किरातार्जुनीयम् पञ्चम सर्ग || Kiratarjuniyam Pancham Sarga
किरातार्जुनीयम् पञ्चमः सर्ग- राजनीति और व्यवहार-नीति में भारवि के विशेष रुझान के चलते यह युक्तियुक्त ही था कि वे किरातार्जुनीयम् का कथानक महाभारत से उठाते। उन्होंने वनपर्व के पाँच अध्यायों से पांडवों के वनवास के समय अमोघ अस्त्र के लिए अर्जुन द्वारा की गई शिव की घोर तपस्या के फलस्वरूप पाशुपतास्त्र प्राप्त करने के छोटे-से प्रसंग को उठाकर उसे अठारह सर्गों के इस महाकाव्य का रूप दे दिया।
पाँचवाँ सर्ग यक्ष के साथ अर्जुन के यात्रा-प्रसंग से गिरिराज हिमालय के पर्वतीय प्रदेश के विशद, अलंकारिक वर्णन की छटा से दीप्त है।
किरातार्जुनीयम् महाकाव्यम् भारविकृतम्
किरातार्जुनीयम् पञ्चमः सर्ग
किरातार्जुनीयम् सर्ग ५
किरातार्जुनीये पञ्चमः सर्गः
[ अगले पन्द्रह श्लोकों द्वारा कवि हिमालय पर्वत का वर्णन कर रहा है । ]
अथ जयाय नु मेरुमहीभृतो रभसया नु दिगन्तदिदृक्षया ।
अभिययौ स हिमाचलं उच्छ्रितं समुदितं नु विलङ्घयितुं नभः ।। ५.१ ।।
अर्थ: तदनन्तर अर्जुन उस हिमालय पर्वत के सम्मुख पहुँच गए, जो या तो सुमेरु पर्वत को जीतने के लिए, अथवा अत्यन्त उत्कण्ठा से दिशाओं का अवसान देखने के लिए अथवा आकाश मण्डल का उल्लंघन करने के लिए मानो उछालकर अत्यन्त ऊंचा उठ खड़ा हुआ है ।
टिप्पणी: गम्योत्प्रेक्षा । द्रुतविलम्बित छन्द
तपनमण्डलदीतितं एकतः सततनैशतमोवृतं अन्यतः ।
हसितभिन्नतमिस्रचयं पुरः शिवं इवानुगतं गजचर्मणा ।। ५.२ ।।
अर्थ: एक ओर सूर्यमण्डल से सुप्रकाशित तथा दूसरी ओर रात्रि के घोर अन्धकार को दूर करनेवाले तथा पिछले भाग को गजधर्म से विभूषित करनेवाले भगवान् शङ्कर के समान है ।
टिप्पणी: हिमालय इतना ऊंचा है कि इसके एक ओर प्रकाश और दूसरी ओर अन्धकार रहता है । शिव जी भी ऐसे ही हैं । उनका मुखभाग तो उनके अट्टहास से प्रकाशमान रहता है और पृष्ठभाग गजचर्म से आवृत्त होने के कारण काले बर्फ का है । अतिश्योक्ति अलङ्कार ।
क्षितिनभःसुरलोकनिवासिभिः कृतनिकेतं अदृष्टपरस्परैः ।
प्रथयितुं विभुतां अभिनिर्मितं प्रतिनिधिं जगतां इव शम्भुना ।। ५.३ ।।
अर्थ: परस्पर एक दूसरे को न देखनेवाले पृथ्वी, आकाश तथा स्वर्गलोक के निवासियों द्वारा निवासस्थान बनाये जाने के कारण यह (हिमालय) ऐसा मालूम पड़ता है कि मानो शङ्कर भगवान् ने अपनी कीर्ति के प्रचार के लिए संसार के प्रतिनिधि के रूप में इस का निर्माण किया है ।
टिप्पणी: यह शङ्कर भगवान् के निर्माण-कौशल का ही नमूना है कि तीनों लोकों के निवासी यहाँ रहते हैं और कोई किसी को देख नहीं पाते । जो बात किसी दूसरे से नहीं हो सकती थी उसे ही तो शङ्कर भगवान् करते आ रहे हैं । उत्प्रेक्षा अलङ्कार
भुजगराजसितेन नभःश्रिया कनकराजिविराजितसानुना ।
समुदितं निचयेन तडित्वतीं लघयता शरदम्बुदसंहतिं ।। ५.४ ।।
अर्थ: शेषनाग के समान श्वेत-शुभ्र वर्ण कि गगनचुम्बी, सुवर्ण रेखाओं से सुशोभित चट्टानों से युक्त होने के कारण यह हिमालय विद्युत् रेखाओं से युक्त शरद ऋतु के बादलों कि पंक्तियों को तिरस्कृत करनेवाले शिखरों से अत्यन्त ऊंचा दिखाई पड़ रहा है ।
टिप्पणी: इस श्लोक में यद्यपि ‘शिखर’ शब्द नहीं आया है किन्तु प्रसंगानुरोध से ‘निचय’ शब्द का ही ‘पाषाण निचय’ अर्थात शिखर अर्थ ले लिया गया है । उपमा अलङ्कार
मणिमयूखचयांशुकभासुराः सुरवधूपरिभुक्तलतागृहाः ।
दधतं उच्चशिलान्तरगोपुराः पुर इवोदितपुष्पवना भुवः ।। ५.५ ।।
अर्थ: वस्त्रों के समान मणियों के किरण समूहों से चमकते हुए देवांगनाओं द्वारा सेवित गृहों के समान लताओं से युक्त, ऊंचे-ऊंचे पुर-द्वारों की भांति शिलाखण्डों के मध्य भागों से युक्त एवं पुष्पों से समृद्ध वनों से सुशोभित नगरों के समान भूमि भागों को यह हिमालय धारण किये हुए है ।
टिप्पणी: उपमा अलङ्कार
अविरतोज्झितवारिविपाण्डुभिर्विरहितैरचिरद्युतितेजसा ।
उदितपक्षं इवारतनिःस्वनैः पृथुनितम्बविलम्बिभिरम्बुदैः ।। ५.६ ।।
