मन्त्रमहोदधि तरङ्ग २१ || Mantra Mahodadhi Taranga 21

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मन्त्रमहोदधि तरङ्ग २१ (इक्कीसवें तरङ्ग) में स्नान से लेकर अर्न्तयाग तथा नित्यकर्म का वर्णन है।

मन्त्रमहोदधि एकविंशः तरङ्गः

मन्त्रमहोदधि – एकविंश तरङ्ग

मंत्रमहोदधि तरंग २१          

मंत्रमहोदधि इक्कीसवां तरंग    

मन्त्रमहोदधिः             

अथ एकविंशः तरङ्गः

अरित्र

नित्यपूजाविधिं सर्वदेवसाधारणं ब्रूवे।

यहाँ तक मन्त्र समूहों का तथा कामना विशेष में प्रयुक्त किये जाने वाले मन्त्रों का निरुपण कर ग्रथकार सर्वदेव साधारण पूजा विधान कहने का उपक्रम करते हैं । अब मैं देवताओं की सामान्य रुप से की जाने वाली पूजा विधि को कहता हूँ –

नित्यपूजाविधिकथनम्

ब्राह्मे मुहर्ते उत्थाय कृत्वा शौचादिकं सुधीः ॥ १॥

परिधायाम्बरं शुद्ध मन्त्रस्नानं विधाय च ।

प्रविश्य देवतागारं कुर्यात् सम्मार्जनादिकम् ॥ २॥

मङ्गलारार्तिकं कृत्वा निर्माल्यमपसारयेत् ।

दद्यात् पुष्पाञ्जलिं दन्तधावनाचमने अपि ॥ ३॥

बुद्धिमान साधक ब्राह्म मुहूर्त में उठ कर शौचादि क्रिया से निवृत्त होकर शुद्ध वस्त्र धारण कर, मन्त्र स्नान करके देव पूजा गृह में प्रवेष करे और देवतागार का सम्मार्जन आदि कार्य करे । तदनन्तर मङ्गला आरती करके निर्माल्य को हटा कर दूर करे । फिर देवता को पुष्पाञ्जलि समर्पित कर उन्हें दन्तधावन तथा आचमनार्थ जल प्रदान करे ॥१-३॥

नमस्कृत्यासने शुद्धे उपविश्य गुरुं स्मरेत् ।

शिरःस्थशुक्लपद्मस्थं प्रसन्नं द्विभुजाक्षिकम् ॥ ४॥

अहं ब्रह्मास्मि सद्रूपं नित्यमुक्तं न शोकभाक् ।

गुरुदेवात्मनामित्थमैक्यं स्मृत्वार्चयेत तम् ॥ ५॥

फिर अपने इष्टदेव को नमस्कार कर शुद्ध आसन पर बैठकर अपने गुरु का स्मरण करे । प्रसन्नता की मुद्रा में शिरःस्थ श्वेत कमल पर आसीन दो भूजा और दो नेत्रों ‘अहं ब्रह्मास्मि’ इस प्रकार की भावना में लीन, नित्यमुक्त सर्वथा शोकरहित गुरुदेव का स्मरण कर पुनः उनके स्वरुप में अपनी एकता की भावना कर उनका पूजन करे ॥४-५॥

श्लोकद्वयेनेष्टदेवताप्रार्थनम्

त्रैलोक्यचैतन्यमयादिदेव श्रीनाथविष्णो भवदाज्ञयैव ।

प्रातः समुत्थाय तवप्रियार्थ संसारयात्रा – मनुवर्तयिष्ये ॥ ६॥

जानामि धर्म न च मे प्रवृत्ति र्जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः ।

केनापि देवेन हृदिस्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ॥ ७॥

एतच्छलोकद्वयेनेष्टदेवतां प्रार्थयेद् बुधः ।

श्रीनाथविष्णो स्थाने तु कार्य ऊहोऽन्य दैवतः ॥ ८ ॥

तदनन्तर – त्रैलोक्यचैतन्याम्यादिदेव श्रीनाथ विष्णो भवदाज्ञयैव ।

प्रातः समुत्थाय तवप्रियार्थ संसारयात्रामनुवर्तयिष्ये ॥

जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिर्जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः ।

केनापि देवेन हृदिस्थितेन यथानियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ॥

इन दो श्लोकों से अपने इष्टदेव की प्रार्थना करे । प्रार्थना में जिसके इष्टदेव विष्णु हों उसे इसी प्रकार की प्रार्थना करनी चाहिए ॥६-८॥

किन्तु शिवोपासक को ‘श्रीनाथविष्णो” की जगह ‘विश्वेश शम्भो भवदाज्ञयैव’ दुर्गोपासक को ‘भगवानि दुर्गे भवदाज्ञयैव’ इसी प्रकार छन्दोनुकूल ऊह कर अपने इष्टदेव का संबुद्धयन्त तत्त्त्पदों का उच्चारण कर प्रार्थान करनी चाहिए ॥८॥

देवतागुणनामादि स्मरन् स्नातुमथो व्रजेत् ।

स्नानमान्तरबाह्याख्यं द्विविधं कथितं बुधैः ॥ ९॥

इसके बाद अपने इष्टदेव के नाम और गुणों का स्मरण करते हुये स्नानार्थ नदी, कूप, अथवा तडागादि में जाना चाहिये । विद्वानों ने आभ्यन्तर और बाह्य भेद से स्नान दो भेद कहे हैं ॥९॥

आन्तरबाह्यस्नानकथनम्

कोटिसूर्यप्रतीकाशं निजभूषायुधैर्युतम् ।

शिरःस्थं संस्मरेदेवं तत्पादोदकधारया ॥ १०॥

विशन्त्या ब्रह्मरन्ध्रेण निजं देहं विशुद्धया ।

प्रक्षाल्यान्तर्गतं पापं विरजो जायते नरः ॥ ११ ॥

प्रथम आभ्यन्तर स्नान का विधान कहते हैं – करोडो सूर्य के समान तेजस्वी अपने दिव्य आभूषणों एवं आयुधों को धारण किये शिरःस्थ सहस्त्रदल पर आसीन अपने इष्टदेव का स्मरण करते हुये ब्रह्मरन्ध्र से आती हुई उनके चरणोदक की धारा से अपने शरीर के समस्त पापों को धो कर बहा देना और पाप रहित हो जाना यह आन्तर स्नान कहा जाता है ॥१०-११॥

