मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १४ || Mantra Mahodadhi Taranga 14

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मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १४ में नृसिंह, गोपाल एवं गरुड मन्त्रों का प्रतिपादन है।

मन्त्रमहोदधि चतुर्दश: तरङ्ग:

मन्त्रमहोदधि – चतुर्दश तरङ्ग

मंत्रमहोदधि तरंग १४

मन्त्रमहोदधिः

अथ चतुर्दशः तरङ्गः

चतुर्दश तरङ्ग

अरित्र

अथ वक्ष्ये महाविष्णोर्मन्त्रान सर्वार्थसाधकान् ।

ब्रह्माद्या यानुपास्याथ ससृजुर्विविधाः प्रजाः ॥ १॥                                                   

अब सर्वार्थसाधक महाविष्णु के मन्त्रों को कहता हूँ । जिनकी उपासना कर ब्रह्मादि देवताओं ने विविध प्रजाओं की सृष्टि की ॥१॥

विष्णुमन्त्रकथनम्

मेरुः कृशानुसंयुक्तोऽनुग्रहेन्दुसमन्वितः ।

नरसिंहैकाक्षरमन्त्रकथनम्

एकाक्षरो नरहरेमन्त्रः कल्पद्रुमो नृणाम् ॥ २ ॥

त्र्यक्षरः सम्पुट: प्रोक्तो मायया प्रणवेन च ।

सर्वप्रथम नृसिंह मन्त्र का उद्धार कहते हैं – मेरु (क्ष) एवं कृशानु (र्) इन दोनों को अनुग्रह (औ) तथा इन्दु (अनुस्वार) से समन्वित करने पर नृसिंह का एकाक्षर (क्ष्रौं) मन्त्र निष्पन्न होता हैं जो साधकों को कल्पपृक्ष के समान फलदायी है । वही माया बीज (ह्रीं) अथवा प्रणव से संपुटित करने पर तीन तीन अक्षर के मन्त्र बन जाते हैं ॥२-३॥

विमर्श – एकक्षर मन्त्र – क्ष्रौं ।

प्रथम तीन अक्षर का मन्त्र – ह्रीं क्ष्र्ॐ ह्रीं ।

द्वितीय तीन अक्षर का मन्त्र – ॐ क्ष्रौं ॐ ॥२॥

ऋषिरत्रिश्च गायत्रीछन्दो देवो नृकेसरी ॥ ३॥

षड्दीर्घयुक्तबीजेन षडङ्गानि समाचरेत् ।

त्र्यर्णमन्त्रद्वयकथनं तदृषिच्छन्दआदिकथनञ्च

त्र्यणे मायापुटेनैव तारसम्पुटितेन वा ॥ ४ ॥

अब विनियोग तथा न्यास  कहते हैं – उक्त तीनों मन्त्रों के अत्रि ऋषि हैं । गायत्री छन्द है तथा नृसिंह देवता है । एकाक्षर मन्त्र में षड्‍ दीर्घ सहित बीज से षडङ्गन्यास करना चाहिए । तीन अक्षर वाले नृसिंह मन्त्र में माया बीज या प्रणव से संपुटित् षड् दीर्घ सहित एकाक्षर नृसिंह बीज मन्त्र से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥३-४॥

विमर्श – विनियोग – अस्य श्रीनृसिंहमन्त्रस्य अत्रिऋषि गायत्रीछन्दः श्रीनृसिंहो देवता आत्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

एकाक्षर मन्त्र के प्रयोग में षडङ्गन्यास –

क्ष्राँ हृदयाय नमः        क्ष्रीं शिरसे स्वाहा,        क्ष्रुँ शिखायै वषट्,

क्ष्रैं कवचाय हुम्        क्ष्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्        क्ष्रः अस्त्राय फट् ।

प्रथम त्र्यक्षर मन्त्र के प्रयोग में षडङ्गन्यास-

ह्रीं क्ष्रां ह्रीं हृदयाय नमः,        ह्रीं क्ष्रीं ह्रीं शिरसे स्वाहा,

ह्रीं क्ष्रूं शिखायै वषट्,            ह्रीं क्ष्रैं ह्रीं कवचाय हुम्,

ह्रीं क्ष्र्ॐ ह्रीं नेत्रत्रयाय वौषट्,        ह्रीं क्ष्रः ह्रीं अस्त्राय फट्

द्वितीय त्र्यक्षर मन्त्र के प्रयोग में षडङ्गन्यास –

ॐ क्ष्रां ॐ हृदयाय नमः,        ॐ क्ष्री शिरसे स्वाहा,

ॐ क्ष्रूं ॐ शिखायै वषट्        ॐ क्ष्रैं ॐ कवचाय हुम्,

ॐ क्ष्रौं ॐ नेत्रत्रयाय वौषट्,        ॐ क्ष्रः ॐ अस्त्राय फट् ॥३-४॥

तपनसोमहुताशनलोचनं घनविरामहिमाशुसमप्रभम् ।

अभयचक्रपिनाकवरान्करै – दधतमिन्दुधरं नृहरिं भजे ॥ ५॥

अब श्री नृसिंह मन्त्र का ध्यान कहते हैं – तपन (सूर्य) सोम (चन्द्रमा) और अग्निरुपी नेत्रों वाले, शरत्कालीन चन्द्रमा के समान कान्तिमान्‍ अपनी चार भुजाओं में क्रमशः अभय, चक्र, धनुष एवं वर मुद्रा धारण करने वाले तथा मस्तक पर चन्द्रकला से विराजमान श्री नृसिंह मैं भजन करता हूँ ॥५॥

लक्षमेक जपेन्मन्त्रं दशाशं घृतपायसैः ।

जुहुयात्पूजयेत्पीठे विमलादिसमन्विते ॥ ६ ॥

उक्त मन्त्र का एक लाख जप करना चाहिए । तदनन्तर घृत एवं खीर से उसका दशांश होम करना चाहिए तथा विमला आदि शक्तियों से युक्त पीठ पर इनका पूजन करना चाहिए ॥६॥

विमर्श – पीठ पूजा का प्रकार – प्रथम वृत्ताकार कर्णिका, उसके बाद अष्टदल, फिर बत्तीस दल तथा भूपुर युक्त बने मन्त्र पर भगवान्‍ नृसिंह का पूजन करना चाहिए । सामान्य विधि के अनुसार १४, ५ श्लोक में वर्णित श्री नृसिंह के स्वरुप का ध्यान कर, मानसोपचार से विधिवत्‍ पूजन कर, अर्घ्य के लिए शंख स्थापित करे । फिर १३. १० की भाषा टीका में वर्णित ‘पीठ मध्ये’ से ले कर ‘पूर्वादि दिक्षु’ पर्यन्त ‘ॐ विमलायै नमः’ से ले कर ‘पीठ मध्ये अनुग्रहायै नमः’ पर्यन्त पीठ शक्तियों का पूजन करे ।

इस प्रकार पूजित पीठ पर आसन देकर, ध्यान, आवाहन आदि उपचारों से श्रीनृसिंह की पूजा कर, पञ्चपुष्पाञ्जलि समर्पित कर, आवरण पूजा की आज्ञा लेकर, आवरण पूजा प्रारम्भ करनी चाहिए ॥६॥

केसरेष्वङ्गपूजास्यादिग्दलेषु खगेश्वरम् ।

शंकरं शेषनागं च शतानन्दं प्रपूजयेत् ॥ ७॥

अब नृसिंह के आवरण पूजा की विधि कहते हैं – केशरों में षडङ्गन्यास तदनन्तर चारों दिशाओं के पत्रों में खगेश्वर (गरुड),शंकर, शेषनाग एवं शतानन्द (ब्रह्मा), का पूजन करना चाहिए ॥७॥

श्रियं हियं धृति पुष्टि कोणपत्रेषु साधकः ।

द्वात्रिंशत्पत्रमध्येषु नृसिहांस्तावतोऽर्चयेत् ॥ ८॥

फिर चारों कोनों के पत्रों में श्रीं, घृति एवं पुष्टि का पूजन करना चाहिए । इसके बाद ३२ दलों में ३२ नामों से श्रीनृसिंह भगवान् की पूजा करनी चाहिए ॥८॥

कृष्णो रुद्रो महाघोरो भीमो भीषण उज्ज्वलः।

करालो विकरालश्च दैत्यान्तो मधुसूदनः॥ ९ ॥

रक्ताक्षः पिङ्गलाक्षश्चाञ्जनसंज्ञस्त्रयोदशः।

दीप्ततेजाः सुघोणश्च हनुर्वे षोडशः स्मृतः॥ १० ॥

विश्वाक्षो राक्षसान्तश्च विशालो धूम्रकेशवः।

हयग्रीवो घनस्वरो मेघनादस्तथापरः॥ ११॥

मेघवर्णः कुम्भकर्णः कृतान्तक इतीरितः।

तीव्रतेजा अग्निवर्णो महोग्रो विश्वभूषणः ॥ १२॥

विघ्नक्षमो महासेनः सिंहो द्वात्रिंशदीरितः।

इन्द्रादीन् वजमुख्यांश्च पूजयेच्चतुरस्रके॥ १३ ॥

कृष्ण, रुद्र, महाघोर, भीम, भीषण, उज्ज्वल, कराल, विकराल, दैत्यान्तक, मधूसूदन, रक्ताक्ष, पिङ्गलाक्ष, आञ्जन, दीप्ततेज, सुघोण, हनू, विश्वाक्ष, राक्षसान्त, विशाल, धूम्र, केशव, हयग्रीव, घनस्वर, मेघनाद, मेघवर्ण, कुम्भकर्ण, कृतान्तक, तीव्रतेजा, अग्नि वर्ण, महोग्र, विश्वभूषण, विध्नक्षम एवं महासेन ये नृसिंह जी के ३२ नाम हैं ॥९-१३॥

फिर इन्द्रादि दिक्पालों का तदनन्तर उनके वज्रादि आयुधों का चतुरस्र में पूजन करना चाहिए ॥१३॥

विमर्श – नृसिंह यन्त्र में आवरण पूजा – सर्वप्रथम आग्नेयादि चारों कोणों, मध्य तथा दिशाओं में षडङ्गपूजा इस प्रकार करे –

क्ष्रां हृदयाय नमः, आग्नेये,        क्ष्रीं शिरसे स्वाहा, नैऋत्ये,

क्ष्रूं शिखायै वषट्, वायव्ये,        क्ष्रैं, कवचाय हुम्, ईशान्ये,

क्ष्र्ॐ नेत्रत्रयाय वौषट् मध्ये        क्ष्रः अस्त्राय फट् चतुर्दिक्षु ।

फिर अष्टदल में पूर्वादि चारों दिशाओं के दलों में गरुड आदि की यथा –

ॐ गरुडाय नमः, पूर्व        ॐ शंकराय नमः, दक्षिणे,

ॐ शेषनागाय नमः, पश्चिमे,    ॐ ब्रह्मणे नमः, उत्तरे,

फिर अष्टदल के चारों कोणों में आग्नेयादि क्रम से श्री आदि की यथा –

ॐ श्रियै नमः आग्नेये,        ॐ ह्रियै नमः नैऋत्ये,

ॐ घृत्यै नमः वायव्ये,        ॐ पुष्टयै नमः ऐशान्ये

इसके बाद ३२ दलों में नृसिंह के ३ नामों से – यथा

ॐ कृष्णाय नमः        ॐ रुद्राय नमः        ॐ महाघोराय नमः,

ॐ भीमाय नमः        ॐ भीषणाय नमः    ॐ उज्ज्वलाय नमः,

ॐ करालाय नम्ह,        ॐ विकरालाय नमः    ॐ दैत्यान्तकाय नमः,

ॐ मधुसूदनाय नमः,        ॐ रक्ताक्षाय नमः,    ॐ पिङ्गलाक्षाय नमः,

ॐ अञ्जनाय नमः        ॐ दीप्ततेजसे नमः,    ॐ सुघोणाय नमः

ॐ हनवे नमः            ॐ विश्वाक्षाय नमः    ॐ राक्षसान्ताय नमः,

ॐ विशालाय नमः        ॐ धूम्रकेशवाय नमः    ॐ हयग्रीवाय नमः

ॐ घनस्वराय नमः        ॐ मेघनादाय नमः    ॐ मेघवर्णाय नमः

ॐ कुम्भवर्णाय नमः,        ॐ कृतान्तकाय नमः    ॐ तीव्रतेजसे नमः

ॐ अग्निवर्णाय नमः,        ॐ महोग्राय नमः,    ॐ विश्वभूषणाय नमः

ॐ विघ्नक्षमाय नमः,        ॐ महासेनाय नमः ।

इसके पश्चात् भूपुर में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से इन्द्रादि द्श दिक्पालों का