अर्थ: निरन्तर वृष्टि करने से जलशून्य होने के कारण श्वेत वर्णों वाले, बिजली की चमक से विहीन, गर्जनरहित एवं विस्तृत नितम्ब अर्थात मध्य भाग में फैले हुए बादलों से यह हिमालय ऐसा मालूम पड़ रहा है मानो इसके पक्ष फिर से उग आये हों ।
टिप्पणी: पौराणिक कथाओं के अनुसार पूर्वकाल में सभी पर्वत पक्षधारी होते थे और जब जहाँ चाहते थे उड़ा करते थे ।
उनके इस कार्य से लोगों को सदा बड़ा भय बना रहता था कि न जाने कब कहाँ गिर पड़ें । देवताओं की प्रार्थना पर देवराज इन्द्र ने अपने वज्र से सभी पर्वतों के पक्षों को काट डाला था । उत्प्रेक्षा अलङ्कार
दधतं आकरिभिः करिभिः क्षतैः समवतारसमैरसमैस्तटैः ।
विविधकामहिता महिताम्भसः स्फुटसरोजवना जवना नदीः ।। ५.७ ।।
अर्थ: (यह हिमालय) आकर अर्थात खानों से उत्पन्न हाथियों द्वारा क्षत-विक्षत, स्नानादि योग्य स्थलों पर सम एवं अनुपम तटों से युक्त, प्रशस्त जलयुक्त होने के कारण विविध कामों के लिए हितकारी एवं विकसित कमलों के समूहों से सुशोभित वेगवती नदियों को धारण करने वाला है ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि इस हिमालय के जिन भागों में रत्नों की खानें हैं उनमें हाथियों की भी अधिकता है । वे हाथी नदियों के तटों को तोडा-फोड़ा करते हैं । किन्तु फिर भी स्नान करने योग्य स्थलों पर वे तट बहुत सम हैं । नदियों में कमल खिले रहते हैं तथा उनकी धारा बहुत तीव्र है । शब्दालङ्कारों में यमक और वृत्यनुप्रास तथा अर्थालङ्कारों में अभ्युच्चय ।
नवविनिद्रजपाकुसुमत्विषां द्युतिमतां निकरेण महाश्मनां ।
विहितसांध्यमयूखं इव क्वचिन्निचितकाञ्चनभित्तिषु सानुषु ।। ५.८ ।।
अर्थ: नूतन विकसित जपाकुसुम की कान्ति के समान कान्तिवाली चमकती हुई पद्मराग मणियों के समूहों से कहीं-कहीं पर (यह हिमालय) सुवर्ण खचित भित्तियों वाली चोटियों पर मानो सायंकाल के सूर्य की किरणों से प्रतिभासित-सा (दिखाई पड़ता) है।
टिप्पणी: अर्थात इस हिमालय की सुवर्णयुक्त भित्तियों में पद्मराग मणि की कान्ति जब पड़ती है तो वह संध्या काल की सूर्य किरणों की भान्ति दिखाई पड़ता है । उत्प्रेक्षा अलङ्कार
पृथुकदम्बकदम्बकराजितं ग्रहितमालतमालवनाकुलं ।
लघुतुषारतुषारजलश्च्युतं धृतसदानसदाननदन्तिनं ।। ५.९ ।।
अर्थ: विशाल कदम्बों के पुष्प समूहों से सुभोभित, पंक्तियों में लगे यूए तमालों के वनों से संकुलित, छोटे-छोटे हिमकणों की वृष्टि करता हुआ एवं सर्वदा मद बरसाने वाले सुन्दरमुख गजराजों से युक्त (यह हिमालय) है।
रहितरत्नचयान्न शिलोच्चयानफलताभवना न दरीभुवः ।
विपुलिनाम्बुरुहा न सरिद्वधूरकुसुमान्दधतं न महीरुहः ।। ५.१० ।।
अर्थ: यह हिमालय रत्नराशिरहित कोई शिखर नहीं धारण करता, लता-गृहों से शून्य कोई गुफा नहीं धारण करता, मनोहर पुलिनों तथा कमलों से विहीन कोई सरिद्वधू (नव वधु की भांति नदियां) नहीं धारण करता तथा बिना पुष्पों का कोई वृक्ष नहीं धारण करता ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि हिमालय कि चोटियां रत्नों से व्याप्त हैं, गुफाएं लतागृहों से सुशोभित हैं, नदियां मनोहर तटों तथा कमलों से समचित हैं तथा वृक्ष पुष्पों से लदे हैं । नदियों की वधू के साथ उपमा देकर पुलिनों की उनके जघन स्थल तथा कमलों की उनके मुख से उपमा गम्य होती है ।
व्यथितसिन्धुं अनीरशनैः शनैरमरलोकवधूजघनैर्घनैः ।
फणभृतां अभितो विततं ततं दयितरम्यलताबकुलैः कुलैः ।। ५.११ ।।
अर्थ: (यह हिमालय) सुन्दर मेखलाओं से सुशोभित, देवांगना-समूहों के जघन-स्थलों से धीरे-धीरे क्षुब्ध-धारावाली नदियों एवं मनोहर लताओं एवं केसर के प्रेमी सर्पों से चारों ओर व्याप्त एवं विस्तृत है ।
टिप्पणी: यमक और वृत्यानुप्रास अलङ्कार
ससुरचापं अनेकमणिप्रभैरपपयोविशदं हिमपाण्डुभिः ।
अविचलं शिखरैरुपबिभ्रतं ध्वनितसूचितं अम्बुमुचां चयं ।। ५.१२ ।।
अर्थ: अनेक प्रकार की विचित्र मणियों की प्रभा से सुशोभित हिमशुभ्र शिखरों वाला (यह हिमालय) इन्द्रधनुष से युक्त, जलरहित होने के कारण श्वेत एवं निश्चल (अतएव शिखर की शंका कराने वाले किन्तु) गर्जन से अपनी सूचना देने वाले मेघ-समूहों को धारण करता है ।