एवं कृत्वाऽऽन्तरं स्नानं स्नायाद्वेदोक्तमार्गतः।

अघमर्षणसूक्तं च स्मरेदन्तर्जले सुधीः ॥ १२ ॥

इस प्रकार आम्यन्तर स्नान कर वैदिक मार्ग से अपनी अपनी शाखा के अनुसार बाह्य स्नान करे । फिर जल में अघमर्षण सूक्त का जप करे ॥१२॥

विमर्श – वैदिक शाखाओं के अनेक भेद होने से उस प्रकार के स्नान के अनेक भेद हैं । अतः ग्रन्थ विस्तार के भय से उसका निर्देश आवश्यक नहीं है ।

संकल्प – जल में तीर्थावाहन, मृत्तिका प्रार्थना, मृत्तिका द्वारा अङ्ग लेपन ‘ॐ आपो हिष्ठा मयो भुवः’ इत्यादि मन्त्रों से जल द्वारा शिरः प्रोक्षण, तदनन्तर सूर्याभिमुख नाभि मात्र जल में स्नान, पुनः ‘ॐ चित्पतिर्मा पुनातु’ इत्यादि मन्त्रों से शरीर का पवित्रीकरण करने के पश्चात् अघमर्षण सूक्त का जप करना चाहिये ।

अघमर्षण का विनियोग – ॐ अघमर्षणसूक्तस्य अघमर्षणऋषिनुष्टुप्छन्दः भाववृतो देवता अघमर्षणे विनियोगः ।

अघमर्षण सूक्त – यथा – ॐ ऋतं च सत्य्म चाभीद्धात्तपसोध्यजायत ततो रात्र्यजायत, ततः समुद्रो अर्णवः समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत, अहोरात्राणि विद्वधद्विश्वस्थ मिषतो वशी सूर्याच्चन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् दिवञ्ज पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्वः ॥१२॥

मन्त्रस्नानकथनम्

मन्त्रस्नानं ततः कुर्यात् तत्प्रकारोऽधुनोच्यते ।

प्राणानायम्य मूलेन कृत्वा न्यासं षडङ्गकम् ॥ १३ ॥

अघमर्षण सूक्त के बाद मन्त्र स्नान करना चाहिये वह इस प्रकार है – प्रथम प्राणायाम करे फिर मूल मन्त्र से षडङ्गन्यास करे ॥१३॥

आदित्यमण्डलात्तीर्थान्यावयेत् सृणिमुद्रया ।

मन्त्रत्रयेणाम्बुमध्ये विलिखेत् तन्मनुत्रयम् ॥ १४ ॥

ब्रह्माण्डोदरतीर्थानि करैः स्पृष्टानि ते रवे ।

तेन सत्येन मे देव तीर्थ देहि दिवाकर ॥ १५ ॥

गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।

नर्मदे सिन्धुकावेरि जलेस्मिन्सन्निधिं कुरु ॥ १६ ॥

आवाहयामि त्वां देवि स्नानार्थमिहसुन्दरि ।

एहि गङ्गे नमस्तुभ्यं सर्वतीर्थसमन्विते ॥ १७ ॥

फिर अंकुश मुद्रा दिखा कर निम्न तीन मन्त्रों से जल में तीर्थों का आवाहन करना चाहिये –

ब्रह्माण्डोदरतीर्थानि करैः स्पृष्टानि ते रवे ।

तेन सत्येन मे देव तीर्थं देहि दिवाकार ॥

गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।

नर्मदे सिन्धुकावेरि जलेस्मिन्सन्निधिं कुरु ।

आवाहयामि त्वा देवि स्नानार्थमिहसुन्दरि ।

एहि गङ्गे नमस्तुभ्यं सर्वतीर्थसमन्विते ॥१४-१७॥

ततो वमिति बीजेन योजयेत् तानि तज्जले ।

अग्न्यर्केग्लौमण्डलानि तत्र सञ्चिन्तयेत्पुनः ॥ १८ ॥

मन्त्रयेत् तेन मन्त्रेण रविवारं ततो जलम् ।

कवचेनावगुण्ठ्याथ रक्षेदस्त्रेण तत् पुनः ॥ १९ ॥

तत्पश्चात् ‘वं’ इस सुधाबीज को पढकर उस तीर्थजल में मिला देना चाहिये । तदनन्तर उस जल में अग्नि, सूर्य और ग्लौं अर्थात् चन्द्रमण्डलों का उस जल में ध्यान करना चाहिये । फिर ‘वं’ इस मन्त्र को १२ बार पढकर उस जल में मिलाकर कवच (हुं) इस मन्त्र से जल को गोंठ देना चाहिये, तदनन्तर अस्त्र मन्त्र (फट्) इस मन्त्र से जल की रक्षा करनी चाहिये ॥१८-१९॥

मूलमन्त्रेणेशवारमभिमन्त्र्य नमज्जलम् ।

मन्त्रेण वक्ष्यमाणेन देवतां मनसि स्मरन् ॥ २०॥

आधारः सर्वभूतानां विष्णोरतुलतेजसः ।

तद्रूपाश्च ततो जाताश्चापस्ताः प्रणमाम्यहम् ॥ २१॥

फिर मूल मन्त्र से ११ बार उस जल का अभिमन्त्रण कर नमन करे और ‘आधारः’ इस वक्ष्यमाण मन्त्र से जल देवता की आकॄति का ध्यान कर उन्हें प्रणाम करना चाहिये ॥२०-२१॥

मज्जेजले स्मरंस्तत्र मूलं वै देवतां तथा ।

उन्मज्ज्य सिञ्चेत् कं सप्तकृत्वः कलशमुद्रया ॥ २२॥

फिर उस जल में देवताओं का स्मरण करते हुये मूल मन्त्र से स्नान करना चाहिये । तदनन्तर जल से ऊपर आ कर कलश मुद्रा दिखाकर ७ बार अपने शिर पर अभिषेक करना चाहिये ॥२२॥

