अथर्ववेद (Atharvaveda hindi ) बीस काण्डों में विभक्त है और इसमें 726 सूक्त और 5,977 मन्त्र हैं, Atharvaveda is divided into twenty kandas

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यस्ते गन्धः पृथिवी संबभूव वं विभत्योषधयोः यमापः । व गन्धर्वा अप्सरश्च भेजिरे तेन मा सुरभि कृष्णु मानो द्विक्षत कश्चन।

पृथ्वी पर स्थित सुगंधित औषधियों और वनस्पतियों के रूप में जो गंध उत्पन्न होती है और जिसे गंधर्व और अप्सराएं धारण करती हैं। हे पृथ्वी! तू उस गध से हमें युक्त करे। हमसे ईर्ष्या न करने वाला कोई न हो। सभी हमारे प्रति मित्रभाव रखें।

माहिंसिष्टं कुमार्य स्थूणे देवकृते पथि शालाया देव्या द्वारे स्योनं कृष्मो वधूपथम् ॥

हे देवताओं! इस वधू को ले जाने वाले रथ को हानि न पहुंचाओ। हम गृहरूप देवता के द्वार पर इस वधू के मार्ग को मंगलकारी बनाते हैं। तपसा ये अनाधृष्यास्तपसा ये स्वर्ययुः । तपो ये चक्रिरे महस्तांश्चिदेवापि गच्छातात् । ताप के प्रभाव से, यज्ञादि साधनों द्वारा जो स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं और जिन्होंने दुष्कर तप साधना की है, हे प्रेतात्मन्! तू उन्हों के निकट गमन करे।

भूमिका

चारों वेदों में अथर्ववेद चौथा है। अथर्ववेद दो अक्षरों से मिलकर बना है। अथर्व वेद – अथर्ववेद अथर्व में ‘पर्व’ धातु का अर्थ ‘चलना, ‘ अर्थात् ‘गति’ है। इसमें ‘अ’ उपसर्ग लग जाने से’ अथर्व’ बनता है। तब इसका अर्थ हो जाता है—निश्चात् अर्थात् स्थिर, परन्तु इसका अर्थ गतिहीनता नहीं है। इसका अर्थ है- वेद का वह अर्थ या ज्ञान, जो स्थिर है। यह ‘स्थिर ज्ञान’ एकरस, सर्वव्यापक परब्रह्म परमेश्वर का ज्ञान है। यह ज्ञान अचंचल है।

रचना-प्रक्रिया

अथर्ववेद की अनेक नामों से पुकारा जाता है। वैदिक साहित्य में अथर्ववेद के ‘ब्रह्मवेदभैषज्य वेद’ और ‘अथर्वाङ्गिर’ नाम भी हैं।

अथर्ववेद को मन्त्र साधना साधक को ‘स्थितप्रज्ञ’ बनाती है। यह आत्मानुशासन की साधना है। ऐसी साधना और चिन्तन करने वाले ऋषियों को ‘अथर्वा’ अथवा ‘आथर्वण’ कहा जाता था। ये लोग ‘अग्नि’ के उपासक थे।

‘अथर्वा’ और ‘अंगिरस’ नाम के दो भिन्न ऋषि थे। इन्होंने ही सर्वप्रथम

अग्नि को प्रकट किया था। अग्नि की उपासना ‘यज्ञ’ द्वारा की जाती थी।

अथर्वा ऋषि द्वारा जो ऋचाएं प्रस्तुत की गयीं, वे अध्यात्मपरक, सुखकारक, आत्मा का उत्थान करने वाली तथा जीवन में मंगलकारक स्थितियां प्रदान करने वाली हैं। ये ‘सृजनात्मक ऋचाएं’ हैं।

अंगिरस ऋषि द्वारा जो ऋचाएं प्रस्तुत की गयी हैं, वे अभिचारकर्म को प्रकट करने वाली, शत्रुनाशक, जादू-टोना, मारण, वशीकरण आदि को प्रदान करने वाली हैं। ये ‘संहारात्मक’ ऋचाएं हैं। ऐसा ऊपर से देखने पर लगता है। क्योंकि सृजन के लिए उन परिस्थितियों का परिहार भी आवश्यक है, जो सृजन के बीच बाधा रूप

अथर्ववेद संहिता बीस काण्डों में विभक्त है। इसमें 726 सूक्त और 5,977 मन्त्र हैं। बीसवें काण्ड में अधिकांश मन्त्र ‘ऋग्वेद’ के हैं। अथर्ववेद के इन मन्त्रों में साधना, उपासना तथा तन्त्र-विधान से अध्यात्म, ब्रह्मविद्या व आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। दोषों-दुर्भाग्य, दैन्य, दुःख, दारिद्र्य, पाप, शाप, ताप, अनिष्ट, आपत्तियां, संकट, संघर्ष, कष्ट, प्रेतबाधाओं-आदि से जीवन की रक्षा होती है।

हुआ है-सौद, अथर्ववेद की नौ शाखाओं का उल्लेख ‘महाभाष्य’ में पैप्पलाद, मौद, शौनक, जाजल, ब्रह्मवद, देवदर्श और चारणवैद्य। इनमें से ‘शौनक’ और ‘पैप्पलाद’ ही उपलब्ध हैं। प्रचलन ‘शौनक’ शाखा का है। इसमें ‘कर्मकाण्ड’ का वृहद् जाल बिछा हुआ है।

अथर्ववेद की विषयवस्तु

‘अथर्ववेद’ के बीस काण्डों में- ब्रह्मविद्या, मातृभूमि, स्वराज्य शासन, गृहस्थाश्रम, दीर्घ जीवन और आरोग्य सन्धान, ज्ञान-वृद्धि, संगठन, विजय प्राप्ति, ओषधि-विज्ञान तथा जादू-टोना आदि के मन्त्र हैं। इनमें भी ब्रह्मज्ञान सर्वोपरि है। ‘अथर्ववेद’ के 13, 14, 15, 16, 17, 18 और 20 काण्ड पूरी तरह से व्यवस्थित हैं। इनमें विषय के अनुसार ही मन्त्रों का प्रतिपादन किया गया है। प्रथम काण्ड से बारहवें काण्ड तक और उन्नीसवें काण्ड में, विषयों के अनुसार सूक्तों और मन्त्रों का संग्रह नहीं है। अथर्ववेद के सभी काण्डों में विषय की विविधता के दर्शन किये जा सकते हैं।

प्रथम काण्ड

इस काण्ड में विविध रोगों, शत्रुविनाश, प्रसूति, देह-पुष्टि कर्म, रोगनिवारण, दीर्घायु आदि के मन्त्र हैं। रोगविनाश का यह मन्त्र द्रष्टव्य है-

श्यामा सरूपं करणी पृथिव्या अध्युद्भृता । इदमूषु प्र साधय पुना रूपाणि कल्पय ॥

(अथ. 1/24/4)

अर्थात् जैसे उत्तम वैद्य ओषधों से रोग को दूर कर रोगी को सभी प्रकार से स्वस्थ करके उसे सुख पहुंचाता है, उसी प्रकार दूरदर्शी पुरुष सभी विघ्नों को हटाकर कार्यसिद्धि करके आनन्द भोगता है।

दूसरा काण्ड

इस काण्ड में भी पापमोचन, शत्रुविनाश, दीर्घायु, दस्युनाश, सुरक्षा, बल- प्राप्ति, कृमि-भंजन, विश्वकर्मा आदि का विवेचन किया गया है। समर्थ व्यक्ति सदैव विजयी होता है-

यथा भूतं च भव्यं च न बिभीतो न रिष्यतः ।

एवा मे प्राण मा बिभेः ॥

(अथ. 2/14/6)

अर्थात् समर्थ और सत्य पथ पर चलने वाला व्यक्ति न अतीत में और न भविष्य में भयभीत होता है। वह सदैव विजयी होता है। भूत और भविष्य का विचार करके जो कर्म करते हैं, वे सदैव सुखी रहते हैं।

इसी प्रकार पृथिवी पर विचरण करने वाले विभिन्न कीड़े-मकोड़ों से बचने की शिक्षा भी यहां दी गयी है-

विश्वरूपं चतुरक्षं क्रिमि सारंगमर्जुनम् । शृणाम्यस्य पृष्टीरपि वृश्चामि यच्छिरः ॥

(अथ. 2/32/2)

अर्थात् पृथिवी और अन्तरिक्ष में नाना प्रकार के और वर्ण के कीड़े-मकोड़े मक्खी-मच्छर आदि क्षुद्र जीवों को शुद्धि द्वारा दूर करके जो स्वस्थ रहते हैं, ये सभी प्रकार के आत्मिक दोषों को दूर करके आत्मिक शान्ति प्राप्त करते हैं।

तीसरा काण्ड

इस काण्ड में शत्रु की सेना का सम्मोहन, स्वराज्य स्थापना, राष्ट्र के लिए सुयोग्य राजा, शत्रुविनाश, दीर्घायु, दुखों का नाश, वाणिज्य, कृषि, वनस्पतियां, शान्ति और समृद्धि, आत्मरक्षा एवं पशुपालन आदि की चर्चा की गयी है।

चौथा काण्ड

इस काण्ड में ब्रह्मविद्या, आत्मविद्या, शत्रुविनाश, बाजीकरण, रोगनिवारण पापमोचन, सेना की देखभाल, कीड़े-मकोड़ों से रक्षा, विषनाश, राज्याभिषेक आदि से जुड़े मन्त्र हैं। आत्मविद्या का यह मन्त्र देखिये-

नैनं प्राप्नोति शपथो न कृत्या नाभि शोचनम् । नैनं विष्कन्धमश्नुते यस्त्वा बिभर्त्याञ्जन ॥

(अथ. 4/9/5) अर्थात् जो मनुष्य शुद्ध अन्तःकरण से परमात्मा को अपनी आत्मा में स्थिर करता है, उसको आत्मिक और आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त होती है तथा उसके आधिभौतिक तथा आधिदैविक कष्टों का विनाश हो जाता है।

पांचवां काण्ड

इस काण्ड में ब्राह्मण जाति के महत्त्व का प्रतिपादन प्रचुर मात्रा में किया गया। है। साथ ही शत्रुविनाश, विजय, कुष्ठरोग से मुक्ति, ब्रह्मविद्या, आत्मा, आत्मरक्षा, सर्व-विनाश के उपाय, रोगों से मुक्ति, गर्भाधान, अग्नि, दीर्घायु आदि का भी वर्णन किया गया है। उत्तम राजा अपने उत्तम कुल के संस्कारों के आधार पर ही अपनी प्रजा के दुःख-सुख का ध्यान रखता है-

उत्तमो नाम कुष्ठास्युत्तमो नाम ते पिता। यक्ष्यं च नाशय तम्मानं चारसं कृधि ॥

अर्थात् हे गुणों की परीक्षा करने वाले राजन्! तू अपने नाम और कुल (माता-पिता के वंश) से अति उत्तम है। तू समस्त राज-रोगों को अवश्य नाश करने वाला है। दुखीजन और ज्वर आदि रोगों से ग्रस्त प्रजा को सुखी बना तथा उनकी रक्षा कर।

आत्मा की उन्नति का उपदेश देते हुए अथर्ववेद कहता है कि परमेश्वर के लिए मधुर वचनों का प्रयोग कर (5/8/1 से 6 तक), पृथिवी को समृद्ध बनाने के लिए मधुर वचन कह, अन्तरिक्ष और अन्तरात्मा में स्थित हृदय की शुद्धि के लिए प्रार्थना कर, मध्यलोक, वायुमण्डल, अर्थात् द्युलोक के ज्ञान के लिए प्रार्थना कर, सुन्दर व्यवहार को पाने के लिए प्रार्थना कर तथा समृद्ध राज्य की प्राप्ति के लिए मधुर वाणी का प्रयोग कर।

भाव यही है कि आत्मा को जानने के लिए और सुख तथा आनंद का साम्राज्य प्राप्त करने के लिए मधुर वचन और श्रेष्ठ ज्ञान को प्राप्त कर ।

‘हिंसा’ कभी श्रेयस्कर नहीं होती। मनुष्य को सदैव उसका त्याग वैसे ही करना चाहिए, जैसे किसी उपद्रवी व्यक्ति को छोड़ दिया जाता है।

छठा काण्ड

इस काण्ड में दुःस्वप्नों का विनाश, अन्नादि की समृद्धि, शत्रुनाश, सर्प- विषनिवारण, ईर्ष्या का त्याग, औषधि-ज्ञान, पापनाश, दीर्घायु, रोगशमन, जल- चिकित्सा, यश-प्राप्ति, बाजीकरण, बल-प्राप्ति, गर्भधारण, कुष्ठरोग औषधि, चिकित्सा, मेखला-बन्धन व सौभाग्य वृद्धि आदि की चर्चा की गयी है।

मनुष्य को चाहिए कि कभी दूसरे की उन्नति देखकर ईर्ष्या न करे- ईर्ष्याया धाजि प्रथमां प्रथमस्या उतापराम्। अग्निं हृदय्यंश्शोकं तं ते निर्वापयामसि ॥

(अथ. 6/18/1 )

अर्थात् मनुष्य दूसरों की वृद्धि देखकर कभी ईर्ष्या न करे। दूसरे की उन्नति अथवा सुख को अपना ही सुख और उन्नति माने ।

सातवां काण्ड

इस काण्ड में आत्मा, परमात्मा, शत्रुनाश, सरस्वती, राष्ट्रसभा, सविता, वृष्टि, विष्णु, दीर्घायु, पापमोचन, अग्नि, धर्म, दुःस्वप्ननाश, गौ, अमृत आदि के मन्त्र हैं। सर्वव्यापी परमात्मा की उपासना करना सुख पाने के सदृश है-