ॐ लं इन्द्राय नमः, पूर्वे        ॐ रं अग्नये,            ॐ यं यमाय नमः दक्षिणे,

ॐ क्षं निऋतये नमः, नैऋत्ये        ॐ वं वरुणाय नमः पश्चिमे,

ॐ यं वायवे नमः, वायव्ये,        ॐ सं सोमाय नमः उत्तरे,    ॐ हं ईशानाय नमः ऐशान्ये

फिर भूपुर के बाहर वज्रादि आयुधों का यथा पूर्वादिक्रम से-

ॐ वज्राय नमः        ॐ शक्तये नमः,        ॐ दण्डाय नमः,

ॐ खड्‌गाय नमः,        ॐ पाशाय नमः,        ॐ अंकुशाय नमः,

ॐ गदायै नमः,        ॐ शूलाय नमः,        ॐ पद्माय नमः,

ॐ चक्राय नमः,

आवरण पूजा करने के बाद धूप दीपादि उपचारों से नृसिंह भगवान् का पूजन करना चाहिए ॥९-१३॥

एवं संसाधितो मन्त्रः प्रयोगेषु क्षमो भवेत् ।

इस प्रकार के पुरश्चरण करने से सिद्ध किया गया मन्त्र काम्य प्रयोग करने के योग्य होता है ॥१४॥

उक्तमन्त्रप्रयोगविधिवर्णनम्

सहस्राष्टकसंख्यातैः शतपत्रिकैस्तु यः ॥ १४ ॥

जुहुयादुदके तस्य सर्वे नश्यन्त्युपद्रवाः ।

महोत्पातहरोप्येष होमः सर्वेष्टदो नृणाम् ॥ १५ ॥

तीन गाँठ वाली (तीन पत्तों वाली) दूर्वा से जो साधक १००८ आहुतियाँ देता है वह सभी उपद्रवों से मुक्त हो जाता है । इस प्रकार से किया गया होम महान् उत्पातों को शान्त करता है यथा मनुष्यों को अभीष्टसिद्धि देता है॥१५॥

संस्थाप्य विधिवत्कुम्भं जपेदष्टसहस्रकम् ।

अभिषिञ्चेद्विषाक्रान्तं विषजार्तिनिवृत्तये ॥ १६ ॥

विधिपूर्वक कलश स्थापित कर १००८ बार उक्त नृसिंह मन्त्र का जप करे फिर उस कलश के जल से विष पीडित व्यक्ति का अभिषेक करे तो रोगी की विषजन्य पीडा दूर हो जाती है ॥१६॥

विचरन्विपिने चौरव्याघ्रसर्पाकुले नरः।

जपन्नमुं मन्त्रवर न भयं प्रतिपद्यते ॥१७ ॥

इस मन्त्र का जप करते हुये मनुष्य व्याघ्र, सर्पादि से संकुल घोर अरण्य में विचरण करते हुये भी भयभीत नहीं होता ॥१७॥

ईक्षिते निशि दुःस्वप्ने जपन्मन्त्रं निशां नयेत् ।

अवशिष्टं स्वप्नफलं सम्यगादिशति ध्रुवम्॥ १८ ॥

यदि रात्रि में दुःस्वप्न दिखाई पड जाय तो इस मन्त्र का जप करते हुये जागरण पूर्वक रात्रि व्यतीत कर देने से दुःस्वप्न निश्चित ही सुस्वप्न का फल देता है ॥१८॥

कर्णनेत्रशिरःकण्ठरोगान् मन्त्रो विनाशयेत् ।

अभिचारकृतां पीडां मनुमन्त्रितभस्म च ॥ १९ ॥

यह नृसिंह मन्त्र कर्णरोग, नेत्ररोग, शिरोरोग तथा कण्ठगत रोगों को विनष्ट कर देता है । इस मन्त्र से अभिमन्त्रित भस्म का उद्धोलन अभिचार जनित पीडा को दूर कर देता है ॥१९॥

आत्मानं नृहरिं ध्यात्वा वैरिणं मृगबालकम् ।

आदाय प्रक्षिपेद्यस्यां दिशि तस्यां स गच्छति ॥ २० ॥

स्वकुटुम्बं परित्यज्य न चैवावर्त्तते पुनः।

स्वयं को नृसिंह तथा शत्रु को मृगशावक मानते हुये उसे पकडकर जिस दिशा में फेंक दिया जाय वह अपने परिवार को छोडकर उसी दिशा में चला जाता है और फिर कभी नहीं लौटता ॥२०-२१॥

नृसिंह संस्मरन्वादे रिपोः स्वस्य विनष्टये ॥ २१॥

मन्त्रप्रभावाद्वैरिमरणे प्रायश्चित्तकथनम्

प्रजपेदयुत मन्त्रं मारणोत्थाघनष्टये ।

विवाद में शत्रु को मारणे के लिए नृसिंह मन्त्र का जप करना चाहिए । किन्तु उसके मर जाने पर पाप को दूर करने के लिए पुनः इस मन्त्र का १० हजार जप करना चाहिए ॥२१-२२॥

प्रसूनैर्बिल्ववृक्षोत्थैः फलैस्तत्काष्ठसम्भवैः ।। २२ ।।

सहस्रं जुहुयाद् वनौ वाञ्छितश्रीसमृद्धये ।

पत्रजीवेद्धवह्नौ तु तत्फलैः पुत्रसम्पदे ॥ २३ ॥

अपनी इच्छानुसार श्री समृद्धि के लिए बेल के फूल एवं उसकी लकडी से इस मन्त्र द्वारा एक हजार आहुतियाँ देनी चाहिए ॥२२-२३॥

पुत्र के दीर्घायुष्य के लिए तथा पुत्र रुप संपत्ति प्राप्त करने के लिए विल्व की लकडी में बिल्व फल से होम करना चाहिए ॥२३॥

ब्राह्मीं वचा वा मन्त्रेण मन्त्रितां शतसंख्यया ।

संवत्सरमदन्प्रातर्विद्यापारङ्गतो भवेत् ॥ २४ ॥

ब्राह्यी अथवा वचा को इस मन्त्र से १०० बार अभिमन्त्रित कर एक वर्ष तक प्रातःकाल लगाकार खाने वाला व्यक्ति विद्या में पारङ्गत हो जाता है ॥२४॥

किंबहूक्तेन नृहरिः सर्वेष्टफलदो नृणाम् ।

अथोच्यते नरहरि तिहारीष्टसाधकः ॥ २५॥

नृसिंहाष्टाक्षरमन्त्रतद्विधिकथनम्

जयद्वयं श्रीनृसिंहेत्यष्टार्णो मनुरीरितः ।

इस विषय में विशेष क्या कहें भगवान् नृसिंह का मन्त्र साधकों के समस्त मनोरथों को पूर्ण करता है ॥२५॥

अब भयनाशक श्री नृसिंह मन्त्र का उद्धार कहते हैं – दो बार जय (जय जय) फिर श्री नृसिंह लगाने से ८ अक्षरों का मन्त्र निष्पन्न होता है ॥२५-२६॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – जय जय श्रीनृसिंह (८)-॥२६॥

ऋषिर्ब्रह्मास्य गायत्रीछन्दो देवो नृकेसरी ॥ २६ ॥

शक्तिर्नेत्रं वियबीजमुभे चन्द्रसमन्विते ।

वियतादीर्घयुक्तेन चन्द्राढ्येन षडङ्गकम् ॥ २७ ॥

इस मन्त्र के ब्रह्मा ऋषि है, गायत्री छन्द है तथा नृसिंह देवता है । अनुस्वार सहित नेत्र (इं) तथा अनुस्वार वियत् (हं) क्रमशः शक्ति एव्णं बीज है । अनुस्वार एवं षड् दीर्घसहित वियत् (ह) वर्णो से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥२६-२७॥

विमर्श – विनियोग – अस्य जयनृसिंहमन्त्रस्य ब्रह्माऋषिः गायत्रीछन्दः श्री नृसिंहो देवता आत्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जप विनियोगः ।

षडङ्गन्यास – हां हृदयाय नमः,    हीं शिरसे स्वाहा,    हूँ शिखायै वषट्,

हैं कवचाय हुम्     हौं नेत्रत्रयाय वौषट् , हः अस्त्राय फट् ॥२६-२७॥

श्रीमन्नृकेसरितनो जगदेकबन्धो

श्रीनीलकण्ठकरुणार्णवसामराज ।

वह्नीन्दुतीव्रकरनेत्रपिनाकपाणे

शीतांशुशेखर रमेश्वर पाहि विष्णो ॥ २८ ॥

अब इस जयनृसिंह मन्त्र का ध्यान कहते हैं – हे नर और सिंह रुप उभयात्मक शरीर वाले, हे जगत् के एक मात्र बन्धो, हे नीलकण्ठ, हे करुणासागर, हे सामगान से प्रसन्न होने वाले, हे चन्द्र, सूर्य तथा अग्नि स्वरुप तीन नेत्रों वाले, हे धनुर्धर, हे चन्द्रकला को मस्तक पर धारण करने वाले, हे रमा के स्वामी श्री विष्णो मेरी रक्षा कीजिये ॥२८॥

एवं ध्यात्वा जपेल्लक्षाष्टकं तस्य दशांशतः।

जुहुयात्पायसेनाग्नौ पूजाद्यस्य तु पूर्ववत् ॥ २९ ॥

इस प्रकार ध्यान कर उक्त मन्त्र का ८ लाख की संख्या में जप करना चाहिए । तदनन्तर विधिवत् स्थापित अग्नि में खीर का होम करना चाहिए । इनके पूजा आदि की विधि पूर्ववत् हैं ॥२९॥

नृसिंहस्य एकाधिकत्रिंशदर्णमन्त्रः तद्विधिकथनम्

तारः पद्मा च हृल्लेखा जयलक्ष्मीप्रियाय च ।

नित्यप्रमुदितान्ते तु चेतसेपदमीरयेत् ॥ ३०॥

लक्ष्मीश्रितार्द्धदेहाय रमामाये नमः पदम् ।

एकाधिकस्त्रिंशदर्णो मनुः पद्मभवो मुनिः ॥ ३१ ॥

अब लक्ष्मी नृसिंह मन्त्र का उद्धार कहते हैं – तार (ॐ), पद्म (श्रीं), हृल्लेखा (ह्रीं), फिर ‘जयलक्ष्मी प्रियाय नित्यप्रमुदित’ इतने पद के बाद ‘चेतसे’ कहना चाहिए । फिर ‘लक्ष्मीश्रितार्द्धदेहाय’ कहकर रमा बीजं (श्रीं), माया बीज (ह्रीं), इसके अन्त में ‘नमः’ पद लगाने से ३१ अक्षर का मन्त्र बनता है ॥३०-३१॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ॐ श्रीं ह्रीं जयलक्ष्मीप्रियाय नित्यप्रमुदितचेतसे लक्ष्मीश्रितार्द्धदेहाय श्रीं ह्रीं नमः (३१) ॥३०-३१॥

छन्दोतिजगती प्रोक्तं देवः श्रीनरकेसरी ।

बीज रमाद्रिजाशक्तिः श्रीबीजेन षडङ्गकम् ॥ ३२॥

इस मन्त्र के पद्‌मभव ऋषि हैं अतिजगति छन्द हैं, श्रीनरकेसरी देवता हैं, रमा बीज है तथा अद्रिजा (ह्रीं) शक्ति है । षट् दीर्घ युक्त श्री बीज से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥३२॥