टिप्पणी: जल न होने से मेघ श्वेत एवं निश्चल हो जाते हैं, हिमालय के शिखर भी ऐसे ही हैं । मेघों में इन्द्रधनुष की रंग-बिरंगी छटा होती है तो वह विचित्र मणियों की प्रभा के कारण हिमालय के शिखरों में भी है । केवल गर्जन ऐसा है, जो शिखरों में नहीं है और इसी से दोनों में अन्तर मालूम पड़ता है । सन्देह अलङ्कार
विकचवारिरुहं दधतं सरः सकलहंसगणं शुचि मानसं ।
शिवं अगात्मजया च कृतेर्ष्यया सकलहं सगणं शुचिमानसं ।। ५.१३ ।।
अर्थ: नित्य विकसित होने वाले कमलों से सुशोभित तथा राजहंसों से युक्त निर्मल मानस सरोवर को एवं किसी कारण से कदाचित कुपिता पार्वती के साथ कलह करने वाले अपने गणों समेत अविद्यादि दोषों से रहित भगवान् शंकर को (यह हिमालय) धारण किये हुए है।
टिप्पणी: संसार के अन्य पर्वतों से हिमालय की यही विषमता है । यमक अलङ्कार
ग्रहविमानगणानभितो दिवं ज्वलयतौषधिजेन कृशानुना ।
मुहुरनुस्मरयन्तं अनुक्षपं त्रिपुरदाहं उपापतिसेविनः ।। ५.१४ ।।
अर्थ: यह हिमालय आकाश स्थित चन्द्र सूर्यादि ग्रहों एवं देवयानों को सुप्रकाशित करते हुए अपनी औषधियों से उत्पन्न अग्नि द्वारा प्रत्येक रात्रि में भगवान् शङ्कर के सेवकों अर्थात गणों को त्रिपुरदाह का बारम्बार स्मरण दिलाता है ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि इसमें अनेक प्रकार कि दिव्य औषधियां हैं जिनसे ग्रहगण एवं देवयान ही नहीं प्रकाशित होते वरन रात्रियों में त्रिपुरदाह जैसा दृश्य भी दिखाई पड़ता है । स्मरण अलङ्कार
विततशीकरराशिभिरुच्छ्रितैरुपलरोधविवर्तिभिरम्बुभिः ।
दधतं उन्नतसानुसमुद्धतां धृतसितव्यजनां इव जाह्नवीं ।। ५.१५ ।।
अर्थ: यह हिमालय उन उन्नत शिखरों पर गङ्गा जी को धारण करता है, जो पत्थरों की विशाल चट्टानों से धारा के रुक जाने पर जब उनके ऊपर से बहाने लगती है तब ऊपर अनन्त जल-कणों के फव्वारे के तरह छूटने से ऐसा मालूम होता है मानो श्वेत चामर धारण किये हुए हैं ।
टिप्पणी: उत्प्रेक्षा अलङ्कार
अनुचरेण धनाधिपतेरथो नगविलोकनविस्मितमानसः ।
स जगदे वचनं प्रियं आदरान्मुखरतावसरे हि विराजते ।। ५.१६ ।।
अर्थ: तदनन्तर धनपति कुबेर के सेवक उस यक्ष ने हिमालय की अलौकिक छटा के अवलोकन से आश्चर्यचकित अर्जुन से आदरपूर्वक यह प्रिय वचन कहे । वाचालता (ऐसे ही) उचित अवसरों पर शोभा देती है ।
टिप्पणी: अर्थात मनुष्य उचित अवसर समझकर बिना पूछे भी कुछ कह देता है तो उसकी शोभा होती है । अर्थान्तरन्यास अलङ्कार
अलं एष विलोकितः प्रजानां सहसा संहतिं अंहसां विहन्तुं ।
घनवर्त्म सहस्रधेव कुर्वन्हिमगौरैरचलाधिपः शिरोभिः ।। ५.१७ ।।
अर्थ: हिम के कारण शुभ्र शिखरों से मेघ-पथों को मानो सहस्त्रों भागों में विभक्त करता हुआ यह पर्वतराज हिमालय देखने मात्र से ही लोगों के पाप-समूहों को नष्ट करने में समर्थ है ।
टिप्पणी: अर्थात इसे देखने मात्र से ही पाप नष्ट हो जाते हैं, चित्त प्रसन्न हो जाता है । औपछन्दसिक वृत्त ।
इह दुरधिगमैः किंचिदेवागमैः सततं असुतरं वर्णयन्त्यन्तरं ।
अमुं अतिविपिनं वेद दिग्व्यापिनं पुरुषं इव परं पद्मयोनिः परं ।। ५.१८ ।।
अर्थ: इस हिमालय पर्वत के दुस्तर अन्तर्वर्ती अर्थात मध्य भाग को कठिनाई द्वारा चढ़ने योग्य वृक्षों से (उन पर चढ़कर पक्षान्तर में पुण्यादि का अध्ययन कर) कुछ-कुछ बताया जा सकता है, किन्तु इस अत्यन्त गहन एवं दिगन्तव्यापी पर्वतराज को परमात्मा के समान सम्पूर्ण रीति से केवल पद्मयोनि अर्थात ब्रह्मा जी ही जानते हैं ।
टिप्पणी: अर्थात ब्रह्मा के सिवा कोई दूसरा इसके विशाल स्वरुप को नहीं जानते । उपमा और यमक अलङ्कारों के संसृष्टि ।
रुचिरपल्लवपुष्पलतागृहैरुपलसज्जलजैर्जलराशिभिः ।
नयति संततं उत्सुकतां अयं धृतिमतीरुपकान्तं अपि स्त्रियः ।। ५.१९ ।।
अर्थ: यह हिमालय अपने मनोहर पल्लवों एवं पुष्पों से सुशोभित लता मण्डपों तथा विकसित कमलों से समचित सरोवरों से अपने प्रियतम के समीप में स्थित धैर्यशालिनी मानिनी रमणियों को भी निरन्तर उत्सुक बना देता है।