यद् देवा देवान् हविषायजन्तामर्त्यान् मनसामर्त्येन । मदेम तत्र परमे व्योमन् पश्येम तदुदितौ सूर्यस्य ॥

(अथ. 7/5/3)

[12:13, 04/04/2023] Shrikant Vishwakarma: अर्थात् जो मनुष्य परमात्मा के नित्य उपकारी गुणों को अपने पूर्ण विश्वास और पुरुषार्थ से ग्रहण करते हैं, वे पुरुष आनन्द का उपभोग करते हुए परमात्मा का दर्शन करते हैं। वे अविद्या को नष्ट करके व ज्ञान प्राप्त करके उसी प्रकार सर्वत्र विचरण करते हैं, जैसे सूर्य के निकलने पर अंधकार नष्ट हो जाता है और सर्वत्र प्रकाश फैल जाता है।

आठवां काण्ड

इस काण्ड में दीर्घायु, शत्रुनाश, गर्भदोषनिवारण, औषधि, विराट् परमात्मा आदि के मन्त्र हैं। कीड़े-मकोड़े और रोगाणुओं का नाश करने के लिए मनुष्य को सुगन्धित पदार्थों का उपयोग करना चाहिए परमात्मा सृष्टि के प्रारम्भ से ही स्थित है-

विराड् वा इदमग्र आसीत् तत्या जाताया । सर्वमबिभेदियमे वेदं भविष्यतीति ॥

(अथ. 8/10/1) अर्थात् सृष्टि से पहले एक विराट् शक्ति थी। उसे ही ईश्वरीय शक्ति कहते हैं। उसी से सृष्टि का प्रारम्भ माना जाता है। उसी ने प्रकट होकर प्रत्येक जीवन में अपने को स्थित किया।

उस विराट् परमात्मा को जानकर ही मनुष्य इस संसार में समस्त कार्यों में निपुण होता है।

नौवां काण्ड

इस काण्ड में मधुविद्या, काम, शाला, ऋषभ, अतिथिसत्कार, गौ, आत्मा आदि के मन्त्र हैं। जिनसे मधुर व्यवहार और माता-पिता द्वारा संतान को दी जाने वाली शिक्षा का संदेश प्राप्त होता है।

यथा सोमः प्रातः सवने अश्विनोर्भवति प्रियः । एवा मे अश्विना वर्च आत्मनि ध्रियताम् ॥

(अथ. 9/1/11)

अर्थात् जैसे ऐश्वर्यवान् आत्मा (सोम) प्रातः काल के यज्ञ में माता-पिता का प्रिय होता है, वैसे ही कार्यकुशल कर्मठ माता-पिता मेरी आत्मा में प्रकाश उत्पन्न करें।

भाव यही है कि कुशल माता-पिता अपने होनहार बालकों का हितसन्धान करने में सदैव तत्पर रहते हैं। उन्हें आचार्य के समान अपनी सन्तान को शिक्षित करना चाहिए।

परमात्मा ही सभी अणुओं-परमाणुओं में स्थित है-

इयं वेदिः परो अन्तः पृथिव्या अयं सोमो वृष्णो अश्वस्य रेतः । अयं यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभिर्ब्रह्मायं वाचः परमं व्योम ॥

(अथ. 9/10/14)

अर्थात् पृथिवी गोल है। सभी प्राणी सोम, अर्थात् अन्न आदि के रस से बलवान् होते हैं। परमाणुओं के संयोग और वियोग से अथवा आकर्षण-विकर्षण से समस्त संसार एक नाभि में स्थित है। परमेश्वर ही समस्त वाणियों, अर्थात् ज्ञान का भण्डार है। पृथिवी के गोल होने की बात वैदिक ऋषि जानते थे।

दसवां काण्ड

दसवें काण्ड में 10 सूक्त और 350 मन्त्र हैं।

इस काण्ड में ब्रह्म, सर्पविषनिवारण, विजय, मणिबन्ध, ब्रह्मचर्य आदि के मन्त्र हैं । सनातन ब्रह्म के विषय में की गयी जिज्ञासाओं के बारे में ऋषिगण का यह स्पष्ट कथन है-

सनातनमेनमाहुरुतायद्य स्यात् पुनर्णवः । आहेरात्रे प्र जायेते अन्यो अनस्य रूपयोः ॥

(अथ. 10/8/23)

अर्थात् परमात्मा नित्य है। सदैव स्थायी रूप से रहने वाले परमात्मा के गुण जिज्ञासुओं को नित्य नवीन रूप में विदित होते हैं, जैसे दिन रात्रि से और रात्रि दिन से नित्य नवीन उत्पन्न होती है।

इस मन्त्र में ‘सनातन’ शब्द प्रमुख है, जो ईश्वर के लिए आया है। यह परमात्मा अनादिकाल से पुनः नवीन रूप लेकर प्रकट होता रहा है। जो नित्य है, वह कभी पुराना नहीं हो सकता।

ग्यारहवां काण्ड

इस काण्ड में ब्रह्म, रुद्र, प्राण, ब्रह्मचर्य, पापमोचन, अध्यात्म, शत्रुनिवारण आदि के मन्त्र हैं। उस काल में यान, विमान, कला आदि के बारे में ऋषियों को पूरा ज्ञान था इन मंत्रों से यह भी सिद्ध होता है।

अभिक्रन्दन् स्तनयन्नरुणः शितिङ्गो बृहच्छेयोऽनु भूमौ जमार। ब्रह्मचारी सिञ्चति सानौ रेतः पृथिव्यां तेन जीवन्ति प्रदिशश्चतस्त्र ॥

(अथ. 11/5/12)

अर्थात् विद्वान्, पुरुषार्थी व ब्रह्मचारी यन्त्र, कला, नौका, यान, विमान आदि की वृद्धि के अनेक साधनों से पृथिवी के जल, थल, पहाड़ को उपजाऊ बनाते हैं। ‘अभिक्रन्दन’ का अर्थ गर्जन करते हुए यन्त्र से है। इससे पता चलता है कि उस समय के लोग विविध यन्त्रों और विमान आदि के प्रयोग में प्रवीण 1

बारहवां काण्ड

इस काण्ड में मातृभूमि, स्वर्ग, आकाश आदि के मन्त्र हैं। भूमि पर विचरण करने वाले पशुओं का कृषि के लिए भी विशेष महत्त्व है। इस धरती पर विभिन्न रंग-रूप और वाणी बोलने वाले रहते हैं। उन सभी के लिए ऋषिगण धनवान होने तथा उनकी सुख-समृद्धि की कामना ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के आधार पर करते हैं- जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवीमथौकसम् ।

सहस्त्र धारा द्रविणस्य मे दुहां ध्रुवेव धेनुरनपम्फुरन्ती ॥

(अथ. 12/1/45) अर्थात् विविध भाषाओं को बोलने वाले, अनेक विचार और क्रियाकलाप वाले, बहुत से और बहुत प्रकार के आकार-प्रकार और रंग-रूप वाले लोगों-जैसे एक परिवार के छोटे-बड़े लोग घर में रहते हैं, वैसे ही हमारी यह धारण योग्य पृथिवी अथवा मातृभूमि उन सभी मनुष्यों को एक परिवार की तरह धारण करे। जैसे बिना हिले-डुले, निश्चल, स्थिर भाव से खड़ी गाय अपने स्तनों से दूध को धारा देती है, वैसे ही सभी को अन्न, धन, फल-फूल, सोना-चांदी, तांबा, लोहा आदि देकर उन्हें समृद्ध करें।

तेरहवां काण्ड

इस काण्ड में अध्यात्म का वर्णन किया गया है। योगीजन प्रकाशस्वरूप जगदीश्वर का ध्यान करके उसका सान्निध्य प्राप्त करते हैं और आनन्द की अनुभूति करते हैं। वह परमात्मा सबको समान रूप से देखता हुआ प्रकृति को नियमबद्ध रखता है। उसी का प्रकाश सर्वत्र व्याप्त है-

सूर्योद्यां सूर्यः पृथिवीं सूर्य आपोऽति पश्यति । सूर्यो भूतस्यैकं चक्षुरा रुरोह दिवं महीम् ॥

(अथ. 13/1/45)

अर्थात् सूर्य सबको चलाने वाला है। वह परमेश्वर है। वह प्रकाशमान सूर्य जो सर्वप्रेरक है, सर्वनियामक है, सारी पृथिवी को, सारे कार्यों को सदैव निहारत रहता है। वह सर्वनियन्ता, समस्त संसार का द्रष्टा, एक नेत्र स्वरूप ईश्वर आकाश और धरती पर सबसे ऊंचा है। वह पुरुषोत्तम है।

चौदहवां काण्ड

इस काण्ड में विवाह-संस्कार सम्बन्धी मन्त्र हैं। भारतीय जीवन में वैवाहिक संस्कारों का विशेष महत्त्व है।

पन्द्रहवां काण्ड

इस काण्ड में अध्यात्म प्रकरण, परमात्मा की महिमा आदि का विशद वर्णन

किया गया है।

सोलहवां काण्ड

इस काण्ड में दुःखमोचन के मन्त्र हैं। यह समस्त संसार दुःख से बंधा है। मनुष्य इस दुःख से निकलकर सुख की चाह में जीवन व्यतीत करना चाहता है।

सत्रहवां काण्ड

इस काण्ड में मोहन, वशीकरण और अभ्युदय प्रार्थना के मन्त्र हैं। जीवात्मा परमात्मा से सदैव सुख और आनन्द की कामना करता है-

उद्यते नम उदायते नम उदिताय नमः । विराजे नमः स्वराजे नमः सम्राजे नमः ॥

(अथ. 17/1/22)

अर्थात् उदय होते हुए परमात्मा को नमस्कार है, ऊंचे उठते हुए परमात्मा को नमस्कार है, उदय हो चुके परमात्मा को नमस्कार है, विविध राजाओं को नमस्कार है, अपने आपको नमस्कार है, राजराजेश्वर सम्राट् को नमस्कार है।

भाव यही है कि परमात्मा प्रलय और सृष्टि की सन्धि अवस्था में, सृष्टि रचना की स्थिति में, सृष्टि की रचना कर चुकने की स्थिति में अपनी महानता प्रकट करता है। उस सर्वशक्तिमान् अद्वितीय जगदीश्वर को नमन करते हुए, हम सभी सुखी रहें। मोह-माया के बन्धनों से मुक्त रहें।

अट्ठारहवां काण्ड

इस काण्ड में अन्त्येष्टि कर्म का वर्णन है अर्थात मृत्यु के उपरान्त चिता कैसी बनानी चाहिए और अन्तिम कर्म करते हुए क्या-क्या करना चाहिए आदि ।

उन्नीसवां काण्ड

इस काण्ड में ज्योतिष ज्ञान का विशद वर्णन है। इसके अतिरिक्त इसमें यज्ञकर्म, जगत्बीज पुरुष, नक्षत्रादि, शान्ति, दीर्घायु, अभय, सुरक्षा, ब्रह्मा, राष्ट्र, अश्व, अहंकार, मणिबन्ध, बल-प्राप्ति, रोगविनाश, जड़ी-बूटियां, रात्रि, ब्रह्मयज्ञ, काम, दुःस्वप्न, असुरविनाश, वेदमाता, काल आदि की चर्चा की गयी है। सभी विद्याओं के अध्ययन के लिए पुरुषार्थ और साधना की आवश्यकता होती है-

आयुषायुः कृतां जीवायुष्मान् जीव मा मृथाः । प्राणेनात्मन्वतां जीव मा मृत्योरुदगा वशम् ॥

(अथ. 19/27/8)

अर्थात् जीवन देने वाले के जीवन के साथ तू जीवित रह, उत्तम जीवन वाला होकर तू जीवित रह । तू मृत्यु को प्राप्त न हो, आत्मसाक्षात्कार करने वाले ज्ञानियों के जीवन-सामर्थ्य से तू जीवित रह, मृत्यु के वशीभूत मत हो ।

भाव यही है कि मानव-जीवन ‘कर्मयोनि’ और ‘भोगयोनि’ दोनों का समन्वित रूप है। यह मानव-शरीर हमें इसलिए मिला है कि हम अपने कर्मों के भोग को भोगें और नवीन कर्म करने के लिए प्रयासरत हों। जो आत्मज्ञानी मृत्यु के भय से मुक्त कराये, उसी के साथ अथवा उसके बताये मार्ग के अनुसार चलकर हम जीवन को सुखी बनाएं।

काल का भय मनुष्य को सदैव लगा रहता है। यह काल एक घोड़े के समान है, जो सदैव दौड़ता रहता है-

कालो अश्वो वहति सप्तरश्मिः सहस्राक्षो अजरो भूरिरेताः । तमारोहन्ति कवयो वियश्चितस्तस्य चक्रा भुवनानि विश्वा ॥

(अथ. 19/53/1) अर्थात् भृगु ऋषि काल के बारे में बताते हैं कि काल सात रस्सियों वाला, हज़ारों धुरियों को चलाने वाला अजर-अमर है। वह महाबली समयरूपी घोड़े के समान दौड़ रहा है। समस्त उत्पन्न वस्तुएं, पदार्थ, जीव और सारे भुवन अथवा लोक उसके चक्र में, चक्रवत घूम रहे हैं। उस घोड़े पर ज्ञानी और क्रान्तदर्शी लोग ही सवार हो सकते हैं।