विमर्श – कलशमुद्रा – यथा – हस्तद्वयेन सावकशिकमुष्टिकरेण कुम्भमुद्रा ॥

दोनों हाथ की मुट्ठी में अवकाश रखकर एक में मिलाने से कलश मुद्रा निष्पन्न होती है ॥२२॥

मूलेनाथ चतुर्मन्त्रैरभिषिञ्चेन्निजां तनुम् ।

लिख्यन्ते तेऽथ चत्वारो मन्त्राः शंकरभाषिताः ॥ २३॥

सिसृक्षोर्निखिलं विश्वं मुहुः शुक्र प्रजापतेः ।

मातरः सर्वभूतानामापो देव्यः पुनन्तु माम् ॥ २४ ॥

अलक्ष्मी मलरूपां यां सर्वभूतेषु संस्थिताम् ।

क्षालयन्ति निजस्पर्शादापो देव्यः पुनन्तु माम् ॥ २५ ॥

यन्मे केशेषु दौर्भाग्यं सीमन्ते यच्च मूर्द्धनि ।

ललाटे कर्णयोरक्ष्णोरापस्तद् घ्नन्तु वो नमः ॥ २६ ॥

आयुरारोग्यमैश्वर्यमरिपक्षक्षयः सुखम् ।

सन्तोषः क्षान्तिरास्तिक्यं विद्या भवतु वो नमः ।। २७ ॥

फिर मूल मन्त्र के साथ निम्न चार मन्त्रों को पढकर अपने शरीर पर जल का अभिषेक करना चाहिये । आचार्य शंकर द्वारा कहे गए इन चारों मन्त्रों को अब कहते हैं –

सिसृक्षोर्निखिलं विश्वं मुहुः शुक्रं प्रजापतेः ।

मातरः सर्वभूतानामापो देव्यः पुनन्तु माम् ॥१॥

अलक्ष्मीं मलरुण्म या सर्वभूतेषु संस्थिताम् ।

क्षालयन्ति ल्निजस्पर्शादापो देव्यः पुनन्तु माम् ॥२॥

यन्मे केषेषु दौर्भ्याग्यं सीमन्ते यच्च मूर्द्धनि ।

ललाटॆ कर्णयोरक्ष्णोरापस्तद् घ्नन्तु वो नमः ॥३॥

आयुरारोग्यमैश्वर्यमरिपक्षक्षयः सुखम् ।

सन्तोषः क्षान्तिरास्तिक्यं विद्या भवतु वो नमः ॥४॥ ॥२३-२७॥

विप्रपादोदकं पीत्वा शालग्रामशिलाजलम् ।

शङ्खेन त्रिः परिभ्राम्य प्रक्षिपेन्निजमस्तके ॥ २८ ॥

फिर ब्राह्मण का चरणोदक शालिग्रामशिला चरणामृत पीकर शंख स्थित जल को शालिग्राम शिला के चारों ओर ३ बार घुमाकर अपने शिर को अभिषिक्त करना चाहिये ॥२८॥

देवमनुष्यंपितृतर्पणम्

ततो देवान्मनुष्यांश्च संक्षेपात्तर्पयेत् पितॄन् ।

वस्त्रं सम्पीज्य संक्षाल्य सक्थिनी वाससी धरेत् ॥ २९ ॥

फिर देवमनुष्य एवं पितरों का संक्षेप में तर्पण करना चाहिये । फिर स्नान किये गये वस्त्र का प्रक्षालन कर उसे निचोड़ कर रख देना चाहिए और दोनों घुटनों तक धौत वस्त्र धारण कर पश्चात् उत्तरीय वस्त्र धारण करना चाहिये ॥२९॥

विमर्श – संक्षेप में तर्पण विधि – नाभिमात्र जल में खडे हो कर ‘ॐ ब्रह्मादयो देवास्तृप्यन्ताम्’ से देवताओं का, ‘गौतमादयो ऋषयस्तृप्यन्ताम्’ से एक एक अञ्जलि जल देकर, ‘सनकादयः मनुष्यास्तृप्यन्ताम्’ इस मन्त्र से दो अञ्जलि जल प्रदान कर देवता, ऋषि और मनुष्यों का तर्पण करे । फिर ‘कव्यवाडनलादयो देवपितरस्तृप्यन्ताम्’ अमुक गोत्राः अस्मात्पितापितामहप्रपितामहाः सपत्नीकास्तृप्यन्ताम् अमुकगोत्राः अस्मन्मातामह-प्रमातामह-वृद्धप्रमातामहाः सपत्नीका तृप्यन्ताम् – से देव पितरों एवं स्वपितरों को तीन तीन अञ्जलि जल प्रदान कर –

‘आब्रह्यस्तम्बपर्यन्तं देवर्षिपितृमानवाः ।

तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृमातामहादयः ॥

श्लोक से समस्त पितरों को तीन तीन अञ्जलि जल प्रदान करे । इस प्रका संक्षेप में पितृतर्पण विधि कही गई ॥२९॥

तीर्थाभावात् स्वसदने स्नायादुष्णेन वारिणा ।

अल्पा एवं प्रवक्तव्यास्तत्र मन्त्रा यथोचिताः ॥ ३० ॥

हस्तयोरप आदाय कुर्यात्तत्राघमर्षणम् ।

भस्मना गोरजोभिर्वा स्नायान्मन्त्रेण वाक्षमः ॥ ३१॥

यदि तीर्थ न मिल सके तो घर पर ही गर्म जल से स्नान करना चाहिये । घर पर स्नान करते समय यथोचित स्वल्प मन्त्र का ही प्रयोग करना चाहिये तथा हाथ में जल लेकर अघमर्षण मन्त्र पढना चाहिये (द्र० २१. १२) ज्वरादि रोगों के कारण स्नान करन में असमर्थ होने पर भस्म अथवा गोधूलि से ही स्नान कर लेना चाहिये ॥३०-३१॥