टिप्पणी: अर्थात जो मानिनी रमणियाँ पहले अपने समीपस्थ भी प्रियतमों का अपमान करती थी, वे भी उत्कण्ठित हो उठी हैं, उनकी मानग्रंथि इस हिमालय में आने से छूट जाती है । अतिश्योक्ति अलङ्कार । द्रुतविलम्बित छन्द ।
सुलभैः सदा नयवतायवता निधिगुह्यकाधिपरमैः परमैः ।
अमुना धनैः क्षितिभृतातिभृता समतीत्य भाति जगती जगती ।। ५.२० ।।
अर्थ: नीतिपरायण एवं भाग्यशाली पुरुषों के लिए सर्वदा सुलभ एवं महापद्म आदि नवनिधियां एवं वृक्षों के अधिपति कुबेर को भी प्रसन्न करनेवाले उत्कृष्ट वन-सम्पत्तियों के द्वारा इस पर्वतराज हिमालय से परिपूर्ण यह पृथ्वी स्वर्ग और पातळ – दोनों लोकों को जीतकर सुशोभित होती है ।
टिप्पणी: अर्थात जो सम्पत्तियाँ देवताओं एवं यक्षों को भी दुर्लभ हैं, वे यहाँ हैं । नव निधियां हैं – पद्म, महापद्म, शङ्ख, मकर, कच्छप, मुकुन्द, कुन्द, नील और खर्व(मिश्र)
काव्यलिङ्ग और यमक की संसृष्टि ।
अखिलं इदं अमुष्य गैरीगुरोस्त्रिभुवनं अपि नैति मन्ये तुलां ।
अधिवसति सदा यदेनं जनैरविदितविभवो भवानीपतिः ।। ५.२१ ।।
अर्थ: मैं मानता हूँ कि यह सम्पूर्ण त्रैलोक्य भी इस पर्वतराज हिमालय की तुलना नहीं कर सकता क्योंकि जिनकी महिमा लोग नहीं जान पाते ऐसे भवानीपति भगवान शङ्कर सर्वदा इस पर्वत पर निवास करते हैं ।
टिप्पणी: अर्थात यह धर्मक्षेत्र है ।
वीतजन्मजरसं परं शुचि ब्रह्मणः पदं उपैतुं इच्छतां ।
आगमादिव तमोपहादितः सम्भवन्ति मतयो भवच्छिदः ।। ५.२२ ।।
अर्थ: जिसकी प्राप्ति से पुनर्जन्म और वृद्धता का भय बीत जाता है ऐसे परमोत्कृष्ट पद अर्थात मुक्ति को पाने के इच्छुक लोगों के लिए शास्त्रों की भान्ति अज्ञानान्धकार को दूर करनेवाले इस हिमालय से संसार के कष्टों को नष्ट करनेवाली बुद्धि अर्थात तत्वज्ञान की उत्पत्ति होती है ।
टिप्पणी: अर्थात वह केवल भोगभूमि नहीं है प्रत्युत मुक्ति प्राप्त करने का भी पुण्य-स्थल है । रथोद्धता छन्द ।
दिव्यस्त्रीणां सचरणलाक्षारागा रागायाते निपतितपुष्पापीडाः ।
पीडाभाजः कुसुमचिताः साशंसं शंसन्त्यस्मिन्सुरतविशेषं शय्याः ।। ५.२३ ।।
अर्थ: इस हिमालय पर्वत में देवांगनाओं के लिए पुष्पों से रचित शैय्याएं उनके चरणों में लगाए हुए महावर के रङ्ग से चिन्हित गिरे हुए मुरझाये पुष्पों से युक्त एवं विमर्दित दशा में अत्यन्त कामोद्रेक की दशा में की गयी सतृष्ण सुरत क्रियाओं की सूचना देती हैं ।
टिप्पणी: धेनुकादि विपरीत बन्धों की सूचना मिलती है । जलधरमाला छन्द ।
गुणसम्पदा समधिगम्य परं महिमानं अत्र महिते जगतां ।
नयशालिनि श्रिय इवाधिपतौ विरमन्ति न ज्वलितुं औषधयः ।। ५.२४ ।।
अर्थ: इस संसारपूज्य हिमालय में औषधियां नीतिमान राजा में राजयलक्ष्मी की भान्ति क्षेत्रीयगुणों की सम्पत्ति से (राजा के पक्ष में संध्या, पूजन, तर्पणादि गुणों से) अत्यन्त शक्ति प्राप्त कर अहर्निश प्रज्वलित रहने से विश्राम नहीं लेती ।
टिप्पणी: अर्थात रात-दिन प्रज्वलित रहा करती है । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार संध्या-पूजनादि गुणों से नीतिमान राजा के प्रताप की अभिवृद्धि होती है उसी प्रकार से हिमालय के क्षेत्रीय गुणों से उस पर उगी औषधियां सदा प्रज्वलित रहती हैं । उपमा अलङ्कार प्रमिताक्षरा छन्द ।
कुररीगणः कृतरवस्तरवः कुसुमानताः सकमलं कमलं ।
इह सिन्धवश्च वरणावरणाः करिणां मुदे सनलदानलदाः ।। ५.२५ ।।
अर्थ: इस हिमालय में कुररी पक्षी बोल रहे हैं, वृक्ष पुष्पभार से नीचे को झुक गए हैं, जलाशय कमलों से सुशोभित हैं, वृक्षों के आवरण एवं उशीरों से युक्त सन्ताप दूर करनेवाली नदियां हाथियों का आनन्द बढ़ाने वाली हैं ।
टिप्पणी: वृक्षों के आवरण का तात्पर्य, तटवर्ती सघन वृक्ष पंक्तियों से आकीर्ण। यमक अलङ्कार
सादृश्यं गतं अपनिद्रचूतगन्धैरामोदं मदजलसेकजं दधानः ।
एतस्मिन्मदयति कोकिलानकाले लीनालिः सुरकरिणां कपोलकाषः ।। ५.२६ ।।