भाव यही है कि समयरूपी काल-अश्व तेजी से दौड़ रहा है। इस पर ज्ञानी और दूरदर्शी व्यक्ति ही सवार हो सकते हैं, अर्थात् जिन्होंने आत्मदर्शन से मुक्ति पा ली है, उन्हें मृत्यु-भय कभी नहीं सताता । जो विद्वान् हैं, पराक्रमी हैं, जितेन्द्रिय हैं, तपस्वी हैं, वे ही मृत्यु-भय से दूर होकर सुख प्राप्त करते हैं।

बीसवां काण्ड

यह सबसे बड़ा काण्ड है। इसमें ऋग्वेद के अधिकांश मन्त्र हैं और सामवेद के भी मन्त्रों की बहुतायत है। इस काण्ड में प्रमुख रूप से ‘इन्द्र देवता’ की उपासना के मन्त्र हैं। दानवीर यजमानों और राजाओं की भी प्रशंसा भी इसमें की गयी है।

अथर्ववेद के मन्त्रों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि यहां पर मानव जीवन के विविध पक्षों का सांगोपांग वर्णन किया गया है। इसमें चारों वर्णों और चारों आश्रमों का विवेचन करते हुए मानव-जीवन में धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के सिद्धान्त को समझाया गया है।

 अथर्ववेद की रहस्य विद्या

‘अथर्ववेद’ के सम्पूर्ण मन्त्रों को ‘शान्ति, ‘ ‘पुष्टि’ और ‘अभिचार’ इन तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। इन मंत्रों का लक्ष्य ‘अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति’ और ‘प्राप्त वस्तु की रक्षा करना’ है।

उपरोक्त विचार पण्डित देवदत्त शास्त्री जी के हैं। उन्होंने इसे ‘योगक्षेम’ का नाम दिया है। इस योगक्षेम को अथर्ववेद में ‘शान्ति, ”पुष्टि’ और ‘अभिचार’ द्वारा प्रकट किया गया है।

शास्त्री जी के अनुसार- ‘अथर्ववेद रहस्य विद्या, तत्त्वज्ञान और जनकल्याणी कर्मों का वेद है।’ इस वेद में ‘कृत्यादूषण’ एवं जो ‘अभिचारकर्म’ बताये गये हैं, उनका उद्देश्य किसी को हानि पहुंचाना नहीं है, अपितु उनका उद्देश्य आत्मरक्षार्थ कर्मों से है। वे शान्ति और पुष्टि के कर्मों को स्थायित्व देने वाले हैं। अभिचारकर्मों से शत्रुओं, दुष्टों और असुरों का दमन किया जाता है, ताकि मानव जाति का भला हो सके। किसी को हानि न हो। यहां उन्हें अपने अनुकूल बनाये जाने का प्रयास है, जिससे उनकी कृपा प्राप्त हो सके। यातुकर्म का आधार किसी को कष्ट पहुंचाना नहीं, अपितु उपासना से है।

यातुकर्म में औषधि, गण्डा-तावीज़, मणिबन्ध आदि की उपासना और मन्त्रों के अनुष्ठान से शक्ति और सफलता प्राप्त की जाती है। अतः यातुकर्म को जादू- टोना-टोटका आदि मानना नासमझी की बात है। पार्थिव पदार्थों की प्राप्ति के लिए जो क्रिया की जाती है, वही ‘यातुकर्म’ कहलाती है। ध्यान द्वारा, भक्ति के द्वारा और ज्ञान के द्वारा ‘यातुकर्म’ किया जा सकता है। इसी कारण अथर्ववेद को रहस्य विद्या का सागर माना गया है। यह विद्या अत्यन्त व्यापक और विराट् है ।

अध्यात्मज्ञान (ब्रह्मज्ञान )

अथर्ववेद में ब्रह्मज्ञान, अध्यात्मज्ञान, अर्थात् धर्म सम्बन्धी अनेक महत्त्वपूर्ण उपदेशों का उल्लेख किया गया है। साधना और चिन्तन के द्वारा अनेक ईश्वरीय शक्तियों को खोजा गया है। आत्मदर्शन से ‘स्थितप्रज्ञ’ की स्थिति पायी गयी है। यह स्थिति अथर्ववेद के अधिक निकट है; क्योंकि ‘अथर्व’ का अर्थ ही ‘अचंचलता की स्थिति’ है। ‘स्थितप्रज्ञ’ भी वही है, जिसने अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों पर नियन्त्रण प्राप्त कर लिया हो । शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, सभी प्रकार की चंचलता पर नियन्त्रण करने वाले व्यक्ति को ‘स्थितप्रज्ञ’ कहा जाता है। यूं तो इस वेद में मन्त्र- तन्त्र, जादू-टोना आदि की बात दोष के रूप में देखी जाती है, परन्तु वास्तव में अथर्ववेद में अधिकांश मन्त्र ब्रह्मसत्ता की उपासना से ही सम्बन्धित हैं।

यहां उसी ‘अज्ञात’ से साक्षात्कार का प्रयास दिखाई पड़ता है। वह अज्ञान

(परमात्मा) हमारी समझ से परे है, फिर भी वह हमारी रक्षा करता है, हमें विनाश से बचाता है, वह हमारे दुर्भाग्य का निवारण करने वाला है। उसी अज्ञात को प्राप्त करना, विनाश और दुर्भाग्य से अपने आपको बचाना, इस अथर्ववेद संहिता का प्रधान विषय है।

‘अध्यात्म विद्या’ को अथर्ववेद में ‘गुह्य आध्यात्मिक विद्या, ‘ अर्थात् रहस्यमयी विद्या कहा गया है। परमात्मा का साक्षात्कार अत्यन्त रहस्यमय है। उसका साक्षात्कार जो विद्या कराती है, वह गूढ़ तत्त्वों का ज्ञान कराने वाली ‘गुह्य आध्यात्मिक विद्या’ है।

जितना हमारे शरीर का महत्त्व है, उससे भी अधिक महत्त्व हमारे शरीर में जीवनी शक्ति के रूप में विद्यमान ‘आत्मा’ का है। सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त ईश्वर की परम सत्ता का ज्ञान, अथर्ववेद की गुह्य अध्यात्म-विद्या के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। इसे साधना द्वारा कोई भी प्राप्त कर सकता है।

‘योग-विद्या’ के सन्दर्भ में अथर्ववेद मानव शरीर को ही अयोध्यापुरी मानता है। आठ चक्रों और नौ द्वारों वाली यह अयोध्या तब तक ही देवताओं के अधीन रहती है, जब तक देवासुर संग्राम (सद्वृत्तियां- दुष्प्रवृत्तियां) नहीं छिड़ता ।।

‘योग-विद्या’ के अनुसार, इस मानव शरीर में मूलाधार आदि आठ चक्र हैं

और इन्द्रियों के रूप में 9 इन्द्रियां हैं। इस नगरी के केन्द्र हृदय में ‘प्रकाशमान स्वर्ग’

स्थित है। यहीं यम, नियम, प्रत्याहार, प्राणायाम आदि द्वारा ईश्वर को पाया जा

सकता है। शरीर में स्थित षट्चक्रों का भेदन करके ‘कुण्डलिनी’ शक्ति को जगाया जाता है और उसे ब्रह्मरन्ध्र में उपस्थित परमात्मा के पास ले जाया जाता है, परन्तु यह कोई आसान कार्य नहीं है। इसके लिए कठोर और नियमित साधना की आवश्यकता होती है। प्राण-विद्या की साधना ही योग-साधना का लक्ष्य है।

अथर्ववेद के अध्यात्म सम्बन्धी मन्त्रों में उस ‘सविता’ देव की उपासना को जाती है, जिसके प्रकाश से ब्रह्माण्ड में स्थित असंख्य सूर्यो को प्रकाश और ऊर्जा प्राप्त होती है। यह ‘सविता’ देव सभी को उत्पन्न करने वाला है और सभी का पालन करता है। वह सत्य स्वरूप है। नित्य और अजन्मा है। यह शक्ति का स्रोत है। उत्तम दाता और कल्याणकारी है।

उपासक या साधक परमात्मा के इसी ‘सविता’ स्वरूप की आराधना करते हैं। उसके गुणों को अपने हृदय में धारण करते हैं। परमात्मा के तेजोमय स्वरूप को धारण करने वाला साधक अहिंसक हो जाता है।

अथर्ववेद के काण्ड 5 के सूक्त 1 में नौ मन्त्रों द्वारा अध्यात्म विद्या का गूढ़ उपदेश दिया गया है। इन मन्त्रों की भाषा भी अत्यन्त गूढ़ है तथा प्रत्येक मन्त्र गूढ़ अध्यात्म भावों से भरपूर है।

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अथर्ववेद संहिता (भाग एक) – 1

इन मन्त्रों का सार तत्त्व यही है कि हम सदा मृत्यु के भय से मुक्त होते हुए स्वयं को अमर मानें। दीन-हीन भावों से दूर रहें। सत्य निष्ठा से अपनी आत्मशक्ति को पहचानें। अपनी समस्त इन्द्रियों को नियन्त्रण में रखें। सदैव उदात्त विचारों का निर्वहण करें, उदात्त जीवन का पालन करें। सदा सच्चिदानन्द स्वरूप का ध्यान करके आनन्दमय तथा शान्तिपूर्ण जीवन बितायें। इस मानव शरीर का शुद्ध और पवित्र रूप से प्रयोग करें। प्राणिमात्र के प्रति प्रेम, स्नेह, संवेदना और सद्भाव रखें। उत्तम सत्संगति प्राप्त करें। अपनी शक्तियों का सदुपयोग करें। परमपिता की महान् शक्ति के सम्मुख अहंकाररहित नम्र भावना को प्रकट करें।

चोरी-चकारी, लूट-पाट, दुराचार, व्यभिचार, मद्यपान, जुआ, गर्भपात आदि कुकर्मों से बचें। सदाचार की मर्यादा के अनुसार आचरण करें। उत्तम व्रतों और नियमों का सदा पालन करें। पुरुषार्थी बनें, निर्भय रहें, माता-पिता और गुरु की सदा सेवा करें, उन्हें ही अपना परमात्मा मानें। परमात्मा सभी का रक्षक, पालनकर्ता और सभी को स्नेह करने वाला है। उसका गुणगान करते हुए जीवन-यापन चलायें। ऐसा करने से ही आत्मोन्नति और सुख-शान्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।

अथर्ववेद की तान्त्रिक शक्ति

अथर्ववेद की रहस्य विद्या में निरामय सुखी जीवन बिताने, सद्गति प्राप्त करने, इच्छाओं की पूर्ति करने आदि के अनेकानेक विधान हैं। मानव-जीवन का प्रत्येक पक्ष इसमें समाहित हैं, जिसे संवारने का कार्य ऋषियों ने पूरी लगन के साथ किया है। धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष प्राप्त कराने के लिए अथर्ववेद में तन्त्र-विज्ञान के साधन उपलब्ध हैं।

वेद स्वतः प्रमाण हैं। उनके रहस्य को प्रकट करने के लिए किसी बाह्य साहित्य की आवश्यकता नहीं है। यहां पर ज्ञान-विज्ञान दोनों का सम्मिलन है। अथर्ववेद में 33 देवताओं का वर्णन किया गया है (10/7/27)। इन देवों को अथर्ववेद विश्व ब्रह्माण्ड का पालनकर्ता (10/7/23) मानता है। ये सभी देव ‘तन्त्र शक्ति’ के जनक हैं।

अथर्ववेद की तन्त्र शक्ति एक सशक्त अन्तः प्रक्रिया है। मन्त्रों के प्रयोग से जैसा संकल्प किया गया है, वैसी ही शक्ति उत्पन्न होती है। जब किसी भूत-प्रेत अथवा व्याधिग्रस्त व्यक्ति पर इन मन्त्रों का प्रयोग किया जाता है, तो पीड़ित करने वाली मृतात्मा साधक के सामने साक्षात् आ खड़ी होती है। साधक उससे साक्षात् प्रश्न करता है और उसे मन्त्र-शक्तियों के द्वारा वश में करके व्याधिग्रस्त व्यक्ति को बाधा- – मुक्त करता है। यह शक्ति प्राण-शक्ति की साधना से ही प्राप्त की जाती है। अथर्ववेद की तन्त्र शक्ति केवल भौतिक लक्ष्यों तक या रोगों को दूर करने

तक ही सीमित नहीं है। इस शक्ति की साधना का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। इसका सीधा सम्बन्ध योग-साधना और अध्यात्म-साधना से जुड़ा हुआ है। इस तान्त्रिक शक्ति द्वारा विविध ऊपरी हवा के रोग, भूत-प्रेत-बाधा, कष्ट, दारिद्र्य, वशीकरण, मणिबन्ध, टोना-टोटका आदि का समाधान किया जा सकता है।

अथर्ववेद में इसके द्वारा समाधान करने की प्रक्रिया के बारे में उल्लेख करते हुए ऋषिगण का कहना है कि मनुष्य के शरीर के प्रत्येक भाग में प्राण-शक्ति का संचार अबाध रूप से होता रहता है, किन्तु जब किसी अंग में यह संचार अवरुद्ध हो जाता है, तब उसी स्थान पर रोग उत्पन्न हो जाता है। अथर्ववेद में दिये गये मन्त्रों के प्रयोग से ऐसे लाइलाज रोगों का उपचार आसानी से हो जाता है।