वैष्णवशैवयोस्तिलकविधिः

तत आचम्य पीठस्थस्तिलकं रचयेत्सुधीः ।

केशवाद्यभिधानैस्तु स्थानेषु द्वादशस्वपि ॥ ३२ ॥

ललाटोदरहृत्कण्ठदक्षपाश्वांसके ततः।

वामपाश्वासकर्णे च पृष्ठदेशे ककुद्यपि ॥ ३३ ॥

ललाटे तु गदां कुर्याद्धृदये नन्दकं पुनः।

शङ्खचक्रं भुजद्वन्द्वे शाहबाणं च मूर्द्धनि ॥ ३४ ॥

तदनन्तर बुद्धिमान साधक आसन पर बैठकर आचमन करे, फिर केश्वर आदि १२ नामों से शरीर के १२ अङ्गो पर तिलक लगावे । ललाट, उदर, हृदय, कण्ठ, दक्षिणपार्श्वे, दाहिना कन्धा, वामपार्श्व, बाया कन्धा, दाहिना कान, वाँया कान पीठ एवं ककुद्‍ – ये १२ अङ्ग तिलक लगाने के लिये कहे गये हैं । ललाट पर गदा, हृदय पर खड्‌ग दोनों भुजाओं पर शंख एवं चक्र, शिर पर धनुष बाण की आकृति इस प्रकार वैष्णवों को तिलक लगाने का विधान कहा गया है ॥३२-३४॥

इत्थं तु वैष्णवः कुर्याच्चैवः कुर्यात् त्रिपुण्ड्रकम् ।

अग्हिोत्रोत्थितं भस्मादायाग्निरिति मन्त्रतः ॥ ३५ ॥

अभिमन्त्र्य त्र्यम्बकेन कुर्यात् पञ्चत्रिपुण्ड्रकम ।

क्रमात्तत्पुरुषाघोरसद्योवामेशनामभिः ॥ ३६ ॥

फलांसोदरवक्षस्तु ऋग्भिस्तेषामथापि वा ।

कृत्वा सन्ध्यां स्वशाखोक्तां मन्त्रसन्ध्यां समाचरेत् ॥ ३७ ॥

शैवों के त्रिपुण्ड लगाने का विधान इस प्रकार है – ‘अग्निरिति भस्म, वायुरिति भस्म, जलमिति भस्म, स्थलमिति भस्म, व्योमेति भस्म सर्वं ह वा इदं भस्मम् एतानि चक्षूंषि तस्माद् व्रतमेतत्पाशुपतं यद् भस्मनाङ्गनि संस्पृशेत्’ इस मन्त्र से अग्निहोत्र की भस्म लेकर

‘ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्’-

इस मन्त्र से अभिमन्त्रित करे । पश्चात् ‘तत्पुरुषाय नमः’ इस मन्त्र से मस्तक में,’ अघोराय नमः’ इस मन्त्र से दाहिने कन्धे में, ‘सद्योजाताय नमः’ इस मन्त्र से बायें कन्धे में ’, वामदेवाय नमः’ इस मन्त्र से जठर में’, ‘ईशानाय नमः’ इस मन्त्र से वक्षःस्थल में त्रिपुण्ड लगाये अथवा उपर्युक्त नामों के स्थान पर तत्पुरुषाय विद्महे अधोरेम्यः सद्योजातं प्रपद्यामि० वामदेवाय नमः०, ईशानः सर्वविद्यानाम् ० इन पाँच ऋचाओं से उपर्युक्त पाँचों स्थानों में त्रिपुण्ड लगावे । फिर अपनी शाखा के अनुसार वैदिकसन्ध्या करके मन्त्रसन्ध्या करनी चाहिये ॥३५-३७॥

मन्त्रसन्ध्याविधिः

प्राणायामषडङ्गे च कृत्वादाय करे जलम् ।

त्रिर्जप्त्वा मूलमन्त्रेण त्वाचमेत्रिर्जपन्मनुम् ॥ ३८ ॥

पुनर्दक्षकरेणाम्भो गृहीत्वा वामहस्ततः ।

निधाय तस्माच्योतद्भिर्बिन्दुभिः सप्तधा तनुम् ॥ ३९ ॥

सम्माय॑ मूलमन्त्रेणावशिष्टं तत्पुनर्जलम् ।

दक्षहस्ते समादाय नासिकान्तिकमानयेत् ॥ ४० ॥

अब मन्त्र संध्या की विधि कहते है –

प्राणायाम एवं षडङ्गन्यास कर हाथ में जल लेकर मूल मन्त्र का जप करते हुए तीन बार आचमन करना चाहिये। पुनः दाहिने हाथ से जल लेकर बायें हाथ में रखकर उसे दाहिने हाथ से ढककर, उससे गिरते हुये जल बिन्दुओं से मूल मन्त्र पढते हुये ७ बार शरीर का मार्जन कर शेष जल को पुनः दाहिने हाथ में लेकर उसे नासिका के पास ले जाना चाहिये ॥३८-४०॥

ईडयान्तः समाकृष्य तद्धौतैः पापसञ्चयैः ।

कृष्णवर्ण पिङ्गलया रेचितं प्रविचिन्त्य तत् ॥ ४१ ॥

क्षिपेदस्त्रेण पुरतः कल्पितेभिदुरोपले ।

अघमर्षणमेतद्धि निखिलाघनिवारणम् ॥ ४२ ॥

पश्चात् ईडा नाडी से उसे भीतर खींच कर उसके द्वारा देहगत पापों को धो कर कृष्णवर्ण पाप पुरुष के साथ पिङ्गला द्वारा निकलने की भावना कर अपने सामने कल्पित वज्र शिला पर ‘फट्‍’ इस अस्त्र मन्त्र से फेंक देना चाहिये । इस प्रकार से किया गया अघमर्षण साधक के सारे सञ्चित पापों को दूर कर देता है ॥४१-४२॥

पुनरञ्जलिनादाय जलमय दिशेत्ततः ।

त्रिवारं मूलमन्त्रान्ते षोडशार्णमनुं जपन् ॥ ४३ ॥

रविमण्डलसंस्थाय देवायाऱ्या पदं वदेत् ।

कल्पयामीति दद्याच्च मन्त्रोऽयं षोडशाक्षरः ॥ ४४ ॥

इतना कर लेने के पश्चात् अञ्जलि में जल लेकर मूल मन्त्र साथ षोडशार्ण मन्त्र का उच्चारण कर अर्घ्य देना चाहिये। ‘रविमण्डल्संस्थाय देवायार्ध्यं कल्पयामि’ यह षोडशाक्षर मन्त्र है ॥४३-४४॥

