महा-भारत कथा ( Mahabharat story ) संक्षिप्त कहानी आरम्भ से अंत तक, Maha-Bharat Katha short story from beginning to end.

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आइये, आज हम उन्ही महा-भारत के बारे में बात करते हैं जिसका पौराणिक नाम जय भी है भारत भी…किन्तु इसकी महत्ता को देखते हुए इसे महा-भारत का नाम दिया गया…इस पवित्र काव्य, महा-भारत की लेखन की शुरुवात कैसे हुई थी, ये जानना हमारे दर्शकों के लिए अति रोचक होगा..

महा-भारत कथा  ( Mahabharat story ) संक्षिप्त कहानी आरम्भ से अंत तक. 

महाभारत में ऐसा वर्णन आता है कि श्री वेदव्यास  जी ने, हिमालय की तलहटी की एक पवित्र गुफा में, तपस्या में लीन होकर, ध्यान योग के दारा ही पूरी महा-भारत की घटनाओं को स्मरण कर लिया था…उनके मन और मस्तिस्क में महा-भारत की पूरी घटना छप चुकी थी…लेकिन उनके समाने एक गंभीर समस्या ये आखर खड़ी हो गयी कि इसे जन–जन तक कैसे पहुंचाया जाया..??? क्यूंकि इसकी जटिलता और लम्बाई के कारण यह बहुत कठिन था कि कोई इसे बिना कोई गलती किए, वैसा का वैसा ही लिख दे, जैसा कि वे बोलते जाएँ….

लेकिन उस समय पृथ्वी में ऐसा कोई भी नहीं था जो ये दूभर कार्य कर पाता…इसलिए श्री वेद व्यास जी, ब्रह्मा जी के पास गए और अपनी ये समस्या सुना दी…तब ब्रह्मा जी को पार्वती ननंद श्री गणेश जी का स्मरण आया जिन्हें देवताओं में प्रथम पूज्य और बुद्धि के देवता का वरदान मिला था…और फिर ब्रह्मा जी के दिशा निर्देश पर ही, श्री वेद व्यास जी तत्काल महादेव पुत्र गणेश जी के पास पहुँच गए….तब विघ्नहर्ता गणेश जी ने पूरे ध्यान से श्री वेद व्यास जी की पूरी बात सुनी और फिर अपना एक निर्णय सुनाया…और लम्बोदर, पीताम्बर श्री गणेश ने, वेद व्यास जी के सामने ये शर्त रख दी कि वे उनका कार्य तो अवश्य कर देंगे किन्तु शर्त यही होगी उनकी कलम एक बार उठ जाने के बाद, वो काव्य लेखन की बीच कहीं नहीं रुकेगी…

व्यास जी जानते थे कि यह शर्त बहुत कठनाईयाँ उत्पन्न कर सकती हैं इसलिए उन्होंने भी अपनी चतुरता से एक शर्त रखी….और उनकी शर्त ये थी कि गणेश जी दारा कोई भी श्लोक लिखने से पहले,  गणेश  जी को उसका अर्थ समझना होगा….और फिर इसी के बाद, श्रीगणेश जी ने भी, श्री वेद व्यास जी का वो प्रस्ताव स्वीकार कर लिया…

अब होता ये था कि  व्यास जी बीच-बीच में कुछ कठिन श्लोकों को रच देते थे…जब- तक गणेश जी उनके अर्थ पर विचार करते, तब तक वेद व्यास जी का दूसरा श्लोक तैयार हो जाता…इस तरह से वेद व्यास जी की मुख से निकली वाणी को, श्री गणेश जी ने लगातार कलमबद्ध किया और वो हिन्दुओं का पवित्र काव्य ग्रन्थ, महा-भारत कहलाया.

वेदव्यास जी ने सबसे पहले पुण्यकर्मा, मानवों के उपाख्यानों सहित एक लाख श्लोकों का भारत ग्रंथ बनाया… इसके बाद उपाख्यानों को छोड़कर चौबीस हजार श्लोकों की भारत संहिता बनायी….फिर व्यास जी ने साठ लाख श्लोकों की एक दूसरी संहिता बनायी, जिसके तीस लाख श्लोकों देवलोक में, पंद्रह लाख पितृलोक में तथा चौदह लाख श्लोक, गन्धर्वलोक में समाहित हुए….मनुष्यलोक में एक लाख श्लोकों का ग्रन्थ भारत प्रतिष्ठित हुआ….

