लक्ष्मी स्तोत्र || Laxmi Stotra

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श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के गणपतिखण्ड अध्याय-२२ में वर्णित इस लक्ष्मी स्तोत्र के पाठ करने से सुख, मोक्ष, शुभ और सम्पत्ति की प्राप्ति होती है। यहाँ लक्ष्मी स्तोत्र भावार्थ सहित मूलपाठ दिया जा रहा है।

लक्ष्मी स्तोत्र

नारायण उवाच ।

देवि त्वां स्तोतुमिच्छामि न क्षमाः स्तोतुमीश्वराः ।

बुद्धेरगोचरां सूक्ष्मां तेजोरूपां सनातनीम् ।

अत्यनिर्वचनीयां च को वा निर्वक्तुमीश्वरः ॥ २९॥

स्वेच्छामयीं निराकारां भक्तानुग्रहविग्रहाम् ।

स्तौमि वाङ्मनसोः पारां किंवाऽहं जगदम्बिके ॥ ३०॥

परां चतुर्णां वेदानां पारबीजं भवार्णवे ।

सर्वसस्याधिदेवीं च सर्वासामपि सम्पदाम् ॥ ३१॥

योगिनां चैव योगानां ज्ञानानां ज्ञानिनां तथा ।

वेदानां वै वेदविदां जननीं वर्णयामि किम् ॥ ३२॥

यया विना जगत्सर्वमबीजं निष्फलं ध्रुवम् ।

यथा स्तनन्धयानां च विना मात्रा सुखं भवेत् ॥ ३३॥

प्रसीद जगतां माता रक्षास्मानतिकातरान् ।

वयं त्वच्चरणाम्भोजे प्रपन्नाः शरणं गताः ॥ ३४॥

नमः शक्तिस्वरूपायै जगन्मात्रे नमो नमः ।

ज्ञानदायै बुद्धिदायै सर्वदायै नमो नमः ॥ ३५॥

हरिभक्तिप्रदायिन्यै मुक्तिदायै नमो नमः ।

सर्वज्ञायै सर्वदायै महालक्ष्म्यै नमो नमः ॥ ३६॥

कुपुत्राः कुत्रचित्सन्ति न कुत्रापि कुमातरः ।

कुत्र माता पुत्रदोषं तं विहाय च गच्छति ॥ ३७॥

स्तनन्धयेभ्य इव मे हे मातर्देहि दर्शनम् ।

कृपां कुरु कृपासिन्धो त्वमस्मान्भक्तवत्सले ॥ ३८॥

इत्येवं कथितं वत्स पद्मायाश्च शुभावहम् ।

सुखदं मोक्षदं सारं शुभदं सम्पदः प्रदम् ॥ ३९॥

इदं स्तोत्रं महापुण्यं पूजाकाले च यः पठेत् ।

महालक्ष्मीर्गृहं तस्य न जहाति कदाचन ॥ ४०॥

इत्युक्त्वा श्रीहरिस्तं च तत्रैवान्तरधीयत ।

देवो जगाम क्षीरोदं सुरैः सार्धं तदाज्ञया ॥ ४१॥

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे गणपतिखण्डे लक्ष्मीस्तवकवचपूजाकथनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२॥
लक्ष्मी स्तोत्र भावार्थ सहित

नारायण उवाच ।

दत्त्वा तस्मै च कवचं मन्त्रं वै षोडशाक्षरम् ।

सन्तुष्टश्च जगन्नाथो जगतां हितकारणम् ॥ १९॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं नमो महालक्ष्म्यै स्वाहा ।

ददौ तस्मै च कृपया चेन्द्राय च महामुने ॥ २०॥

नारायण कहते हैं– महामुने! यों जगदीश्वर श्रीहरि ने प्रसन्न हो इन्द्र को यह कवच देने के पश्चात पुनः जगत की हित-कामना से कृपापूर्वक उन्हें ‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं नमो महालक्ष्म्यै हरिप्रियायै स्वाहा’ यह षोडशाक्षर-मन्त्र भी प्रदान किया।

