लक्ष्मी कवच || Laxmi Kavach

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महालक्ष्मी का कवच, जो तीनों लोकों में दुर्लभ है, इस कवच के पढ़ने एवं धारण करने से समस्त सिद्धों के स्वामी, महान् परमैश्वर्य से सम्पन्न, सम्पूर्ण सम्पदाओं से युक्त और इसके प्रभाव से त्रिलोकविजयी हो जाता है ।

महालक्ष्मी का कवच, मन्त्र, ध्यान

महालक्ष्मी मन्त्र

‘ॐ श्रीं कमलवासिन्यै स्वाहा’

यह महालक्ष्मी का परम अद्भुत मन्त्र है।

महालक्ष्मी ध्यान

सहस्रदलपद्मस्थां पद्मनाभप्रियां सतीम् ।

पद्मालयां पद्मवक्त्रां पद्मपत्राभलोचनाम् ।।

पद्मपुष्पप्रियां पद्मपुष्पतल्पाधिशायिनीम् ।

पद्मिनीपद्महस्तां च पद्ममालाविभूषिताम् ।।

पद्मभूषणभूषाढ्यां पद्मशोभाविवर्द्धनीम् ।

पद्माटवीं प्रपश्यन्तीं सस्मितां तां भजे मुदा ।।

सहस्रदलकमल जिनका आसन है, जो भगवान् पद्मनाभ की सती-साध्वी प्रियतमा हैं, कमल जिनका घर है, जिनका मुख कमल के सदृश और नेत्र कमलपत्र की-सी आभावाले हैं, कमल का फूल जिन्हें अधिक प्रिय है, जो कमल-पुष्प की शय्या पर शयन करती हैं, जिनके हाथ में कमल शोभा पाता है, जो कमल-पुष्पों की माला से विभूषित हैं, कमलों के आभूषण जिनकी शोभा बढ़ाते हैं, जो स्वयं कमलों की शोभा की वृद्धि करने वाली हैं और मुस्कराती हुई जो कमल-वन की ओर निहार रही हैं; उन पद्मिनी देवी का मैं आनन्दपूर्वक भजन करता हूँ।

इस सामवेदोक्त ध्यान के पश्चात् पूजा विधिपूर्वक करें।

साधक को चाहिये कि चन्दन का अष्टदल-कमल बनाकर उस पर कमल-पुष्पों द्वारा महालक्ष्मी की पूजा करे। फिर ‘गण’ का भलीभाँति पूजन करके उन्हें षोडशोपचार समर्पित करे। तदनन्तर स्तुति करके भक्तिपूर्वक उनके सामने सिर झुकावे।

अब महालक्ष्मी कवच का पाठ करें। इस कवच को पाकर ब्रह्मा ने कमल पर बैठे-बैठे जगत की सृष्टि की और महालक्ष्मी की कृपा से वे लक्ष्मीवान हो गये। फिर पद्मालया से वरदान प्राप्त करके ब्रह्मा लोकों के अधीश्वर हो गये। उन्हीं ब्रह्मा ने पद्मकल्प में अपने प्रिय पुत्र बुद्धिमान सनत्कुमार को यह परम अद्भुत कवच दिया था। सनत्कुमार ने वह कवच पुष्कराक्ष को प्रदान किया था, जिसके पढ़ने एवं धारण करने से ब्रह्मा समस्त सिद्धों के स्वामी, महान् परमैश्वर्य से सम्पन्न और सम्पूर्ण सम्पदाओं से युक्त हो गये।
महालक्ष्मी कवच

नारायण उवाच –

सर्वसम्पत्प्रदस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः।

ऋषिश्छन्दश्च बृहती देवी पद्मालया स्वयम् ।।

धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः।

सम्पूर्ण सम्पत्तियों के प्रदाता, इस कवच के प्रजापति ऋषि हैं, बृहती छन्द है, स्वयं पद्मालया देवी हैं और धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष में इसका विनियोग किया जाता है।

पुण्यबीजं च महतां कवचं परमाद्भुतम् ।।

यह परम अद्भुत कवच महापुरुषों के पुण्य का कारण है।

ऊँ ह्रीं कमलवासिन्यै स्वाहा मे पातु मस्तकम् ।

श्रीं मे पातु कपालं च लोचने श्रीं श्रियै नमः।।

‘ऊँ ह्रीं कमलवासिन्यै स्वाहा’ मेरे मस्तक की रक्षा करे। ‘श्रीं’ मेरे कपाल की और ‘श्रीं श्रियै नमः’ नेत्रों की रक्षा करे।

ऊँ श्रीं श्रियै स्वाहेति च कर्णयुग्मं सदाऽवतु ।

ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै स्वाहा मे पातु नासिकाम् ।।

‘ऊँ श्रीं श्रियै स्वाहा’ सदा दोनों कानों की रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै स्वाहा’ मेरी नासिका की रक्षा करे।

ऊँ श्रीं पद्मालयायै च स्वाहा दन्तं सदाऽवतु ।

ऊँ श्रीं कृष्णप्रियायै च दन्तरन्ध्रं सदाऽवतु ।।

‘ऊँ श्रीं पद्मालयायै स्वाहा’ सदा दाँतों की रक्षा करे। ‘ऊँ श्रीं कृष्णप्रियायै स्वाहा’ सदा दाँतों के छिद्रों की रक्षा करे।

ऊँ श्रीं नारायणेशायै मम कण्ठं सदाऽवतु ।

ऊँ श्रीं केशवकान्तायै मम स्कन्धं सदाऽवतु ।।

‘ऊँ श्रीं नारायणेशायै स्वाहा’ सदा मेरे कण्ठ की रक्षा करे। ‘ऊँ श्रीं केशवकान्तायै स्वाहा’ सदा मेरे कंधों की रक्षा करे।