अर्थ: इस हिमालय पर शोभायुक्त लता मण्डप रुपी भवन, प्रकाशमान औषधि रूप के दीपक, नूतन कल्पवृक्ष के पल्लव रुपी शैय्याएं तथा सुरत के श्रम को दूर करने वाली कमल वन की वायु – ये सभी सामग्रियां देवांगनाओं को स्वर्ग का स्मरण नहीं करने देती ।
टिप्पणी: अर्थात देवांगनाएँ यहाँ आकर स्वर्ग को भी भूल जाती हैं। उनके लिए यह स्वर्ग से बढ़कर सुखदायी है । बसन्ततिलका छन्द रूपक अलङ्कार ।
सनाकवनितं नितम्बरुचिरं चिरं सुनिनदैर्नदैर्वृतं अमुं ।
मता फलवतोऽवतो रसपरा परास्तवसुधा सुधाधिवसति ।। ५.२७ ।।
अर्थ: भगवान शङ्कर को प्राप्त करने के लिए चिरकाल तक जल में तप साधना में लगी हुई, क्षुद्र जल-जन्तुओं के कूदने से चकित नेत्रों वाली पार्वती जी के पाणि को शङ्कर जी ने चूते हुए पसीने की बूंदों से युक्त अँगुलियों वाले अपने हाथ से इसी पर्वत पर ग्रहण किया था ।
टिप्पणी: अर्थात इसी हिमालय पर पार्वती जी का पाणिग्रहण हुआ था । बसन्ततिलका छन्द ।
श्रीमल्लताभवनं ओषधयः प्रदीपाः शय्या नवानि हरिचन्दनपल्लवानि ।
अस्मिन्रतिश्रमनुदश्च सरोजवाताः स्मर्तुं दिशन्ति न दिवः सुरसुन्दरीभ्यः ।। ५.२८ ।।
अर्थ: इस हिमालय पर्वत पर शोभायुक्त लता मण्डप रुपी भवन, प्रकाशमान औषधिरूप के दीपक, नूतन, कल्पवृक्ष के पल्लव रुपी शैय्याएं तथा सुरत के श्रम को दूर करनेवाला कमलवन का वायु – ये सभी सामग्रियां देवांगनाओं स्वर्ग का स्मरण नहीं करने देती ।
टिप्पणी: अर्थात देवांगनाएँ यहाँ आकर स्वर्ग को भूल जाती हैं । उनके लिए यह स्वर्ग से बढ़कर सुखदायी है । वसन्ततिलका छन्द । रूपक अलङ्कार ।
ईशार्थं अम्भसि चिराय तपश्चरन्त्या यादोविलङ्घनविलोलविलोचनायाः ।
आलम्बताग्रकरं अत्र भवो भवान्याः श्च्योतन्निदाघसलिलाङ्गुलिना करेण ।। ५.२९ ।।
अर्थ: भगवान शङ्कर को प्राप्त करने के लिए चिरकाल तक जल में तप साधना में लगी हुई, क्षुद्र जल-जन्तुओं के में कूदने से चकित नेत्रों वाली पार्वती जी के पाणि को शङ्कर जी ने चूते हुए पसीनों की बूंदों से युक्त अँगुलियों वाले अपने हाथ से इसी पर्वत पे ग्रहण किया था ।
टिप्पणी: अर्थात इसी हिमालय पर पार्वती जी का पाणिग्रहण हुआ था । वसन्ततिलका छन्द ।
येनापविद्धसलिलः स्फुटनागसद्मा देवासुरैरमृतं अम्बुनिधिर्ममन्थे ।
व्यावर्तनैरहिपतेरयं आहिताङ्कः खं व्यालिखन्निव विभाति स मन्दराद्रिः ।। ५.३० ।।
अर्थ: जिस (मन्दराचल) के द्वारा देवताओं और असुरों ने अमृत की प्राप्ति के लिए समुद्र मन्थन किया था और जिससे समुद्र का जल अत्यन्त क्षुब्द हो गया था और पाताल लोक स्पष्टतया दृष्टिगोचर हो रहा था । मथानी की रस्सी भांति सर्पराज वासुकि के लपेटने से चिन्हित यह वही मन्दराचल है जो आकाश-मण्डल का मानो भेदन से करता हुआ सुशोभित हो रहा है ।
टिप्पणी: उत्प्रेक्षा अलङ्कार
नीतोच्छ्रायं मुहुरशिशिररश्मेरुस्रैरानीलाभैर्विरचितपरभागा रत्नैः ।
ज्योत्स्नाशङ्कां इव वितरति हंसश्येनी मध्येऽप्यह्नः स्फटिकरजतभित्तिच्छाया ।। ५.३१ ।।
अर्थ: इस हिमालय पर सूर्य की कारणों द्वारा विस्तारित तथा इन्द्रनील मणि की समीपता के कारण अत्यधिक उत्कर्ष अर्थात स्वछता को प्राप्त हंस के समान श्वेतवर्ण की स्फटिक एवं चांदी की भित्तियां मध्याह्न काल में भी बारम्बार चान्दनी की शङ्का उत्पन्न करती हैं ।
टिप्पणी: भ्रांतिमान अलङ्कार ।
दधत इव विलासशालि नृत्यं मृदु पतता पवनेन कम्पितानि ।
इह ललितविलासिनीजनभ्रू- गतिकुटिलेषु पयःसु पङ्कजानि ।। ५.३२ ।।
अर्थ: इस हिमालय पर मन्द-मन्द बहनेवाली वायु द्वारा कम्पित कमालवृन्द विलासिनी रमणियों की कुटिल भौहों के समान तरंगयुक्त जलराशि में मानो मनोहर नृत्य सा करते दिखाई पड़ते हैं ।
टिप्पणी: उत्प्रेक्षा अलङ्कार । पुष्पिताग्रा छन्द ।
अस्मिन्नगृह्यत पिनाकभृता सलीलं आबद्धवेपथुरधीरविलोचनायाः ।
विन्यस्तमङ्गलमहौषधिरीश्वरायाः स्रस्तोरगप्रतिसरेण करेण पाणिः ।। ५.३३ ।।
अर्थ: इसी हिमालय पर्वत पर पिनाकपाणि भगवान् शङ्कर (सर्पदर्शन से भयभीत होने के कारण) चकितलोचना पार्वती जी के यवाकुर आदि माङ्गलिक उपकरणों से अलङ्कृत कम्पित हाथ को लीलापूर्वक ग्रहण किया था और उस ामय उनके हाथ से सर्वरूप कौतुक-सूत्र नीचे की ओर खिसक पड़ा था ।