अथर्ववेद का तान्त्रिक प्राण-शक्ति की संचार गति का सूक्ष्मता के साथ अवलोकन करता है और रोग का निदान मन्त्रों द्वारा करता है। शरीर में 82,000/- नाड़ियों का जाल बिछा हुआ है, जिनका मुख्य केन्द्र हाथ, पैर और सिर में होता है। अथर्ववेद के मन्त्रों का प्रायोजक रोगी के सिर पर हाथ फेरकर या उसके हाथों को अपने हाथों में में लेकर अपनी अन्तःप्रेरणा से जान जाता है कि प्राण-शक्ति का अवरोध कहां पर है। प्रायोजक उसी के अनुसार मन्त्र का चयन करके रोगों का उपचार करता है।

यदि किसी व्यक्ति के पेट में भयानक दर्द है, तो निश्चित रूप से यकृत में। सूजन होगी या तिल्ली में पीड़ा होगी। हृदय में चसक उठती है या उसे रक्त को उल्टियां होती हैं, तो ऐसे व्यक्ति का उपचार मणिबन्ध तथा मन्त्र- आदेश से किन जाता है। अथर्ववेद की ‘प्राण-विद्या’ रहस्यमयी विद्या है। इस प्राण-विद्या के द्वारा

शरीर की चेतन-अवचेतन क्रियाओं को नियन्त्रित किया जाता है।

पण्डित देवदत्त शास्त्री ने ‘शरीर-तन्त्र’ का बड़ा सुन्दर चित्रण किया है। उनका कहना है कि मनुष्य का शरीर मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार तथा पांच कर्मेन्द्रिय और पांच ज्ञानेन्द्रियों से निर्मित है। इसमें हृदय है, कुण्डलिनी हैं, षट्चक्र सहस्रार चक्र है। ऐसे उत्तम शरीर को वेदों में, उपनिषदों में ब्रह्मपुरी कहा गया है और इस पुरी में निवास करने के कारण ‘ब्रह्म’ को ‘पुरुष’ कहा गया है। है

ऊर्ध्वो नु सृष्टा ऽस्तिर्यङ्नु सृष्टा ३ः सर्वा दिशः पुरुष आ बभूवा ३ । पुरं यो ब्रह्मणो वेद यस्याः पुरुष उच्यते ।।

अर्थात् ऊंचा उत्पन्न होता हुआ और तिरछा उत्पन्न होता हुआ वह पुरुष दिशाओं में यथावत् व्याप्त है। जो मनुष्य ब्रह्म की उस पुरी को जानता है, उसी से बा उसे परमेश्वर, पूर्णपुरुष, अर्थात् ‘पुरुषोत्तम’ मानता है। (अथ. 10/2/21

यह अनन्त ब्रह्माण्ड ब्रह्म की रचना है। मनुष्य का शरीर इस ब्रह्माण्ड की ब्रह्मपुरी है। शरीर की इस प्रकार की दिव्यता का वर्णन करने के पीछे अथर्ववेद का प्रयोजन यही है कि रोग, दोष, पाप, शाप तथा दुर्भाग्य से बचने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को शरीर की दिव्यता का ज्ञान अवश्य रखना चाहिए। उसे मल, मूत्र, मेदा, मज्जा, रोग-दोष का ही केन्द्र नहीं समझना चाहिए और न जरा-जीर्ण होने वाला समझकर वह उसकी उपेक्षा ही करे। शरीर के रोम-रोम में ईश्वर का वास है, यही समझकर उसके प्रति श्रद्धा रखनी चाहिए।

अथर्ववेद इस शरीर को सभी प्रकार की शारीरिक, मानसिक और दैविक व्याधियों से बचाने के उपाय तन्त्र-साधना द्वारा बताता है। यहां पर सभी पूर्वकृत अथवा ऐहिक पापों से उत्पन्न व्याधियों को दूर करने के लिए ‘यातुकर्म’ और ‘धर्मकर्म’ का प्रयोग बताया गया है।

प्रायः भारतीय विद्वान् और पाश्चात्य विद्वान्, ‘यातुकर्म’ को ‘जादू, ‘इन्द्रजाल, , ‘टोना-टोटका’ आदि मानने लगते हैं, परन्तु ऐसा नहीं है। पार्थिव पदार्थों की प्राप्ति के लिए किये जाने वाले अथर्ववेदीय प्रयोग ‘यातुकर्म’ कहलाते हैं। इसके अतिरिक्त ‘ज्ञान योग, भक्ति योग’ और ‘ध्यान योग’ द्वारा किये जाने वाले कर्म ‘धर्मकर्म’ कहलाते हैं। सारांश यही है कि ‘अर्थ’ और ‘काम’ की प्राप्ति के लिए ‘यातुकर्म’ और ‘मोक्ष’ की प्राप्ति के लिए ‘धर्म-कर्म’ किया जाता है।

अथर्ववेद में भूत-प्रेत, टोने-टोटके और शत्रुविनाश आदि के लिए किये जाने वाले तान्त्रिक प्रयोगों को’ अभिचारिक कर्म’ अथवा ‘कृत्या प्रतिहारक कर्म’ कहा जाता है। इस प्रकार के प्रयोगों में वे मन्त्र आते हैं, जो प्रतिद्वन्द्विता के सूचक हैं। इन मन्त्रों में देवों का आह्वान करके रोगों और दोषों का निवारण करने की प्रार्थना की जाती है।

मन्त्र विद्या

अथर्ववेद में ‘मन्त्र विद्या’ को इन पांच भागों में विभाजित किया गया है- 1. संकल्प अथवा आवेश मन्त्र, 2. अभिमर्षण अथवा मार्जन मन्त्र, 3. आदेश मन्त्र, 4. मणिबन्धन मन्त्र और 5. कृत्या अथवा अभिचार मन्त्र ।

संकल्प मन्त्रों में दुःस्वप्न, दुःख, दुष्प्रवृत्तियों में रत, पाप, शाप आदि के प्रभाव को दूर करने के लिए मन्त्रों का प्रयोग किया जाता है। इसमें प्रायोजक रोगी अथवा दुखी प्राणी के सिर पर हाथ रखकर मन्त्र पढ़ते हुए रोगी को नीरोग और सुखी होने का संकल्प कराता है। इसमें एक प्रकार से ‘शक्तिपात’ कराया जाता है। ‘शक्तिपात’ कराना सरल नहीं होता। इसके लिए प्रायोजक को साधना द्वारा एकाग्रता प्राप्त करनी होती है, तभी वह रोगों को और दोषों को दूर करने में समर्थ हो सकता है। आत्मशक्तिसम्पन्न प्रायोजक ही ‘संकल्प’ मन्त्रों का प्रयोग कर सकता है।

अभिमर्षण या मार्जन मन्त्रों में रोगी अथवा दोषी व्यक्ति के शरीर का स्पर्श करके मन्त्र पढ़े जाते हैं। ‘अभिमर्षण’ का अर्थ है, दोनों हाथों की अंगुलियों से रोगी के शरीर के अंगों को ऊपर से नीचे तक स्पर्श करना। ऐसा करने से रोगी के शरीर में प्रयोक्ता द्वारा विद्युत् तरंगें प्रक्षेपित हो जाती हैं। सारे शरीर में सनसनाहट होने लगती है। शरीर रोमांचित होकर स्वस्थ हो जाता है। दिल के दौरे में, उच्चरक्तचाप, व वज्राघात आदि में यह मन्त्र-क्रिया तत्काल प्रभाव डालती है।

आदेश मन्त्रों में मन्त्रों की भावना के अनुसार रोग, दोष, मानसिक विकार आदि को दूर किया जाता है। अथर्ववेद में इसे ‘संवशीकरण’ भी कहा गया है। चंचल प्रवृत्ति के लोगों पर इसका प्रयोग तत्काल प्रभाव डालता है। घमण्डी और पागलपन लिये हुए व्यक्तियों पर आदेश मन्त्रों का सीधा प्रभाव पड़ता है। अंगरेजी में इसे ‘हिप्नोटाइज़’ कहते हैं-अर्थात् ‘सम्मोहन’ द्वारा रोगी की चित्तवृत्तियों को वश में करके उसे आदेश देना।

इन आदेश मन्त्रों द्वारा पागलों, उद्दण्ड लोगों, डाकुओं, हत्यारों, दुराचारियों, नशाखोरों, आलसियों, ईर्ष्यालुओं, चिन्तातुरों आदि को अपने वश में किया जा सकता है। घातक और असाध्य रोगों को भी आदेश मन्त्रों द्वारा ठीक किया जा सकता है।

मणिबन्धन मन्त्रों में युद्ध में विजय, शत्रु-पराजय, अनिष्ट, दुर्भाग्य, पाप, शाप आदि को सिद्ध करने और उनसे बचने का उपाय किया जाता है। ‘मणि’ का तात्पर्य अथर्ववेद में लताओं, वृक्षों की जड़ों, फूल-फल और बीज आदि को अभिमन्त्रित करके तावीज़ आदि में भरकर शरीर के किसी अंग में बांधना होता है। या शत्रु पर फेंका जाता है।

कृत्या अथवा अभिचार मन्त्रों में मारण, मोहन, उच्चाटन, कीलन, विद्वेषण और वशीकरण के मन्त्र आते हैं। अथर्ववेद में इनके प्रभाव को दूर करने के लिए 32 मन्त्रों द्वारा हवन करने का विधान बताया गया है। ये सभी कर्म ‘अरिष्ट’ में आते हैं। जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि कृत्या या अभिचारविषयक मन्त्रों में देवों का आह्वान किया जाता है। अथर्ववेद के 2/14वें सूक्त में तथा 3 / 9वें सूक्त में इन मन्त्रों का उल्लेख है। यहां कष्ट निवारण के लिए देवों और भूत-प्रेतों का आह्वान किया जाता है। इस प्रकार के तन्त्र-प्रयोग अभिचारिक या कृत्या प्रतिहारक कहे जाते हैं।

‘स्त्रीवशीकरण’ के लिए अथर्ववेद में अनेक मन्त्रों का प्रयोग हुआ है। अथर्ववेद के 3/25, 4/5, 6/13, 7/90 सूक्तों में ऐसे मन्त्र दिये गये हैं। ये वशीभूत करने के अमोघ सिद्ध मन्त्र हैं।

इस प्रकार मनुष्य के चित्त, हृदय और मन को वश में करने के लिए तन्त्र- विद्या का प्रयोग किया जाता है। दाम्पत्य-जीवन की सुख-समृद्धि के लिए इस तन्त्र – शक्ति का प्रयोग अथर्ववेद में स्थान-स्थान पर किया गया है।

अथर्ववेद में ‘भूत, प्रेत, पिशाच’ की बाधा दूर करने के लिए 2/14/3 मन्त्रों का प्रयोग किया गया है। ‘गृह, पशु और मनुष्यों की सुरक्षा’ आदि के लिए 3/9/4 मन्त्रों को देखना चाहिए।

‘विवाह योग्य कन्या के विवाह के लिए’ 2/36/6-60 के मन्त्रों का प्रयोग • करना चाहिए। ‘पति-पत्नी के बीच मनमुटाव’ को दूर करने के लिए अथर्ववेद के 6/133 सूक्त के मन्त्रों का प्रयोग करना चाहिए।

‘प्रतिद्वन्द्वी, प्रतिपक्षी, प्रतिद्वेषी, शत्रु, वादी, प्रतिवादी’ को सम्मोहित करने के

लिए अथर्ववेद के 3/1 सूक्त को सम्मोहन विधि से अभिमन्त्रित करना चाहिए।

अथर्ववेद में, भूत-प्रेतों द्वारा अभिचार कर्म करने वाले अथवा ‘इन्द्रजाल’ द्वारा अद्भुत कर्म करने वालों को ‘यातुधान’ कहा गया है। उनमें और राक्षसों में कोई भेद नहीं है।

अथर्ववेद में ओषधि-भेषज द्वारा आधि-व्याधि निवारण

अथर्ववेद में ओषधि, भेषज, आधि, व्याधि और रोग आदि के अर्थ को समझ लेना आवश्यक है। तभी इसके मन्त्रों का उपयोगी प्रभाव डालने का ढंग समझ में आ सकता है; क्योंकि हर कोई इन मन्त्रों का उचित प्रयोग नहीं कर सकता। कभी-कभी मन्त्रों का उलटा प्रभाव भी हो जाता है।

श्रद्धापूर्वक अथर्ववेद के मन्त्रों का जप करने से मन्त्र के अनुकूल फल की प्राप्ति होती है। अथर्ववेद में व्याधियों और दोषों के निदान का वर्णन प्रचुरता के साथ मिलता है। रोग के लक्षण आदि को अथर्ववेद में ‘निदान’ की संज्ञा दी गयी है। पण्डित देवदत्त शास्त्री ने ओषधि आदि की परिभाषा इस प्रकार की है। ओषधि

ओषधि में ‘ओष’ का अर्थ ‘रस’ होता है। जो ओष, अर्थात् रस को धारण करे, वह ‘ओषधि’ है। रसप्रधान पदार्थ (ओषधि) शरीर और मन के दोषों व विकारों आदि को दूर करता है। उद्दीपन, पाचन, ओज, शक्ति, ऊर्जा आदि को बढ़ाने वाली और लेपन-बन्धन में काम आने वाले रसायन को ओषधि कहते हैं। भेषज

हठयोग, राजयोग, साम्ययोग, सांख्ययोग, हवन, यज्ञ, जप, अनुष्ठान, उपासना, आराधना, व्रत, उपस्थान, मार्जन, अवसेचन, अभिमर्षण, अभिमन्त्रणा, रक्षाकरण्ड बन्धन, मणिबन्धन, पुरोडाश, सर्षपप्रक्षेपण आदि मन्त्रों द्वारा व्याधियों को दूर करने की क्रिया ‘ भेषज’ हैं।

