली में केतु ग्रह अशुभ प्रभाव दे रहा हो तो भी रोजाना Ketu Stotram का पाठ करने से केतु ग्रह की शांति की जा सकती हैं।
  • जिन जातकों की जन्म कुंडली में केतु ग्रह निर्बल अवस्था या पाप ग्रह से ग्रस्त से प्रभावित है तो Ketu Stotram का नित्य पाठ करना आपको फायदा पहुँचा सकता हैं।

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