Maharaja Ranjit Singh History In Hindi Biography | महाराजा रणजीत सिंह का जीवन परिचय : शेर-ए पंजाब के नाम से प्रसिद्ध हैं

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महाराजा रणजीत सिंह का जीवन परिचय, जीवनी, परिचय, इतिहास, जन्म, शासन, युद्ध, उपाधि, मृत्यु, प्रेमिका, जीवनसाथी (Maharaja Ranjit Singh History in Hindi, Biography,Introduction, History, Birth, Reign, War, Title, Death, Story, Jayanti)

जब भी देश के इतिहास में महान राजाओं के बारे में बात होगी तो शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह का नाम इसमें जरूर आएगा। पंजाब पर शासन करने वाले महाराजा रणजीत सिंह ने 10 साल की उम्र में पहला युद्ध लड़ा था और 12 साल की उम्र में गद्दी संभाल ली थी। वहीं 18 साल की उम्र में लाहौर को जीत लिया था। 40 वर्षों तक के अपने शासन में उन्‍होंने अंग्रेजों को अपने साम्राज्य के आसपास भी नहीं फटकने दिया। दशकों तक शासन के बाद रणजीत सिंह का 27 जून, 1839 को निधन हो गया, लेकिन उनकी वीर गाथाएं आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं।

रणजीत सिंह
पूरा नाम महाराणा रणजीत सिंह
अन्य नाम ‘शेरे पंजाब’
जन्म 13 नवम्बर, 1780
जन्म भूमि गुजरांवाला
मृत्यु तिथि 27 जून, 1839
मृत्यु स्थान लाहौर
पिता/माता पिता- महासिंह
पति/पत्नी ज़िन्दाँ रानी
संतान दिलीप सिंह
उपाधि महाराणा
शासन काल 1801-1839
प्रशासन रणजीत सिंह का प्रशासन भी महत्त्वपूर्ण रहा। वह निरंकुश होते हुए भी ‘खालसा’ के नाम पर शासन करते थे। उनकी सरकार को ‘सरकार खालसा’ कहा जाता था।
अन्य जानकारी एक फ़्राँसीसी पर्यटक ‘विक्टर जैकोमाण्ट ने रणजीत सिंह की तुलना नेपोलियन बोनापार्ट से की है।

रणजीत सिंह (जन्म: 13 नवम्बर, 1780, गुजरांवाला; मृत्यु: 27 जून, 1839, लाहौर) सिक्ख साम्राज्य के सर्वाधिक प्रसिद्ध राजा थे। वे “शेर-ए पंजाब” के नाम से प्रसिद्ध हैं। महाराजा रणजीत सिंह ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने न केवल पंजाब को एक सशक्त सूबे के रूप में एकजुट रखा, बल्कि अपने जीवित रहते हुए अंग्रेज़ों को अपने साम्राज्य के पास भी नहीं फटकने दिया। 12 अप्रैल, सन 1801 को रणजीत सिंह ने महाराजा की उपाधि ग्रहण की थी। गुरु नानक के एक वंशज ने उनकी ताजपोशी संपन्न कराई थी। उन्होंने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया और 1802 में अमृतसर की ओर रुख़किया। ब्रिटिश इतिहासकार जे. टी. व्हीलर के अनुसार “अगर वह एक पीढ़ी पुराने होते, तो पूरे हिंदूस्तान को ही फ़तेह कर लेते।” महाराजा रणजीत सिंह पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन उन्होंने अपने राज्य में शिक्षा और कला को बहुत प्रोत्साहन दिया। उन्होंने पंजाब में क़ानून एवं व्यवस्था कायम की और कभी भी किसी को सज़ा-ए-मौत नहीं दी।