टिप्पणी: पार्वती जी के पाणिग्रहण के समय सर्प शङ्कर जी की कलाई में कौतुक-सूत्र की भांति विराजमान था । जिस समय शङ्कर जी पार्वती जी का पाणिग्रहण करने लगे उस समय उनके हाथ का वह सर्प नीचे की ओर सरकने लगा । उस सर्प को देखकर पार्वती जी भयत्रस्त हो गयी और उनका हाथ कांपने लगा । वसन्ततिलका छन्द । भाविक अलङ्कार ।
क्रामद्भिर्घनपदवीं अनेकसंख्यैस्तेजोभिः शुचिमणिजन्मभिर्विभिन्नः ।
उस्राणां व्यभिचरतीव सप्तसप्तेः पर्यस्यन्निह निचयः सहस्रसंख्यां ।। ५.३४ ।।
अर्थ: इस हिमालय पर्वत पर आकाशमण्डल में व्याप्त बहुसंख्यक स्फटिक मणियों से उत्पन्न किरण-जालों से मिश्रित होने के कारण फैलता हुआ सूर्य की किरणों का समूह मानो अपनी नियत सहस्त्र की संख्या का अतिक्रमण सा करता है ।
टिप्पणी: हिमालय पर्वत पर स्फटिक की सहस्त्रों किरणे नीचे की ओर से आकाश में चमकती रहती हैं ऊपर से सूर्य की किरणे चमकती हैं । दोनों का अब मेल हो जाता है तो ऐसा मालूम होता है मानों सूर्य की किरणों की संख्या अपनी नियत सहस्त्र संख्या से ऊपर बढ़ गयी है । उत्प्रेक्षा अलङ्कार ।
व्यधत्त यस्मिन्पुरं उच्चगोपुरं पुरां विजेतुर्धृतये धनाधिपः ।
स एष कैलास उपान्तसर्पिणः करोत्यकालास्तमयं विवस्वतः ।। ५.३५ ।।
अर्थ: जिस कैलास पर्वत पर कुबेर ने त्रिपुरविजयी भगवान् शङ्कर के संतोष के लिए उन्नत गोपुरों(फाटकों) से समलङ्कृत अलकापुरी का निर्माण किया था यह वही कैलास है जो अपनी सीमा के संचरण करनेवाले सूर्य नारायण को समय के पहले ही मानो अस्त सा बना देता है ।
टिप्पणी: अतिशयोक्ति से उत्थापित गम्योत्प्रेक्षा अलङ्कार । वंशस्थ वृत्त ।
नानारत्नज्योतिषां संनिपातैश्छन्नेष्वन्तःसानु वप्रान्तरेषु ।
बद्धां बद्धां भित्तिशङ्कां अमुष्मिन्नावानावान्मातरिश्वा निहन्ति ।। ५.३६ ।।
अर्थ: इस कैलास पर्वत के शिखरों पर विविध प्रकार के रत्नों के प्रभापुञ्जों से आच्छादित होने उनके वप्रान्तर अर्थात कगारों के बीच के स्थल भाग सुदृढ़ दीवाल की शङ्का उत्पन्न करते हैं ।
टिप्पणी: रत्नों के प्रभापुञ्जों से व्याप्त होने के कारण शिखरों के गहरे खड्ड भी सुदृढ़ दीवाल की शङ्का उत्पन्न करते हैं किन्तु जब हवा का झोंका बारम्बार चलता है और उनका अवरोध नहीं होता तो शङ्का दूर हो जाती है क्योंकि यदि दीवाल रहती तो हवा रुक जाती । निश्चयांत सन्देह अलङ्कार । शालिनी छन्द ।
रम्या नवद्युतिरपैति न शाद्वलेभ्यः श्यामीभवन्त्यनुदिनं नलिनीवनानि ।
अस्मिन्विचित्रकुसुमस्तबकाचितानां शाखाभृतां परिणमन्ति न पल्लवानि ।। ५.३७ ।।
अर्थ: इस कैलास पर्वत पर नूतन घासों से व्याप्त प्रदेशों की मनोहर नूतन शोभा कभी दूर नहीं होती, नील कमलों के वन प्रतिदिन नूतन श्यामलता धारण करते हैं और रंग बिरंगे गुच्छों से सुशोभित वृक्षों के पल्लव कभी पुराने नहीं होते ।
टिप्पणी: अर्थात यहाँ सभी वस्तुएं सदा नूतन बनी रहती हैं, किसी में पुरानापन नहीं आता । परययोक्ति अलङ्कार । वसन्ततिलका छन्द।
परिसरविषयेषु लीढमुक्ता हरिततृणोद्गमशङ्कया मृगीभिः ।
इह नवशुकक्ॐअला मणीनां रविकरसंवलिताः फलन्ति भासः ।। ५.३८ ।।
अर्थ: इस कैलास पर्वत के इर्द-गिर्द के प्रदेशों में हरिणियों द्वारा नीले तृणों के अङ्कुर की आशंका से पहले चाट कर पीछे छोड़ दी गयी, नूतन शुक के पंखों के समान हरे रङ्ग की मरकतमणियों की कान्तियाँ सूर्य-किरणों से मिश्रित होकर अधिकाधिक प्रकाशयुक्त हो जाती हैं ।
टिप्पणी: भ्रांतिमान अलङ्कार ।
उत्फुल्लस्थलनलिनीवनादमुष्मादुद्धूतः सरसिजसम्भवः परागः ।
वात्याभिर्वियति विवर्तितः समन्तादाधत्ते कनकमयातपत्रलक्ष्मीं ।। ५.३९ ।।
अर्थ: इस पर्वत के बवंडरों द्वारा उड़ाए जाने पर इस दिखाई पड़ने वाले विकसित स्थलकमलिनीवन से उड़ता हुआ चारों ओर आकाश में मण्डलाकार रूप में फैला हुआ कमलपराग सुवर्णमय छत्र की शोभा धारण कर रहा है।
टिप्पणी: निदर्शना अलङ्कार ।
इह सनियमयोः सुरापगायां उषसि सयावकसव्यपादरेखा ।
कथयति शिवयोः शरीरयोगं विषमपदा पदवी विवर्तनेषु ।। ५.४० ।।