महाभारत ग्रंथ की रचना पूर्ण करने के बाद वेद व्यास जी ने सबसे पहले अपने पुत्र शुकदेव जी को इस ग्रंथ का अध्ययन कराया…फिर अपने दुसरे शिष्यों,  वैशम्पायन, पैल, जैमिनि, असित-देवल आदि को इसका अध्ययन कराया..और फिर इसी के बाद वेद व्याज जी के पुत्र सुकदेव जी ने सभी  गन्धर्वों, यक्षों और  कुछ असुरों को इसका अध्ययन कराया…

और जब धीरे धीरे इसका प्रचार बढ़ा तो देवर्षि  नारद  ने  देवताओं को,  असित-देवल ने पितरों को और वैशम्पायन जी ने मनुष्यों को इसका प्रवचन दिया…वेद व्यास के शिष्य वैशम्पायन जी द्वारा महाभारत काव्य, जनमेजय के यज्ञ समारोह में, सूतजी सहित कई ऋषि-मुनियों को सुनाया गया था….किन्तु आज हम उन प्रथम सूत्रों को भी जानेंगे जहाँ जिनकी उत्पत्ति से महा-भारत काव्य जुडा है..

पुराणों के अनुसार ब्रह्मा जी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध और बुध से इला-नन्दन पुरूरवा का जन्म हुआ था…फिर उनसे आयु, आयु से राजा नहुष और नहुष से ययाति उत्पन्न हुए थे…उसके बाद ययाति से पुरू का जन्म हुआ…इसी तरह पूरू के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरु हुए…पीढ़ी आगे बढ़ी तो कुरु के वंश में शान्तनु हुए और शान्तनु से गंगानन्दन भीष्म की उत्पत्ति हुई… आगे चलकर शान्तनु से, सत्यवती के गर्भ से चित्रांगद और विचित्रवीर्य उत्पन्न हुए थे….किन्तु जब दोनों की मृत्यु हो गयी तो देवी सत्यवती की आज्ञा से, व्यासजी ने नियोग के द्वारा अम्बिका के गर्भ से धृतराष्ट्र और अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु को उत्पन्न किया था… धृतराष्ट्र ने गांधारी के  द्वारा सौ पुत्रों को जन्म दिया, जिनमें दुर्योधन सबसे बड़ा था और पाण्डु के द्वारा उनके पांच पुत्र हुए-युधिष्टर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव …

धृतराष्ट्र जन्म से ही नेत्रहीन थे, इसलिए उनकी जगह पर पाण्डु को राजा बनाया गया था.. किन्तु एक बार वन में आखेट खेलते हुए पाण्डु के बाण से एक मैथुनरत मृग रुपधारी ऋषि की मृत्यु हो गयी जिससे उन्हें एक भयंकर शाप लग गया…इसी कारण राजा पांडू ने नेत्रहीन धृतराष्ट्र को हस्तिनापुर का राज सिंहासन दे दिया और स्वयं पत्नी के साथ वन में रहने लगे…किन्तु मृत्यु से पुत्र पूर्व राजा पाण्डु के कहने पर ही देवी  कुन्ती ने दुर्वासा ऋषि के दिये मन्त्र से यमराज को आमन्त्रित कर उनसे युधिष्ठिर, वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन को उत्पन्न किया और माद्री से अश्विनी कुमारों द्वारा नकुल और सहदेव की उत्पत्ति हुई….किन्तु उस समय तक किसी को भी ये पता नहीं था कि देवी कुन्ती ने विवाह से पहले ही सूर्य के अंश से कर्ण को जन्म दिया था और लोकलाज के भय से कर्ण को गंगा नदी में बहा दिया था..जिसके बाद धृतराष्ट्र के सारथी अधिरथ ने उसे बचाकर उसका पालन पोषण किया..

कर्ण की शुरू से ही रुचि युद्धकला में थी इसलिए द्रोणाचार्य के मना करने पर उसने परशुराम से शिक्षा प्राप्त की थी…गांधार नरेश के पुत्र शकुनि के छलकपट से, दुर्योधन ने पाण्डवों को बचपन में कई बार मारने का प्रयत्न किया था और युवावस्था में भी, जब युधिष्ठिर को युवराज बना दिया गया तो लाक्ष के बने हुए घर, लाक्षाग्रह में पाण्डवों को भेजकर उन्हें आग से जलाने का प्रयत्न किया गया… किन्तु विदुर की सहायता के कारण से पांडव उस जलते हुए गृह से बाहर निकल आये थे..

