कृष्णाष्टकम् कृष्ण कृपा कटक्ष स्तोत्रम || Krishnashtakam Krishna Kripa Kataksha Stotram

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श्रीकृष्णाष्टकम्- कृष्ण वसुदेव और देवकी की 8वीं संतान थे। मथुरा के कारागार में ही भादो मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को उनका जन्म हुआ। बाल्यावस्था में ही उन्होंने बड़े-बड़े कार्य किए जो किसी सामान्य मनुष्य के लिए सम्भव नहीं थे। अपने जन्म के कुछ समय बाद ही कंस द्वारा भेजी गई राक्षसी पूतना का वध किया , उसके बाद शकटासुर, तृणावर्त आदि राक्षस का वध किया। उन्होंने कई लीलाएं की जिसमे गोचारण लीला, गोवर्धन लीला, रास लीला, कंस वध आदि मुख्य है। धरती पर 124 वर्षों के जीवनकाल के बाद उन्होंने अपनी लीला समाप्त की। हिंदू ग्रंथों में धार्मिक और दार्शनिक विचारों की एक विस्तृत श्रृंखला ,जो कृष्ण के माध्यम से प्रस्तुत की जाती है। रामानुज,जो एक हिंदू धर्मविज्ञानी थे एवं जिनके काम भक्ति आंदोलन में अत्यधिक प्रभावशाली थे , ने विशिष्टाद्वैत के संदर्भ में उन्हें प्रस्तुत किया। माधवचार्य, एक हिंदू दार्शनिक जिन्होंने वैष्णववाद के हरिदास संप्रदाय की स्थापना की, कृष्ण के उपदेशो को द्वैतवाद (द्वैत) के रूप में प्रस्तुत किया । गौदिया वैष्णव विद्यालय के एक संत जीव गोस्वामी, कृष्ण धर्मशास्त्र को भक्ति योग और अचिंत भेद-अभेद के रूप में वर्णित करते थे। धर्मशास्त्री वल्भआचार्य द्वारा कृष्ण के दिए गए ज्ञान को अद्वैत (जिसे शुद्धाद्वैत भी कहा जाता है) के रूप में प्रस्तुत, जो वैष्णववाद के पुष्टि पंथ के संस्थापक थे। भारत के एक अन्य दार्शनिक मधुसूदन सरस्वती, कृष्ण धर्मशास्त्र को अद्वैत वेदांत में प्रस्तुत करते थे, जबकि आदि शंकराचार्य, जो हिंदू धर्म में विचारों के एकीकरण और मुख्य धाराओं की स्थापना के लिए जाने जाते है, शुरुआती आठवीं शताब्दी में पंचायत पूजा पर कृष्ण का उल्लेख किया है । भगवान श्री कृष्ण की प्रसन्नता व उनसे मनोवांक्षित फल प्राप्ति के लिए अनेकों स्तोत्र,स्तुति अदि का वर्णन मिलता है। इन्ही में से एक शंकराचार्यकृत “भजे व्रजैकमण्डनं समस्तपापखण्डनं” श्रीकृष्णाष्टकम् कृष्ण कृपा कटाक्ष स्तोत्र है।

 