विमर्श – विनियोग – ॐ अस्य श्रीलक्ष्मीनृसिंहमन्त्रस्य पद्मोभवऋषिः अतिजगतीछन्दः श्रीनृकेसरीदेवता श्रीं बीजं ह्रीं शक्तिः आत्मनोऽभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।

षडङ्गन्यास – श्रां हृदाय नमः, श्रीं शिरसे स्वाहा,    श्रूं शिखायै वौषट्,

श्रैं कवचाय हुम्,    श्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्,        श्रः अस्त्राय फट् ॥३२॥

क्षीराब्धौ वसुमुख्यदेवनिकरैरग्रादिसंवेष्टितः

शंख चक्रगदाम्बुजं निजकरैर्बिभ्रंस्त्रिनेत्रः सितः ।

साधीशफणातपत्रलसितः पीताम्बरालंकृतो

लक्ष्म्याश्लिष्टकलेवरो नरहरिः स्तान्नीलकण्ठो मुदे ॥ ३३ ॥

अब लक्ष्मीनृसिंह मन्त्र का ध्यान  कहते हैं – क्षीरसागर में स्थित श्वेत द्वीप में वसु, रुद्र, आदित्य एवं विश्वेदेवों से क्रमशः अग्रभाग में, दाहिनी ओर, पीछे पश्चिम में तथा बाईं ओर से उनसे घिरे हुये, अपने चारों हाथों में क्रमशः शंख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण करने वाले, तीन नेत्रों से युक्त, शेषनाग के फण रुप छत्रों से सुशोभित पीताम्बरालंकृत, लक्ष्मी से आलिङ्गित शरीर वाले श्रीनीलकण्ठ नृसिंह भगवान्‍ हमें हर्ष प्रदान करे ॥३३॥

एवं ध्यात्वा जपेल्लक्षत्रयं षष्टिसहस्रकम् ।

मध्वक्तैर्मल्लिकापुष्पैर्जुहुयाज्जातवेदसि ॥ ३४ ॥

षट्शतं त्रिसहस्राणि पीठे पूर्वोदिते यजेत् ।

ऐसा ध्यान कर उक्त मन्त्र का तीन लाख साठ हजार जप करे तदनन्तर घी, शर्करा एवं मधुमिश्रित मालती के फूलों से अग्नि में तीन हजार छः सौ आहुतियाँ प्रदान करे । पूर्वोक्त (द्र० १३ . १० श्लोक) वैष्णव पीठ पर इनका भजन करे ॥३४-३५॥

प्रथमावरणेङ्गानि परशक्तिरिमाः पुनः ॥ ३५॥

भास्वतीभास्करीचिन्ताद्युतिरुन्मीलिनी तथा ।

रमाकान्तीरुचिश्चेति शक्राद्याहेतिसंयुताः ॥ ३६ ॥

प्रथमावरण में अङ्गपूजा द्वितीयावरण में इन शक्तियों का पूजन करना चाहिए । १. भास्वती, २. भास्करी, ३. चिन्ता, ४. द्युति, ५. उन्मीलिनि, ६. रमा, ७. कान्ति और ८. रुचि – ये ८ शक्तियाँ है । तदनन्तर अपने अपने आयुधों के साथ इन्द्रादि दिक्पालों का पूजन करना चाहिए ॥३५-३६॥

विमर्श – आवरण पूजा – वृत्ताकार कर्णिका,अष्टदल एवं भूपुर युक्त बने यन्त्र पर श्री सहित नृसिंह का पूजन करना चाहिए । सर्वप्रथम केसरों के आग्नेयादि कोणों के मध्य में तथा चारों दिशाओं में षडङ्गपूजा यथा –

श्रां हृदयाय नमः आग्नेये,        श्रीं शिरसे स्वाहा, नैऋत्ये,

श्रूं शिखायै वषट् वायव्ये,        श्रैं कवचाय हुम्, ऐशान्ये,

श्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् मध्ये,        श्रः अस्त्राय फट् चतुर्दिक्षु,

फिर अष्टदल में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से भास्वती आदि शक्तियों की पूजा करनी चाहिए । यथा –

ॐ भास्वत्यै नमः, पूर्वदले,        ॐ भास्कर्यै नमः आग्नेयदले,

ॐ चिन्तायै नम दक्षिणदले,        ॐ द्युत्यै नमः नैऋत्यदले,

ॐ उन्मीलिन्यै नमः, पश्चिमदले,    ॐ रमायै नमः वायव्यदले,

ॐ कान्त्यै नमः उत्तरदले,        ॐ रुच्यै नमः ईशानदले ।

इसके बाद भूपुर में १४, ७ की भाषा टीका में लिखी गई रीति से दिक्पालों एवं उनके आयुधों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार आवरण पूजा समाप्त कर मन्त्र पर धूप दीपादि उपचारों से श्रीलक्ष्मीनृसिंह का पूजन कर जप प्रारम्भ करना चाहिए ॥३५-३६॥

इत्थं सिद्धे मनौ मन्त्री निग्रहानुग्रहक्षमः ।

मल्लिकाकुसुमैर्होमादिष्टसिद्धिमवाप्नुयात् ॥ ३७॥

इस प्रकार पुरश्चरण से मन्त्र सिद्ध हो जाने पर साधक निग्रह और अनुग्रह में सक्षम हो जाता है । मालती के पुष्पों से इस मन्त्र द्वारा आहुति देने से साधक अपना अभीष्ट प्राप्त कर लेता है ॥३७॥

नृसिंहनवनवत्यक्षरमन्त्र तद्विधिकथनम्

प्रणवो नहरेर्बीजं नमो भगवतेपदम् ।

नरसिंहायतारश्च बीजं मत्स्येति कीर्तयेत् ॥ ३८ ॥

रूपायतारो बीजं च कूर्मरूपायवर्णकाः ।

तारबीजे वराहार्णा रूपाय तारबीजके ॥ ३९॥

नृसिंहरूपायान्ते तु तारो बीजं च वामनम् ।

रूपाय विस्तारबीजे रामायेतिपदं वदेत् ॥ ४० ॥

तारो बीजं च कृष्णाय तारो बीजं च कल्किने ।

जयद्वयं ततः शालग्रामदीर्घा सनेत्रका ॥ ४१॥

वासिने दिव्यसिंहाय स्वयम्भू डेन्तिमः स्मृतः ।

पुरुषाय नमस्तारो बीजमित्युदितो मनुः ॥ ४२॥

अब दशावतार श्रीनृसिंह मन्त्र का उद्धार कहते हैं – प्रणव (ॐ), फिर नृसिंह बीज (क्ष्रौं), फिर‘नमो भगवते नरसिंहाय’ फिर प्रणव एवं नृसिंह बीज, उसके बाद १. मत्स्यरुपाय, फिर प्रणव एवं उक्त बीज के बाद २. कूर्मरुपाय, फिर प्रणव एवं उक्त बीज के बाद ३. वराहरुपाय, फिर प्रणव एवं बीज उसके बाद ४. नृसिंहरुपाय, फिर प्रणव एवं बीज के बाद ५. वामन रुपाय, फिर तीन बार प्रणव के साथ तीन बार बीज मन्त्र उसके बाद ६. रामाय, फिर प्रणव एवं बीज के बाद ७. कृष्णाय, फिर प्रणव एवं बीज के बाद ८. ‘कल्किने’, फिर दो बार ‘जय’ पद (जय जय) शालग्रा, सनेत्र दीर्घा (नि), फिर ‘वासिने’, फिर ‘दिव्य सिंहाय’ के बाद चतुर्थ्यन्त स्वयम्भू (स्वयंभुवे), फिर ‘पुरुषाय नमः’, तथा अन्त में पुनः तार (ॐ) और बीज (क्ष्रौं) लगाने से ९९ अक्षरों का दशावतार मन्त्र निष्पन्न होता है ॥३८-४२॥

विमर्श – दशावतार मन्त्र का स्वरुप – ॐ क्ष्रौं नमो भगवते नरसिंहाय, ॐ क्ष्रौं मत्स्यरुपाय, ॐ क्ष्रौं कूर्मरुपाय, ॐ क्ष्रौ वराहरुपाय, ॐ नृसिंहरुपाय, ॐ क्ष्रौ वामनरुपाय, ॐ क्ष्रौं ॐ क्ष्र् ॐ क्ष्रौं रामाय, ॐ क्ष्रौं कृष्णाय ॐ क्ष्रौं कल्किने, जय जय शालग्रामनिवासिने दिव्यसिंहाय स्वयंभुवे पुरुषाय नमः ॐ क्ष्र्ॐ ॥३८-४२॥

हरेर्नवनवत्यों मुनिरत्रिः किलास्य तु ।

छन्दोतिजगती देवो नृकेसर्यवतारवान् ॥ ४३ ॥

बीज पूर्वोदितं शक्तिराद्या बीजेन चागंकम ।

कत्वा षड्दीर्घयुक्तेन ध्यायेत्क्षीरोदधिस्थितम्॥ ४४ ॥

९९ अक्षर वाले इस मन्त्र के अत्रि ऋषि हैं, अतिजगति छन्द है तथा अवतारवान् नृसिंह देवता हैं । पूर्वोक्त क्ष्र् ॐ बीज तथा आद्या (ॐ) शक्ति हैं ॥४३-४४॥

षड्‌दीर्घसहित पूर्वोक्त बीज से षडङ्गन्यास कर क्षीरसागर में स्थित श्रीनृसिंह भगवान् का ध्यान करना चाहिए ॥४४॥

विमर्श – विनियोग – अस्य दशावतारश्रीनृसिंहमन्त्रस्य अत्रिऋषिः अतिजगतीछन्दः अवतारवान्‍श्रीनृसिंहो देवता क्ष्र्ॐ बीजं ॐशक्तिः आत्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

षडङ्गन्यास – ॐ क्ष्रां हृदयाय नमः,        ॐ क्ष्रीं शिरसे स्वाहा,

ॐ क्ष्रूं शिखायै वषट्,        ॐ क्ष्रैं कवचाय हुम्

ॐ क्ष्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्    ॐ क्ष्रः अस्त्राय फट् ॥४४॥

सहस्रचन्द्रप्रतिमोदयालु लक्ष्मीमुखालोकनलोलनेत्रः ।

दशावतारैः परितः परीतो नृकेसरी मङ्गलमातनोतु ॥ ४५ ॥

अब दशावतार श्रीनृसिंह मन्त्र का ध्यान कहते हैं – अगणित चन्द्र समूहों के समान कान्तिपुञ्ज से युक्त, दयालु स्वभाव वाले, लक्ष्मी का मुख देखने के लिए पुनः पुनः आकुल नेत्रों वाले, चारों ओर से दशावतारों से घिरे हुये भगवान् नृसिंह हमारा मङ्गल करें ॥४५॥

जपोयुतं दशांशेन हवनं पायसेन तु ।

पीठे पूर्वोदिते पूर्वमंगानि परिपूजयेत् ॥ ४६॥

दशावतारान्मत्स्यादीन्दिक्पालानायुधान्यपि ।

प्रयोगः पूर्ववत्प्रोक्ताः सर्वसिद्धिप्रदे मनौः ॥ ४७ ॥

उक्त मन्त्र का १० हजार की संख्या में जप करना चाहिए । खीर से उसका दशांश होम करना चाहिए । पूर्वोक्त पीठ पर प्रथम अङ्गपूजा, फिर मत्स्यादि दश अवतारों की पूजा, तदनन्तर दिक्पालों एवं उनके आयुधों का पूजन करना चाहिए । सर्वसिद्धिदायक इस मन्त्र के काम्यप्रयोग पूर्वोक्त मन्त्र के समान हैं ॥४६-४७॥