इसके बाद ही पाण्डव वहाँ से एकचक्रा नगरी गये और मुनि का वेष बनाकर एक ब्राह्मण के घर में निवास करने लगे…फिर व्यास जी के कहने पर वे पांचाल राज्य में गये जहाँ द्रौपदी का स्वयंवर होनेवाला था…वहाँ एक के बाद एक सभी राजाओं एवं राजकुमारों ने मछली पर निशाना साधने का प्रयास किया किन्तु सफलता हाथ न लगी…और फिर इसी के बाद अर्जुन ने तैलपात्र में प्रतिबिम्ब को देखते हुये एक ही बाण से मत्स्य को भेद डाला और द्रौपदी ने आगे बढ़ कर अर्जुन के गले में वरमाला डाल दीं..

माता कुन्ती के वचनानुसार पाँचों पाण्डवों ने द्रौपदी को पत्नीरूप में स्वीकार किया था..किन्तु द्रौपदी के स्वयंवर के समय  दुर्योधन के साथ ही  द्रुपद, धृष्टद्युम्न और अनेक दुसरे लोगों को सन्देह हो गया था कि वे पाँच ब्राह्मण और कोंई नहीं, पाण्डव ही हैं…इसलिए पांडवों की परीक्षा करने के लिये द्रुपद ने उन्हें अपने राज भवन में बुलाया…राज महल में द्रुपद और धृष्टद्युम्न ने पांडवों को पहले राजकोष दिखाया…किन्तु पाण्डवों ने वहाँ रखे सोने चांदी और रत्न आभूषणों में कोई भी रूचि नहीं दिखाई…किन्तु जब वे शस्त्रागार में गये तो वहाँ रखे अस्त्र-शस्त्रों में उन सभी ने बहुत ही अधिक रुचि दिखायी और अपनी पसन्द के शस्त्रों को अपने पास रख लिया…उनके क्रिया-कलाप से द्रुपद को विश्वास हो गया कि ये ब्राह्मणों के रूप में पाण्डव ही हैं।

द्रौपदी स्वयंवर से पहले विदुर को छोड़कर सभी, पाण्डवों को मृत समझने लगे थे और इस कारण धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को हस्तिनापुर का युवराज बना दिया। गृहयुद्ध के संकट से बचने के लिए युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र द्वारा दिए खण्डहर स्वरुप खाण्डव वन को आधे राज्य के रूप में स्वीकार कर लिया। वहाँ अर्जुन ने श्रीकृष्ण के साथ मिलकर समस्त देवताओं को युद्ध में परास्त करते हुए खाण्डव वन को जला दिया और इन्द्र के द्वारा की हुई वृष्टि का, अपने बाणों के छत्राकार बाँध से निवारण करके, अग्नि देव को तृप्त कर दिया…

इसी के बाद अर्जुन ने अग्निदेव से दिव्य गाण्डीव धनुष और उत्तम रथ तथा श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र प्राप्त किया…इन्द्र अपने पुत्र अर्जुन की वीरता देखकर अतिप्रसन्न हुए और उन्होंने खांडव प्रस्थ के वनों को हटा दिया…उसके बाद  पाण्डवों ने श्रीकृष्ण के साथ  मय दानव की सहायता से उस शहर को सुन्दर और अनुपम बना दिया..इन्द्र के कहने पर ही देव शिल्पी विश्वकर्मा और मय दानव ने मिलकर खाण्डव वन को इन्द्रपुरी जितने भव्य नगर में निर्मित कर दिया, जो इन्द्रप्रस्थ कहलाया…

पाण्डवों ने सम्पूर्ण दिशाओं पर विजय पाते हुए प्रचुर सुवर्ण राशि से परिपूर्ण राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान करवाया…किन्तु उनका वैभव,  दुर्योधन के लिये असहनीय हो गया…इसीलिए शकुनि, कर्ण और दुर्योधन आदि ने, युधिष्ठिर के साथ जूए में सम्मिलित होकर उसके भाइयो, द्रौपदी और उनके राज्य को कपट पूर्ण हँसते-हँसते जीत लिया और कुरु राज्य सभा में देवी द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का प्रयास किया…