परिचय

महाराजा रणजीत सिंह का जन्म 13 नवम्बर, सन 1780 को बदरूख़ाँ या गुजरांवाला, भारत में हुआ था। वे पंजाब के सिक्ख राज्य के संस्थापक और महाराज (1801-1839 ई.) थे। रणजीत सिंह सिक्खों की बारह मिसलों में से एक ‘सुकर चाकिया’ से सम्बन्धित थे। उन्होंने 1797 ई. में रावी नदी एवं चिनाब नदी के प्रदेशों के प्रशासन का कार्यभार संभाला था। उनके पिता महासिंह सुकर चाकिया मिसल के मुखिया थे। जिस समय रणजीत सिंह की आयु केवल 12 वर्ष थी, उसी समय उनके पिता का देहान्त हो गया और बाल्यावस्था में ही वह सिक्ख मिसलों के एक छोटे से समूह के सरदार बना दिये गए। 15 वर्ष की आयु में ‘कन्हया मिसल’ के सरदार की बेटी से उनका विवाह हुआ और कई वर्ष तक उनके क्रिया-कलाप उनकी महत्त्वाकांक्षी विधवा सास सदाकौर द्वारा ही निर्देशित होते रहे। नक्कइयों की बेटी के साथ दूसरे विवाह ने रणजीत सिंह को सिक्ख रजवाड़ों (सामन्तों) के बीच महत्त्वपूर्ण बना दिया। ज़िन्दाँ रानी रणजीत सिंह की पाँचवी रानी तथा उनके सबसे छोटे बेटे दलीप सिंह की माँ थीं।

शासन नीति

आरम्भ में उनका शासन केवल एक छोटे-से भूखण्ड पर था और सैन्य बल भी सीमित था। 1793 ई. से 1798 ई. के बीच अफ़ग़ान शासक जमानशाह के निरन्तर आक्रमणों के फलस्वरूप पंजाब में इतनी अराजकता फैल गई कि उन्नीस वर्षीय रणजीत सिंह ने 1799 ई. के जुलाई मास में लाहौर पर अधिकार कर लिया और जमानशाह ने परिस्थितिवश उनको वहाँ का उपशासक स्वीकार करते हुए राजा की उपाधि प्रदान की। 1798 – 1799 ई. में अफ़ग़ानिस्तान के शासक ‘जमानशाह’ ने पंजाब पर आक्रमण किया। वापस जाते हुए उसकी कुछ तोपें चिनाब नदी में गिर गयीं। रणजीत सिंह ने उन्हें निकलवा कर उसके पास भिजवा दिया। इस सेवा के बदले जमानशाह ने रणजीत सिंह को लाहौर का शासक नियुक्त किया तथा राजा की उपाधि प्रदान की। रणजीत सिंह ने कुछ सिक्ख मिसलों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर अपने प्रभाव को बढ़ाने का प्रयत्न किया। 1805 ई. में उन्होंने अमृतसर एवं जम्मू पर अधिकार कर लिया। अब पंजाब की राजनीतिक राजधानी (लाहौर) तथा धार्मिक राजधानी (अमृतसर), दोनों ही उनके अधीन आ गयी थीं। इस समय तक फ्राँस का नेपोलियन अपने चरमोत्कर्ष पर था, अतः उसका प्रभाव भारत पर न पड़े, इसके लिए तत्कालीन गवर्नर-जनरल लॉर्ड मिंटों ने पंजाब, ईरान व अफ़ग़ानिस्तान में अपने दूत भेजे। 25 अप्रैल, 1809 को ‘चार्ल्स मैटकॉफ़’ और महाराजा रणजीत सिंह के मध्य ‘अमृतसर की सन्धि’ सम्पन्न हुई। सन्धि की शर्तों के अनुसार सतलुज नदी के पूर्वी तट के क्षेत्र अंग्रेज़ों के अधिकार में आ गये।

चूंकि नेपोलियन की सत्ता कमज़ोर पड़ गयी थी, और ईरान के इंग्लैण्ड से सम्बन्ध सुधर गये थे। इसलिए इन स्थितियों में रणजीत सिंह के लिए अमृतसर की सन्धि आवश्यक हो गयी थी।