सूर्यमण्डलग ध्यायन्निष्टदेवमनन्यधीः ।

प्रजपेन्मन्त्र गायत्री मूलं चाष्टोत्तरं शतम् ॥ ४५ ॥

अष्टाविंशतिवारं वा तर्पयेत्तावदम्भसि ।

दत्त्वायं दिननाथाय तीर्थ संहारमुद्रया ॥ ४६ ॥

विसज्या लोकपालान्नत्वा देवस्तुति पठन ।

यागस्थान तथागत्य प्रक्षात्यांघी तथाचमेत् ॥ ४७॥

गार्हपत्यादिकानग्नीन् हुत्वोपस्थाय तानपि ।

देवतागारमागत्य समाचामेधथाविधि ॥ ४८ ॥

अर्घ्यदान के पश्चात् साधक अपने इष्टदेव का सूर्यमण्डल में एकाग्रचित्त से ध्यान कर गायत्री मन्त्र तथा मूल मन्त्र का एक सौ आठ बार जप करे और २८ बार जल से तर्पण करे । इस प्रकार भगवान् सूर्य को अर्घ्य देने के बाद संहारमुद्रा से समस्त तीर्थो का विसर्जन कर सूर्यदेव एवं लोकपालों को प्रणाम कर अपने इष्टदेव की स्तुति करे । पश्चात् यज्ञशाला में जाकर पैर धोकर आचमन करे । फिर सविधि गार्हपत्य अग्नि में होम कर सभी अग्नियों का उपस्थान करे, और देव मन्द्रिर में जाकर यथाविधि आचमन है करे ॥४५-४८॥

केशवनारायण माधवैः पीत्वा जलं त्रिधा ।

करी गोविन्द विष्णुभ्यां क्षालयेन्मधुसूदनात् ॥ ४९ ॥

त्रिविक्रमेण चाप्योष्ठौ वामनाच्छ्रीधरान्मुखम् ।

हृषीकेशेन हस्तं च चरणौ पद्मनाभतः ॥ ५० ॥

अब आचमन का प्रकार कहते हैं –

वैष्णव आचमन विधि – ॐ केशवाय नमः, ॐ नारायणाय नमः, ॐ माधवाय नमः’ – इन तीन मन्त्रों से हाथ का प्रक्षालन कर ‘मधुसूदनाय नमः’, त्रिविक्रमाय नमः’ – इन दो मन्त्रों से ओष्ठ प्रक्षालन करे । फिर ‘वामनाय नमः, श्रीधराय नमः’ – इन दो मन्त्रों से मुख, फिर ‘हृषीकेशाय नमः’ से दाहिना हाथ, फिर ‘पद्मनाभाय नमः’ इस मन्त्र से पादप्रक्षालन करना चाहिये ॥४९-५०॥

दामोदरेण मूर्धानं प्रोक्ष्य संकर्षणादिकान् ।

मुखादिषु करांगुल्या वेदादिप्रीणने न्यसेत् ॥ ५१॥

मुखे संकर्षणं वासुदेवप्रद्युम्नकौ नसोः।

अनिरुद्धं च पुरुषोत्तममक्ष्णोः प्रविन्यसेत् ॥ ५२॥

अधोक्षजं नृसिंह च कर्णयो भितोऽच्युतम् ।

जनार्दनं हृदि न्यस्येदुपेन्द्रमपि मूर्द्धनि ॥ ५३॥

अंसयोश्च हरिं विष्णुं वैष्णवाचमनं त्विदम् ।

फिर ‘दामोदराय नमः’ से मस्तक का प्रोक्षण कर संकर्षणादि के चतुर्थ्यन्त रुपों के प्रारम्भ में वेदादि (ॐ) तथा  अन्त में ‘नमः’ लगाकर हाथ की अङ्‌गुलियों से मुख आदि अङ्गो पर क्रमशः इस प्रकार न्यास करना चाहिये ।

‘ॐ संकर्षणाय नमः’ से मुख पर, ‘ॐ वासुदेवाय नमः, ॐ प्रद्युम्नाय नमः’ से दोनो नासिका पर, ‘ॐ अनिरुद्धाय नमः, ॐ पुरुषोत्तमय नमः’ से दोनो नेत्रों पर, ‘ॐ अधोक्षजाय नमः ॐ नृसिंहाय नमः’ से दोनों कानों पर, ‘ॐ अच्युताय नमः’ से नाभि पर, ‘ॐ जनार्दनाय नमः’ से हृदय पर, ‘ॐ उपेन्द्राय नमः’ से शिर पर तथा ‘ॐ हरये नमः ॐ विष्णवे नमः’ से दोनों कन्धों पर न्यास करना चाहिये । यह वैष्णव आचमन की विधि है ॥५१-५४॥

केशवाद्याश्चतुर्थ्यन्ता नमोन्ताः प्रणवादिकाः ॥ ५४॥

आस्ये नसोः प्रदेशिन्यां नामया नेत्रकर्णयोः।

कनिष्ठया नाभिदेशेगुष्ठः सर्वत्र संयुतः ॥ ५५॥

तलेन हृदये न्यस्येत् सर्वाभिमस्तकेंसयोः।

आत्मविद्या शिवैस्तत्त्वैः स्वाहान्तैः प्रपिबेदपः ॥ ५६ ॥

केशवादि चतुर्थ्यन्त नामों के प्रारम्भ में प्रणव तथा अन्त में नमः लगाकर मुख नासिका पर प्रदेशिनी से, नेत्र एवं कानों पर अनामिका से, नाभि पर कनिष्ठिका से तथा सभी अङ्‌गुलियों से अङ्‌गुलियों से अङ्‌गूठा मिलाकर सर्वत्र न्यास करना चाहिये । हृदय पर हथेली से तथा मस्तक तथा दोनों कन्धों पर सभी अङ्‌गुलियों से न्यास करना  चाहिये ॥५४-५६॥