लेकिन गांधारी ने आकर ऐसा होने से रोक दिया…लेकिन फिर पुत्र मोहि धृतराष्ट्र ने एक बार फिर से, दुर्योधन की प्रेरणा से उन्हें जुआ खेलने की आज्ञा दे दी और यह तय हुआ कि एक ही दांव में जो भी पक्ष हार जाएगा, वे मृगचर्म धारण कर बारह वर्ष वनवास करेंगे और एक वर्ष अज्ञातवास में रहेंगे…उस एक वर्ष में भी यदि उन्हें पहचान लिया गया तो फिर से बारह वर्ष का वनवास भोगना होगा…इस प्रकार पुन: एक बार जूए में परास्त होकर युधिष्ठिर, अपने भाइयों सहित वन में चले गये.. और फिर वहाँ, बारहवाँ वर्ष बीतने पर एक वर्ष के अज्ञातवास के लिए वे विराट नगर में चले गये…

जब कौरव, विराट की गौओं को हराकर ले जाने लगे, तब उन्हें अर्जुन ने परास्त कर दिया…लेकिन उसी समय कौरवों ने पाण्डवों को पहचान लिया…किन्तु समय के अनुसार उनका  अज्ञातवास तब तक पूरा हो चुका था…लेकिन फिर भी 12 वर्षो के ज्ञात और एक वर्ष के अज्ञात वास पूरा करने के बाद भी कौरवों ने पाण्डवों को उनका राज्य देने से मना कर दिया…स्वयं के साथ अन्याय होता देख धर्मराज युधिष्ठिर, सात अक्षौहिणी सेना के स्वामी होकर कौरवों के साथ युद्ध करने को तैयार हो गए..किन्तु कृष्ण इस युद्ध को टालना चाहते थे…इसलिए वे सबसे पहले दुर्योधन के पास दूत बनकर गये..कृष्ण ने ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी राजा दुर्योधन से कहा कि तुम युधिष्ठिर को आधा राज्य दे दो या केवल पाँच ही गाँव अर्पित कर युद्ध को टाल दो….

श्रीकृष्ण की बात सुनकर दुर्योधन ने पाण्डवों को सुई की नोक के बराबर भी भूमि देने से मना करते हुए, कृष्ण को ही बंदी बनाना चाहा…तब भगवान कृष्ण ने अपना विश्व रूप दिखाकर दुर्जनों को भयभीत कर दिया…जब किसी भी प्रकार से युद्ध नहीं टला तो अंत में श्री कृष्ण ने पांडवों को युद्ध करने का आदेश दिया…किन्तु जब युधिष्ठिर और दुर्योधन की सेनाएँ कुरुक्षेत्र के मैदान में आमने सामने जा डटीं तो अपने विपक्ष में पितामह भीष्म तथा आचार्य द्रोण आदि गुरुजनों को देखकर अर्जुन युद्ध से विरक्त हो गये…

तब भगवान श्रीकृष्ण ने युद्ध क्षेत्र में अर्जुन को जो ज्ञान दिया वो गीता ज्ञान कहलाया.. अर्जुन ने कहा-“पार्थ! भीष्म आदि गुरुजन शोक के योग्य नहीं हैं…मनुष्य का शरीर विनाशशील है, किंतु आत्मा का कभी नाश नहीं होता.. यह आत्मा ही परब्रह्म है। ‘मैं ब्रह्म हूँ’ इस प्रकार तुम उस आत्मा का अस्तित्व समझो…कार्य की सिद्धि और असिद्धि में समान भाव से रहकर कर्मयोग का आश्रय लेकर क्षत्रिय धर्म का पालन करो…

इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन को ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग का ज्ञान देने पर, अर्जुन के अज्ञान रुपी नेत्र बंद होकर ज्ञान रुपी चक्षु खुल गए और फिर उसने रथ पर सवार होकर युद्ध के लिये शंख नाद कर दी…दुर्योधन की सेना में सबसे पहले पितामह भीष्म सेनापति हुए..पाण्डवों के सेनापति धृष्टद्युम्न थे…इन दोनों में भारी युद्ध छिड़ गया.. भीष्म सहित कौरव पक्ष के योद्धा उस युद्ध में पाण्डव-पक्ष के सैनिकों पर प्रहार करने लगे और शिखण्डी आदि पाण्डव- पक्ष के वीर कौरव-सैनिकों को अपने बाणों का निशाना बनाने लगे…