1804 ई. में कांगड़ा के सरदार ‘संसार चन्द कटोच’ को हराकर रणजीत सिंह ने होशियारपुर पर अधिकार कर लिया। संसार चन्द कटोच के कहलूड़ के राजा पर आक्रमण करने पर जब कहलूड़ के राजा ने नेपाल के गोरखा से सहायता मांगी और ‘अमर सिंह थापा’ के नेतृत्व में गोरखों ने कांगड़ा का क़िला घेर लिया, तो रणजीत सिंह ने संसार चन्द कटोच की सहायता इसी शर्त पर की, कि वह उन्हें कांगड़ा का दुर्ग दे देगा। दीवान मोहकम चन्द के अधीन एक सिक्ख सेना ने गोरखों को परास्त कर दिया। इस प्रकार कांगड़ा पर सिक्खों का अधिकार हो गया और संसार चन्द उसकी सुरक्षा में आ गया। 1800 ई. के पश्चात् अफ़ग़ानिस्तान की राजनीतिक शक्ति का पतन हो गया और 1809 ई. में शाहशुजा को काबुल से भागना पड़ा। शाहशुजा ने काबुल का राज्य प्राप्त करने के लिए रणजीत सिंह से सहायता मांगी और उन्हें कोहिनूर हीरा भेंट करने का वचन किया। रणजीत सिंह ने सिन्ध के पश्चिमी तट के क्षेत्र अपने राज्य में विलय की शर्त पर सहायता का वचन दिया तथा 1837 ई. में पेशावर जीत लिया। इसके पूर्व वह 1818 ई. में मुल्तान एवं 1819 ई. में कश्मीर पर अधिकार कर चुके थे।

दूरदर्शी व्यक्ति

1805 ई. में जब लॉर्ड लेक यशवन्तराव होल्कर का पीछा कर रहा था, होल्कर भागकर पंजाब में घुस गया। किन्तु रणजीत सिंह ने इस ख़तरे का निवारण बड़ी दूरदर्शिता और राजनीतिज्ञता से किया। उन्होंने अंग्रेज़ों के साथ सन्धि कर ली, जिसके अनुसार पंजाब होल्कर के प्रभाव क्षेत्र से मुक्त माना गया और अंग्रेज़ों ने सतलुज नदी के उत्तर पंजाब के समस्त भू-भाग पर रणजीत सिंह की प्रभुसत्ता स्वीकार कर ली।

राज्य विस्तार

उन दिनों सतलुज के इस पार की छोटी-छोटी सिक्ख रियासतों में परस्पर झगड़े होते रहते थे और उनमें से कुछ ने रणजीत सिंह से सहायता की याचना भी की। रणजीत सिंह भी इन समस्त सिक्ख रियासतों को अपने नेतृत्व में संघबद्ध करना चाहते थे। इस कारण से उन्होंने इन क्षेत्रों में कई सैनिक अभियान किये और 1807 ई. में लुधियाना पर अधिकार कर लिया। उनका इस रीति से सतलुज के इस पार की कुछ छोटी-छोटी रियासतों पर सत्ताविस्तार अंग्रेज़ों को रुचिकर न हुआ।

अंग्रेज़ों से सन्धि

उस समय अंग्रेज़ों का राज्य विस्तार दिल्ली तक हो चुका था। उन्होंने चार्ल्स मेटकॉफ़ के नेतृत्व में एक दूतमण्डल और उसके पीछे-पीछे डेविड आक्टरलोनी के नेतृत्व में अंग्रेज़ी सेना रणजीत सिंह के राज्य में भेजी। इस बार भी रणजीत सिंह ने राजनीतिक सूझ-बूझ का परिचय दिया और अंग्रेज़ों से 1809 ई. में चिरस्थायी मैत्री सन्धि कर ली, जो अमृतसर की सन्धि के नाम से विख्यात है। इसके अनुसार उन्होंने लुधियाना पर से अधिकार हटा लिया और अपने राज्यक्षेत्र को सतलुज नदी के उत्तर और पश्चिम तक ही सीमित रखना स्वीकार किया। साथ ही उन्होंने सतलुज को दक्षिणवर्ती रियासतों के झगड़ों में हस्तक्षेप न करने का वचन दिया। परिणामस्वरूप ये सभी रियासतें अंग्रेज़ों के संरक्षण में आ गईं।