हां ही हूं आदिमैः शैवे शाक्त वाग्बीजपूर्वकैः।

क्षालनादिकमगुल्या स्पर्शोऽपि स्यादमन्त्रकः ॥ ५७ ॥

अब शैवों की आचमन विधि कहते हैं –

‘हां आत्मतत्त्वाय स्वाहा, हीं विद्यातत्त्वाय स्वाहा, हूं शिवतत्त्वाय स्वाहा’ इन मन्त्रों से शैवों को तीन बार आचमन करना चाहिये तथा ‘ऐं आत्मतत्त्वाय स्वाहा, ह्रीं विद्यातत्त्वाय स्वाहा, क्लीं शिवतत्त्वाय स्वाहा’ इन मन्त्रों से शाक्तों को आचमन करना चाहिये । हाथों का प्रक्षालन तथा अङ्‌गुलियों से अङ्‌गों के स्पर्श की प्रक्रिया उपांशु (बिना मन्त्र के मौन हो कर ) करनी चाहिये ॥५५-५७॥

एवमाचम्य सामान्याय॒ण द्वारं प्रपूजयेत् ।

तारखं वह्निसर्गाढ्यं द्वारायं साधयामि च ॥ ५८ ॥

इस प्रकार आचमन कर लेने के पश्चात् सामान्य अर्घ्य (पूजा सामग्री) से देवतागार के द्वार का पूजन करना चाहिये ॥५८॥

उक्त्वास्त्र मनुनापाशं क्षालयेत् पूरयेद्धृदा ।

तीर्थान्यावाह्य गन्धादीन्निक्षिपेन्निगमादिना ॥ ५९ ॥

धेनुमुद्रां दर्शयित्वा मूलेनाप्यभिमन्त्रयेत् ।

तार (ॐ), विसर्ग सहित वहिन (र) और ख (ह) अर्थात् (ह्रः) फिर द्वारार्घ्य साधयामि’ इतना कह कर अस्त्र मन्त्र (फट्‍) से अर्घ्य पात्र का प्रक्षालन करना चाहिये । फिर हृद (नमः) मन्त्र से जल भर कर ‘गङ्गे च यमुने चैव’ इत्यादि मन्त्र से उसमें तीर्थों का आवाहन करना चाहिये । तदनन्तर निगम (प्रणव) मन्त्र से उसमें गन्धादि डालना चाहिये । फिर धेनुमुद्रा दिखाकर मूलमन्त्र से उसे अभिमन्त्रित करना चाहिये ॥५९-६०॥

सामान्यार्थ्यविधिः प्रोक्तस्तेनोक्ता द्वारदेवताः ॥ ६०॥

द्वारपालपूजनम्

इष्ट्वाचेदवारपालांश्च ते कथ्यन्ते पृथग्विधाः ।

यहाँ तक सामान्यार्घ्य की विधि कही गई । इस प्रकार के अर्घ्य से द्वारदेवताओं का पूजन कर द्वारपालों का पूजन करना चाहिये । ये द्वारपाल सांप्रदयिक दष्टि से भिन्न-भिन्न कहे गये है ॥६०-६१॥

नन्दः सुनन्दश्चण्डश्च प्रचण्डो बलसंज्ञकः ॥ ६१॥

प्रबलो भद्रसंज्ञश्च सुभद्रा वैष्णवा मताः।

नन्दिसंज्ञो महाकालो गणेशो वृषभस्तथा ॥ ६२ ॥

गिरिट्यभिधः स्कन्दः पार्वतीशाभिधो परः।

चण्डेश्वर इमे शैवाः शाक्तेया मातरः स्मृताः ॥ ६३॥

वक्रतुण्डश्चैकदंष्ट्रौ महोदरगजाननौ ।

लम्बोदरश्च विकटो विघ्नराजश्च सप्तमः ॥ ६४ ॥

धूमराजो गणपतेारपाला इमे स्मृताः।

इन्द्रो यमोऽथ वरुणः कुबेरस्त्रैपुराः स्मृताः ॥ ६५॥

ईशः कृशानुरक्षांसि वायुश्चैवाष्टमः स्मृतः।

नन्द, सुनन्द, चण्ड, प्रचण्ड, बल, प्रबल, बलभद्रा तथा सुभद्रा – ये विष्णु के द्वारपाल कहे गये हैं । नन्दी, महाकाल, गणेश, वृषभ, भृंगिरिटि, स्कन्द, पार्वतीश एवं चण्डेश्वर – ये शिव के द्वारपाल हैं । ब्राह्यी आदि अष्टमातृकायें शक्तिकी द्वारपाल कही गई हैं । वक्रतुण्ड, एकदंष्ट्र, महोदर, गजानन, लम्बोदर, विकट, विघ्नराज एवं धूम्रराज – ये गणपति के द्वारपाल हैं । इन्द्र, यम, वरुण, कुबेर, ईशान, अग्नि, निऋति एवं वायु- ये के त्रिपुरा द्वारपाल कहे गये हैं ॥६१-६६॥

द्वारपूजां विधायेत्थं विघ्नानुत्सारयेत्रिधा ॥ ६६ ॥

इस क्रम से सांप्रदायिक द्वारपूजा करने के बाद दिव्य, अन्तरिक्ष एवं भौम इन त्रिविध विघ्नों का उत्सारण करना चाहिये ॥६६॥

आत्मानं शंकरं ध्यात्वा दृष्ट्या दिव्यान्निवारयेत् ।

नभस्थानमर्घ्यपानीयैः पाणिघातैर्धरागतान् ॥ ६७॥

अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भूमिसंस्थिताः।

ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया ॥ ६८ ॥

अपक्रामन्तु भूतानि पिशाचाः सर्वतो दिशम् ।

सर्वेषामविरोधेन ब्रह्माकर्मसमारभे ॥६९ ॥

विनिवार्याखिलान् विघ्नानिदं मन्त्रद्वयं पठन् ।

अवकाश प्रदानायान्तरायाणां विनिर्यताम् ॥ ७० ॥

संकोचयन्वाममङ्गं गृहं दक्षपदा विशेत् ।

क्षेत्रपालं विधातारं नैर्ऋत्यां दिशि पूजयेत् ॥ ७१॥

अब विघ्नोत्सारण का विधान कहते हैं –

स्वयं को ध्यानस्थ शंकर मानकर दिव्य दृष्टि से विघ्नों का, अर्घ्य जल से अन्तरिक्षस्थ विघ्नों का तथा पैर से भूमिगत विघ्नों का उत्सारण करना चाहिये ।