ध्यानं च सामवेदोक्तं गोपनीयं सुदुर्लभम् ।

सिद्धैर्मुनीन्द्रैर्दुष्प्राप्यं ध्रुवं सिद्धिप्रदं शुभम् ॥ २१॥

फिर जो गोपनीय, परम दुर्लभ, सिद्धों और मुनिवरों द्वारा दुष्प्राप्य और निश्चितरूप से सिद्धप्रद है, वह सामवेदोक्त शुभ ध्यान भी बतलाया। (वह ध्यान इस प्रकार है)–

श्वेतचम्पकवर्णाभां शतचन्द्रसमप्रभाम् ।

वह्निशुद्धांशुकाधानां रत्नभूषणभूषिताम् ॥ २२॥

ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां भक्तानुग्रहकारिकाम् ।

कस्तूरीबिन्दुमध्यस्थं सिन्दूरं भूषणं तथा ॥ २३॥

अमूल्यरत्नरचितकुण्डलोज्ज्वलभूषणम् ।

बिम्रती कबरीभारं मालतीमाल्यशोभितम् ॥ २४॥

सहस्रदलपद्मस्थां स्वस्थां च सुमनोहराम् ।

शान्तां च श्रीहरेः कान्तां तां भजेज्जगतां प्रसूम् ॥ २५॥

जिनके शरीर की आभा श्वेत चम्पा के पुष्प के सदृश तथा कान्ति सैकड़ों चन्द्रमाओं के समान है, जो अग्नि में तपाकर शुद्ध की हुई साड़ी को धारण किये हुए तथा रत्ननिर्मित आभूषणों से विभूषित हैं, जिनके प्रसन्न मुख पर मन्द मुस्कान की छटा छायी हुई है, जो भक्तों पर अनुग्रह करने वाली, स्वस्थ और अत्यन्त मनोहर हैं, सहस्रदस-कमल जिनका आसन है, जो परम शान्त तथा श्रीहरि की प्रियतमा पत्नी हैं, उन जगज्जननी का भजन करना चाहिये।

ध्यानेनानेन देवेन्द्रो ध्यात्वा लक्ष्मीं मनोहराम् ।

भक्त्या सम्पूज्य तस्यै च चोपचारांस्तु षोडश ॥ २६॥

देवेन्द्र! इस प्रकार के ध्यान से जब तुम मनोहारिणी लक्ष्मी का ध्यान करके भक्तिपूर्वक उन्हें षोडशोपचार समर्पित करोगे

स्तुत्वाऽनेन स्तवेनैव वक्ष्यमाणेन वासव ।

नत्वा वरं गृहीत्वा च लभिष्यसि च निर्वृतिम् ॥ २७॥

और आगे कहे जाने वाले स्तोत्र से उनकी स्तुति करके सिर झुकाओगे, तब उनसे वरदान पाकर तुम दुःख से मुक्त हो जाओगे।

स्तवनं श्रृणु देवेन्द्र महालक्ष्म्याः सुखप्रदम् ।

कथयामि सुगोप्यं च त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ॥ २८॥

देवराज! महालक्ष्मी का वह सुखप्रद स्तोत्र, जो परम गोपनीय तथा त्रिलोकी में दुर्लभ है, बतलाता हूँ। सुनो।

लक्ष्मी स्तोत्र

नारायण उवाच ।

देवि त्वां स्तोतुमिच्छामि न क्षमाः स्तोतुमीश्वराः ।

बुद्धेरगोचरां सूक्ष्मां तेजोरूपां सनातनीम् ।

अत्यनिर्वचनीयां च को वा निर्वक्तुमीश्वरः ॥ २९॥

नारायण कहते हैं– देवि! जिनका स्तवन करने में बड़े-बड़े देवेश्वर समर्थ नहीं हैं, उन्हीं आपकी मैं स्तुति करना चाहता हूँ। आप बुद्धि के परे, सूक्ष्म, तेजोरूपा, सनातनी और अत्यन्त अनिर्वचनीया हैं। फिर आपका वर्णन कौन कर सकता है?