प्रशासन

रणजीत सिंह का प्रशासन भी महत्त्वपूर्ण रहा। वह निरंकुश होते हुए भी ‘खालसा’ के नाम पर शासन करते थे। उनकी सरकार को ‘सरकार खालसा’ कहा जाता था। उन्होंने गुरु नानक और गुरु गोविन्द सिंह के नाम के सिक्के चलाये, किन्तु उन्होंने गुरुमत को प्रोत्साहन नहीं दिया। उन्होंने डोगरों एवं मुसलमानों को उच्च पद प्रदान किये। फ़कीर ‘अजीजुद्दीन’ उनका विदेशमंत्री तथा दीवान ‘दीनानाथ’ उनका वितमंत्री था।

राजस्व के स्रोत

रणजीत सिंह के राजस्व का प्रमुख स्रोत ‘भू-राजस्व’ था, जिसमें नवीन प्रणालियों का समावेश होता रहता था। महाराजा रणजीत सिंह ने नीलामी के आधार पर सबसे ऊँची बोली बोलने वाले को भू-राजस्व वसूली का अधिकार प्रदान किया। राज्य की ओर से लगान उपज का 2/5 से 1/3 भाग लिया जाता था। रणजीत सिंह का राज्य 4 सूबों में बंटा था – पेशावर, कश्मीर, मुल्तान, और लाहौर । न्याय प्रशासन के क्षेत्र में राजधानी में ‘अदालत-ए-आला’ (आधुनिक उच्च न्यायालय के समान) खोला गया था, जहाँ उच्च अधिकारियों द्वारा विवादों का निपटारा किया जाता था।

सैन्य व्यवस्था

रणजीत सिंह ने अपनी सैन्य व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया था। उन्होंने अपनी सेना को फ़्राँसीसी सैनिकों से प्रशिक्षित करवाया। उन्होंने अपनी पैदल सेना को दो फ़्राँसीसी सैन्य अधिकारियों ‘अलार्ड’ एवं ‘वन्तूरा’ के अधीन रखा। वन्तूरा ‘फौज-ए-ख़ास’ की पदाति तथा अर्लाड ‘घुड़सवार’ पक्षों के कार्यवाहक थे। इसी प्रकार रणजीत सिंह ने एक तोपखाने का भी गठन करवाया, जिसका कार्यवाहक ‘इलाही बख़्श’ था। उन्होंने 1827 एवं 1832 ई. में क्रमशः जनरल कोर्ट एवं कर्नल गार्डनर की नियुक्ति कर इस तोपखाने का पुनर्गठन करवाया। रणजीत सिंह की सेना में दो तरह के घुड़सवार थे- घुड़चढ़ख़ास और मिसलदार। रणजीत सिंह की सेना में विभिन्न विदेशी जातियों के 39 अफ़सर कार्य करते थे, जिसमें फ़्राँसीसी, जर्मन, अमेरिकी, यूनानी, रूसी, अंग्रेज़, एंग्लो-इण्डियन, स्पेनी आदि सम्मिलित थे। इन विदेशियों को पंजाब में बसने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रोत्साहन दिए गए। इनमें से जिन लोगों को उत्कृष्ट पद प्राप्त था, उनमें – वन्तूरा, अलार्ड, कोर्ट, गार्डनर और एविटेबल प्रमुख थे। कोर्ट और गार्डनर ने तोपखाने का पुनर्गठन किया था। रणजीत सिंह ने लाहौर और अमृतसर में तोप, गोला और बारूद बनाने के कारखाने लगवाये। इसके अतिरिक्त उन्होंने सेना में मासिक वेतन, जिसे ‘महादारी’ कहते थे, देने की प्रणाली प्रारम्भ की और सेना की साज-सज्जा तथा गतिशीलता पर बल दिया।

कोहिनूर और रणजीत सिंह

सन 1812 में जब पंजाब पर महाराजा रणजीत सिंह का शासन था, उस समय उन्होंने कश्मीर के सूबेदार अतामोहम्मद के शिकंजे से कश्मीर को मुक्त कराने का अभियान शुरू किया। इस अभियान से भयभीत होकर अतामोहम्मद कश्मीर छोड़कर भाग गया। कश्मीर अभियान के पीछे सिर्फ यही एकमात्र कारण नहीं था। दरअसल इसके पीछे असली वजह तो था बेशकीमती ‘कोहिनूर’ हीरा।