रोग

शरीरगत धातुओं को क्षीण करने वाले, नाड़ियों, प्राणों, इन्द्रियों को शिथिल दुर्बल और निष्क्रिय बनाने वाले, प्रगति और अभ्युदय के बाधक ‘उपताप’ का नाम ‘रोग’ है।

आधि

सूक्ष्मतम, मानसिक उपताप का नाम ‘आधि’ है। मन से सम्बन्धित सभी रोग ‘आधि’ के अन्तर्गत आते हैं।

व्याधि

प्राण, मन, अन्तःकरण, चित्त और बौद्धिक उपताप को ‘व्याधि’ कहा जाता है। व्याधियां दो कारणों से जन्म लेती हैं- एक ‘उत्पत्ति दोष’ के कारण और दूसरे ‘मिथ्या आहार-विहार’ के कारण।

अथर्ववेद की प्रमुख व्याधियां और मृत्यु

अथर्ववेद में मुख्य रूप से पांच प्रकार की ‘मृत्यु’ बतायी गयी है-देवों (सदाचारी, विद्वानों) के शाप से, प्रेताग्नि से, अराति (शत्रु) द्वारा, निर्ऋऋति (दुर्गति) से और दीर्घकालीन रोगों से। इसके अलावा छोटे-मोटे कारणों से 101 प्रकार की ‘मृत्यु’ बतायी गयी है,

यथा-पिशाच ( रक्तचूस कीटाणु), राक्षस (कपटी व्यवहार करने वाले), दु (चापलूसी, धूर्त, अवसरवादी, स्वार्थी), तमः (क्रूर, कुचाली, दुर्मुख, लोभी, कामी, अज्ञानी) द्वारा, अभिचार (मारण, मोहन, उच्चाटन, कीलन आदि), नाष्ट्र (विषधारी जीवों के द्वारा, अस्त्र, प्रक्षेपास्त्र, विनाशक) द्वारा, शरीरं असवः आदि (विविध प्रकार की अकाल मृत्यु) द्वारा अकाल मृत्यु होती है।

‘व्याधियां’ पूर्वजन्म के अशुभ कर्मों के कारण होती है। इन्हें ‘कर्मज व्याधियों कहते हैं। ये हरण, अपहरण, हत्या, लूट, भ्रूणहत्या, अवैध गर्भपात, घृणा, ईर्ष्या पापाचरण, कुटिल व्यवहार, पूर्वजनिन्दा, परस्त्रीगमन, झूठी गवाही, झूठी शपथ धूर्तता आदि के कारण उत्पन्न होती हैं।

अथर्ववेद ‘दुःस्वप्नों’ को भी रोग का कारण मानता है। यही नहीं, अथर्ववेद के अनुसार हरे वृक्षों को काटने, तोड़ने या उखाड़ने से आयु व यश घटता है तथ आपदाएं घेरती हैं। इस प्रकार अथर्ववेद ‘पर्यावरण’ के बारे में भी सजग दिखा देता है।

रोग-शमन के उपाय

अथर्ववेद में अनेक स्थलों पर सभी प्रकार के रोगों के शमन के लिए विरिट पदार्थों और जड़ी-बूटियों का उल्लेख किया गया है। जैसे ‘जल’ और ‘वनस्पतियों द्वारा रोगों के निदान के लिए अथर्ववेद के 6/25, 6/91, 6/95, 19/44 सूक्तों के मन्त्रों में विधि बतायी गयी है।

‘स्वास्थ्य’ और ‘दीर्घायु के लिए 2/28, 3/11, 4/9/10, 5/30, 7/53, 8/1 और 19/26 सूक्तों के मन्त्रों को देखिये ।

‘अभिचार’ (भूत-प्रेत-पिशाच) शमन के लिए अथर्ववेद के 2/14, 3/9 5/778/28/29, 6/2/34, 7/110 मन्त्रों में प्रेतों, पिशाचों का संहार करने के लिए देवों का आह्वान किया गया है।

पुरुषों को वश में करने के लिए 1/34 सूक्त में उपाय बताया गया है। राज्य- शासन और शासक के यश को बढ़ाने तथा विजय प्राप्त कराने वाले मन्त्र अथर्ववेद के 1/19, 341, 3/2, 5/20/21, 6/97/99, 8/8, 11/9-10 सूक्तों में देखे जा सकते हैं।

‘गर्भरक्षक’ ओषधि (8/6/3) ‘बज’ है। आयुर्वेद में इसे ‘काकजंघा’ कहते हैं। रविवार के दिन इस ओषधि की लकड़ी गर्भवती स्त्री की कमर में बांध देने से गर्भपात कभी नहीं होता। गर्भस्राव तत्काल रुक जाता है। पीली सरसों भी गर्भस्थ शिशु की रक्षा करती है। यदि तीन महीने का गर्भ हो जाये, तो पीली सरसों गर्भवती की कमर में बांध देनी चाहिए। तब गर्भस्थ शिशु कन्या नहीं, पुत्र ही होता है।

‘बन्ध्यापन’ (बांझपन दूर करने के लिए अभिमन्त्रित सरसों का प्रयोग किया जाता है। भाष्यकार सायण ने अथर्ववेद के भाष्य (8/6/18) में इसके सूक्त (8/6) की भूमिका में कौशिक सूत्र (35/20) के वचनों को उद्धृत करते हुए लिखा है कि गर्भिणी स्त्री के हाथ में पीली और सफ़ेद सरसों बांधने से गर्भपात नहीं होता। गर्भ पुष्ट होता है और पुत्र ही उत्पन्न होता है।

ये मात्र कुछ उदाहरण हैं, जो यहां दिये गये हैं, जबकि अथर्ववेद में भेषज सूक्तों का प्रचुर भण्डार भरा पड़ा है। अथर्ववेद के अनेक मन्त्रों में रोगों के सामान्य कारणों का उल्लेख करते हुए उनके शमन की विविध प्रणालियों का उल्लेख किया गया है। अथर्ववेद में मन्त्रों द्वारा ही रोगों का शमन नहीं किया जाता, वहां ‘आयुर्वेदीय ‘चिकित्सा’ का भी विधान बताया गया है।

आयुर्वेदिक चिकित्सा

‘आयुर्वेदीय चिकित्सा’ में ‘ आश्वासन चिकित्सा’, ‘उपचार चिकित्सा’, ‘सूर्य- किरण चिकित्सा’, ‘जल चिकित्सा, ‘अग्नि चिकित्सा, ‘केशरोग चिकित्सा’, ‘शिरोरोग चिकित्सा’, ‘मानसिक रोग चिकित्सा, ‘भूतोन्माद रोग चिकित्सा, ‘अपस्मार’ (मृगी, मूर्च्छा) चिकित्साएं, ‘नेत्ररोग चिकित्सा’, ‘कासरोग’ (खांसी, दमा) चिकित्सा, ‘अपची (गण्डमाला) चिकित्सा’ आदि का विशद विवेचन प्राप्त होता है।

उपरोक्त रोगों के अतिरिक्त अथर्ववेद में हृदयरोग, श्वासरोग, शूलरोग, अंगरोग, बाजीकरण, कृमिरोग, वातरोग, क्षयरोग, चर्मरोग आदि का भी पर्याप्त उल्लेख प्राप्त होता है।

इस प्रकार देखा जाये तो अथर्ववेद में रहस्य-ही-रहस्य भरा हुआ है। साधारण ज्ञान द्वारा इसमें छिपे रहस्य को समझना अत्यन्त कठिन है। इसे समझने के लिए भरपूर अध्ययन और साधना की आवश्यकता है। एक ही सूक्त अथवा मन्त्र के भिन्न-भिन्न अर्थ और प्रयोजन बताये गये हैं। इन मन्त्रों के साधारण अर्थ पर नहीं जाना चाहिए। यदि एक ही मन्त्र में जलाभिमन्त्रण का संकेत है, तो वहीं दूसरे अर्थ में सौत को मार्ग से हटाकर पति को अपना बनाने का भाव प्रकट होता है, साथ ही, इसके द्वारा रोग-दोष दूर करने का अर्थ निकलता है। इस प्रकार अथर्ववेद के मन्त्रों में ‘श्लेष’ का प्रयोग स्थान-स्थान पर देखने को मिलता है। सही अर्थ समझने में कठिनाई आती है।

अथर्ववेद के अनुसार, ‘ग्लानि’, ‘क्लेश’, ‘दुःख’ और ‘संकट’ ऐसे दोष हैं, जिनका उपचार किसी चिकित्सा पद्धति में नहीं है। साथ ही सूक्ष्म प्राणतत्त्व व वासना आदि से सम्बन्धित दोषों का निराकरण भी किसी औषधि से सम्भव नहीं है। ये रोग-दोष अथर्ववेदीय आथर्वणी और आङ्गिरसी भेषज द्वारा शमन किये जाते हैं।

‘आथर्वणी’ और ‘आङ्गिरसी भेषज’ से अकालमृत्यु, अपमृत्यु, आकस्मिक दुर्घटना, बाल्यावस्था तथा युवावस्था में मृत्यु को प्राप्त होना, अधःपतन, दिवालिय हो जाना, मानसिक रोग, पागलपन, उन्माद, वंशनाश आदि आधि-व्याधियां, कुल- परम्परा के दोष, शाप, घातक मारण और सर्वनाश आदि द्वारा सब कुछ तहस-नहस कर डालने वाले रोगों का शमन होता है। ‘प्राण’ के अन्दर एक ऐसा ‘दिव्य भेषज’ होता है, जो सहज ही शरीर के अनेकानेक रोगों को नष्ट कर डालता है। यह प्राण- तत्त्व की सहज प्रक्रिया है। प्राण को ही ‘रुद्र’ कहा गया है। रुद्र का एक अर्थ ‘वैद्य’ भी है। अथर्ववेद में कहा गया है कि ‘प्राण में ओषधि’ है। जब कोई इस प्रकार सोचता है कि वह अपनी प्राणशक्ति से अपने रोगों को दूर करके नौरोग बनेगा, तब उसकी आत्म-शक्ति निश्चित रूप से उसे शनैः-शनैः उसे नीरोग का देती है। यह आत्मविश्वास और सकारात्मक सोच का परिणाम है। उसका ज विश्वास ही उसे नीरोगी होने में उसकी सहायता करता है। वस्तुतः ‘प्राण’ हो जीवन और मृत्यु का कर्ता है, नियन्ता है।

अथर्ववेद का उपदेश है—’भेषजं सेवस्व । त्वा जरदष्टिं कृणोमि, अधार उपयुक्त औषधि का सेवन और पथ्य करने से स्वास्थ्य और दीर्घायु प्राप्त होती है। तथा रोग दूर होते हैं।

अथर्ववेद में जीवन के विभिन्न पहलू भारतीय मनीषियों ने मनुष्य के प्रत्येक पक्ष पर विचार किया है। इसीलिए वैदिक मंत्रों में जीवन का ऐसा कोई पक्ष नहीं है जिसके संदर्भ में वेद में विधि

निषेध का निर्देश न दिया हो। नीचे उन्हीं में से कुछ प्रमुख क्षेत्रों की चर्चा संक्षेप में की गई है-

राजनीतिक जीवन

अथर्ववेद में राजा को देवता का स्वरूप माना गया है। राजा के सन्दर्भ में अथर्ववेद में राजा के कर्तव्य, राज्य के कर्तव्य, राज्य के भेद, उत्तम राजा के गुण, राजा का व्यवहार, राजस्व, राजसभा, ग्राम समितियां, स्वराष्ट्र शासन, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध, राष्ट्र, छत्र, विश, विश्पति, संसद और ग्रामसभा आदि का विशद वर्णन प्राप्त होता है। इससे अथर्ववेदीय काल की राजनीतिक अवस्था तथा तात्कालिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है।

अथर्ववेद में पहली बार ‘मातृभूमि’ की कल्पना की गयी है। यह कल्पना अथर्ववेद के ‘भूमि सूक्त’ में है। राष्ट्र की उत्पत्ति परमात्मा से मानी गयी है। राष्ट्र की स्थिति को सुदृढ़ और सुसम्पन्न बनाने की नीतियों का विश्लेषण अनेक मन्त्रों में हुआ है।

सत्यं बृहदूतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्मं यज्ञः पृथिवी धारयन्ति । सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्युरुं लोकं पृथिवी नः कृणोतु ॥

(अथ. 12/1/1)

अर्थात् राज्य में सत्यकर्मी, सत्यज्ञानी, जितेन्द्रिय, ईश्वर और विद्वानों से प्रीति करने वाले चतुर पुरुष पृथिवी पर उन्नति करते हैं। यह नियम (सभी राज्यों में) भूत और भविष्य के लिए सदा समान है।

भाव यही है कि राष्ट्र को सर्वोत्तम बनाने के लिए उपरोक्त गुणों को धारण करने वाले पुरुषों का होना अत्यन्त आवश्यक है। प्रजा की तेजस्विता, वीरता, शौर्य, श्रेष्ठ चरित्र और पुरुषार्थ पर ही राष्ट्र का गौरव टिका रहता

वही राष्ट्र उत्तम है, जिसमें नाना वर्णों, जातियों और धर्मों के लोग एक परिवार की भांति रहते हैं- (12/1/15) राजा और प्रजा दोनों के पारस्परिक सहयोग से ही राष्ट्र का अभ्युदय होता है।