कौरव और पाण्डव-सेना का वह युद्ध, देवासुर-संग्राम के समान हो चुका था…भीष्म ने दस दिनों तक युद्ध करके पाण्डवों की अधिकांश सेना को अपने बाणों से मार गिराया….एक वरदान के कारण भीष्म की मृत्यु उनकी इच्छा के अधीन थी…इसलिए श्रीकृष्ण के सुझाव पर पाण्डवों ने भीष्म से ही उनकी मृत्यु का उपाय पूछ लिया..

फिर इसके बाद भीष्म की मृत्यु का कारण बना वो अर्ध पुरुष जिसका नाम शिखंडी था..युद्ध के दसवे दिन अर्जुन ने शिखंडी को आगे अपने रथ पर बिठाया और शिखंडी को सामने देख कर भीष्म ने अपना धनुष त्याग दिया..और फिर इसी के बाद अर्जुन ने अपनी बाण वृष्टि से भीष्म को बाणों कि शय्या पर सुला दिया…भीष्म के मरने पर शिखंडी का भी उनसे पूर्व जन्म का प्रतिशोध पूरा हो गया था..किन्तु किसी को क्या पता था कि अप्रत्यक्ष रूप से महा-भारत के युद्ध का संचालन स्वयं भगवान कृष्ण ही कर रहे थे…

भीष्म की मृत्यु के बाद तब आचार्य द्रोण ने, कौरवों की ओर से सेनापति पद का भार ग्रहण किया..फिर से दोनों पक्षो में बड़ा भयंकर युद्ध हुआ…मतस्य नरेश विराट और द्रुपद आदि राजा द्रोणरूपी समुद्र में डूब गये थे…लेकिन जब युधिष्ठिर ने कृष्ण के आदेश पर द्रोनाचार्य को यह विश्वास दिला दिया कि अश्वत्थामा मारा गया तो आचार्य द्रोण ने अस्त्र शस्त्र त्यागकर योग समाधि के द्वारा अपने प्राण त्याग दिए…

आचार्य द्रोण वध के बाद कर्ण कौरव सेना का कर्णधार हुआ। कर्ण और अर्जुन में भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्रों से युक्त महा भयानक युद्ध हुआ, जो देवासुर-संग्राम को भी मात करने वाला था…कर्ण और अर्जुन के संग्राम में कर्ण ने अपने बाणों से शत्रु-पक्ष के बहुत-से वीरों का संहार कर डाला… हालांकि युद्ध गतिरोध पूर्ण हो रहा था…लेकिन कर्ण तब उलझ गया जब उसके रथ का एक पहिया धरती में धँस गया…गुरु परशुराम के शाप के कारण कर्ण स्वयं को दैवीय अस्त्रों के प्रयोग में भी असमर्थ पाकर रथ के पहिए को निकालने के लिए नीचे उतरता है…तब श्रीकृष्ण, अर्जुन को कर्ण के द्वारा किये अभिमन्यु वध, कुरु सभा में द्रोपदी के साथ अपमान और उसकी कर्ण वध करने की प्रतिज्ञा याद दिलाकर उसे मारने को कहते है…और फिर इसी के बाद अर्जुन अंजलिकास्त्र से कर्ण का सिर धड़ से अलग कर देता है…

इसके बाद राजा शल्य कौरव-सेना के सेनापति हुए, किंतु वे युद्ध में आधे दिन तक ही टिक पाते हैं.. क्यूंकि दोपहर होते-होते युधिष्ठिर के हाथों उनका वध हो जाता है…दुर्योधन की सारी सेना के मारे जाने पर अन्त में उसका भीमसेन के साथ गदा युद्ध होता है..यहाँ पर भी कृष्ण के संकेत पर भीम ने दुर्योधन की जांघ पर प्रहार करके उसे मार डाला…इसी का प्रतिशोध लेने के लिये अश्वत्थामा ने रात्रि में पाण्डवों की एक अक्षौहिणी सेना, द्रौपदी के पाँचों पुत्रों, उसके पांचाल देशीय बन्धुओं तथा धृष्टद्युम्न, सबका वध कर दिया….