अतामोहम्मद ने महमूद शाह द्वारा पराजित अफ़ग़ानिस्तान के शासक शाहशुजा को शेरगढ़ के क़िले में कैद कर रखा था। उसे कैद खाने से आज़ाद कराने के लिए उसकी बेगम वफा बेगम ने लाहौर आकर महाराजा रणजीत सिंह से प्रार्थना की और कहा कि- “मेहरबानी कर आप मेरे पति को अतामोहम्मद की कैद से रिहा करवा दें, इस अहसान के बदले बेशकीमती कोहिनूर हीरा आपको भेंट कर दूंगी।” शाहशुजा के कैद हो जाने के बाद वफा बेगम ही उन दिनों अफ़ग़ानिस्तान की शासिका थी। महाराजा रणजीति सिंह स्वयं चाहते थे कि वे कश्मीर को अतामोहम्मद से मुक्त करवाएं। सही वक्त आने पर महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर को आज़ाद करा लिया। उनके दीवान मोहकमचंद ने शेरगढ़ के क़िले को घेरकर वफा बेगम के पति शाहशुजा को रिहा कर वफा बेगम के पास लाहौर पहुंचा दिया और अपना वादा पूरा किया।

राजकुमार खड्गसिंह ने उन्हें मुबारक हवेली में ठहराया। पर वफा बेगम अपने वादे के अनुसार कोहिनूर हीरा महाराजा रणजीत सिंह को भेंट करने में विलम्ब करती रही। यहाँ तक कि कई महीने बीत गए। जब महाराजा ने शाहशुजा से कोहिनूर हीरे के बारे में पूछा तो वह और उसकी बेगम दोनों ही बहाने बनाने लगे। जब ज़्यादा ज़ोर दिया गया तो उन्होंने एक नकली हीरा महाराजा रणजीत सिंह को सौंप दिया, जो जौहरियों के जाँच की कसौटी पर नकली साबित हुआ। रणजीत सिंह क्रोध से भर उठे और मुबारक हवेली घेर ली गई। दो दिन तक वहाँ खाना नहीं दिया गया। वर्ष 1813 ई. की पहली जून थी, जब महाराजा रणजीत सिंह शाहशुजा के पास आए और फिर कोहिनूर के विषय में पूछा। धूर्त शाहशुजा ने कोहिनूर अपनी पगड़ी में छिपा रखा था। किसी तरह महाराजा को इसका पता चल गया। उन्होंने शाहशुजा को काबुल की राजगद्दी दिलाने के लिए गुरुग्रंथ साहब पर हाथ रखकर प्रतिज्ञा की। फिर उसे ‘पगड़ी-बदल भाई’ (एक रश्म) बनाने के लिए उससे पगड़ी बदल कर कोहिनूर प्राप्त कर लिया।

पर्दे की ओट में बैठी वफा बेगम महाराजा रणजीत सिंह की चतुराई समझ गई। अब कोहिनूर महाराजा रणजीत सिंह के पास पहुंच गया था और वे संतुष्ट थे कि उन्होंने कश्मीर को आज़ाद करा लिया था। उनकी इच्छा थी कि वे कोहिनूर हीरे को जगन्नाथपुरी के मंदिर में प्रतिष्ठित भगवान जगन्नाथ को अर्पित करें। हिन्दू मंदिरों को मनों सोना भेंट करने के लिए वे प्रसिद्ध थे। लेकिन उनकी ये इच्छा पूरी ना हो सकी। रणजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात् अंग्रेज़ों ने सन 1845 में सिक्खों पर आक्रमण कर दिया। फ़िरोज़पुर क्षेत्र में सिक्ख सेना वीरतापूर्वक अंग्रेज़ों का मुकाबला कर रही थी, किन्तु सिक्ख सेना के ही सेनापति लालसिंह ने विश्वासघात किया और मोर्चा छोड़कर लाहौर पलायन कर गया। इस कारण सिक्ख सेना हार गई। अंग्रेज़ों ने सिक्खों से कोहिनूर हीरा ले लिया। कुछ लोगों का कथन है कि रणजीति सिंह के पुत्र दिलीप सिंह से ही अंग्रेज़ों ने लंदन में कोहिनूर हड़पा था। कोहिनूर को 1 माह 8 दिन तक जौहरियों ने तराशा और फिर उसे रानी विक्टोरिया ने अपने ताज में जड़वा लिया।