जिस राष्ट्र का समाज अपने आत्मघाती दोषों को त्यागकर कृषि और वाणिज्य में तथा उद्योगों में पुरुषार्थ से कर्म करता है, वह राष्ट्र सदैव श्रीसम्पन्न रहता है।

सामाजिक जीवन

अथर्ववेद में मनुष्य के सामाजिक जीवन पर व्यापक रूप से प्रकाश डाला गया है। सामाजिक संगठन का पूरा ब्योरा यहां प्राप्त होता है। परिवार और उसके कर्तव्य, सामाजिक आचार-विचार, व्यवहार, वस्त्र, रहन-सहन, दिनचर्या, खाद्य- पदार्थों का संग्रह, जल, पेयजल, कृषिजल, कृषिभूमि, पशुपालन, गौरक्षा, नारी-

जीवन, दाम्पत्य-जीवन, घर की व्यवस्था, मनोरंजन, शिक्षा आदि पर भी अथर्ववेद में व्यापक प्रकाश डाला गया है।

धार्मिक जीवन

अथर्ववेद ने मनुष्य के धार्मिक जीवन को अत्यन्त सूक्ष्मता के साथ स्पर्श किया है। यज्ञ और ईश्वरीय आराधना प्रत्येक व्यक्ति का कर्म ही नहीं, धर्म है। उसके नित्य-नैमित्तिक क्रियाकलाप, अनुष्ठान, संस्कार, देवता की पूजा, ईश्वर में विश्वास, आत्मा में परमात्मा के स्वरूप का दर्शन प्रचुर मात्रा में अधिकाश मन्त्र में प्राप्त होता है।

यदि साधारण रूप से भी देखा जाये, तो अथर्ववेद के प्रायः सभी मन्त्रों में ईश्वर की आराधना के ही दर्शन होते हैं। यज्ञों द्वारा भूत, प्रेत, पिशाच, राक्षस, यातुधान, आसुरी शक्ति, ईश्वर आराधना, देवपूजा, सुख-समृद्धि की याचना आदि का खुलकर विवेचन हुआ है। ‘धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष’ की कामना अनेक मंगे में की गयी है। अथर्ववेदीय जीवन पूर्णरूप से धार्मिक है। वहां जितने भी अनुष्ठान होते हैं, वे सब धर्म की परिधि में ही होते हैं।

अथर्ववेद में ज्योतिष-शास्त्र

वेदों में ऋग्वेद और यजुर्वेद की भांति अथर्ववेद में भी ज्योतिष-शास्त्र का विस्तृत विवेचन हुआ है। अथर्ववेद के उन्नीसवें काण्ड में इसका विशद वर्णन उपलब्ध होता है। वहां नक्षत्रों की गणना सूक्ष्म रूप से की गयी है और अनेकानेक ऐसे ज्योतिषीय सिद्धान्त प्रस्तुत किये गये हैं, जिन्हें देखकर और उनका मनन करके चमत्कृत रह जाना पड़ता है।

ज्योतिष शास्त्र का प्राचीनमत ग्रन्थ ‘लगध’ माना जाता है, जो कि प्राप्य है। यह ग्रन्थ लगध नाम के ऋषि पर ही है। लगध ऋषि को ऋग्वेद ज्योतिष और यजुर्वेद ज्योतिष का संग्रहकर्ता माना जाता है। उनके ‘लगध ज्योतिष’ में ऋग्वेद पर आधारित 36 कारिकाएं हैं और यजुर्वेद ज्योतिष पर आधारित 49 कारिकाएं।

अथर्ववेदीय संहिता में, ‘अथर्ववेद ज्योतिष’ (सोमसुधाकर द्वारा रचित भाषा) तथा भाष्यकार सायण द्वारा रचित ‘सोमसुधाकर भाष्य’ में ज्योतिष सम्बन्धी 162 मन्त्रों का विवरण है। इन मन्त्रों में सायण ने अथर्ववेदीय फलित ज्योतिष के अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का उल्लेख किया है।

फलित ज्योतिष सम्बन्धी अथर्ववेद की ‘शौनकीय शाखा’ के 90, 91, 93, 103, 104, 105, 106, 107, 108 सूक्तों में तिथि, नक्षत्र, वार, करण, योग, तारा और चन्द्रमा के क्रम से 1, 4, 8, 16, 32, 60 और 100 उत्तरोत्तर गुण बताये गये। हैं। साथ ही ‘वार’ के स्वामियों का भी उल्लेख हुआ है। जन्म लेने वाले जातक के गृह-नक्षत्रों को लेकर बहुत ही वैज्ञानिक ढंग से फल बताया गया है।

नक्षत्रों के अतिरिक्त राशियों का भी खगोलीय वर्णन अथर्ववेद में प्राप्त होता है । उत्तरवैदिककाल के ज्योतिष ग्रन्थ- ‘वृहत्पाराशरहोराशास्त्र’ के उपसंहार क्रम सूची में ग्रह, गुण, स्वरूप, राशि-स्वरूप, विशेष लग्न, षोडश वर्ग, राशि- दृष्टि कथन, अरिष्टाध्याय, अरिष्टभङ्गादि में तथा आकाश में स्थित ‘भचक्र’ के 360, अर्थात् 108 भाग तथा समस्त ‘भचक्र’ 12 राशियों में विभक्त है।

इस अथर्ववेदीय खगोल विद्या के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि 30° अथवा 9 भाग की एक राशि होती है। यह 9 भाग अश्विनी आदि नक्षत्रों के 9 चरण होते हैं। इन्हीं की जाति, गुण और रूप आदि का यहां निरूपण किया गया है।

अथर्ववेद में ग्रह, उल्का, विद्युत्, भूकम्प, दिग्दाह का उल्लेख भी मिलता है और कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा को बलहीन मानकर अन्य ग्रहों के बलावल से कार्यों का निर्देश भी उपलब्ध है।

इसी अथर्ववेदीय सिद्धान्त के आधार पर आचार्य ‘वराहमिहिर’ ने अपने ‘पञ्चसिद्धान्तिका’ ग्रन्थ में पांच सिद्धान्तों का विस्तृत विवेचन किया है।

अथर्ववेदीय प्रश्न ज्योतिष

पण्डित देवदत्त शास्त्री ने अथर्ववेदीय प्रश्न ज्योतिष का उल्लेख अपने ग्रन्थ ‘अथर्ववेदीय तन्त्र विज्ञान’ में किया है। उनके अनुसार अथर्ववेद में इस प्रश्न के अन्तर्गत 10 प्रश्नों का प्रावधान है-

1. अभीष्ट कार्य करने से लाभ होगा या नहीं ?

2. युद्ध में, शास्त्रार्थ या विवाद में, द्यूत-क्रीड़ा में विजय होगी या नहीं ?

3. रोगी रोगमुक्त होगा या नहीं ?

4. नौकरी अथवा जीविका का व्यवसाय मिलेगा या नहीं ?

5. अनुष्ठित साधना या मन्त्र- यन्त्र-तन्त्र की साधना सिद्ध होगी या नहीं ? 6. नष्ट धन, अपहृत सम्पत्ति, चोरी गया धन, अपहृत या भागा हुआ प्राणी प्राप्त होगा या नहीं ?

7. किसी भी प्रकार की परीक्षा में सफलता मिलेगी या नहीं ? 8. वर को वधू या कन्या को योग्य वर मिलेगा या नहीं ?

9. पुत्र की प्राप्ति होगी या नहीं ?

10. उत्तम वर्षा, अच्छी फसल होगी या नहीं ? ऐसे अनेक भौतिक और आध्यात्मिक प्रश्नों के उत्तर अथर्ववेद के काण्ड 1,

सूक्त 4 (अम्बयोमन्ति.) सूक्त 5 (आपोहिष्ठा.), सूक्त 6 (शन्नोदेवी.) से प्राप्त किये जाने का विधान है, जो शत-प्रतिशत सही होता है।

अथर्ववेदीय ज्योतिष के द्वारा दुष्ट ग्रहों का दोष-निवारण, गर्भ-दोष, सन्तदि- दोष, वैधव्य योग, वन्ध्या योग, कर्म की सफलता-असफलता, विदेश यात्रा, प्रवासी सम्बन्धी प्रश्न, विवाह सम्बन्ध, शुभाशुभ ज्ञान, मूल नक्षत्र दोष और उनकी शान्ति का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। प्रश्नों के उत्तरों के साथ-साथ और उनके समाधान की विधियां भी बतायी गयी हैं ।

वास्तव में अथर्ववेद में शकुन-अपशकुन और अद्भुत घटनाओं का वैज्ञानि ज्ञान प्राप्त होता है। भूकम्प, ज्वालामुखी, महाविनाश, महामारी, पारस्परिक कलह, युद्ध व उल्कापात आदि घटनाओं का पूर्वज्ञान अथर्ववेदीय ज्योतिष से प्राप्त कि जा सकता है।

अथर्ववेद में शकुन-अपशकुन सम्बन्धी परम्पराओं का प्रादुर्भाव दैवी का अनिवार्य अंग बन गया है। अथर्ववेद में यह विवरण व्यापक रूप से मिलता है। भावन

अथर्ववेद का पृथिवी सूक्त

एक बालक का अपनी माता के साथ जैसा सम्बन्ध होता है, वैसा ही हमारा सम्बन्ध क्षमाशील जननी पृथिवी के साथ है। पृथिवी माता का हृदय अमृत से भर है। यह अमृत रस उस परमपिता परमात्मा का दिया हुआ है, जो समस्त ब्रह्माण्ड छाया हुआ है।

हमारे सम्मुख पृथिवी माता का केवल स्थूल रूप ही है, जिस पर अनेक विशाल समुद्र, पर्वत, नदियां, वन, रेगिस्तान, वनस्पति, हिमशिखर आदि स्थित है। ये सभी मानव-जीवन के लिए कल्याण की वृष्टि करने वाले हैं। प्रकृति का यह असीम सौन्दर्य मानव-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के लिए उपयोगी है।

पृथिवी पर फैले विशाल चारागाह, कृषि-सम्पन्न भूमि, उमड़ते-घुमड़ बादल, विविध ऋतुएं- ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त, शिशिर और वसन्त-आदि सर्वत्र मनोहारी छटा बिखेरती रहती हैं।

पृथिवी के गर्भ से निकले अन्न के दाने, खनिज पदार्थ, नाना प्रकार के बहुमूल्य रत्न, सोना, चांदी, हीरे-जवाहरात, हमारी श्रीवृद्धि करते हैं। अनेक दुधारू पशु, रंग-बिरंगे पक्षी, जलचर, कीट-पतंग सभी तो इस धरती पर आश्रय लेते हैं।

पृथिवी माता का रम्य भौतिक स्वरूप सभी के लिए प्रत्यक्ष है। भौतिक समृद्धि का जो भी स्वरूप है, वह इस पृथिवी पर ही प्राप्त होता है।

पृथिवी मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूं-

‘माता भूमि पुत्रोऽहं पृथिव्याः । ‘

(मन्त्र 12 पृथिवी सूक्त)

पृथिवी पर निवास करने वाले अनेकानेक जीव अनेक समूहों और वर्गों में विभाजित हैं। फिर भी वे सभी एक सूत्र में बंधे हैं। मनुष्य मनुष्य हैं, पशु पशु हैं, पक्षी पक्षी हैं जलचर जलचर हैं। ‘अनेकता में भी एकता’ का संगीत समस्त पृथिवी पर फैला है। यही सब प्राणियों को इस पृथिवी से बांधे हुए है।

जीवन की मधुमय झंकार से झंकृत, दिव्य अनुभूतियों से भरा हुआ एकता के महान् सन्देश को प्रवाहित करता हुआ उस सत्ता का सत्य स्वरूप यह ‘पृथिवी सूक्त’ अथर्ववेद ही नहीं, विश्व साहित्य का सर्वोच्च गान है।

अथर्ववेद भाग- १ ( Athrvaveda) सूक्त श्लोक १ से ६ के अर्थ ( Sukta shloka meaning 1 to 6 in Athrvaveda)

अथ प्रथमं काण्डम्

प्रथमोऽनुवाक

पहला सूक्त

(ऋषि—अथर्वा । देवता— वाचस्पति । छन्द–अनुष्टुप्, बृहती ।)

ये त्रिसप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः । वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वो अद्य दधातु मे ॥ 1 ॥

पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, तन्मात्रा और अहंकार- ये सात पदार्थ और सत्व, रज तथा तम-ये तीन गुण, इस प्रकार जगत् में तीन गुणा सात ‘इक्कीस’ देवता सब ओर आवागमन करते हैं। वाणी का स्वामी ब्रह्मा उनके अद्भुत बल को हमें प्रदान करे।

पुनरेहि वाचस्पते देवेन मनसा सह । वसोष्पते नि रमय मय्येवास्तु मयि श्रुतम् ॥ 2 ॥

हे वाणी के स्वामी परमेश्वर ! हम आनंदित हों, इसके लिए तू हमारी कामनाओं को पूर्ण कर और पढ़े हुए ज्ञान को धारण करने के निमित्त हमारी बुद्धियों को प्रकाशित करने वाला हो।

इहैवाभि वि तनूभे आर्ली इव ज्यया । वाचस्पतिर्नियच्छतु मय्येवास्तु मयि श्रुतम् ॥ 3 ॥

जैसे संग्राम में शूरवीर द्वारा धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने से उसके दोनों छोर समान रूप से खिंच जाते हैं, वैसे ही हे वाणी के स्वामी! हमें वेदादि धारण करने की बुद्धि और आनंद का उपभोग करने के निमित्त सुख के साधन उपलब्ध करा। तेरा दिया हुआ यह दान हममें स्थित रहे।