तदनन्तर – अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भूमिसंस्थिताः ।

ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया ॥१॥

अपक्रामन्तु भूतानि पिशाचाः सर्वतो दिशम् ।

सर्वेषामविरोधेन ब्रह्माकर्मसमारभे ॥२॥

इन दो मन्त्रों को पढकर सभी प्रकार के विघ्नों का उत्सारण करना चाहिये । जाते हुये विघ्नों को अवकाश देने के लिये अपना वामाङ्ग संकुचित कर लेना चाहिये ।

फिर दाहिना पैर आगे रख कर गृह में प्रवेश करना चाहिये तथा नैऋत्य कोण में क्षेत्रपाल एवं विधाता का पूजन करना चाहिये ॥६७-७१॥

पूजागृहप्रवेशोत्तरमासनादिविधिः

अनन्तं विमलं पद्म उन्तासननमोन्वितम् ।

जपन्निधाय दर्भास्त्रीन् कुशचर्माम्बरासने ॥ ७२ ॥

काष्ठपल्लववंशाश्मगोशकृत्तृणमृण्मयम् ।

विषमं कठिनं मन्त्री त्यजेदासनमाधिदम् ॥ ७३ ॥

अब आसन पर बैठने का विधान कहते हैं –

प्रथम कुशासन उसके ऊपर व्याघ्रचर्म उसके ऊपर रेशमी वस्त्र इस क्रम से रखकर साधक – अनन्तासनाय नमः, विमलासनाय नमः पद्‌मासनाय नमः – इन तीन मन्त्रों को पढकर तीन कुशा स्थापित करे । काष्ठ, पत्ता एवं कठिन बाँस, पत्थर, तृणगोशकृत् एवं मिट्टी से बन आसन विषम होते हैं । अतः पीडादायक होने के कारण इन आसनों को वर्जित कर देना चाहिये ॥७२-७३॥

ॐ पृथ्वी त्वया घृता लोका देवित्वं विष्णुनाधृता ।

त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम् ॥

इस मन्त्र को विनियोगपूर्वक पढकर पूर्व या उत्तर की ओर मुख कर स्वस्तिक, पद्मासन अथवा वीरासन से बैठना चाहिये।

विमर्श – आसन पर बैठने का विनियोग – – ॐ पृथ्वीतिमन्त्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषिः सुतल्म छन्दः कूर्मो देवता आसनोपवेशेने विनियोगः ।

आसनों के लक्षण इस प्रकार हैं –

स्वास्तिकासन – पैर दोनों जानु और ऊरु के बीज दोनों पादतल को अर्थात् दक्षिण पाद के जानु और ऊरु के मध्य वाम पादतल एवं वामपाद के जानु और ऊरु के मध्य दक्षिण पादतल को स्थापित कर शरीर को सीधे कर बैठने का नाम स्वस्तिकासन है ।

पद्मासन – दोनों ऊरु के ऊपर दोनों पादतल को स्थापित कर व्युत्क्रम पूर्वक (हाथों को उलट कर) दोनों हाथों से दोनों हाथ के अंगूठे को बींध लेने का नाम पद्मासन कहा गया है ।

पृथ्वि त्वयेति मन्त्रेण प्रागुदग्वा समाविशेत् ।

कुर्यात्स्वस्तिकपाथोज वीरादिष्वेकमासनम् ॥ ७४॥

वीरासन – एक पैर को दूसरे पैर के नितम्ब के नीचे स्थापित करे तथा दूसरे पादतल को नितम्ब के नीचे स्थापित किए गए पैर के ऊरु पर रक्खे तथा शरीर को सीधे तो वह वीरासन कहा जाता है ॥७४॥

अर्घ्यपाद्याचमनीयमधुपर्काचमस्य च ।

पञ्चपात्राणि पुष्पादीन स्थापयेत्स्वीय दक्षिणे ॥ ७५ ॥

वामेम्बुपात्रं व्यजनं छत्रमादर्शचामरे ।

अर्घ्य, पाद्य, आचमनीय, मधुपर्क एवं पुनराचमनीय के पाँचों पात्र तथा पुष्पादि अपनी दहिनी ओर रखना चाहिये और जलपात्र, व्यजन (पंखा), छत्र, आदर्श (शीशा) एवं चमर बायीं ओर स्थापित करना चाहिये ॥७५-७६॥

कृताञ्जलिमिदक्षे गुरून् गणपतिं नमेत् ॥ ७६ ॥

न्यस्यास्त्रं करयोस्तालत्रयं दिग्बन्धनं चरेत् ।

अङ्गुष्ठयुक्त तर्जन्या सुर्दशनमर्नु जपन् ॥ ७७ ॥

साधक अञ्जलि बाँध कर अपनी बायीं ओर गुरु को तथा दाहिनी ओर गणपति को प्रणाम करे । दोनों हाथ पर अस्त्र (फट्) मन्त्र से न्यास कर तीन बार ताली बजाकर अङ्‌गूठा एवं तर्जनी से शब्द करते हुये सुदर्शन मन्त्र पढकर दिग्बन्धन करना चाहिये ॥७६-७७॥

सुदर्शनमन्त्रः

प्रणवो हृदयं उन्तं सुदर्शनपदं पुनः ।

अस्त्राय च फडित्युक्तो मन्त्रो द्वादशवर्णवान् ॥ ७८ ॥

प्रणव (ॐ), हृदय (नमः), चतुर्थ्यन्त सुदर्शन (सुदर्शनाय), और फिर ‘अस्त्राय फट्’, यह १२ अक्षरों का मन्त्र कहा गया है ॥७८॥