राजनीतिज्ञ

रणजीत सिंह यथार्थवादी राजनीतिज्ञ थे, जिन्हें सम्भव और असम्भव की भली परख थी। इसी कारण उन्होंने 1831 ई. में अंग्रेज़ों से पुन: सन्धि की, जिसमें चिरस्थायी मैत्री सन्धि की शर्तों को दुहराया गया। इस प्रकार रणजीत सिंह ने न तो अंग्रेज़ों से कोई युद्ध किया और न ही उनकी सेना को किसी भी बहाने से अपने राज्य में अन्दर घुसने दिया। 1838 में उन्होंने काबुल की अफ़ग़ान गद्दी पर शाहशुजा को फिर से बैठाने के लिए अंग्रेज़ वाइसराय लॉर्ड ऑकलैण्ड से एक सन्धि की। इस समझौते के तहत सिन्धु स्थित ब्रिटिश फ़ौजों ने दक्षिण दिशा से और रणजीत सिंह की सेना ने ख़ैबर दर्रे से अफ़ग़ानिस्तान में प्रवेश करके काबुल के विजय प्रदर्शन में हिस्सा लिया।

विजय अभियान

महाराजा रणजीत सिंह के विजय अभियानों का विवरण निम्न प्रकार हैं-

  • लाहौर की विजय – 1793-1798 ई. में अफ़ग़ानिस्तान के शासक जमानशाह ने लाहौर पर आक्रमण कर दिया और बड़ी आसानी से उस पर अधिकार कर लिया, परन्तु अपने सौतेले भाई महमूद के विरोध के कारण जमानशाह को शीघ्र ही काबुल लौटना पड़ा। लौटते समय उसकी कुछ तोपें झेलम नदी में गिर पड़ीं। रणजीत सिंह ने इन तोपों को सुरक्षित काबुल भिजवा दिया। इस पर जमानशाह बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने रणजीत सिंह को लाहौर पर अधिकार कर लेने की अनुमति दे दी। अत: रणजीत सिंह ने लाहौर पर आक्रमण किया और 7 जुलाई, 1799 को लाहौर पर अधिकार कर लिया।
  • अन्य मिसलों पर विजय – शीघ्र ही रणजीत सिंह ने पंजाब की अनेक मिसलों पर अधिकार कर लिया। 1803 में उन्होंने अकालगढ़, 1804 में कसूर तथा झंग पर और 1805 में अमृतसर पर अधिकार कर लिया। अमृतसर पर अधिकार कर लेने से पंजाब की धार्मिक एवं आध्यत्मिक राजधानी रणजीत सिंह के हाथों में आ गयी। 1809 में उन्होंने गुजरात पर अधिकार किया।
  • सतलुज नदी के पार विजय – महाराजा रणजीत सिंह सतलुज नदी के पार के प्रदेशों पर भी अपना आधिपत्य कर लेना चाहते थे। 1806 में उन्होंने लगभग 20,000 सैनिकों सहित सतलुज को पार किया और दोलाघी गाँव पर अधिकार कर लिया। पटियाला के नरेश साहिब सिंह ने रणजीत सिंह की मध्यस्थता स्वीकार कर ली और बहुत सी धनराशि भेंट की। लौटते समय रणजीत सिंह ने लुधियाना को भी जीत लिया। 1807 में उन्होंने सतलुज को पार किया और नारायणगढ़, जीरा बदनी, फ़िरोज़पुर आदि प्रदेशों पर भी अधिकार कर लिया।