अभयनृसिंहमन्त्रकथनम्

तारो नमो भगवते नरसिंहाय हृच्चते ।

जस्तेजसेआविराविर्भववजनखां ततः ॥ ४८ ॥

वजदंष्ट्र च कर्मान्ते त्वाशयान् रन्धयद्वयम् ।

तमो ग्रसद्वयं वह्नः कलत्रमभयं पुनः ॥ ४९ ॥

आत्मन्यन्ते च भूयिष्ठास्तारो बीजं मनुः स्मृतः।

अब अभयप्रद श्रीनृसिंह मन्त्र कहते हैं – तार (ॐ), फिर ‘नमो भगवते नरसिंहाय’ के बाद हॄदय (नमः), फिर ‘तेजस्तेजसे आविराविर्भव वज्रनख’, के बाद ‘वज्रदंष्ट्रकर्माशयान्’, फोर दो बार ‘रन्धय’ पद (रन्धय रन्धय), फिर ‘तमो’ के बाद दो बार ‘ग्रस’ पद (ग्रस ग्रस), फिर वहिनपत्नी (स्वाहा) तथा ‘अभयमात्मनि भूयिष्ठा’ फिर तार (ॐ) तथा बीज (क्ष्र् ॐ) लगाने से ६२ अक्षरों का अभयप्रद मन्त्र बनता है ॥४८-५०॥

द्विषष्ट्यवर्णैः शुकः प्रोक्तो मुनिश्छन्दस्तु पूर्ववत् ॥ ५० ॥

अभयो नारसिंहस्तु देवतान्यत्तु पूर्ववत् ।

इस मन्त्र के शुक ऋषि हैं, देवता अभयनरसिंह हैं, अतिजगती छन्द है तथा न्यास, ध्यान एवं पूजा आदि पूर्वोक्त मन्त्र के समान समझना चाहिए ॥५०-५१॥

विमर्श – विनियोग – अस्याभयनरसिंहमन्त्रस्य शुकऋषिरतिजगतीछन्दः अभयप्रद नरसिंहो देवता आत्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थेजपे विनियोगः ।

षडङ्गन्यासादि पूर्ववत्  है ॥५०-५१॥

गोपालदशाक्षरमन्त्रकथनम्

अथ गोपालमनवः प्रोच्यन्ते स्वेष्टसाधकाः ॥ ५१ ॥

गोपीजनपदस्यान्ते वल्लभायाग्निसुन्दरी ।

दशाक्षरो मनुः प्रोक्तो मनोरथफलप्रदः ॥ ५२ ॥

नारदोऽस्य विराट्कृष्णो मुनिपूर्वाः समीरिताः ।

बीजशक्ती तु विज्ञेये क्रमात्कामानलप्रिये ॥ ५३ ॥

अब अपना समस्त अभीष्ट सिद्ध करने वाले श्रीगोपालकृष्ण के मन्त्रों को कहता हूँ – ‘गोपीजन’ इस पद के कहने के बाद ‘वल्लभाय’, फिर अग्निसुन्दरी (स्वाहा) लगाने से मनोवाञ्छित फल देने वाला दश अक्षरों का मन्त्र बनाता हैं ॥५१-५३॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप – गोपीजनवल्लभाय स्वाहा (१०) ॥५१-५२॥

इस मन्त्र के नारद ऋषि हैं, विराट् छन्द है, श्रीकृष्ण देवता हैं, काम (क्लीं) बीज तथा अनलप्रिया (स्वाहा) शक्ति कही गई हैं ॥५३॥

विमर्श – विनियोग – अस्य श्रीगोपालमन्त्रस्य नारऋषिर्विराट्‌छन्दः श्रीकृष्णो देवता क्लीं बीजं स्वाहा शक्तिरात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ॥५३॥

पञ्चाङ्गन्यासवर्णन्यासध्यानकथनम्

आचक्रायहृदाख्यातं विचक्राय शिरोऽपि च ।

सुचक्राय शिखापश्चात्त्रैलोक्यरक्षणं ततः ॥ ५४॥

चक्राय कवचं प्रोक्तमसुरान्तकशब्दतः।

चक्रायास्त्रमिदं कुर्यादङ्गानां पञ्चकं मनोः ॥ ५५॥

अब पञ्चाङ्गन्यास कहते हैं – आचक्राय से हृदय, विचक्राय से शिर, सुचक्राय से शिखा, फिर त्रैलोक्यरक्षणचक्राय से कवच, तथा असुरान्तकचक्राय से अस्त्रन्यास करना चाहिए । (पञ्चाङ्गन्यास में नेत्रन्यास वर्जित है) ॥५४-५५॥

विमर्श – पञ्चाङ्गन्यास विधि – आचक्राय हृदयाय नमः,

विचक्राय शिरसे स्वाहा,        सुचक्राय शिखायै वषट,

त्रैलोक्यरक्षणचक्राय कवचाय हुम्    असुरान्तकचक्राय अस्त्राय फट् ॥५४-५५॥

सर्वाङ्गे त्रिमनं न्यस्य वर्णन्यासं समाचरेत ।

मस्तके नेत्रयोः श्रुत्योर्नसोर्वक्त्रे हृदम्बुजे ॥ ५६ ॥

जठरे लिङ्गदेशे च जानुनोः पादयोरपि ।

वर्णास्तारपुटान्न्यस्येद्विन्द्वाढ्यान्नमसायुतान् ॥ ५७ ॥

मूलमन्त्र को तीन बार पढकर तीन बार सर्वाङ्गन्यास करना चाहिए । फिर मस्तक, नेत्र, कान, नासिका, मुख, हृदय, उदर, लिङ्ग जानु एवं दोनों पैरों में प्रणव संपुटित नमः सहित सानुस्वार मन्त्र के एक एक वर्णो से उक्त दशों स्थानों पर न्यास करना चाहिए ॥५६-५७॥

विमर्श – वर्णन्यास – ‘ॐ गों ॐ नमः मस्तके, ॐ पीं ॐ नमः नेत्रयोः

ॐ जं ॐ नमः कर्णयोः        ॐ नं ॐ नमः नसोः,

ॐ वं ॐ नमः मुखे,            ॐ ल्लं ॐ नमः, हृदि,

ॐ भां ॐ नमः जठरे,            ॐ यं ॐ नमः लिङ्गे

ॐ स्वां ॐ नमः जान्वोः        ॐ हां ॐ नमः पादयोः ॥५६-५७॥

वृन्दारण्यगकल्पपादपतले सद्रत्नपीठेम्बुजे

शोणाभे वसुपत्रके स्थितमज पीताम्बरालंकृतम् ।

जीमूताभमनेकभूषणयुत गोगोपगोपीवृतं

गोविन्दं स्मरसुन्दरं मुनियुतं वेणुं रणन्तं स्मरेत् ॥ ५८ ॥

अब गोपाल का ध्यान कहते हैं – वृन्दावन में कल्पवृक्ष के नीचे निर्मित्त सुन्दर मणिपीठ पर, रक्तवर्ण के अष्टदल कमल पर विराजमान, पीताम्बरालंकृत, बादलोम के समान कान्ति वाली, अनेक आभूषणों को धारण किए हुये, गो, गोप एवं गोपियों से घिरे हुये, कामदेव से भी अधिक सुन्दर, मुनिगणों से संयुक्त वंशी बजाते हुये श्रीगोविन्द का स्मरण करना चाहिए ॥५८॥

पीठपूजाप्रकारकथनम्

एवं ध्यात्वा जपेल्लक्षं दशांशं सरसीरुहैः।

जुहुयात्पूजयेत्पीठे वैष्णवे नन्दनन्दनम् ॥ ५९ ॥

इस प्रकार गोपाल का ध्यान कर एक लाख जप करना चाहिए । फिर कमल पुष्पों से उसका दशांश होम करना चाहिए तथा पूर्वोक्त वैष्णव पीठ पर नन्दनन्दन श्रीगोपालकृष्ण का पूजन करना चाहिए ॥५९॥

अग्न्यादिकोणेष्वभ्यर्च्य हृदाद्यङ्गचतुष्टयम् ।

दिशास्वस्त्रं दलेष्वष्टौ महिषीः परिपूजयेत् ॥ ६० ॥

रुक्मिणीसत्यभामा च नग्नजित्तनयार्कजा ।

मित्रविन्दालक्ष्मणा च जाम्बवत्यासशीलका ॥ ६१॥

महिष्योऽष्टौ सुवर्णाभा विचित्राभरणम्रजः।

दलाने वसुदेवं च देवकी नन्दगोपतिम् ॥ ६२ ॥

यशोदा बलभद्रं च सुभद्रां गोपगोपिकाः ।

इन्द्रादीनपि वजादीन् पूजयेत्तदनन्तरम् ॥ ६३ ॥       

आग्नेयादि चार कोणों में हृदय आदि चार अङ्गो की, फिर दिशाओं में अस्त्र का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार पञ्चाङ्ग पूजा कर अष्टदल में गोपाल की ८ महिषियों का पूजन करना चाहिए । १. रुक्मिणी, २. सत्यभामा, ३. नाग्नजिती, ४. कालिन्दी, ५. मित्रविन्दा, ६. लक्ष्मणा. ७. जाम्बवती तथा ८. सुशीला ये आठों श्री गोपाल जी की महिषी हैं, जो सुवर्ण जैसी आभावाली तथा विचित्र आभूषण एवं विचित्र मालाओं से अलंकृत रहती हैं । अष्टदल के अग्रभाग में वसुदेव, देवकी, गोपति, श्रीनन्द, यशोदा, बलभद्र, सुभद्रा, गोप एवं गोपियों का पूजन करना चाहिए ॥६०-६३॥

तदनन्तर इन्द्रादि दिक्पालों का तथा उनके वज्रादि आयुधों का पूजन करना चाहिए ॥६३॥

विमर्श – वृत्ताकार कर्णिका, अष्टदल एवं भूपुर सहित गोपाल यन्त्र का निर्माण करना चाहिए ।

पूजा की विधि – सर्वप्रथम १४, ५८ में वर्णित श्रीगोपाल के स्वरुप का ध्यान कर मानसोपचार से पूजा करे । फिर शंख का अर्घ्यपात्र स्थापित कर उक्त मन्त्र पर पूर्वोक्त रीति से पीठ देवताओं एवं पीठ शक्तियों का पूजन (द्र० १३. १०) । फिर आसन, आसन, ध्यान, आवाहनादि से लेकर पञ्च पुष्पाञ्जलि समर्पण पर्यन्त धूप, दीपादि उपचारों से गोपालनन्दन का पूजन कर, पुष्पाञ्जलि समर्पित कर, आवरण पूजा की आज्ञा माँगे । सर्वप्रथम केसरों के आग्नेयादि कोणों में पञ्चाङ्गपूजा इस प्रकार करे –

आचक्राय स्वाहा, आग्नेये,        विचक्राय स्वाहा नैऋत्ये,

सुचक्राय स्वाहा, वायव्ये,        त्रैलोक्यरक्षणचक्राय स्वाहा, ऐशान्ये,

असुरान्तकाचक्राय स्वाहा, चतुर्दिक्षु ।

इसके बाद अष्टदल में पूर्वादि दलों के क्रम से अष्टमहिषियों की यथा –

ॐ रुक्मिण्यै नमः, पूर्वदले,        ॐ सत्यभामायै नमः, आग्नेयदले,

ॐ नाग्नजित्यै नमः, दक्षिनदले,    ॐ कालिन्द्यै नमः नैऋत्यदले,

ॐ मित्रविन्दायै नमः, पश्चिमदले,    ॐ सुलक्षणायै नमः, वायव्यदले,

ॐ जाम्बवत्यै नमः, उत्तरदले,        ॐ सुशीलायै नम्ह, ईशानदले

तपश्वात पूर्वादि दलों के अग्रभाग में वसुदेव आदि की पूजा करे । यथा –

ॐ वसुदेवाय नमः        ॐ देवक्यै नमः,        ॐ नन्दाय नमः,

ॐ यशोदायै नमः        ॐ बलभद्रायै नमः,        ॐ सुभद्रायै नमः,

ॐ गोपेभ्यो नमः,        ॐ गोपीभ्यो नमः

फिर पूर्ववत् इन्द्रादि दिक्पालों की तथा उनके वज्रादि आयुधों की पूजा करनी चाहिए ॥६०-६३॥

इत्थं सिद्धे मनौ मन्त्री साधयेत्स्वमनीषितम् ।

फलपरत्वेन प्रयोगान्तरकथनम्

गुडूचीशकलैरग्नौ जुहुयाज्ज्वरशान्तये ॥ ६४॥                                   

इस प्रकार के अनुष्ठान से मन्त्र सिद्ध हो जाने पर साधक अपने सारे मनोरथों को पूर्ण करे ॥६४॥