उपहूतो वाचस्पतिरुपास्मान् वाचस्पतिर्हृयताम्। सं श्रुतेन गमेमहि मा श्रुतेन वि राधिषि ॥ 4 ॥

हम उस परमेश्वर का आह्वान करते हैं जो वाणी का स्वामा है। वाचस्पति देवता हमें आमंत्रित करे। हम वेदाध्ययन से कभी मुंह न मोड़ें। हमारा हृदय वेदज्ञान से परिपूर्ण रहे।

दूसरा सूक्त

(ऋषि- अथर्वा । देवता- पर्जन्य । छन्द- अनुष्टुप् गायत्री।) विद्मा शरस्य पितरं पर्जन्यं भूरिधायसम् । विद्मो ष्वस्य मातरं पृथिवीं भूरिवर्पसम् ॥ 1 ॥

यह हम अच्छी तरह जानते हैं कि सभी जड़-चेतन का धारण और पोषणकर्ता पर्जन्य इस बाण का पिता और समस्त तत्त्वों से परिपूर्ण पृथ्वी इसकी माता है। इनसे ही शर ‘पुत्र’ उत्पन्न होता है।

ज्याके परिणो नमाश्मानं तन्वं कृधि । वीडुर्वरीयोऽरातीरप द्वेषांस्या कृधि ॥ 2 ॥

हे देवपति ! शत्रुओं के द्वेषपूर्ण कर्मों को हमसे दूर करते हुए उनका बल नष्ट कर। यह प्रत्यंचा हमारी ओर न झुकते हुए शत्रुओं की ओर झुके। तू हमारे शरीर को पाषाण जैसा सुदृढ़ और बल-संपन्न कर।

वृक्षं यद् गावः परिषस्वजाना अनुस्फुरं शरमर्चन्त्यृभुम् । शरुमस्मद् यावय दिद्युमिन्द्र ॥ 3 ॥

गर्मी से पीड़ित गौएं जिस प्रकार वट वृक्ष की सघन छाया में शीघ्रता से शरण लेती हैं, उसी प्रकार हम पर शत्रु के वीरों द्वारा चलाए बाणों को हमसे दूर हटा दे।

यया द्यां च पृथिवीं चान्तस्तिष्ठति तेजनम्। एवा रोगं चास्रावं चान्तस्तिष्ठतु मुंज इत् ॥ 4 ॥ 

जैसे पृथ्वीलोक और द्युलोक के मध्य प्रकाश रहता है, वैसे ही औषध (शोधन करने वाला परमेश्वर) शरीर में रोग, रक्तस्राव अथवा घावों के मध्य स्थित हो ।

अथर्ववेद संहिता (भाग एक)-

तीसरा सूक्त

(ऋषि- अथर्वा । देवता- पर्जन्य । छन्द-पंक्ति, अनुष्टुप् ।) विद्मा शरस्य पितरं पर्जन्यं शतवृष्ण्यम् । तेना ते तन्वे शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालिति ॥ 1 ॥

शर का पिता सैकड़ों सामर्थ्यवाला और आत्मबल की शक्ति से युक्त मेघ है। यह हम अच्छी तरह जानते हैं। हे रोगी! उस शर (बाण) से हम मूत्र से संबंधित तेरी व्याधियों का शमन करते हैं। तेरे शरीर में रुका हुआ मूत्र बाहर निकल जाए।

विद्मा शरस्य पितरं मित्रं शतवृष्ण्यम् । तेना ते तन्वे शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालिति ॥ 2 ॥

अत्यंत पराक्रमी (वीर्यवान्) और अनन्त शक्ति से युक्त शर के मित्र सैकड़ों सामर्थ्य वाले सूर्य को हम जानते हैं। हे रोगग्रस्त मानव ! इस बाण से हम तेरे रोग को नष्ट करते हैं। पेट में रुका हुआ तेरा मूत्र बाहर निकले और पृथ्वी पर तेरी वृद्धि हो ।

विद्मा शरस्य पितरं वरुणं शतवृष्ण्यम् । तेना ते तन्वे शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालिति ॥ 3 ॥

शत्रुनाशक शर (बाण) के सैकड़ों सामर्थ्यो से युक्त पिता वरुण को हम जानते हैं। हे रोग पीड़ित ! हम इस बाण से तेरे रोगों का शमन करते हैं। शीघ्र ही मूत्र बाहर आकर तेरे शरीर को शुद्ध करे। पृथ्वी पर तेरी बहुत वृद्धि हो ।

विद्मा शरस्य पितरं चन्द्रं शतवृष्ण्यम् । तेना. ते तन्वे शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालिति ॥ 4 ॥

हम उस शर के पिता चंद्रमा को जानते हैं, जो सैकड़ों सामर्थ्य वाला, अनन्त वीर्यवान्, आनंद प्रदान करने वाला और पृथ्वी पर अपनी किरणों से अन्नादि औषधों को पुष्ट करके प्राणियों को बल देने वाला है। ऐसे शर से हम रोगों का शमन करते हैं। शब्द करता हुआ मूत्र शरीर से बाहर निकले।

विद्मा शरस्य पितरं सूर्यं शतवृष्ण्यम् । तेना ते तन्वे शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालिति ॥ 5 ॥

सैकड़ों सामर्थ्य वाले, बहुत बलशाली, पराक्रमी और तेज से प्रकाशित सूर्य को हम शर के पिता समान जानते हैं। हे रोगिणी! इस शर से हम तेरे जल (मूत्र) शरीर की व्याधियों को हटाते हैं। पृथ्वी पर उदरस्थ दूषित ध्वनि करता हुआ तीव्रता से बाहर निकल जाए।

यदान्त्रेणु गवीन्योर्यद्वस्तावधि संश्रुतम् । एवा ते मूत्रं मुच्यतां बहिर्बालिति सर्वकम् ॥ 6 ॥

शरीर में रुका हुआ सारहीन मूत्र पीड़ा देता है और उसको निकाल देने से शांति मिलती है। जो मूत्र तेरे मूत्राशय और मूत्र वाहिनी नाड़ियों में रुका हुआ है, वह शब्द (ध्वनि) करता हुआ शीघ्र बाहर निकल आए

प्र ते भिनद्भि मेहनं वर्त्र वेशन्त्या इव। एवा ते मूत्रं मुच्यतां बहिर्बालिति सर्वकम् ॥ 7॥

हे व्याधि से पीड़ित रोगी ! तेरे मूत्र के मार्ग को हम उसी प्रकार मूत्र खोलते हैं, जैसे तालाब (जलाशय) के जल को बाहर निकालने के लिए मार्ग को खोदते हैं।

विषितं ते वस्तिबिलं समुद्रस्योदधेरिव । एवा ते मूत्रं मुच्यतां बहिर्बालिति सर्वकम् ॥ 8 ॥

हे मूत्र रोगी ! तेरे मूत्र को बाहर निकालने के लिए हमने वैसे ही मार्ग बना दिया है, जैसे जलाशय के जल को निकालने के लिए मार्ग बनाय जाता है। तेरा रुका हुआ मूत्र ध्वनि करता हुआ बाहर निकल जाए।

यथेषुका परापतदवसृष्टाधि धन्वनः । एवा ते मूत्रं मुच्यता बहिर्बालिति सर्वकम् ॥ 9 ॥

जिस प्रकार धनुष से छूटा बाण शीघ्रता से अपने लक्ष्य का भेदन करता है, उसी प्रकार तेरा रुका हुआ मूत्र ध्वनि करता हुआ बाहर निकले।

(ऋषि-सिंधुद्वीप या कृति। देवता-जल। छन्द-गायत्री, बृहती अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम् । प्रञ्चतीर्मधुना पयः॥ 1॥

यज्ञ के निमित्त मधु (शहद) के साथ दुग्ध को मिलाने वाले माताओं और बहनों का हितकारी यज्ञकर्त्ता यज्ञ-स्थल पर गमन करता है।

अमूर्या उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह। ता नो हिन्वन्त्वध्वरम् ॥ 2 ॥ सूर्य के सान्निध्य में रहने वाला वाष्पीकृत जल यज्ञ की सफलतापूर्वक संपन्नता के निमित्त शक्ति प्रदान करे।

अपो देवीरूप ह्वये यत्र गावः पिबंति नः । सिंधुभ्यः कर्त्तं हविः ॥ 3 ॥

हम उस जल के अधिष्ठाता देवता का आह्वान करते हैं, जो समुद्र का पान करके, वृष्टिकर हवि प्रदान करता है और जहां बहने वाली जलपूर्ण नदियों और जलाशयों के जल का सेवन कर हमारी गौएं तृप्त होती हैं।

अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजम् । अपामुत प्रशस्तिभिरश्वा भवथ वाजिनो गावो भवथ वाजिनीः ॥ 4 ॥

रोग निवारक और पुष्टिवर्धक पदार्थ जिस जल से उत्पन्न होते हैं, वह जल अमृतरूपी औषधियों से परिपूर्ण है। उसके दिव्य गुणों से गौएं और अश्व बलवान् होकर उपकारी होते हैं।

पांचवां सूक्त

(ऋषि – सिंधुद्वीप या कृति। देवता- जल। छन्द- गायत्री ।) आपोहिष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन। महेरणाय चक्षसे ॥1॥

हे सुख प्रदाता जल! तू परब्रह्म से साक्षात्कार करने, सुख का उपभोग करने और रमणीक तत्त्वों का दर्शन करने के लिए हमें परिपूर्ण कर ।

यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः । उशतीरिव मातरः ॥ 2 ॥ जिस प्रकार माताएं प्रीति के साथ अपनी संतानों को दूध पिलाकर

पुष्टि प्रदान करती हैं, उसी प्रकार हे जलो! तुममें जो तत्त्वरूप परमकल्याणकारी रस है, हमें उस रस का भागीदार बनाकर उससे पुष्टि प्रदान करो।

तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ । आपो जनयथा च नः ॥ 3 ॥

हम वृद्धि प्रदान करने वाले उस जल का सान्निध्य पाना चाहते हैं,

जो अन्नादि उत्पन्न करके प्राणिमात्र को पोषण देने वाला है। ईशाना वार्याणं क्षयंतीश्चर्षणीनाम् ।

अपो याचामि भेषजम् ॥ 4 ॥ प्राणिमात्र की व्याधियों का औषधियों द्वारा निवारण करने

जल दिव्य गुणों से युक्त एवं सुख-साधनों का स्वामी है। हम  औषधिरूप जल की उपासना करते हैं।

छठा सूक्त

(ऋषि-सिंधुद्वीप। देवता-जल । छन्द-गायत्री, पंक्ति।)

शं नो देवीरभिष्टय आपो भवंतु पीतये ।। शं योरभि स्त्रवन्तु नः ॥ 1 ॥

हे दिव्य गुणयुक्त जल! तू हमारे अभीष्ट को सिद्ध करने वाल सुखकारी, सेवन योग्य तथा पूर्ण शांति प्रदान करने वाला हो।

अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तदर्विश्वानि भेषजा । अग्निं च विश्वशम्भुवम् ॥ 2 ॥

सोम ने ऐसा उपदेश किया है कि जल में सब दिव्य औषधि विद्यमान हैं तथा सारे जगत् को आनंद पहुंचाने वाला और कल्याण क वाला अग्नि देवता भी अवस्थित है।

आपः पृणीत भेषजं वरूथं तन्वे मम । ज्योक् च सूर्यं दृशे ॥ 

हे जल! तू हमें रोगों के निवारणार्थ औषधियां प्रदान कर तथा ह शरीरों को स्वस्थ कर जिससे हम चिरकाल तक सूर्य का दर्शन करते हैं

शं न आपो धन्वन्याः शमु सन्त्वनूप्याः शं नः खनित्रिमा आपः ।

शमु याः कुंभ आभृताः शिवा नः सन्तु वार्षिकीः ॥ 4 ॥ 

निर्जल देश का जल हमारे लिए सुखकारी हो, जल वाले देश जल सुख प्रदान करने वाला हो। भूमि आदि खोदकर निकाला गया है का जल तथा घड़े में भरकर लाया गया जल सुख प्रदान करे। इसी प्रक वर्षा से प्राप्त हुआ जल भी कल्याणकारी हो ।

अथर्ववेद  द्वितीयोऽनुवाक

Atharvaveda  Sukta Shhloka meaning अथर्ववेद सूक्त श्लोक ७ से १० के अर्थ

अथर्ववेद के श्लोक सूक्त १ से 10 तक के अर्थ जानिये . Meaning of Shloka Sukta in Arthrvaveda Sukta Shloka 7 to10

सातवां सूक्त

(ऋषि- -चातन। देवता-अग्नि और इंद्र। छन्द-अनुष्टुप्, त्रिष्टुप् ।) स्तुवानमग्न आ वह यातुधानं किमीदिनम्। त्वं हि देव वन्दितो हंता दस्योर्बभूविथ ॥ 1 ॥

हवि द्वारा प्रसन्न तथा स्तुति योग्य देवता को हे अग्ने ! हमारे तू समीप लाने वाला हो। हे दिव्य गुणों से युक्त अग्ने ! तू अपने प्रभाव से राक्षसों और बैरियों को नष्ट कर देता है, अतः उन्हें भी अपने पास बुला और सब ओर शांति को व्याप्त कर ।