अथ कृष्णाष्टकम् कृष्णकृपाकटाक्षस्तोत्रं

भजे व्रजैकमण्डनं समस्तपापखण्डनं,

स्वभक्तचित्तरंजनं सदैव नन्दनन्दनम् ।

सुपिच्छगुच्छमस्तकं सुनादवेणुहस्तकं,

अनंगरंगसागरं नमामि कृष्णनागरम् ॥१॥

मनोजगर्वमोचनं विशाललोललोचनं,

विधूतगोपशोचनं नमामि पद्मलोचनम् ।

करारविन्दभूधरं स्मितावलोकसुन्दरं,

महेन्द्रमानदारणं नमामि कृष्ण वारणम् ॥२॥

कदम्बसूनकुण्डलं सुचारुगण्डमण्डलं,

व्रजांगनैकवल्लभं नमामि कृष्णदुर्लभम् ।

यशोदया समोदया सगोपया सनन्दया,

युतं सुखैकदायकं नमामि गोपनायकम् ॥३॥

सदैव पादपंकजं मदीय मानसे निजं,

दधानमुक्तमालकं नमामि नन्दबालकम् ।

समस्तदोषशोषणं समस्तलोकपोषणं,

समस्तगोपमानसं नमामि नन्दलालसम् ॥४॥

भुवो भरावतारकं भवाब्धिकर्णधारकं,

यशोमतीकिशोरकं नमामि चित्तचोरकम् ।

दृगन्तकान्तभंगिनं सदा सदालिसंगिनं,

दिने-दिने नवं-नवं नमामि नन्दसम्भवम् ॥५॥

गुणाकरं सुखाकरं कृपाकरं कृपापरं,

सुरद्विषन्निकन्दनं नमामि गोपनन्दनं ।

नवीन गोपनागरं नवीनकेलि-लम्पटं,

तडित्प्रभालसत्पटम् नमामि मेघसुन्दरम् ॥६॥

समस्त गोप नन्दनं, हृदम्बुजैक मोदनं,

नमामिकुंजमध्यगं प्रसन्न भानुशोभनम् ।

निकामकामदायकं दृगन्तचारुसायकं,

रसालवेणुगायकं नमामिकुंजनायकम् ॥७।॥

विदग्ध गोपिकामनो मनोज्ञतल्पशायिनं,

नमामि कुंजकानने प्रवृद्धवह्निपायिनम् ।

किशोरकान्ति रंजितं दृगंजनं सुशोभितं,

गजेन्द्रमोक्षकारिणं नमामि श्रीविहारिणम् ॥८॥

यदा तदा यथा तथा तथैव कृष्णसत्कथा,

मया सदैव गीयतां तथा कृपा विधीयताम् ।

प्रमाणिकाष्टकद्वयं जपत्यधीत्य यः पुमान्,

भवेत्स नन्दनन्दने भवे भवे सुभक्तिमान ॥९॥

इति श्रीमच्छंकराचार्यकृतं श्रीकृष्णाष्टकं कृष्णकृपाकटाक्षस्तोत्रं च सम्पूर्णम् ॥

श्री शंकराचार्यकृत कृष्णाष्टकम् हिंदी अर्थ सहित

भजे व्रजैकमण्डनं समस्तपापखण्डनं,

स्वभक्तचित्तरंजनं सदैव नन्दनन्दनम् ।

सुपिच्छगुच्छमस्तकं सुनादवेणुहस्तकं,

अनंगरंगसागरं नमामि कृष्णनागरम् ॥१॥

व्रजभूमि के एकमात्र आभूषण, समस्त पापों को नष्ट करने वाले तथा अपने भक्तों के चित्त को आनन्द देने वाले नन्दनन्दन को सदैव भजता हूँ, जिनके मस्तक पर मोरमुकुट है, हाथों में सुरीली बांसुरी है तथा जो प्रेम-तरंगों के सागर हैं, उन नटनागर श्रीकृष्णचन्द्र को नमस्कार करता हूँ ।

मनोजगर्वमोचनं विशाललोललोचनं,

विधूतगोपशोचनं नमामि पद्मलोचनम् ।

करारविन्दभूधरं स्मितावलोकसुन्दरं,

महेन्द्रमानदारणं नमामि कृष्ण वारणम् ॥२॥

कामदेव का मान मर्दन करने वाले, बड़े-बड़े सुन्दर चंचल नेत्रों वाले तथा व्रजगोपों का शोक हरने वाले कमलनयन भगवान को मेरा नमस्कार है, जिन्होंने अपने करकमलों पर गिरिराज को धारण किया था तथा जिनकी मुसकान और चितवन अति मनोहर है, देवराज इन्द्र का मान-मर्दन करने वाले, गजराज के सदृश मत्त श्रीकृष्ण भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ।

कदम्बसूनकुण्डलं सुचारुगण्डमण्डलं,

व्रजांगनैकवल्लभं नमामि कृष्णदुर्लभम् ।

यशोदया समोदया सगोपया सनन्दया,

युतं सुखैकदायकं नमामि गोपनायकम् ॥३॥

जिनके कानों में कदम्बपुष्पों के कुंडल हैं, जिनके अत्यन्त सुन्दर कपोल हैं तथा व्रजबालाओं के जो एकमात्र प्राणाधार हैं, उन दुर्लभ भगवान कृष्ण को नमस्कार करता हूँ; जो गोपगण और नन्दजी के सहित अति प्रसन्न यशोदाजी से युक्त हैं और एकमात्र आनन्ददायक हैं, उन गोपनायक गोपाल को नमस्कार करता हूँ ।