काम्य प्रयोग – ज्वर से मुक्त होने के लिए गुडूची (गिलोय) के टुकडों से होम करे ॥६४॥

कृष्णं द्वेष प्रकुर्वन्तं बलदेवस्य रुक्मिणः।

द्यूतासक्तस्य संचिन्त्य गोमयोद्भवगोलकान् ॥ ६५॥

जुहुयाद्वेषसिद्धयर्थ नरयोः सुहृदोर्मिथः ।

दो मित्रों में द्वेष कराने के लिए कृष्णद्वेषी तथा महाजुआरी रुक्म तथा बलभद्र का ध्यान कर गोवर के गोल गोल कण्डो से होम करना चाहिए ॥६५-६६॥

पिचुमन्दफलोत्पन्नतैलाभ्यक्तैः समिद्वरैः ॥ ६६ ॥

अक्षजैर्जुहुयाद्रात्रावयुतं शत्रुशान्तये ।

अयुतं प्रजपेन्मन्त्रमात्मानं संस्मरन्हरिम् ॥ ६७ ॥

शत्रु को शान्त करने के लिए नीम के तेल में डुबोई बहेडे की लकडी से रात्रि में १० हजार की संख्या में होम करना चाहिए ॥६६-६७॥

मञ्चस्रस्तगतप्राणाकृष्टकंसं रिपुं सुधीः ।

शत्रुजन्मङ्क्षवृक्षोत्थसमिद्भिरयुतं निशि ॥ ६८॥

जुहुयादित्थमुग्रोऽपि सपत्नो निधनं व्रजेत् ।

पलाशकुसुमैर्लक्ष विद्यासिद्ध्यै जुहोतुना ॥ ६९ ॥

विद्वान् साधक स्वयं में कृष्ण की भावना कर तथा शत्रु में मञ्च से गिराये गये, चोटी पकडकर खींचे जाते हुये गतप्राण कंस की भावना करते हुये इस मन्त्र का १० हजार की संख्या में जप करे तथा रात्रि में शत्रु के जन्मक्षत्र के वृक्ष की समिधाओं से होम करना चाहिए । ऐसा करने से उग्रतम शत्रु भी मर जाता हैं ॥६८-६९॥

तण्डुलैः सितपुष्पाद्यैराज्याक्तः प्रत्यहं नरः ।

हुत्वा सप्तदिनान्ते तद्भस्मभाले च मूर्द्धनि ॥ ७० ॥

धारयन्वशयेत्सद्यो यौवतं तच्चपुरुषान् ।

विद्या प्राप्ति हेतु पलाश के फूलों से एक लाख आहितियाँ देनी चाहिए । राई मिश्रित चावल एवं श्वेत पुष्पादि द्वारा लगातार ७ दिन तक हवन कर उसका भस्म मस्तक में लगावे तो वह मनुष्य युवतियों के समूहों को तथा पुरुषों को अपने वश में कर लेता हैं ॥७०-७१॥

योजनं वापि ताम्बूलमथ चन्दनम् ॥ ७१॥

सहसं मनुनाजप्त दद्याद्यस्मै नराय सः ।

दशमेत्यचिरादेव सपुत्रपाशुबान्धवः ॥ ७२ ॥

इस मन्त्र से एक हजार बार अभिमन्त्रित कर फूल, वस्त्र, अञ्जन, ताम्बूल या चन्दन जिस व्यक्ति को दिया जाय वह सपुत्र पशु एवं बान्धव सहित शीघ्र ही वशवर्ती हो जाता है ॥७१-७२॥

वृन्दावनस्थं गायन्तं गोपीभिः संस्मरन्हरिम ।

अपामार्गसमिद्भिर्यो जुहुयाद्वशयेज्जगत् ॥ ७३॥

जो व्यक्ति वृन्दावन में गोपियों द्वारा गुणगान् किए जाने वाले श्रीकृष्ण का स्मरण कर अपामार्ग की समिधाओं से हवन करता है वह सारे जगत् को अपने वश में कर लेता है ॥७३॥

रासक्रीडागतं कृष्णं ध्यायन्योऽयुतमाजपेत् ।

षण्मासाद्वाञ्छिता कन्यामुद्वहेद् भक्तितत्परः ॥ ७४ ।।

जो व्यक्ति भक्ति में तत्पर हो रास लीली के मध्य में भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान कर उक्त मन्त्र का १० हजार जप करता है वह ६ महीनों के भीतर अपनी चाही कन्या से विवाह करता है ॥७४॥

जपेत्सहस्रं ध्यायन्ती या कदम्बस्थितं हरिम् ।

कन्यकां वाञ्छितं नाथं मण्डलान्तर्लभेत सा ॥ ७५ ॥

जो कन्या कदम्ब वृक्ष पर बैठे श्रीकृष्ण का ध्यान कर प्रतिदिन एक हजार की संख्या में जप करती है । वह ४९ दिन ए भीतर मनोनूकूल पति प्राप्त करती है ॥७५॥

पत्रैः फलैः समिभिर्वा बिल्वोत्थैर्मधुसंयुतैः ।

कमलैः शक्ररायुक्तोमाल्लक्ष्मीपतिर्भवेत् ॥ ७६ ॥

बहुना किमिहोक्तेन कृष्णाः सर्वार्थदो नृणाम् ।

मधु सहित विल्व वृक्ष का पत्र, फल या समिधाओं से अथवा शर्करा युक्त कमल पुष्पों का होम करने से व्यक्ति धनवान् हो जाता हैं, इस विषय में विशेष क्या कहें भगवान् गोपालकृष्ण का यह मन्त्र मनुष्यों की सारी कामनायें पूर्ण करता हैं ॥७६-७७॥

अथ मन्त्रान्तरं वच्मि गोविन्दस्येष्टदं नृणाम् ॥ ७७॥

द्वितीयगोपालाष्टवर्णमन्त्र तद्विधिपीठपूजाप्रकारकथनम्

कामो वियतेंचिकाढ्यः पीतावामाक्षिसंयुता ।

चक्रीझिण्टीशमारूढो बकोनन्तान्वितो मरुत् ।। ७८ ॥

हृदयान्तो मनुश्रेष्ठो वसुवर्णोऽखिलेष्टदः ।

अब मनुष्यों को अभीष्टफलदायक गोविन्द का एक और मन्त्र कहता हूँ-

गोविन्द मन्त्र का उद्धार – काम (क्लीं), रेचिका सहित वियत् (हृ), वामाक्षि (इ), संवृत पीता (षी), झिण्टीश सहित चक्री (के), अनन्त सहित बक (शा), मरुत् (य) तथा अन्त में हृदय ‘नमः’ लगाने से ८ अक्षर का सर्वाभीष्टप्रद मन्त्र निष्पन्न होता है ॥७७-७९॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है- क्लीं हृषीकेशाय नमः ॥७७-७९॥

मुनिः सम्मोहनाद्योऽस्य नारदः परिकीर्तितः ॥ ७९ ॥

गायत्रीछन्द इत्युक्तं देवस्त्रैलोक्यमोहनः ।

कामबीजेन षड्दीर्घयुक्तेनाङ्गं समाचरेत् ॥ ८० ॥

इस मन्त्र के संमोहन नारद ऋषि हैं, गायत्री छन्द है तथा त्रैलोक्यमोहन देवता हैं । षड्‌दीर्घ सहित काम बीज से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥७९-८०॥

विमर्श – विनियोग– अस्य श्रीगोविन्द्रमन्त्रस्य त्रैलोक्यमोहनाख्य ऋषिर्गायत्री छन्दः त्रैलोक्यमोहनो देवताऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

षडङ्गन्यास – ॐ क्लां हृदयाय नमः,        ॐ क्लीं शिरसे स्वाहा,

ॐ क्लूँ शिखायै वौषट्        ॐ क्लैं कवचाय हुम्

ॐ क्लौं नेत्रत्रयाय वौषट्    ॐ क्लः अस्त्राय फट् ॥७९-८०॥

कल्पानोकहमूलसंस्थितवयो राजोन्नता सस्थितं

पौष्पं बाणमथेक्षुचापकमले पाशांकुशे बिभ्रतम् ।

चक्रशंखगदे करैरुदधिजा संश्लिष्टदेहं हरिं

नानाभूषणरक्तलेपकुसुमं पीताम्बरं संस्मरेत् ॥ ८१॥

अब त्रैलोक्यमोहन का ध्यान कहते हैं – कल्पवृक्ष के नीचे गरुड के ऊंचे कन्धे पर विराजमान, अपने आठों हाथों में क्रमशः पुष्पबाण, इक्षुचाप, कमल, पाश, अंकुश, चक्र, शंख, और गदा धारण किए हुये, लक्ष्मी से आलिङ्गत शरीर वाले, अनेकानेक आभूषणों से विभूषित, रक्त चन्दन, पुष्प एवं पीताम्बरालंकृत श्री गोविन्दगोपाल का ध्यान करना चाहिए ॥८१॥

एवं ध्यात्वा जपेत्सूर्यलक्ष त्रिमधुरप्लुतैः ।

पलाशपुष्पैर्जुहुयात्तत्सहस्रं हुताशने ॥ ८२॥

इस प्रकार ध्यान कर उक्त मन्त्र का १२ लाख जप करना चाहिए । तदननतर, मधु, घी, शर्करा मिश्रित पलाश पुष्पों से १२ हजार की संख्या में अग्नि में आहुतियाँ देनी चाहिए ॥८२॥

तर्पयेत्सलिलैस्तावत्पीठे पूर्वोदिते यजेत ।

पक्षिराजाय ठद्वन्द्वमनेन गरुडार्चनम् ॥ ८३ ॥

फिर जल से १२ हजार तर्पण करना चाहिए । पूर्वोक्त पीठ पर पक्षिराजाय स्वाहा मन्त्र से गरुड का पूजन करना चाहिए ॥८३॥

विमर्श – पूर्वोक्त विमलादि पीठ पर शक्तियों का पूजन कर ‘पक्षिराजाय स्वाहा’ इस पीठ मन्त्र से गरुड को स्थापित कर पूजन करे । फिर गरुड पर श्रीगोविन्द का आवाहनादि उपचारों से लेकर पुष्पाञ्जलि समर्पण पर्यन्त विधिवत् पूजन कर पुनः पुष्पाञ्जलि प्रदार कर उनसे आवरण पूजा की आज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ करे ॥८२-८३॥

मुकुट शिरसीष्ट्वाथ कर्णयोः कुण्डले यजेत् ।

करेषु चक्राधास्त्राणि श्रीवत्सं कौस्तुभं हृदि ॥ ८४॥

वनमालां गले श्रोणीदेशे पीताम्बरं श्रियम् ।

शिर पर मुकुट का पूजन कर कानों में कुण्डलों का पूजन करना चाहिए । इसी प्रकार हाथों में चक्रादि अस्त्रों का हृदय में श्रीवत्स और कौस्तुभमणि का, गले में वनमाला का तथा कटि में पीताम्बर की पूजा करनी चाहिए ॥८४-८५॥

वामांगेभ्यर्च्य वन्यादिदिग्विदिक्ष्वंगपूजनम् ॥ ८५॥

दिक्षु प्रपूज्य चतुरो बाणान्कोणेषु पञ्चमम् ।

लक्ष्म्याद्याः शक्तयः पूज्याः शक्राद्या आयुधान्यपि ॥ ८६ ॥

लक्ष्मीः सरस्वती चापि रतिः प्रीतिश्चतुर्थिका ।

कीर्तिः कान्तिस्तुष्टिपुष्टी इतिलक्ष्म्यादयो मताः ॥ ८७ ॥

बायीं ओर महालक्ष्मी का पूजन कर आग्नेयादि कोणों में, मध्य में तथा दिशाओं में अङ्गपूजा करनी चाहिए । दिशाओं में चार बाणों की तथा कोणों में पञ्चम बाण का पूजन करना चाहिए । फिर लक्ष्मी, आदि शक्तियों का, इन्द्रादि दश दिक्पालों का तथा उनके वज्रादि आयुधों का पूजन करना चाहिए ॥१. लक्ष्मी, २. सरस्वती, ३. रति, ४. प्रीति, ५. कीर्ति, ६. कान्ति, ७. तुष्टि और ८. पुष्टि – ये आठ उनकी शक्तियाँ कही गई हैं ॥ ८५-८७॥