अर्थ: इस पर्वत में उषाकाल के समान सुरनदी गङ्गा के तट पर लाक्षा अथवा महावर के रङ्ग से रङ्गे हुए बांये चरण की रेखा से चिन्हित तथा छोटी बड़ी विषम पद-पंक्तियों से युक्त परिक्रमा मार्ग संध्यावन्दनादि नियमों में लगे हुए उमाशङ्कर के अर्धनारीश्वर रूप का परिचय देता है ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि इस कैलास पर्वत पर अत्यन्त प्रातः काल में भगवान अर्धनारीश्वर उमाशङ्कर गङ्गा तट पर संध्यावदनादि करते हैं, जिससे उनके बाएं पैर तथा दाहिने पैर की छोटी बड़ी पद-पंक्तियाँ यहाँ सुशोभित होती हैं । अर्धनारीश्वर रूप में पार्वती का पैर बांया होता है, जिसमें महावर लगे रहते हैं और वह दाहिने पैर की अपेक्षा छोटा भी होता है । अर्थात यह शिव-पार्वती का विहारस्थल है । संध्यावदनादि के क्षणों में भी वे परस्पर विरह नहीं सहन कर सकते । काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।
संमूर्छतां रजतभित्तिमयूखजालैरालोकपादपलतान्तरनिर्गतानां ।
घर्मद्युतेरिह मुहुः पटलानि धाम्नां आदर्शमण्डलनिभानि समुल्लसन्ति ।। ५.४१ ।।
अर्थ: इस पर्वत पर चाँदी की भित्तियों की किरण समूहों से बहुल प्राप्त एवं चञ्चल वृक्षों एवं लताओं के मध्यभागों से निकली हुई सूर्य की किरणों के दर्पण-बिम्ब के समान मण्डल बारम्बार प्रस्फुटित होते हैं।
टिप्पणी: उपमा अलङ्का।
शुक्लैर्मयूखनिचयैः परिवीतमूर्तिर्वप्राभिघातपरिमण्डलितोरुदेहः ।
शृङ्गाण्यमुष्य भजते गणभर्तुरुक्षा कुर्वन्वधूजनमनःसु शशाङ्कशङ्कां ।। ५.४२ ।।
अर्थ: श्वेत किरण-समूहों से व्याप्त शरीर, सींगों से मिटटी कुरेदने की क्रीड़ा में मस्त होने के कारण अपने विशाल शरीर को समेटे हुए, प्रमथाधिपति शङ्कर का वाहनभूत नन्दिकेश्वर युवतियों के मन में चन्द्रमा की भ्रान्ति उत्पन्न करते हुए उस पर्वत के शिखरों का आश्रय लेता है।
टिप्पणी: सन्देह, भ्रांतिमान तथा काव्यलिङ्ग अलङ्कार।
सम्प्रति लब्धजन्म शनकैः कथं अपि लघुनि क्षीणपयस्युपेयुषि भिदां जलधरपटले ।
खण्डितविग्रहं बलभिदो धनुरिह विविधाः पूरयितुं भवन्ति विभवः शिखरमणिरुचः ।। ५.४३ ।।
अर्थ: इस पर्वत में शिखरों की मणिकांतियाँ इस शरद ऋतु में क्षीण जलवाले एवं छोटे छोटे टुकड़ों में विभक्त मेघमण्डलों में किसी प्रकार से उत्पन्न होने के कारण छिन्न अथवा अस्पष्ट स्वरुप वाले इन्द्रधनुष की पूर्ति करने में समर्थ होती है।
टिप्पणी: अर्थात छोटे छोटे श्वेत बादलों में मणियों की प्रभायें चमक कर इन्द्रधनुष की पूर्ति कर देती हैं। अतिशयोक्ति अलङ्कार।
स्नपितनवलतातरुप्रवालैरमृतलवस्रुतिशालिभिर्मयूखैः ।
सततं असितयामिनीषु शम्भो अमलयतीह वनान्तं इन्दुलेखा ।। ५.४४ ।।
अर्थ: इस पर्वत में भगवान् शङ्कर के भाल में स्थित चन्द्रमा की की कान्ति नूतन लताओं और वृक्षों के पल्लवों को सींचनेवाली एवं अमृत-बिन्दु बरसाने वाली अपनी किरणों से सर्वदा कृष्णपक्ष की रात्रियों में भी वन प्रदेशों को धवल बनती रहती है।
टिप्पणी: अन्य पर्वतों में यह नहीं है, यह तो इसकी ही विशेषता है। व्यतिरेक अलङ्कार की व्यंजना।
क्षिपति योऽनुवनं विततां बृहद्बृहतिकां इव रौचनिकीं रुचं ।
अयं अनेकहिरण्मयकंदरस्तव पितुर्दयितो जगतीधरः ।। ५.४५ ।।
अर्थ: जो पर्वत विस्तृत चादर की भांति प्रत्येक वन में अपनी सुवर्ण कान्ति प्रसारित कर रहे हैं, अनेक सुवर्णमयी कन्दराओं से युक्त वही यह सामने दिखाई पड़ने वाला तुम्हारे पिता इन्द्र का सबसे प्रिय पर्वत है।
टिप्पणी: अर्थात तुम्हारी तपस्या की पुण्य-स्थल इन्द्रनील पर्वत अब वही यह सामने दिखाई पड़ रहा है जिसकी सुवर्णमयी छाया चारों ओर के वन्य प्रदेशों पर सुनहली चादर की भांति पड़ रही है। उपमा अलङ्कार।
सक्तिं लवादपनयत्यनिले लतानां वैरोचनैर्द्विगुणिताः सहसा मयूखैः ।
रोधोभुवां मुहुरमुत्र हिरण्मयीनां भासस्तडिद्विलसितानि विडम्बयन्ति ।। ५.४६ ।।