आज्यस्य परमेष्ठिन् जातवेदस्तनूवशिन्। अग्ने तौलस्य प्राशान यातुधाना वि लापय ॥ 2 ॥

हे अग्ने ! तू दुष्टों और राक्षसों को विलाप कराने वाला, उनका संहार करने वाला, जठराग्नि के रूप में शरीर का संतुलन बनाने वाला, हमारे द्वारा स्रुवे में तौली हुई आज्याहुति को ग्रहण करने वाला तथा स्वर्गादि श्रेष्ठ स्थानों में निवास करने वाला है।

विलपन्तु यातुधाना अत्रिणो ये किमीदिनः । अथेदमग्ने नो हविरिन्द्रश्च प्रति हर्यतम् ॥ 3 ॥

इन्द्रादि सहित हमारे हविष्य को स्वीकार करने वाले हे अग्ने ! तू सबका भक्षण करने वाले और सर्वत्र विचरने वाले, दूसरों को दुःखी करने वाले समाज के बैरियों को विलाप कराने वाला तथा उन्हें नष्ट करने वाला हो ।

अग्निः पूर्व आ रभतां प्रेन्द्रो नुदतु बाहुमान्। ब्रवीतु सर्वो यातुधानयमस्मीत्येत्य ॥ 4 ॥

अग्नि देवता सबसे पहले असुरों का विनाश करना प्रारंभ करे और शक्तिसंपन्न इंद्र इस कार्य के निमित्त उसे प्रेरित करे। इन दोनों के प्रभाव से असुर स्वयं उपस्थित होकर अपना परिचय दें और प्रायश्चित करें।

पश्याम ते वीर्य जातवेदः प्र णो ब्रू हि यातुधानान् नृचक्षः । त्वया सर्वे परितप्ताः पुरस्तात् त आयन्तु प्रब्रुवाणा उपेदम् ॥ 5 ॥

हे अग्ने ! तू ज्ञान का भंडार है। तेरा पराक्रमरूपी प्रकाश हम देखें।

अतीन्द्रिय ज्ञान वाले, उपासनाओं आदि से साक्षात् होने वाले हे अग्न! तू अपने प्रभाव से राक्षसों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करे। तेरी आज्ञा से राक्षस अपना-अपना परिचय देते हुए आगमन करें।

आ रभस्व जातवेदोऽस्माकार्थय जज्ञिषे । दूतो नो अग्ने भूत्वा यातधानान् वि लापय ॥ 6 ॥ 

हे ज्ञानस्वरूप अग्ने ! तू हमारे अभीष्ट प्रयोजनों को सफल बनाने के उद्देश्य से तथा अनर्थों का शमन करने के निमित्त उत्पन्न हुआ है। हमारे हितार्थ तू हमारा प्रतिनिधि (दूत) बनकर दुष्कर्म करने वाले राक्षसरूपी मानवों को दूर हटा।

त्वमग्ने यातुधानानुपबद्धां इहा वह । अथैषामिन्द्रो वज्रेणापि शीर्षाणि वृश्चतु ॥ 7 ॥

दुष्टों को अपने पाश आदि में जकड़कर यहां लाने वाले हे अने।। इन्द्र अपने वज्र के तीव्र प्रहार से उन दुष्टों के सिरों को खंड-विखंड करे।

आठवां सूक्त

(ऋषि- चातन। देवता- बृहस्पति आदि। छन्द–अनुष्टुप्, त्रिष्टुप।) इदं हविर्यातुधानान् नदी फेनभिवा वहत् । य इदं स्त्री पुमान्करिह स स्तुवतां जनः ॥ 1 ॥

जिस प्रकार नदी अपने प्रवाह से फेन का स्थान परिवर्तन कर देती है, उसी प्रकार देवताओं को अर्पित की गई हविर्दानादि दुष्टों और पापियों को दूर हटाए। अभिचार आदि में निरत स्त्री और दूसरों को पीड़ा पहुंचाने वाले दुष्ट पुरुष प्रायश्चित हेतु तेरी उपासना करें।

अयं स्तुवान आगमदिमं स्म प्रति हर्यत । बृहस्पते वशे लब्ध्वाग्नीषोमा वि विध्यतम् ॥ 2 ॥ 

हे अग्ने! हे सोम! तुमसे त्रासित हुआ असुर प्रायश्चित की विनती करता हुआ तुम्हारी शरण में आया है। इसे हमारा शत्रु जानते हुए भी तुम उपचार हेतु इसका परीक्षण करो। बृहस्पति देवता इसे अपने वश में रखे।

यातुधानस्य सोमप जहि प्रजां नयस्व च । नि स्तुवानस्य पातय परमक्ष्युतावरम् ॥ 3 ॥

हे सोमरस का पान करने वाले अग्ने ! तू राक्षसों का विनाश कर और उनकी संतानों तक पहुंचकर उन्हें सन्मार्ग की ओर प्रेरित कर तथा उनके नेत्रों में, जो तेरी स्तुति करने वाले हैं, शालीनता को व्याप्त कर दे।

यत्रैषामग्ने जनिमानि वेत्थ गुहा सतामत्रिणां जातवेदः । तांस्त्वं ब्रह्मणा वावृधानो जह्येषां शततर्हमग्ने ॥ 4 ॥

हे अग्ने ! ज्ञानसंपन्न तू ब्राह्मणों के द्वारा प्राप्त मंत्र बल से वृद्धि पाकर असुरों को अनेक प्रकार से नष्ट करने वाला हो। गुफाओं में रहने वाले इन दुष्टों की संतानों को भी तू अच्छी तरह जानता है, अतः तेरे द्वारा उनका भी समूल नाश हो।

नौवां सूक्त

(ऋषि-अथर्वा । देवता-मंत्र में वर्णित इन्द्र, वसु, पूषा, वरुणादि । छन्द-त्रिष्टुप् ।)

अस्मिन् वसु वसवो धारयन्त्विन्द्रः पूषा वरुणो मित्रो अग्निः । इममादित्या उत विश्वे च देवा उत्तरस्मिञ्ज्योतिषि धारयन्तु ॥ 1 ॥

धन, वैभव की अभिलाषा रखने वाले पुरुष को वसु, इन्द्र, पूषा, वरुण, सूर्य, अग्नि आदि सभी देवता धन-वैभव से परिपूर्ण करें। आदित्यादि सभी देवता भी उसे तेज और अनुग्रह प्रदान करें।

अस्य देवाः प्रदिशि ज्योतिरस्तु सूर्यो अग्निरुत वा हिरण्यम्। सपत्ना अस्मदधरे भवन्तूत्तमं नाकमधि रोहयेयम्॥ 2 ॥ 

इस पुरुष में हे देवो! सूर्य, अग्नि, इन्द्र और सुवर्णादि का तेज विद्यमान रहे। जीवन की सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त हुआ पुरुष दुःखों से रहित परमश्रेष्ठ दिव्य लोक (स्वर्ग) में जाकर वास करे।

येनेन्द्राय समभरः पयांस्युत्तमेन ब्रह्मणा जातवेदः । तेन त्वमग्न इह वर्धयेमं सजातानां श्रेष्ठय या धेह्येनम् ॥ 3 ॥

हे जातवेद (अग्ने) ! ज्ञान का स्रोत तूने जिन अद्भुत दिव्य मंत्रों से इन्द्र के निमित्त दुग्धादि रस हवि रूप में प्रदान किया है, उन्हीं दिव्य मंत्रों से इस लोक में इस पुरुष की वृद्धि कर। इसे अपने तेज से प्रकाशित करते हुए देवताओं के समान उच्च स्थान में स्थापित कर, ताकि यह पुरुष जाति में श्रेष्ठता को प्राप्त कर देवों की भांति जीवन को भोगने वाला हो।

हे सोमरस का पान करने वाले अग्ने ! तू राक्षसों का विनाश कर और उनकी संतानों तक पहुंचकर उन्हें सन्मार्ग की ओर प्रेरित कर तथा उनके नेत्रों में, जो तेरी स्तुति करने वाले हैं, शालीनता को व्याप्त कर दे।

यत्रैषामग्ने जनिमानि वेत्थ गुहा सतामत्त्रिणां जातवेदः । तांस्त्वं ब्रह्मणा वावृधानो जह्येषां शततर्हमग्ने ॥ 4 ॥

हे अग्ने ! ज्ञानसंपन्न तू ब्राह्मणों के द्वारा प्राप्त मंत्र बल से वृद्धि पाकर असुरों को अनेक प्रकार से नष्ट करने वाला हो। गुफाओं में रहने वाले इन दुष्टों की संतानों को भी तू अच्छी तरह जानता है, अतः तेरे द्वारा उनका भी समूल नाश हो।

नौवां सूक्त

(ऋषि-अथर्वा । देवता-मंत्र में वर्णित इन्द्र, वसु,

पूषा, वरुणादि । छन्द- – त्रिष्टुप् ।) अस्मिन् वसु वसवो धारयन्त्विन्द्रः पूषा वरुणो मित्रो अग्निः । इममादित्या उत विश्वे च देवा उत्तरस्मिञ्ज्योतिषि धारयन्तु ॥ 1 ॥

धन, वैभव की अभिलाषा रखने वाले पुरुष को वसु, इन्द्र, पूषा, वरुण, सूर्य, अग्नि आदि सभी देवता धन-वैभव से परिपूर्ण करें। आदित्यादि सभी देवता भी उसे तेज और अनुग्रह प्रदान करें। अस्य देवाः प्रदिशि ज्योतिरस्तु सूर्यो अग्निरुत वा हिरण्यम् ।

सपना अस्मदधरे भवन्तूत्तमं नाकमधि रोहयेयम् ॥ 2 ॥ इस पुरुष में हे देवो! सूर्य, अग्नि, इन्द्र और सुवर्णादि का तेज विद्यमान रहे। जीवन की सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त हुआ पुरुष दुःखों से रहित परमश्रेष्ठ दिव्य लोक (स्वर्ग) में जाकर वास करे।

येनेन्द्राय समभरः पयांस्युत्तमेन ब्रह्मणा जातवेदः । तेन त्वमग्न इह वर्धयेमं सजातानां श्रेष्ठय या धेह्येनम् ॥ 3 ॥

हे जातवेद (अग्ने) ! ज्ञान का स्रोत तूने जिन अद्भुत दिव्य मंत्रों से इन्द्र के निमित्त दुग्धादि रस हवि रूप में प्रदान किया है, उन्हीं दिव्य मंत्रों से इस लोक में इस पुरुष की वृद्धि कर। इसे अपने तेज से प्रकाशित करते हुए देवताओं के समान उच्च स्थान में स्थापित कर, ताकि यह पुरुष जाति में श्रेष्ठता को प्राप्त कर देवों की भांति जीवन को भोगने वाला हो।

एषां यज्ञमृत वर्चो ददेऽहं रायस्पोषमुत चित्तान्यग्ने । सपत्ना अस्मदधरे भवन्तूत्तमं नाकमधि रोहयेमम् ॥ 4 ॥

हे तेजस्वी अग्ने ! तू इस मनुष्य (यजमान) को दु:खरहित श्रेष्ठ स्वर्ग में पहुंचा दे। इसे उत्तम सुख और शांति प्राप्त हो । तेरी कृपा से शत्रु हमारे वश में हो जाएं। हम उनके तेज, धर्म, पुण्यकर्म को स्वीकार करते हैं।

दसवां सूक्त

(ऋषि—अथर्वा । देवता—असुर, वरुण । छन्द-त्रिष्टुप्, अनुष्टुप् ।) अयं देवानामसुरो वि राजति वसाहि सत्या वरुणस्य राज्ञः । ततस्परि ब्रह्मणा शाशदान उग्रस्य मन्योरुदिमं नयामि ॥ 1 ॥ सर्वत्र प्रकाशित, सबका नियामक, सत्य भाषण को वश में रखने वाला, देवताओं में बली देव वरुण पापियों का दंडाधिकारी है। हम दुःखी मनुष्यों को मंत्र – ज्ञान से संपन्न होकर स्तुतियों द्वारा वरुण के प्रचंड क्रोध से सुरक्षित रखते हैं।

नमस्ते राजन् वरुणास्तु मन्यवे विश्वद्युग्र निचिकेषि द्रुग्धम्। सहस्रमन्यान् प्रसुवामि साकं शतं जीवाति शरदस्तवायम् ॥ 2 ॥ हमारे दोषों को भली प्रकार जानने वाले हे तेजस्वी वरुणदेव! तेरे प्रचंड प्रकोप से पीड़ित हम तेरे शरणागत होकर तुझे नमन करते हैं। हम हजारों दोषियों को तेरी शरण में भेजते हैं। तेरी कृपा से वो सब दीर्घायु हों।

यदुवक्थानृतं जिह्वया वृजिनं बहु । राज्ञस्त्वा सत्यधर्मणो मुंचामि वरुणादहम् ॥ 3 ॥ 

हे व्याधिग्रस्त मनुष्यो! तुमने अपनी जिह्वा (वाणी) के दुरुपयोग द्वारा अनेक असत्य वचन बोलने का जो अपराध किया है, हम उस अपराध से तुम्हें मुक्ति, वरुण की कृपा और अनुग्रह प्राप्त होने पर ही दिलाने में समर्थ होते हैं।

मुंचामि त्वा वैश्वानरादर्णवान् महतस्परि । सजातानुग्रहा वद ब्रह्म चाप चिकीहि नः ॥ 4 ॥ 

सर्वज्ञ वरुणदेव स्तोताओं की स्तुतियों से प्रसन्न होने वाला उनके अपराधों को क्षमा करने वाला है। हे मनुष्यो ! हम प्रचंड बल और वाले,

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