विमर्श – आवरण पूजा के लिए वृत्ताकार कर्णिका अष्टदलं एवं भूपुर सहित यन्त्र लिखकर पूर्वोक्त विमलादि शक्तियों से युक्त पीठ पर भगवान् के आसनभूत गरुड को ‘पक्षिराजाय नमः’ इस मन्त्र से आवाहन तथा पूजन कर, गोविन्द के मूल मन्त्र से श्रीगोविन्द के विग्रह की भावना कर पूजा करनी चाहिए । फिर उनके शिर आदि अङ्गों में स्थित मुकुटादि का इस प्रकार पूजन करे । यथा – ॐ मुकुटाय नमः, शिरसि, ॐ कुण्डलाभ्यां नमः, कर्णयोः, ॐ शंखया नमः, ॐ चक्राय नमः, ॐ गदायै नमः, ॐ पद्माय नमः, ॐ पाशाय नमः, ॐ अंकुशाय नमः, ॐ इक्षुधनुषे नमः, ॐ पुष्पशरेभ्यो नमः, अष्टभुजासु । श्रीवत्साय नमः, कौस्तुभाय नमः, हृदि, वनमालायै नमः, कण्ठे, पीताम्बराय नमः, कटिप्रदेशे, श्रियै नमः, वामाङ्गे,

इसके पश्चात् आग्नेयादि कोणों में मध्य में तथा चतुर्दिक् में षडङ्गपूजा करे ।

क्लां हृदयाय नमः आग्नेये,        क्लीं शिरसे स्वाहा नैऋत्ये,

क्लूं शिखायै वषट् वायव्ये,        क्लैं कवचाय हुम् ऐशान्ये,

क्लौं नेत्रत्रयाय वौषट् मध्ये,        क्लः अस्त्राय फट् चतुर्दिक्षु,

तदनन्तर पूर्वोदि चारों दिशाओं तथा कोणों में पञ्चवाणों की यथा –

द्रां शोषणबाणाय नमः, पूर्वे,        द्रीं मोहनबाणाय नमः, दक्षिणे,

क्लीं सन्दीपनबाणाय नमः, पश्चिमे,    ब्लूं तापनबाणाय नमः उत्तरे,

सः मादनबाणाय नमः, कोणेषु ।

फिर अष्टदल में पूर्वादि अनुलोम क्रम से लक्ष्मी आदि शक्तियों की यथा –

ॐ लक्ष्म्यै नमः पूर्वदले,        ॐ सरस्वत्यै नमः आग्नेयदले,

ॐ रत्यै नमः दक्षिणदले,        ॐ प्रीत्यै नमः नैऋत्यदले,

ॐ कीर्त्यै नमः पश्चिमदले,        ॐ कान्त्यै नमः वायव्यदले,

ॐ तुष्टयै नमः उत्तरदले,        ॐ पुष्टयै नमः ऐशान्यदले,

इसके बाद भूपुर में इन्द्रादि दश दिक्पालों की तथा उसके बाहर उनके वज्रादि आयुधों की पूर्ववत् पूजा करनी चाहिए । इस प्रकार आवरण पूजा करने के पश्चात पुनः त्रैलोक्यमोहन श्रीगोविन्द का धूप दीपादि उपचारों से पूजन करना चाहिए ॥८५-८७॥

विजयापुष्पसंयुक्तैर्जलैः संतर्पयेच्छतम् ।

प्रातः प्रत्यहमेतस्य वाञ्छितं मासतो भवेत् ॥ ८८॥

अब इस मन्त्र से काम्य प्रयोग कहते हैं – साधक प्रतिदिन प्रातः काल में विजयापुष्प मिश्रित जल से १०८ बार एक महीना पर्यन्त तर्पण करता है, उसे वाञ्छित फल की प्राप्ति होती है ॥८८॥

अयुतं तु घृतेनाग्नौ हुत्वा सम्पातजं घृतम् ।

तावज्जप्तं प्रियाकान्तं भोजयेद्वशमेति सः ॥ ८९ ॥

विधिवत् स्थापित अग्नि में इस मन्त्र द्वारा १० हजार आहुतियाँ देवे तथा हुत शेष घृत को प्रोक्षणी पात्र में छोडता रहे, पुनः उस संस्रव घृत को १० हजार बार इस मन्त्र से अभिमन्त्रित कर, पत्नी उस घृत को अपने पति को खिला दे, तो ऐसा करने से उसका पति वश में हो जाता है ॥८९॥

स्त्रीवशीकारिगोपालमन्त्रकथनम्

कामबीजेऽपि विज्ञेयो परिचर्योक्तमन्त्रवत् ।

विशेषात्कामिनीवर्गमोहको मनुनायकः ॥ ९० ॥

‘क्लीं’ इस एकाक्षर मन्त्र के पूजन आदि की विधि उक्त मन्त्रों के समान है । यह मन्त्र विशेष रुप से स्त्री समुदाय को मोहित करने वाला है ॥९०॥

गोपालद्वादशाक्षरमन्त्रकथनं तद्विधिश्च

रमाभवानीकन्दर्पः कृष्णायस्मृतिरो युता ।

विन्दायवहिनजायान्तो द्वादशार्णो मनुः स्मृतः ॥ ९१॥

अब द्वादशाक्षर गोपाल मन्त्र कहते हैं – रमा (श्रीं), भवानी (ह्रीं), कन्दर्प (क्लीं), फिर ‘कृष्णाय’, इसके बाद ओ से युक्त स्मृति (गो), फिर ‘विन्दाय’ और अन्त में वहिनजाया (स्वाहा) लगाने से १२ अक्षरों का गोपाल मन्त्र बनता है ॥९१॥

विमर्श – इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – श्रीं ह्रीं क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय स्वाहा (१२) ॥९१॥

मुनिर्ब्रह्मास्य गायत्रीछन्दः कृष्णोऽस्य देवता ।

धरैकचन्द्ररामाब्धिनेत्राणैरङ्गमीरितम् ॥ ९२ ॥

उपासनास्य मन्त्रस्य पूर्ववत्परिकीर्तिता ।

इस द्वादशाक्षर मन्त्र के ब्रह्मा ऋषि, गायत्रीछन्द तथा भगवान् श्रीकृष्ण देवता हैं । १, १, १, ३, ४, एवं २, वर्णो से षडङ्गन्यास करना चाहिए । इस मन्त्र की पुरश्चरणाद विधि पूर्ववत् हैं ॥९२-९३॥

विमर्श – विनियोग – अस्य द्वादशार्ण श्रीगोपालमन्त्रस्य ब्रह्माऋषिः गायत्रीछन्दः श्रीकृष्णो देवताऽऽत्मनोभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

षडङ्गन्यास – श्री हृदयाय नमः,        ह्रीं शिरसे स्वाहा

क्लीं शिखायै वषट्,        कृष्णाय कवचाय हुम्

गोविन्दाय नेत्रत्रयाय वौषट्,    स्वाहा अस्त्राय फट् ॥९२-९३॥

अथ वक्ष्ये षोडशार्ण मनु लोकविमोहनम् ॥ ९३ ॥

अथ रुक्मिणिवल्लभ मन्त्रः

तारो हृद्भगवतेन्ते रुक्मिणीन्तवल्लभः ।

द्विठान्तः षोडशार्णोऽयं नारदो मुनिरस्य तु ॥ ९४ ॥

छन्दोनुष्टुब्देवता तु रुक्मिणीवल्लभो हरिः।

एकद्वियुगसप्ताक्षिवर्णैः पञ्चाङ्गमीरितम् ॥ ९५ ॥

अब समस्त लोको को सम्मोहित करने वाले १६ अक्षरों के रुक्मिणीवल्लभ मन्त्र को कहता हूँ –

तार (ॐ), हृद् (नमः) फिर ‘रुक्मिणी’, उसके बाद चतुर्थ्यन्त ‘वल्लभ’ (वल्लभाय) और अन्त में ठद्वय (स्वाहा) लगाने से १६ अक्षरों वाला मन्त्र निष्पन्न होता है । इस मन्त्र के नारद ऋषि, अनुष्टुप् छन्द तथा रुक्मिणीवल्लभ देवता हैं । मन्त्र के १, २, ४, ७, और दो अक्षरों से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए ॥९३-९५॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ॐ नमो भगवते रुक्मिणीवल्लभाय स्वाहा ।

विनियोग – अस्य श्रीरुक्मिणीवल्लभमन्त्रस्य नारदऋषिनुष्टुप्‌छन्दः रुक्मिणीवल्लभहरिदेवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

पञ्चाङ्गन्यास – ॐ हृदयाय नमः, नमः शिरसे स्वाहा, भगवते शिखायै वषट्

रुक्मिणीवल्लभाय कवचाय हुम्        स्वाहा अस्त्राय फट् ॥९३-९५॥

चिन्ताश्मयुक्तनिजदोः पिररब्धकान्त

मालिङ्गितं सजलजेन करेण पत्न्या ।

सौवर्णवेत्रयुतहस्तमनेकभूषं

पीताम्बरं भजत कृष्णमभीष्टसिद्ध्यै ॥ ९६ ॥

अब उक्त षोडशाक्षर मन्त्र का ध्यान कहते हैं – चिन्तामणि धारण किए हुये अपने हाथों से अपनी रुक्मिणी देवी का आलिङ्गन करते हुये तथा अपने हाथ में कमल धारण की हुई अपनी पत्नी रुक्मिणी देवी से आलिंगित, अपेन हाथ में सुवर्ण निर्मित्त यष्टिका (छडी) लिए हुये अनेकानेक आभूषणों एवं पीताम्बर से शोभायमान भगवान् श्रीकृष्ण का स्वकीयाभीष्ट सिद्धि हेतु ध्यान करना चाहिए ॥९६॥

लक्षं जपेद् दशांशेन पद्म:मं समाचरेत् ।

अङ्गैर्नारदवृत्रारिवज्राद्यैः पूजयेद्धरिम् ॥ ९७॥

नारदं पर्वत विष्णु निशठोद्धवदारुकान् ।

विष्वक्सेनं च शैनेयं दिक्ष्वग्रे विनतासुतम् ॥ ९८ ॥

उक्त मन्त्र का एक लाख जप करना चाहिए तथा उसके दशांश की संख्या में कमलों से होम करना चाहिए । अङ्गो एवं नारदादि, इन्द्रादि तथा वज्रादि के साथ भगवान् का पूजन करना चाहिए । १. नारद, २. पर्वत, ३. विष्णु, ४. निशठ, ५. उद्वव. ६. दारुक, ७. विष्वक्सेन तथा ८. शैनेय का दिशाओं में तथा गरुड का अग्रभाग में पूजन करना चाहिए ॥९७-९८॥

विमर्श – आवरण पूजा विधि – साधक सर्वप्रथम १४. ९६ में वर्णित रुक्मिणीवल्लभ के स्वरुप का ध्यान करे, फिर मानसोपचार से उनका पूजन कर विधिवत् शंखपात्र में अर्घ्य स्थापित करे । फिर पूर्वोक्त मन्त्रों पर १४. ६ के विमर्श में कही गई रीति से पीठपूजा कर आवाहनादि उपचारों से पुनः भगवान् की विधिवत्  पूजा कर, आवरण पूजा की अनुज्ञा लेकर आवरण पूजा प्रारम्भ करे । सर्वप्रथम केशर के आग्नेयादि कोणो में पञ्चाङ्ग पूजा करे । यथा –

ॐ हृदयाय नमः,        ॐ नमः शिरसे स्वाहा,

ॐ भगवते शिखायै वषट्,    ॐ रुक्मिणीवल्लभाय कवचाय हुम्,

ॐ स्वाहा अस्त्राय फट् ।

फिर अष्टदलों के पूर्वादि दिशाओं में नारदादि की यथा –

ॐ नारदाय नमः,        ॐ पर्वताय नमः,        ॐ विष्णवे नमः,

ॐ निशठाय नमः,        ॐ उद्धवाय नमः,        ॐ दारुकाय नमः,

ॐ विष्वक्सेनाय नमः,    ॐ शैनेयाय नमः,

तदनन्तर पूर्वोक्त (द्र० १४. ७-१३) विधि से भूपुर में इन्द्रादि दिक्पालों की तथा उसके बाहर उनके वज्रादि आयुधों की पूजा करे ॥९७-९८॥