  • अमृतसर की संधि – रणजीत सिंह के सैनिक अभियानों से भयभीत होकर सतलुज नदी के पार की सिक्ख रियासतों ने अंग्रेज़ों से संरक्षण देने की प्रार्थना की। इस पर गवर्नर-जनरल लॉर्ड मिण्टो ने सर चार्ल्स मेटकॉफ़ को रणजीत सिंह से संधि करने को भेजा। प्रारम्भ में रणजीत सिंह संधि के लिए सहमत नहीं हुए, लेकिन जब लॉर्ड मिण्टो ने चार्ल्स मेटकॉफ़ के साथ आक्टरलोनी के नेतृत्व में सैनिक टुकड़ी भेजी तथा उन्होंने सैनिक शक्ति की धमकी दी तो रणजीत सिंह को झुकना पड़ा। अंत में 25 अप्रैल, 1809 ई. को रणजीत सिंह ने अंग्रेज़ों से संधि कर ली, जिसे ‘अमृतसर की संधि’ कहते हैं।
  • कांगड़ा विजय – जब 1809 ई. में अमरसिंह थापा ने कांगड़ा पर आक्रमण कर दिया तो कांगड़ा के शासक संसारचन्द्र की प्रार्थना पर रणजीत सिंह ने एक विशाल सेना कांगड़ा भेज दी। सिक्ख सेना को देखकर अमरसिंह थापा भाग निकला। इस प्रकार 1809 ई. में कांगड़ा के दुर्ग पर रणजीत सिंह का अधिकार हो गया।
  • मुल्तान विजय – 1818 ई. में रणजीत सिंह ने मिश्र दीवानचंद और खड्गसिंह को मुल्तान की विजय के लिए भेजा। यद्यपि मुल्तान के शासक मुजफ़्फ़र ख़ाँ ने सिक्ख सेना का वीरतापूर्ण मुकाबला किया, परन्तु उसे पराजित होना पड़ा। इस प्रकार 1818 ई. में मुल्तान पर भी महाराजा रणजीत सिंह का अधिकार हो गया।
  • अटक की विजय – रणजीत सिंह ने कूटनीति से काम लेते हुए 1813 ई. में कटक पर भी अधिकार कर लिया। उन्होंने कटक के गवर्नर जहादांद को एक लाख रुपये की राशि देकर 1813 में कटक पर भी अधिकार कर लिया।
  • कश्मीर विजय – 1819 ई. में रणजीत सिंह ने मिश्र दीवानचंद के नेतृत्व मे विशाल सेना कश्मीर की विजय के लिए भेजी। कश्मीर में अफ़ग़ान शासक जब्बार ख़ाँ ने सिक्ख सेना का मुकाबला किया, परन्तु उसे पराजय का मुख देखना पड़ा। इस प्रकार कश्मीर पर भी रणजीत सिंह का अधिकार हो गया।
  • डेराजात की विजय – कश्मीर की विजय के बाद 1820-21 में महाराजा रणजीत सिंह ने डेरागाजी ख़ाँ, इस्माइल ख़ाँ और बन्नू पर भी अधिकार कर लिया।
  • पेशावर की विजय – 1823 ई. में रणजीत सिंह ने पेशावर की विजय के लिए एक विशाल सेना भेजी। सिक्खों ने जहांगीर और नौशहरा की लड़ाइयों में पठानों को पराजित कर दिया और पेशावर पर अधिकार कर लिया। 1834 ई. में पेशावर को पूर्ण सिक्ख साम्राज्य में सम्मलित कर लिया गया।
  • लद्दाख की विजय – 1836 ई. में सिक्ख सेनापति जोरावर सिंह ने लद्दाख पर आक्रमण किया और लद्दाखी सेना को पराजित करके लद्दाख पर अधिकार कर लिया।

धार्मिक सद्भाव

पंजाब के लोक जीवन और लोक कथाओं में महाराजा रणजीत सिंह से सम्बन्धित अनेक कथाएं कही व सुनी जाती हैं। इसमें से अधिकांश कहानियाँ उनकी उदारता, न्यायप्रियता और सभी धर्मों के प्रति सम्मान को लेकर प्रचलित हैं। उन्हें अपने जीवन में प्रजा का भरपूर प्यार मिला। अपने जीवन काल में ही वे अनेक लोक गाथाओं और जनश्रुतियों का केंद्र बन गये थे।