स्वेच्छामयीं निराकारां भक्तानुग्रहविग्रहाम् ।

स्तौमि वाङ्मनसोः पारां किंवाऽहं जगदम्बिके ॥ ३०॥

जगदम्बिके! आप स्वेच्छामयी, निराकार, भक्तों के लिये मूर्तिमान अनुग्रहस्वरूप और मन-वाणी से परे हैं; तब मैं आपकी क्या स्तुति करूँ।

परां चतुर्णां वेदानां पारबीजं भवार्णवे ।

सर्वसस्याधिदेवीं च सर्वासामपि सम्पदाम् ॥ ३१॥

आप चारों वेदों से परे, भवसागर को पार करने के लिये उपायस्वरूप, सम्पूर्ण अन्नों तथा सारी सम्पदाओं की अधिदेवी हैं

योगिनां चैव योगानां ज्ञानानां ज्ञानिनां तथा ।

वेदानां वै वेदविदां जननीं वर्णयामि किम् ॥ ३२॥

और योगियों-योगों, ज्ञानियों-ज्ञानों, वेदों-वेदवेत्ताओं की जननी हैं; फिर मैं आपका क्या वर्णन कर सकता हूँ!

यया विना जगत्सर्वमबीजं निष्फलं ध्रुवम् ।

यथा स्तनन्धयानां च विना मात्रा सुखं भवेत् ॥ ३३॥

जिनके बिना सारा जगत निश्चय ही उसी प्रकार वस्तुहीन एवं निष्फल हो जाता है, जैसे दूध पीने वाले बच्चों को माता के बिना सुख नहीं मिलता।

प्रसीद जगतां माता रक्षास्मानतिकातरान् ।

वयं त्वच्चरणाम्भोजे प्रपन्नाः शरणं गताः ॥ ३४॥

आप तो जगत की माता हैं; अतः प्रसन्न हो जाइये और हम अत्यन्त भयभीतों की रक्षा कीजिये। हमलोग आपके चरणकमल का आश्रय लेकर शरणापन्न हुए हैं।

नमः शक्तिस्वरूपायै जगन्मात्रे नमो नमः ।

ज्ञानदायै बुद्धिदायै सर्वदायै नमो नमः ॥ ३५॥

आप शक्तिस्वरूपा जगज्जननी को बारंबार नमस्कार है। ज्ञान, बुद्धि तथा सर्वस्व प्रदान करने वाली आपको पुनः-पुनः प्रणाम है।

हरिभक्तिप्रदायिन्यै मुक्तिदायै नमो नमः ।

सर्वज्ञायै सर्वदायै महालक्ष्म्यै नमो नमः ॥ ३६॥

महालक्ष्मी! आप हरि-भक्ति प्रदान करने वाली, मुक्तिदायिनी, सर्वज्ञा और सब कुछ देने वाली हैं। आप बारंबार मेरा प्रणिपात स्वीकार करें।

कुपुत्राः कुत्रचित्सन्ति न कुत्रापि कुमातरः ।

कुत्र माता पुत्रदोषं तं विहाय च गच्छति ॥ ३७॥

माँ! कुपुत्र तो कहीं-कहीं होते हैं, परंतु कुमाता कहीं नहीं होती। क्या कहीं पुत्र के दुष्ट होने पर माता उसे छोड़कर चली जाती है?

स्तनन्धयेभ्य इव मे हे मातर्देहि दर्शनम् ।

कृपां कुरु कृपासिन्धो त्वमस्मान्भक्तवत्सले ॥ ३८॥

हे मातः! आप कृपासिन्धु श्रीहरि की प्राणप्रिया हैं और भक्तों पर अनुग्रह करना आपका स्वभाव है; अतः दुधमुँहे बालकों की तरह हम लोगों पर कृपा करो, हमें दर्शन दो।

इत्येवं कथितं वत्स पद्मायाश्च शुभावहम् ।

सुखदं मोक्षदं सारं शुभदं सम्पदः प्रदम् ॥ ३९॥

वत्स! इस प्रकार लक्ष्मी का वह शुभकारक स्तोत्र, जो सुखदायक, मोक्षप्रद, साररूप, शुभद और सम्पत्ति का आश्रयस्थान है, तुम्हें बता दिया।

इदं स्तोत्रं महापुण्यं पूजाकाले च यः पठेत् ।

महालक्ष्मीर्गृहं तस्य न जहाति कदाचन ॥ ४०॥

जो मनुष्य पूजा के समय इस महान पुण्यकारक स्तोत्र का पाठ करता है, उसके गृह का महालक्ष्मी कभी परित्याग नहीं करतीं।

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे गणपतिखण्डे

नारदनारायणसंवादे लक्ष्मीस्तवकवचपूजाकथनं

नाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२॥

लक्ष्मी स्तोत्र समपूर्ण ॥

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