अष्टाक्षरगोपालमन्त्रः तद्विधिकथनम्

कामो गोवल्लभो उन्तः स्वाहान्तोऽष्टाक्षरो मनुः ।

गायत्रीकृष्णधातारश्छन्दो देवर्षयो मताः।

वर्णयुग्मैः समस्तेन पञ्चाङ्गविधिरीरितः॥ ९९ ॥

अब अष्टाक्षरी मन्त्र का उद्धार कहते हैं – काम (क्लीं), फिर चतुर्थ्यन्त ‘गोवल्लभ’ (गोवल्लभाय), इसके अन्त में ‘स्वाहा’ लगाने से अष्टाक्षरी मन्त्र बनता है । इस मन्त्र के ब्रह्मा ऋषि हैं, गायत्री छन्द है तथा कृष्ण देवता है मन्त्र के दो दो वर्णो से तथा समस्त मन्त्र से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए ॥९९॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – क्लीं गोवल्लभाय स्वाहा ।

विनियोग – अस्याष्टाक्षरमन्त्रस्य ब्रह्माऋषिर्गायत्रीच्छन्दः श्रीकृष्णो परमात्मा देवताऽऽत्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

पञ्चाङ्गन्यास – क्लीं गों हृदयाय नमः        वल्ल शिरसे स्वाहा

भाय शिखायै वषट्        स्वाहा कवचाय हुम्

क्लीं गोवल्लभाय स्वाहा अस्त्राय फट् ॥९९॥

हरिं पञ्चवर्ष व्रजे धावमानं

स्वसौन्दर्यसम्मोहित स्वर्गयोषम् ।

यशोदासुतं स्त्रीगणैर्दष्टकेलिं

भजे भूषितं भूषणैर्नूपुराद्यैः ॥ १०० ।।

पाँच वर्ष की आयु वाले, ब्रज में क्रीडा करते हुये अपने सौन्दर्य से अप्सराओं को मोहित करते हुये, तथा ब्रजाङ्गनाओं से देखी जाने वाले क्रीडा वाले, नूपुर आदि आभूषणों से अलंकृत यधोदानन्दन श्रीकृष्ण का ध्यान करना चाहिए ॥१००॥

अष्टलक्षं जपेदष्टसहस्रं ब्रह्मवृक्षजैः ।

समिद्वरैः प्रजुहुयादगार्चादिग्विदिक्ष्वथ ।। १०१॥

इस मन्त्र का ५ लाख जप करना चाहिए तथा घृताक्क पलाश की समिधाओं से ८ हजार आहुतियाँ देनी चाहिए ॥१०१॥

वासुदेवः संकर्षणः प्रद्युम्नश्चानिरुद्धकः ।

रुक्मिणीसत्यभामा च लक्ष्मणाजाम्बवत्यपि॥ १०२॥

फिर अङ्गपूजा कर दिशाओं में वासुदेव संकर्षण प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध का तथा कोणों में रुक्मिणी, सत्यभामा, लक्ष्मणा और जाम्बवती का पूजन करना चाहिए ॥१०२॥

संक्रन्दनादयः पूज्या वजाद्यान्यायुधानि च ।

एवं सिद्ध मनौ मन्त्री सम्पदामालयो भवेत् ॥ १०३ ॥

फिर इन्द्रादि दिक्पालों का तथा उनके बज्रादि आयुधों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार पूजन से सिद्धि प्राप्त साधक महान् संपत्तिशाली हो जाता है ॥१०३॥

विमर्श – आवरण पूजा – प्रथम इस मन्त्र के पञ्चाङ्ग कां कर्णिका के मध्य तथा चारों दिशाओं में इस प्रकार पूजा करनी चाहिए । यथा –

क्लीं गो हृदयाय नमः मध्ये,        वल्ल शिरसे स्वाहा पूर्वे,

भाय शिखाय वषट् दक्षिणे        स्वाहा कवचाय हुम् पश्चिमे,

क्लीं गोवल्लभय स्वाहा उत्तरे ।

पुनः पूर्वादि चारों दिशाओं में वासुदेव आदि की पूजा करे । यथा –

ॐ वासुदेवाय नमः, पूर्वे,        ॐ संकर्षणाय नमः, दक्षिणे,

ॐ प्रद्युम्नाय नमः, पश्चिमे,        ॐ अनिरुद्धाय नमः, उत्तरे,

पुनः आग्नेयादि कोणो में रुक्मिणी आदि की पूजा करे । यथा –

ॐ रुक्मिण्यै नमः,        ॐ सत्यभामायै नमः, नैऋत्ये,

ॐ लक्ष्मणायै नमः, वायव्ये,    ॐ जाम्बवत्यै नमः ऐशान्ये ।

इसके बाद (१४.७-१३) में प्रदर्शित विधि से भूपुर में इन्द्रादि दश दिक्पालों का तथा उसके बाहर उनके वज्रादि आयुधों का पूजन करे ॥१०१-१०३॥

चतुरक्षरः कृष्णमन्त्रः तद्विधिकथनम्

कामसम्पुटितं कृष्णपदं वेदाक्षरो मनुः ।

गायत्रीनारदः कृष्णश्छन्दो मुनिरधीश्वरः ॥ १०४ ॥

दीर्घारूढेन कामेन षडङ्गन्यासमाचरेत् ।

काम (क्लीं) से संपुटित ‘कृष्ण” पद यह ४ अक्षरों क मन्त्र है । इस मन्त्र के नारद ऋषि, गायत्रीछन्द तथा श्रीकृष्ण परमात्मा देवता हैं । षड्‌दीर्घ सहित काम बीज से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥१०४-१०५॥

विमर्श – इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – क्लीं कृष्ण क्लीं ।

विनियोग – अस्य श्रीकृष्णमन्त्रस्य नारदऋषि गायत्रीछन्दः श्रीकृष्णपरमात्मा देवताऽऽत्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

षडङ्गन्यास – क्लां हृदयाय नमः, क्लीं शिरसे स्वाहा, क्लूं शिखायै वषट्,

क्लैं कवचाय हुम्, क्लौं नेत्रत्रयाय वौषट्, क्लः अस्त्राय फट् ॥१०४-१-५॥

कल्पद्रुमूलसंरूढपद्मस्थं चिन्तयेद्धरिम् ॥ १०५॥

कल्पद्रोरतिरमणीयपल्लवेभ्यः

प्रोद्भूतैर्मणिनिकरैः प्रसिक्तमीशम् ।

ध्यायेयं कनकनिभाशुके वसानं

भुजानं दधिनवनीतपायसानि ॥ १०६ ।।

कल्पवृक्ष के नीचे पद्‌मदल पर विराजमान श्रीकृष्ण का ध्यान करे । कल्पवृक्ष के अतिरमणीय पल्लवों से होने वाली रत्नवृष्टि से अभिषिक्त तथ सुवर्ण के समान जगमगाते वस्त्र धारण किए हुये, दही, मक्खन और खीर का भोजन करते हुये श्रीकृष्ण परमात्मा का ध्यान करना चाहिए ॥१०५-१०६॥

चतुर्लक्षं जपेन्मन्त्रं दशांश बिल्वसम्भवैः।

फलैः प्रजुहुयादग्नौ यजेदङ्गानि पूर्ववत् ॥ १०७ ॥

इस मन्त्र का चार लाख करना चाहिए । तदनन्तर विल्वफलों का अग्नि में उसका दशांश होम करना चाहिए तथा पूर्ववत् अङ्ग पूजन करना चाहिए ॥१०७॥

महापद्मं तथा पद्म शङ्ख मकरकच्छपौ ।

मुकुन्दकुन्दनीलाश्च निधीन्दिक्षु समर्चयेत् ॥ १०८ ॥

इन्द्रादीन् वज्रपूर्वाश्च प्रयजेत्तदनन्तरम् ।

इत्थं जपादिभिः सिद्धो मन्त्री निधिरिवापरः ॥ १०९ ॥

फिर दिशाओं में महापद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुन्द, कुन्द एवं नील इन निधियों का पूजन करना चाहिए । फिर इन्द्र आदि दश दिक्पालों का तथा उनके बज्रादि आयुधों का पूजन करना चाहिए ॥१०८-१०९॥

इस प्रकार के पूजन के बाद किए जपादि से मन्त्र सिद्धि प्राप्त कर व्यक्ति निधि संपन्न हो जाता है॥१०९॥

विमर्श – आवरण पूजा प्रथम यन्त्र के आग्नेयादि कोणों में मध्य में तथा चारों दिशाओं में षडङ्गपूजा करे । यथा –

क्लां हृदयाय नमः आग्नेये,        क्लीं शिरसे स्वाहा, नैऋत्ये,

क्लूं शिखायै वषट्, वायव्ये,        क्लै कवचाय हुम् ऐशान्ये,

क्लौं नेत्रत्रयाय वौषट्, मध्ये,        क्लः अस्त्राय फट् चतुर्दिक्षु ।

फिर पूर्वादि दिशाओं में निधियों की पूजा करे –

ॐ महापद्माय नमः पूर्वे,        ॐ पद्माय नमः आग्नेये,

ॐ शंखाय नमः दक्षिणे        ॐ मकराय नमः नैऋत्ये,

ॐ कच्छपाय नमः पश्चिमे        ॐ मुकुन्दाय नमः वायव्ये

ॐ कुन्दाय नमः उत्तरे,        ॐ नीलाय नमः ऐशान्ये ।

इसके बाद पूर्वोक्त विधि से इन्द्रादि दश दिक्पालों का तथा उनके वज्रादि आयुधों का पूजन करना चाहिए ॥१०९॥

मन्त्रेष्वेषु दशार्णोक्तान्प्रयोगान्विदधीत च ।

दशाक्षर मन्त्र के सन्दर्भ में कहे गये सभी काम्य प्रयोग इस मन्त्र से करने चाहिए ॥११०॥

पुत्रप्रदकृष्णमन्त्रः तद्विधिवर्णनम्

अथ पुत्रप्रदं वच्मिकृष्णमन्त्रमनुष्टुभम् ॥ ११०॥

देवकीसुतवर्णान्ते गोविन्दपदमुच्चरेत् ।

वासुदेवपदं प्रोच्य सम्बुद्ध्यन्तं जगत्पतिम् ॥ १११ ॥

देहि मे तनयं प्रोच्य कृष्ण त्वामहमीरयेत् ।

शरणं गत इत्युक्तो मन्त्री द्वात्रिंशदक्षरः ॥ ११२ ॥

अब सन्तानदायक श्रीकृष्ण मन्त्र कहता हूँ – यह अनुष्टुप छन्द में इस प्रकार है – प्रथम ‘देवकी सुत’, इसके बाद ‘गोविन्द’ पद, फिर ‘वासुदेव’ पद बोलकर संबुद्धयन्त जगत्पति (जगत्पते) ऐसा कहाना चाहिए । इसके बाद तीसरे चरण में ‘देहि में तनयं’, तदनन्तर पद, फिर ‘त्वामहं’, बोलकर अन्त में ‘शरणागतः’, ऐसा बोलना चाहिए ॥११०-११२॥

विमर्श – संतानगोपाल मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते । देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥११०-११२॥

नारदो मुनिरस्योक्तोऽनुष्टुप्छन्दः समीरितम् ।

देवः सुतप्रदः कृष्णः पादैः सर्वेण चाङ्गकम् ॥ ११३ ॥

इस मन्त्र के नारद ऋषि, अनुष्टुप छन्द तथा सुतप्रद श्रीकृष्ण देवता कहे गये हैं । श्लोक के चार पादों में तथा संपूर्ण श्लोकों से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए ॥११३॥

विमर्श – विनियोग – ॐ अस्य सन्तानप्रदमन्त्रस्य नारऋषिरनुष्टुप्‌छन्दः सुतप्रद श्रीकृष्णपरमात्मादेवताऽऽत्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