अर्थ: इस इन्द्रनील पर्वत पर वायु द्वारा वेगपूर्वक लताओं के परस्पर संयोग को छुड़ा देने पर उसी क्षण सूर्य की किरणों से द्विगुणित कान्ति प्राप्त करने वाली सुवर्णमयी तटवर्ती भूमि की प्रभायें बारम्बार बिजली चमकने की शोभा का अनुकरण करने लगती हैं।
टिप्पणी: उपमा अलङ्कार।
कषणकम्पनिरस्तमहाहिभिः क्षणविमत्तमतङ्गजवर्जितैः ।
इह मदस्नपितैरनुमीयते सुरगजस्य गतं हरिचन्दनैः ।। ५.४७ ।।
अर्थ: इस पर्वत पर ऐरावत के मद से सिञ्चित उन हरिचन्दनों के द्वारा ऐरावत का आना-जाना मालूम हो जाता है, जो ऐरावत के गण्डस्थल के खुजलाने के कारण होनेवाले कम्पन से बड़े-बड़े भीषण सर्पों से रहित हो जाते हैं, तथा क्षणभर के लिए बड़े-बड़े मतवाले गजराज भी जिन्हें छोड़कर भाग जाते हैं।
टिप्पणी: अर्थात इसी पर्वत पर हरिचन्दनों के वे वृक्ष हैं, जिनपर बड़े-बड़े सर्प लिपटे रहते हैं तथा जिनके बीच देवराज इन्द्र का वाहन क्रीड़ा करता है। किन्तु जब कभी ऐरावत अपने गण्डस्थल को खुजलाने के लिए किसी हरिचन्दन वृक्ष पर धक्का लगता है तो वे भीषण सर्प भाग जाते हैं तथा ऐरावत के मद की विचित्र सुगन्ध से अन्यान्य मतवाले गजराज भी भाग जाते हैं। काव्यलिङ्ग अलङ्कार।
जलदजालघनैरसिताश्मनां उपहतप्रचयेह मरीचिभिः ।
भवति दीप्तिरदीपितकंदरा तिमिरसंवलितेव विवस्वतः ।। ५.४८ ।।
अर्थ: इस पर्वत पर काले मेघसमूहों की भांति सघन इन्द्रनील मणियों की किरणों से सामना होनेपर सूर्य की किरणों का तेज-पुञ्ज मलिन हो जाता है और कन्दराएँ प्रकाश से विहीन हो जाती हैं, उस समय ऐसा मालूम पड़ता है मानो सूर्य की कान्ति अन्धकार से मिश्रित हो गयी है।
टिप्पणी: उत्प्रेक्षा अलङ्कार
भव्यो भवन्नपि मुनेरिह शासनेन क्षात्रे स्थितः पथि तपस्य हतप्रमादः ।
प्रायेण सत्यपि हितार्थकरे विधौ हि श्रेयांसि लब्धुं असुखानि विनान्तरायैः ।। ५.४९ ।।
अर्थ: इस इन्द्रकील पर्वत पर शांतस्वभाव होते पर भी असावधानी से रहित और क्षत्रिय धर्म में स्थित अर्थात शास्त्र ग्रहण कर महर्षि वेद-व्यास के बताये हुए नियमों के अनुसार आप तपस्या करें। क्योंकि प्रायः हितकारी उपायों के होते हुए भी बिना विघ्न-बाधा के कल्याण की प्राप्ति असंभव होती है।
टिप्पणी: अर्थात अकाट्य वैर रखने वाले सर्वत्र होते हैं। अर्थान्तरन्यास अलङ्कार।
मा भूवन्नपथहृतस्तवेन्द्रियाश्वाः संतापे दिशतु शिवः शिवां प्रसक्तिं ।
रक्षन्तस्तपसि बलं च लोकपालाः कल्याणीं अधिकफलां क्रियां क्रियायुः ।। ५.५० ।।
अर्थ: तुम्हारे इन्द्रिय-रुपी अश्वगण तुम्हें कुमार्ग में न ले जाएँ, तपस्या में कोई क्लेश उपस्थित होने पर भगवान् शङ्कर आप को पर्याप्त उत्साह शक्ति प्रदान करें। लोकपालगण तप साधना में तुम्हारे बल की रक्षा करते हुए इस कल्याणदायी अनुष्ठान को अधिकाधिक फल देनेवाला बनाएं।
टिप्पणी: प्रथम चरण में रूपक अलङ्कार।
इत्युक्त्वा सपदि हितं प्रियं प्रियार्हे धाम स्वं गतवति राजराजभृत्ये ।
सोत्कण्ठं किं अपि पृथासुतः प्रदध्यौ संधत्ते भृशं अरतिं हि सद्वियोगः ।। ५.५१ ।।
अर्थ: प्रेमपात्र कुबेर सेवक यक्ष के इस प्रकार कल्याणयुक्त एवं प्रिय वचन कहकर शीघ्र ही अपने निवास-स्थान को चले जाने के अनन्तर कुन्ती-पुत्र अर्जुन कुछ उत्कण्ठित से होकर सोचने लगे। क्यों न हो, सज्जनों का वियोग अत्यन्त दुखदायी होता ही है।
टिप्पणी: अर्थान्तरन्यास अलङ्कार।
तं अनतिशयनीयं सर्वतः सारयोगादविरहितं अनेकेनाङ्कभाजा फलेन ।
अकृशं अकृशलक्ष्मीश्चेतसाशंसितं स स्वं इव पुरुषकारं शैलं अभ्याससाद ।। ५.५२ ।।
अर्थ: परिपूर्ण शोभा से समलङ्कृत उस अर्जुन ने सर्व प्रकार से बल प्रयोग करने पर भी अनतिक्रमणीय अर्थात दुर्जेय एवं शीघ्र पूर्ण होने वाले अनेक प्रकार के सत्फलों से युक्त, तथा चिरकाल से पाने के लिए मन में अभिलषित एवं विशाल उस इन्द्रकील पर्वत पर अपने पुरुषार्थ की भांति आश्रय प्राप्त किया।
टिप्पणी: जो जो विशेषण पर्वत के लिए हैं, वही सब अर्जुन के पुरुषार्थ के लिए भी हैं। उपमा अलङ्कार। मालिनी छन्द।
इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये पञ्चमः सर्गः ।
किरातार्जुनीयम् पञ्चमः सर्गः (सर्ग ५) समाप्त ।।