महामाया योगनिद्रा स्तुति – Mahamaya Yoganidra Stuti
लोकों के पितामह ब्रह्माजी निद्रा को त्याग करके पुनः सृष्टि की रचना के लिए समुत्थित हुए तब उन्होंने देखा कि तीनों लोक जल से परिपूर्ण भरे हुए हैं और भगवान पुरुषोत्तम शयन किये हैं । फिर ब्रह्माजी ने भगवान हरि के अंग में विराजमान महामाया योगनिद्रा की स्तुति की ।
महामाया योगनिद्रा स्तुति: Mahamaya Yoganidra stuti
॥ ब्रह्मोवाच ॥
चितिशक्तिन्निविकारा परब्रह्मस्वरूपिणीम् ॥
प्रणमामि महामाया योगनिद्रां सनातनीम् ॥ ३१ ॥
ब्रह्माजी ने कहा- चित्तशक्ति अर्थात् ज्ञान की शक्तिरूपा, विकारों से रहित, परब्रह्म के स्वरूप वाली, सनातनी महामाया योगमाया को मैं प्रणाम करता हूँ ।
त्वं विद्या योगिनान्देवि त्वं गतिस्त्वम्मतिः स्तुतिः॥
त्वं सृष्टिस्त्वंस्थितिः स्वाहा स्वधा त्वमिहगीतिका ॥ ३२॥
हे देवी! आप योगियों की विद्या हैं, आप ही गति, मति और स्तुतिरूपा हैं । आप सृष्टि, स्थिति, स्वाहा, स्वधा और आप ही गीतिका हैं ।
त्वं सामगीतिस्त्व न्नीतिस्त्वं ह्री श्रीस्त्वं सरस्वती ॥
योगनिद्रा महामायामोहनिद्रा त्वमीश्वरी ॥ ३३ ॥
आप सामवेद की नीति हैं और आप ह्रीं श्रीं और सरस्वती हैं । आप महामाया, योगनिद्रा, मोहनिद्रा और आप ईश्वरी हैं ।
त्वं कान्तिः सर्व्वशक्तिस्त्व त्वं तनुर्वैष्णवी शिवा ॥
त्वं धात्री सर्व्वलोकानामविद्या त्वं शरीरिणाम् ॥ ३४ ॥
आप कान्ति हैं, सर्वशक्ति हैं और आप वैष्णवी शिवातनु हैं । आप समस्त लोकों की धात्री हैं और आप शरीरधारियों की अविद्या हैं ।
आधारशक्तिस्त्व देवी त्वं हि ब्रह्माण्डधारिणी ॥
त्वमेव सर्व्वजगतां प्रकृतिस्त्रिगुणात्मिका ॥ ३५ ॥
आप आधार शक्ति देवी हैं और आप ही इस ब्रह्माण्ड को धारण करने वाली हैं । आप ही समस्त जगतों की तीन गुणों के स्वरूप वाली अर्थात् सत, रज और तम से संयुत प्रकृति हैं ।
त्वं सावित्री च गायत्री सौम्यासौम्यातिशोभना ॥
त्वंसिसृक्षा हरेर्नित्या सुषुप्सा त्वं सुषुप्तिका ॥३६॥
आप सावित्री और गायत्री तथा आप सौम्य से भी अत्यधिक शोभना हैं आप नित्य भगवान हरि की सृजन की इच्छा हैं। आप सुषुप्ति अर्थात शयन करने की इच्छा हैं।
पुष्टिर्लज्जा क्षमा शान्तिस्त्व धृतिः परमेश्वरी ॥
त्वमेव क्षितिरूपेण ध्रियसे सचराचरम् ॥ ३७ ॥
आप पुष्टि, लज्जा, क्षमा, शान्ति हैं और आप परमेश्वरि द्युति हैं । आप ही भूमि के स्वरूप से इस सम्पूर्ण चराचर को धारण किया करती हैं।
त्वमापस्त्वमपा माता सर्व्वान्तर्गतचारिणी ॥
स्तुतिः स्तुत्या च स्तोत्री च स्तुतिशक्तिस्त्वमेव च ॥ ३८ ॥
आप अप अर्थात जल हैं और आप जलों को जन्म देने वाली माता हैं। आप सबके अन्दर रहकर संचरण करने वाली हैं । आप स्तुति, स्तुत्य, स्तोत्री हैं तथा आप ही स्तुति की शक्ति हैं ।
त्वामहङ्किन्नु स्तोष्यामि प्रसीद परमेश्वरि ॥
नमस्तुभ्यञ्जगन्मातः प्रबोधय जनार्द्दनम् ॥ ३९ ॥
मैं आपकी क्या स्तुति करूंगा, हे परमेश्वरि ! आप प्रसन्न हो जाइए। हे जगत की माता! आपको नमस्कार है । अब आप भगवान जनार्दन को प्रबोध करा दो अर्थात् उनको जगा दीजिए।
एवं स्तुता महामाया ब्रह्मणा लोककारिणा ॥ ४० ॥
इस प्रकार से लोकों की रचना करने वाले ब्रह्माजी के द्वारा महामाया की स्तुति की गयी थी ।
॥ इति श्रीकालिकापुराणे महामायायोगनिद्रास्तुति: नाम अष्टाविंशतितमोऽध्यायः॥