पञ्चाङ्गन्यास –     देवकीसुत गोविन्द हृदयाय नमः,

वासुदेव जगत्पते शिरसे स्वाहा,    देहि मे तनयं कृष्ण शिखायै वषट्

त्वामहं शरणं गतः कवचाय हुम्,    देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते ।

देहि मे तनयं त्वामह्म शरणं गतः अस्त्राय फट् ॥११३॥

विजयेनयुतोरथस्थितः प्रसमानीय समुद्रमध्यतः ।

प्रददत्तनयान्द्विजन्मने स्मरणीयो वसुदेवनन्दनः ॥ ११४ ॥

अर्जुन के साथ रथ पर बैठे हुये, हठात् समुद्र में प्रविष्ट हो कर वहाँ से ब्राह्मण पुत्र को ला कर, उसके पिता को समर्पित करते हुये भगवान् वासुदेव का ध्यान करना चाहिए ॥११४॥

लक्षं जपोऽयुतं होमस्तिलैर्मधुरसंयुतैः ।

अर्चापूर्वोदिता चैवं मन्त्रः पुत्रप्रदो नृणाम् ॥ ११५ ॥

इस मन्त्र का एक लाख जप करे । फिर मधु, घी, और शर्करा मिश्रित तिलों से १० हजार की संख्या में होम करे । इस मन्त्र के जप में भी पूर्व प्रतिपादित विधि से भगवान् का पूजन करना चाहिए । ऐसा करने से यह मन्त्र मनुष्यों को पुत्र प्रदान करता है ॥११५॥

विषहरो गरुडमन्त्रः तद्विधिवर्णनम्

नृसिंहो माधवारूढो लोहितो निगमादिमः ।

कृशानुभाऱ्या पञ्चा!‘ मनुर्विषहरः परः ॥ ११६ ॥

अब विषनाशक गरुड मन्त्र का उद्धार कहते हैं – माधवारुढ नृसिंह (क्षि), फिर लोहित (प), फिर निगमादि (ॐ), फिर अन्त में कृषानुभार्या (स्वाहा) लगाने से विष नाशक मन्त्र बनता है ॥११६॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – क्षिप ॐ स्वाहा (५) ॥११६॥

अनन्तपंक्तिपक्षीन्द्रा मुनिश्छन्दश्च देवता ।

तारवह्निप्रिये बीजशक्ती मन्त्रस्य कीर्तिते ॥ ११७ ॥

उक्त मन्त्र के अनन्त ऋषि, पंक्ति छन्द तथा पक्षीन्द्र गरुड देवता कहे गये हैं । तार (ॐ) बीज तथा वहिनप्रिया (स्वाहा) यह शक्ति कही गई है ॥११७॥

विमर्श – विनियोग – अस्य गरुडमन्त्रस्य अनन ऋषिः पंक्तिच्छन्दः पक्षीन्द्रो गरुड देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ॥११७॥

ज्वलज्वलमहामतिस्वाहाहृदयमीरितम् ।

गरुडेतिपदस्यान्ते चूडाननशुचिप्रिया ॥ ११८ ॥

शिरोमन्त्रो गरुडतः शिखेस्वाहाशिखामनुः ।

गरुडार्णानुदित्वान्ते प्रभञ्जययुगं वदेत् ॥ ११९ ॥

प्रभेदययुग पश्चाद्वित्रासयविमर्दय ।

प्रत्येक द्विस्ततः स्वाहाकवचो मनुरीरितः ॥ १२० ॥

उग्ररूपधरान्ते तु सर्व विषहरेति च ।

भीषयद्वितयं प्रोच्य सर्व दहदहेति च ॥ १२१॥

भस्मीकुरु कुरु स्वाहा नेत्रमन्त्रोऽयमीरितः ।

अप्रतिहतवर्णान्ते बलाप्रतिहतेति च ॥ १२२ ॥

शासनान्ते तथा हुं फट् स्वाहास्त्रमनुरीरितः ।

पादे कटौ हृदि मुखे मूर्ध्नि वर्णान्प्रविन्यसेत् ॥ १२३ ॥

अब इस मन्त्र का षडङ्गन्यास कहते हैं – ‘ज्वल ज्वल महामति स्वाहा’ यह हृदय का मन्त्र है । ‘गरुड’ के बाद ‘चूडानन’ एवं शुचिप्रिया (स्वाहा) यह शिर का मन्त्र है । ‘गरुड’ के बाद ‘शिखे स्वाहा’ यह शिखा का मन्त्र है । ‘गरुड’ कहकर दो बार ‘प्रभञ्जय’, दो बार ‘प्रभेदय’ फिर दो – दो बार ‘वित्रासय’ एवं ‘विमर्दय’, और फिर ‘स्वाहा’ यह कवच का मन्त्र है । ‘उग्ररुपधर’ के बाद ‘सर्व’ विषहर’, दो बार ‘भीषय’ फिर ‘सर्व दहदह’ भस्मी कुरुकुरु’ तथा ‘स्वाहा’ – यह नेत्र मन्त्र कहा गया है । ‘अप्रतिहत पद के बाद बलाप्रतिहत’ फिर ‘शासन’ एवं ‘हुम् फट् स्वाहा’ यह अस्त्र मन्त्र बतलाया गया है ॥११८-१२२॥

विमर्श – ज्वलज्वलमहामति स्वाहा हृदयाय नमः, गरुड चूडानन स्वाहा शिरसे स्वाहा, गरुड शिखे स्वाहा शिखायै वषट्, गरुड प्रभञ्जय प्रभञ्जय प्रभेदय प्रभेदय वित्रासय वित्रासय विर्मदय विमर्दय स्वाहा कवचाय हुम्, उग्ररुपधर सर्व विषहर भीषय भीषय सर्वं दह दह भस्मी कुरु कुरु स्वाहा नेत्रत्रयाय वौषट्, अप्रतिहत बलाप्रतिहतशासन हुं फट् स्वाहा अस्त्राय फट् ॥११८-१२३॥

पैर, कटिप्रदेश, हृदय, मुख एवं शिर में मन्त्र के प्रत्येक वर्णो का न्यास करना चाहिए ॥१२३॥

विमर्श – यथा – ॐ क्षिं नमः पादयोः ॐ पं नमः कटयां, ॐ ॐ नमः हृदि ॐ स्वां नमः मुखे ॐ हां नमः मूर्ध्नि ॥१२३॥

श्रीपक्षिराजगरुड ध्यानम्

तप्तस्वर्णनिभं फणीन्द्रनिकरैः क्लृप्तागंभूषं प्रभु

स्मर्तृणां शमयं तमुग्रमखिलं नृणां विषं तत्क्षणात् ।

चच्वग्रप्रचलद्भुजङ्गमभयं पाण्योर्वरं बिभ्रतं

पक्षोच्चारितसामगीतममलं श्रीपक्षिराजं भजे ॥ १२४ ॥

अब उक्त मन्त्र का ध्यान कहते हैं – जिनके श्री अङ्गों की कान्ति तपाये गये सुवर्ण के सदृष जगमगा रही हैं, जिनके अङ्ग, प्रत्यङ्ग सर्प के के आभूषणों से व्याप्त हैं, जो स्मरण मात्र से मनुष्यों के विष को शीघ्र हर लेते हैं तथा जिनके चोंच के अग्रभाग में चञ्ज्चल सर्प और हाथों में अभय एवं वर मुद्रा विराज रही है । इस प्रकार के गरुड का जो अपने पंखो से सामवेद का गान कर रहे हैं मैं ध्यान करता हूँ ॥१२४॥

पीठदेवतापूजाप्रकारः

पञ्चलक्षं जपेन्मन्त्रं दशांशं जुहुयात्तिलैः।

पूजयेन्मातृकापञ , गरुडं वेदविग्रहम् ॥ १२५ ॥

चतुर्थ्यन्तः पक्षिराजः स्वाहापीठमनुः स्मृतः।

इस मन्त्र का पाँच लाख जप करना चाहिए । फिर तिलों से दशांश होम करना चाहिए । मातृका पद्म पर वेदमूर्ति गरुड का पूजन करना चाहिए । ‘पक्षिराजाय स्वाहा’ यह पक्षिराज पीठ मन्त्र है ॥१२५-१२६॥

इष्ट्वाङ्ग कर्णिकामध्ये नागान्पत्रेषु पूजयेत् ॥ १२६ ॥

अनन्तं वासुकिं चापि तृतीयं तक्षकं पुनः।

कर्कोटकं तथा पञ महापद्यं समर्चयेत् ॥ १२७ ।।

शंखपालं च कुलिकमिन्द्रादीन्वजसंयुतान ।

एवं सिद्ध मनौ मन्त्री नाशयेद् गरलद्वयम् ॥ १२८॥

कर्णिका के मध्य में अङ्ग पूजन, दलों पर आठ नागों का पूजन करे । १. अनन्त, २. वासुकि, ३. तक्षक, ४. कर्कोटक, ५. पद्म, ६. महापद्म, ७. शंखपाल एवं ८. कुलिक – ये आठ नागों के नाम हैं । फिर दिक्पालों एवं उनके आयुधोम का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार की अनुष्ठानसिद्धि से साधक स्थावर एवं जङ्गम दोनों प्रकार के विषों को नष्ट कर देता है ॥१२६-१२८॥

विमर्श – आवरण पूजा विधि – सर्व प्रथम कर्णिका के मध्य में षडङ्गपूजा यथा – ज्वलज्वलमहामतिस्वाहा हृदयाय नमः, गरुडचूडान्न स्वाहा शिरसे स्वाहा  गरुड शिखे स्वाहा, शिखायै वषट्, गरुड प्रभञ्जय कवचाय हुम् उग्ररुपधर सर्वविषहर, नेत्रत्रयाय वौषट्‍ अप्रतिहत बलाप्रतिहत ० अस्त्राय फट ।

इसके बाद अष्टदल में पूर्वादि क्रम से अष्ट नागों के नाम मन्त्र से यथा –

ॐ अनन्ताय नमः पूर्वदले,        ॐ वासुकाये नमः आग्नेय दले,

ॐ तक्षकाय नमः, दक्षिणदले,        ॐ कर्कोटकाय नमः नैऋत्यद्ले,

ॐ पद्माय नमः पश्चिम दले,        ॐ महापद्माय नमः वायव्यदले,

ॐ पालाय नमः उत्तर दले        ॐ कुलिकाय नमः ईशान दले ।

इसके बाद भूपुर में दशो दिशाओं में इन्द्रादि दिक्पालों की तथा उसके बाहर उनके वज्रादि आयुधों की पूजा करनी चाहिए ॥१२६-१२८॥

विष्णुभक्तिपरो नित्यं यो भजेत्पक्षिनायकम् ।

शत्रून्सर्वान्पराभूय सुखी भोगसमन्वितः ॥ १२९ ॥

जीवेदनेकवर्षाणि सेवितोधरणीधवैः ।

कलेवरान्ते श्रीनाथसायुज्यं लभते तु सः ॥ १३० ॥

जो व्यक्ति विष्णुभक्ति में सदैव तत्पर हो कर पक्षिराज गरुड की उपासना करता है वह सब शत्रुओं को परास्त कर सुख भोग समन्वित सौ वर्षो तक भूपतियों से सेवित हो कर जीवित रहता है । फिर मरने के बाद विष्णु सायुज्य प्राप्त करता है ॥१२९ -१३०॥

॥ इति श्रीमन्महीधरविरचिते मन्त्रमहोदधौ विष्णूगरुडमन्त्रनिरूपणं नाम चतुर्दशस्तरङ्गः ॥ १४ ॥

॥ इति श्रीमन्महीधरविरचितायां मन्त्रमहोदधिव्याख्यायां नौकायां विष्णुमन्त्रकीर्तनं नाम चतुर्दशस्तरङ्गः॥१४॥

॥ इस प्रकार श्रीमन्महीधर विरचित मन्त्रमहोदधि के चतुर्दश तरङ्ग की महाकवि पं० रामकुबेर मालवीय के द्वितीय आत्मज डॉ० सुधाकर मालवीयकृत ‘अरित्र’ नामक हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ १४ ॥

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