ऊँ श्रीं पद्मनिवासिन्यै स्वाहा नाभिं सदाऽवतु ।

ऊँ ह्रीं श्रीं संसारमात्रे मम वक्षः सदाऽवतु ।।

‘ऊँ श्रीं पद्मनिवासिन्यै स्वाहा’ सदा नाभि की रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं श्रीं संसारमात्रे स्वाहा’ सदा मेरे वक्षःस्थल की रक्षा करे।

ऊँ श्रीं श्रीं कृष्णकान्तायै स्वाहा पृष्ठं सदाऽवतु ।

ऊँ ह्रीं श्रीं श्रियै स्वाहा मम हस्तौ सदाऽवतु ।।

‘ऊँ श्रीं श्रीं कृष्णकान्तायै स्वाहा’ सदा मेरी पीठ की रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं श्रीं श्रियै स्वाहा’ सदा मेरे हाथों की रक्षा करे।

ऊँ श्रीं निवासकान्तायै मम पादौ सदाऽवतु ।

ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं श्रियै स्वाहा सर्वांग मे सदाऽवतु ।।

‘ऊँ श्रीं निवासकान्तायै स्वाहा’ सदा मेरे पैरों की रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं श्रियै स्वाहा’ मेरे सर्वांग की रक्षा करे।

प्राच्यां पातु महालक्ष्मीराग्नेय्यां कमलालया ।

पद्मा मां दक्षिणे पातु नैर्ऋत्यां श्रीहरिप्रिया ।।

पूर्व दिशा में ‘महालक्ष्मी’ और अग्निकोण में ‘कमलालया’ मेरी रक्षा करे। दक्षिण में ‘पद्मा’ और नैर्ऋत्यकोण में ‘श्रीहरि प्रिया’ मेरी रक्षा करें।

पद्मालया पश्चिमे मां वायव्यां पातु श्रीं स्वयम् ।

उत्तरे कमला पातु ऐशान्यां सिन्धुकन्यका ।।

पश्चिम में ‘पद्मालया’ और वायव्यकोण में स्वयं ‘श्री’ मेरी रक्षा करें। उत्तर में ‘कमला’ और ईशानकोण में ‘सिन्धुकन्यका’ रक्षा करें।

नारायणेशी पातूर्ध्वमधो विष्णुप्रियाऽवतु ।

सततं सर्वतः पातु विष्णुप्राणाधिका मम ।।

ऊर्ध्वभाग में ‘नारायणेशी’ रक्षा करें। अधोभाग में ‘विष्णुप्रिया’ रक्षा करें। ‘विष्णुप्राणाधिका’ सदा सब ओर से मेरी रक्षा करें।

इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।

सर्वैश्वर्यप्रदं नाम कवचं परमाद्भुतम् ।।

इस प्रकार मैंने तुमसे इस सर्वैश्वर्यप्रद नामक परम अद्भुत कवच का वर्णन कर दिया। यह समस्त मन्त्र समुदाय का मूर्तिमान् स्वरूप है।

सुवर्णपर्वतं दत्त्वा मेरुतुल्यं द्विजातये ।

यत् फलं लभते धर्मी कवचेन ततोऽधिकम् ।।

धर्मात्मा पुरुष ब्राह्मण को मेरु के समान सुवर्ण का पहाड़ दान करके जो फल पाता है, उससे कहीं अधिक फल इस कवच से मिलता है।

गुरुमभ्यर्च्य विधिवत् कवचं धारयेत्तु यः ।

कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ स श्रीमान् प्रतिजन्मनि ।।

अस्ति लक्ष्मीर्गृहे तस्य निश्चला शतपूरुषम् ।

देवेन्द्रैश्चासुरेन्द्रैश्च सोऽवध्यो निश्चितं भवेत् ।।

जो मनुष्य विधिवत गुरु की अर्चना करके इस कवच को गले में अथवा दाहिनी भुजा पर धारण करता है, वह प्रत्येक जन्म में श्रीसम्पन्न होता है और उसके घर में लक्ष्मी सौ पीढ़ियों तक निश्चलरूप से निवास करती हैं। वह देवेन्द्रों तथा राक्षसराजों द्वारा निश्चय ही अवध्य हो जाता है।

स सर्वपुण्यवान् धीमान् सर्वयज्ञेषु दीक्षितः ।

स स्नातः सर्वतीर्थेषु यस्येदं कवचं गले ।।

जिसके गले में यह कवच विद्यमान रहता है, उस बुद्धिमान ने सभी प्रकार के पुण्य कर लिये, सम्पूर्ण यज्ञों में दीक्षा ग्रहण कर ली और समस्त तीर्थों में स्नान कर लिया।

यस्मै कस्मै न दातव्यं लोभमोहभयैरपि ।

गुरुभक्ताय शिष्याय शरणाय प्रकाशयेत् ।।

लोभ, मोह और भय से भी इसे जिस-किसी को नहीं देना चाहिये; अपितु शरणागत एवं गुरुभक्त शिष्य के सामने ही प्रकट करना चाहिये।

इदं कवचमज्ञात्वा जपेल्लक्ष्मीं जगत्प्रसूम् ।

कोटिसंख्यप्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ।।

इस कवच का ज्ञान प्राप्त किये बिना जो जगज्जननी लक्ष्मी का जप करता है, उसके लिये करोड़ों की संख्या में जप करने पर भी मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता।

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे श्रीलक्ष्मीकवचवर्णनं नामाष्टात्रिंशत्तमोऽध्यायः ।। ३८ ।।

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