सदैव पादपंकजं मदीय मानसे निजं,

दधानमुक्तमालकं नमामि नन्दबालकम् ।

समस्तदोषशोषणं समस्तलोकपोषणं,

समस्तगोपमानसं नमामि नन्दलालसम् ॥४॥

जिन्होंने मेरे मनरूपी सरोवर में अपने चरणकमलों को स्थापित कर रखा है, उन अति सुन्दर अलकों वाले नन्दकुमार को नमस्कार करता हूँ तथा समस्त दोषों को दूर करने वाले, समस्त लोकों का पालन करने वाले और समस्त व्रजगोपों के हृदय तथा नन्दजी की वात्सल्य लालसा के आधार श्रीकृष्णचन्द्र को नमस्कार करता हूँ ।

भुवो भरावतारकं भवाब्धिकर्णधारकं,

यशोमतीकिशोरकं नमामि चित्तचोरकम् ।

दृगन्तकान्तभंगिनं सदा सदालिसंगिनं,

दिने-दिने नवं-नवं नमामि नन्दसम्भवम् ॥५॥

भूमि का भार उतारने वाले, भवसागर से तारने वाले कर्णधार श्रीयशोदाकिशोर चित्तचोर को मेरा नमस्कार है। कमनीय कटाक्ष चलाने की कला में प्रवीण सर्वदा दिव्य सखियों से सेवित, नित्य नए-नए प्रतीत होने वाले नन्दलाल को मेरा नमस्कार है ।

गुणाकरं सुखाकरं कृपाकरं कृपापरं,

सुरद्विषन्निकन्दनं नमामि गोपनन्दनं ।

नवीन गोपनागरं नवीनकेलि-लम्पटं,

तडित्प्रभालसत्पटम् नमामि मेघसुन्दरम् ॥६॥

गुणों की खान और आनन्द के निधान कृपा करने वाले तथा कृपा पर कृपा करने के लिए तत्पर देवताओं के शत्रु दैत्यों का नाश करने वाले गोपनन्दन को मेरा नमस्कार है। नवीन-गोप सखा नटवर नवीन खेल खेलने के लिए लालायित, घनश्याम अंग वाले, बिजली सदृश सुन्दर पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण भगवान को मेरा नमस्कार है।

समस्त गोप नन्दनं, हृदम्बुजैक मोदनं,

नमामिकुंजमध्यगं प्रसन्न भानुशोभनम् ।

निकामकामदायकं दृगन्तचारुसायकं,

रसालवेणुगायकं नमामिकुंजनायकम् ॥७॥

समस्त गोपों को आनन्दित करने वाले, हृदयकमल को प्रफुल्लित करने वाले, निकुंज के बीच में विराजमान, प्रसन्नमन सूर्य के समान प्रकाशमान श्रीकृष्ण भगवान को मेरा नमस्कार है। सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाले, वाणों के समान चोट करने वाली चितवन वाले, मधुर मुरली में गीत गाने वाले, निकुंजनायक को मेरा नमस्कार है।

विदग्ध गोपिकामनो मनोज्ञतल्पशायिनं,

नमामि कुंजकानने प्रवृद्धवह्निपायिनम् ।

किशोरकान्ति रंजितं दृगंजनं सुशोभितं,

गजेन्द्रमोक्षकारिणं नमामि श्रीविहारिणम् ॥८॥

चतुर गोपिकाओं की मनोज्ञ तल्प (मनरूपी शय्या) पर शयन करने वाले, कुंजवन में बढ़ी हुई विरह अग्नि को पान करने वाले, किशोरावस्था की कान्ति से सुशोभित अंग वाले, अंजन लगे सुन्दर नेत्रों वाले, गजेन्द्र को ग्राह से मुक्त करने वाले, श्रीजी के साथ विहार करने वाले श्रीकृष्णचन्द्र को नमस्कार करता हूँ।

स्तोत्र पाठ का फल

यदा तदा यथा तथा तथैव कृष्णसत्कथा,

मया सदैव गीयतां तथा कृपा विधीयताम् ।

प्रमाणिकाष्टकद्वयं जपत्यधीत्य यः पुमान्,

भवेत्स नन्दनन्दने भवे भवे सुभक्तिमान ॥९॥

प्रभो! मेरे ऊपर ऐसी कृपा हो कि जहां-कहीं जैसी भी परिस्थिति में रहूँ, सदा आपकी सत्कथाओं का गान करूँ। जो पुरुष इन दोनों–श्रीराधा कृपाकटाक्ष व श्रीकृष्ण कृपाकटाक्ष अष्टकों का पाठ या जप करेगा, वह जन्म-जन्म में नन्दनन्दन श्यामसुन्दर की भक्ति से युक्त होगा और उसको साक्षात् श्रीकृष्ण मिलते हैं ।

श्री शंकराचार्यकृत कृष्णाष्टकम् हिन्दी भावार्थ सहित समाप्त॥

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