एक मुसलमान खुशनवीस ने अनेक वर्षों की साधना और श्रम से ‘क़ुरान शरीफ़’ की एक अत्यंत सुन्दर प्रति सोने और चाँदी से बनी स्याही से तैयार की। उस प्रति को लेकर वह पंजाब और सिंध के अनेक नवाबों के पास गया। सभी ने उसके कार्य और कला की प्रशंसा की, परन्तु कोई भी उस प्रति को खरीदने के लिए तैयार न हुआ। खुशनवीस उस प्रति का जो भी मूल्य मांगता था, वह सभी को अपनी सामर्थ्य से अधिक लगता था। निराश होकर खुशनवीस लाहौर आया और महाराजा रणजीत सिंह के सेनापति से मिला। सेनापति ने उसके कार्य की बड़ी प्रशंसा की, परन्तु इतना अधिक मूल्य देने में उसने खुद को असमर्थ पाया। महाराजा रणजीत सिंह ने भी यह बात सुनी और उस खुशनवीस को अपने पास बुलवाया। खुशनवीस ने क़ुरान शरीफ़ की वह प्रति महाराज को दिखाई। महाराजा रणजीत सिंह ने बड़े सम्मान से उसे उठाकर अपने मस्तक में लगाया और वज़ीर को आज्ञा दी- “खुशनवीस को उतना धन दे दिया जाय, जितना वह चाहता है और क़ुरान शरीफ़ की इस प्रति को मेरे संग्रहालय में रख दिया जाय।” महाराज के इस कार्य से सभी को आश्चर्य हुआ। फ़क़ीर अजिजद्दीन ने पूछा- “हुजूर, आपने इस प्रति के लिए बहुत बड़ी धनराशि दी है, परन्तु वह तो आपके किसी काम की नहीं है, क्योंकि आप सिक्ख हैं और यह मुसलमानों की धर्म पुस्तक है।” महाराज ने उत्तर दिया- “फ़क़ीर साहब, ईश्वर की यह इच्छा है कि मैं सभी धर्मों को एक नज़र से देखूँ।”

मृत्यु एवं सिक्ख राज्य

59 वर्ष की आयु में 7 जून, 1839 ई. में अपनी मृत्यु के समय तक उन्होंने एक ऐसे संगठित सिक्ख राज्य का निर्माण कर दिया था, जो पेशावर से सतलुज तक और कश्मीर से सिन्ध तक विस्तृत था। किन्तु इस विस्तृत साम्राज्यों में वह कोई मज़बूत शासन व्यवस्था प्रचलित नहीं कर सके और न ही सिक्खों में वैसी राष्ट्रीय भावना का संचार कर सके, जैसी शिवाजी ने महाराष्ट्र में उत्पन्न कर दी थी। फलत: उनकी मृत्यु के केवल 10 वर्ष के उपरान्त ही यह साम्राज्य नष्ट हो गया। फिर भी यह स्वीकार करना होगा कि अफ़ग़ानों, अंग्रेज़ों तथा अपने कुछ सहधर्मी सिक्ख सरदारों के विरोध के बावजूद रणजीत सिंह ने जो महान् सफलताएँ प्राप्त कीं, उनके आधार पर उनकी गणना उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय इतिहास की महान् विभूतियों में की जानी चाहिए।

नेपोलियन से तुलना

एक फ़्राँसीसी पर्यटक ‘विक्टर जैकोमाण्ट’ ने रणजीत सिंह की तुलना नेपोलियन बोनापार्ट से की है। रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद का समय पंजाब के लिए घोर अराजकता का काल था। संघावलिया, डोगरा, अतरवालिया, जो रणजीत सिंह के शासन काल में प्रशासन के महत्त्वपूर्ण अंग थे, ने उनके कमज़ोर उत्तराधिकारियों ‘खड़क सिंह’, ‘नौनिहाल सिंह’ व ‘शेर सिंह’ में एक दूसरे का समर्थन करना शुरू कर दिया। इस बीच सेना का हस्तक्षेप भी प्रशासन में बढ़ने लगा। इसके अलावा, चूंकि अंग्रेज़ पहले से पंजाब को ललचायी दृष्टि से देख रहे थे, इसलिए यह उनके हस्तक्षेप का उचित कारण बना। इन सभी कारणों का परिणाम ही आंग्ल-सिक्ख युद्ध था।

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