तब अर्जुन ने अश्वत्थामा को परास्त करके उसके मस्तक की मणि निकाल ली.. जिसके परिणाम स्वरुप अश्वत्थामा ने उत्तरा के गर्भ पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर किया..उत्तरा का गर्भ, अश्वत्थामा के अस्त्र से प्राय दग्ध हो गया था, किंतु भगवान श्रीकृष्ण ने उसको पुन: जीवन-दान दिया.. उत्तरा का वही गर्भस्थ शिशु आगे चलकर राजा परीक्षित के नाम से विख्यात हुआ..इस युद्ध के अंत में कृतवर्मा, कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा तीन कौरव पक्षिय और पाँच पाण्डव, सात्यकि तथा श्रीकृष्ण ये सात पाण्डव पक्षिय वीर जीवित बचे। तत्पश्चात् युधिष्ठिर राजसिंहासन पर आसीन हुए…

माना जाता है, ब्राह्मणों और गांधारी के शाप के कारण यादव कुल का संहार हो गया..बलभद्र जी, योग से अपना शरीर त्याग कर शेषनाग स्वरुप होकर समुद्र में चले गये…भगवान कृष्ण के सभी प्रपौत्र एक दिन महामुनियों की शक्ति देखने के लिये, एक को स्त्री बनाकर मुनियों के पास गए और पूछा कि हे मुनिश्रेष्ठ! यह महिला गर्भ से है, हमें बताएं कि इसके गर्भ से किसका जन्म होगा?  मुनियों को ज्ञात हुआ कि यह बालक उनसे क्रिडा करते हुए एक पुरुष को महिला बनाकर उनके पास लाए हैं… तब मुनियों ने कृष्ण के प्रपौत्रों को श्राप दिया कि इस मानव के गर्भ से एक मूसल लिकलेगा जिससे तुम्हारे वंश का अन्त होगा…कृष्ण के प्रपौत्रों नें उस मूसल को पत्थर पर रगड़ कर चूरा बना नदी में बहा दिया तथा उसके नोक को फेंक दिया…उस चूर्ण से उत्पन्न वृक्ष की पत्तियों से सभी कृष्ण के प्रपौत्र मृत्यु को प्राप्त किये..

यह देख श्रीकृष्ण भी एक पेड़ के नीचे ध्यान लगाकर बेठ गये। ‘ज़रा’ नाम के एक व्याध (शिकारी) ने अपने बाण की नोक पर मूसल का नोक लगा दिया तथा भगवान कृष्ण के चरण कमल को मृग समझकर उस बाण से प्रहार किया..उस बाण द्वारा कृष्ण के पैर पर आघात, उनके परमधाम गमन का कारण बना…भगवान् कृष्ण अपने संपूर्ण शरीर के साथ गोलोक प्रस्थान कर गए..

इसके बाद समुद्र ने द्वारकापुरी को अपने जल में डुबा दिया… द्वारका से लौटे हुए अर्जुन के मुख से यादवों के संहार का समाचार सुनकर युधिष्ठिर ने संसार की अनित्यता का विचार करके परीक्षित को राज सिंघासन सौप दिया और स्वयं द्रौपदी तथा भाइयों को साथ ले हिमालय की तरफ महा प्रस्थान के पथ पर अग्रसर हुए… उस महापथ में युधिष्ठिर को छोड़ सभी एक-एक करके गिरते चले गए और अन्त में सत्यवादी और धर्मवादीयुधिष्ठिर, इन्द्र के रथ पर आरूढ़ हो स्वर्ग में चले गए..

ये थी हमारे महाभारत की कथा…कुछ लोग महा-भारत का दुसरा अर्थ झगडे एवं युद्ध से भी निकालते हैं..लेकिन उन्हें ये पता नहीं कि महा-भारत वो महा काव्य है जिसमे ना केवल अधर्म पर धर्म की विजयी गाथा का वर्णन है, अपितु इसी दिव्य काव्य महा भारत से ही, कृष्ण द्वारा उद्घोषित उस गीता सार का सृजन भी हुआ है जो सम्पूर्ण सृष्टी को मोक्ष दिलवाने का सामर्थ्य भी रखती है…इसलिए हम सभी को, हमारे महा-भारत काव्य, एवं धार्मिक ग्रन्थ गीता को परम आदर देना चाहिए…ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नम:

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