विधाय वह्निप्राकारं भूताजेयो भवेत्सुधीः ।

भूतशुद्धि तथा प्राणप्रतिष्ठां मातृकास्थितिम् ॥ ७९ ॥

पञ्चधोक्तां प्रकुर्वीत ततोऽन्यान् मातृकां चरेत् ।

इस मन्त्र से अपने चारों ओर अग्नि का प्रकार बनाकर साधक भूतों से अजेय हो जाता है । इसके पश्चात भूतशुद्धि, प्राणप्रतिष्ठा एवं पञ्चविध (सृष्टि, स्थिति, संहार, सृष्टि, स्थिति) मातृकान्यासों को करना चाहिये । तदनन्तर अन्य मातृका न्यास करना चाहिये ॥७९-८०॥

श्रीकण्ठाद्याञ्छम्भुभक्तो वैष्णवः केशवादिकान् ॥ ८०॥

गणेशाद्यांस्तु तत्सेवी शक्तिभाङ्मातृकाः कलाः।

यथा – शैवों को श्रीकण्ठ मातृकान्यास, वैष्णवों को केशवादि कीर्तिन्यास, गाणपत्यों को गणेशकलान्यास तथा शाक्तों को शक्तिकलान्यास करना चाहिये ॥८०-८१॥

ताः क्रमेणैव कथ्यन्ते मुन्यादिन्यासपूर्विकाः ॥ ८१॥

मुनिः स्यादक्षिणामूर्तिर्गायत्रीछन्द ईरितम् ।

अर्द्धाद्रिजाहरो देवो नियोगः सर्वसिद्धये ॥ ८२॥

हलो बीजानि गुह्ये तु स्वराञ्छक्तीः पदोर्यसेत् ।

हसाभ्यां दीर्घयुक्ताभ्यां कृत्वाङ्गं शङ्करं स्मरेत् ॥ ८३॥

अब इन न्यासों के ऋषि आदि को क्रमशः कहता हूँ –

प्रथम श्रीकण्ठ न्यास का विनियोग एवं षडङ्गन्यास कहते हैं – इस श्रीकण्ठ मातृकान्यास के दक्षिणामूर्ति ऋषि हैं, गायत्री छन्द हैं और अर्द्धनारीश्वर देवता हैं । सब सिद्धियों के लिये इसका विनियोग किया जाता है । हल बीज है तथा स्वर शक्ति है । इससे क्रमशः गुप्ताङ्ग एव्म पैरों पर न्यास करना चाहिये । षड्‌दीर्घ सहित (ह्स) से षड्ङन्यास कर शंकर का ध्यान करना चाहिये ॥८१-८३॥

विमर्श – विनियोग – अस्य श्रीकण्ठमातृकामन्त्रस्य दक्षिणमूर्तिऋषि गायत्रीच्छन्दः अर्द्धनारीश्वरों देवता ह्लो बीजानि स्वरा शक्तयः सर्वकार्य सिद्धयर्थे न्यासे विनियोगः ।

ऋष्यादिन्यास –        ॐ दक्षिणामूर्ति ऋषये नमः, शिरसे,

ॐ गायत्रीछन्दसे नमः, मुखे,    ॐ अर्द्धनारीश्वरो देवतायै नमः, हृदि,

ॐ विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।

षडङ्गन्यास – ह्सां हृदयाय नमः,    ह्सीं शिरसे स्वाहा,

ह्सूम शिखार्य वषट्,            ह्सैं कवचाय हुम्,

ह्सौं नेत्रत्रयाय वौषट्,            ह्सः अस्त्राय फट् ॥८२-८३॥

ध्यानादिकथनम्

पाशांकुशवराक्षस्रक्पाणिशीतांशुशेखरम् ।

त्र्यक्षं रक्तसुवर्णाभमर्द्धनारीश्वरं भजेत् ॥ ८४॥

अब अर्द्धनारीश्वर का ध्यान कहते हैं –

जिनके चार हाथों में पाश, अंकुश्य, वर और अक्षमाला शोभित हो रहे हैं मस्तक पर चन्द्रकला धारण किये हुये त्रिनेत्र ऐसे सुवर्ण की कान्ति वाले भगवान् अर्द्धनारीश्वर का ध्यान करना चाहिये ॥८४॥

एवं ध्यायञ्छम्भुशक्ती चतुर्थ्यन्तनमोन्विते ।

हसौं बीजं मातृका पूर्व विन्यसेन्मातृकास्थले ॥८५ ॥

अब श्रीकण्ठ मातृकान्यास का प्रकार कहते हैं –

उक्त प्रकास से अर्द्धनारीश्वर भगवान् का ध्यान कर शिवशक्ति के चतुर्थ्यन्त द्विवचन रुपों के आगे नमः लगा कर प्रारम्भ में ह्सौं मातृकावर्णो को लगाकर यथा क्रमेण मातृका स्थलों में न्यास करना चाहिये ॥८५॥

मातृकान्यासकथनम्

श्रीकण्ठपूर्णोदयौँ चानन्तो विरजयान्वितः ।

सूक्ष्मेशः शाल्मलीयुक्तो लोलाक्षीयुक्त्रिमूर्तिकाः ॥८६॥

अमरेशो वर्तुलाक्षावर्षीशो दीर्घघोणया ।

भारभूतिर्दीर्घमुखी तिथीशो गोमुखीयुतः ॥ ८७ ॥

स्थाण्वीशो दीर्घजिवायुग्धरः कुम्भोदरीयुतः।

झिण्टीशश्चोर्ध्वकेशी भौतिको विकृतमुख्यपि ॥ ८८ ॥

सद्यो ज्वालामुखी चानुग्रह उल्कामुखीयुतः।

अक्रूरः श्रीमुखी महासेनो विद्यामुखीयुतः ॥ ८९ ॥

क्रोधीशश्च महाकाल्या चण्डेशश्च सरस्वती ।

पञ्चान्तकः सर्वसिद्धि गौरीयुक्तः प्रकीर्तितः ॥ ९० ॥

शिवोत्तमेशो विन्यस्यो युक्तस्त्रैलोक्यविद्यया ।

एकरुद्रो मन्त्रशक्तिः कूर्मेशश्चात्मशक्तियुक् ॥ ९१॥

एकनेत्रो भूतमात्रायुक्तः स्याच्चतुराननः ।

लम्बोदर्यायुतः प्रोक्तो ह्यजेशो द्राविणीयुतः ॥ ९२ ॥

सर्वेशो नागरी युक्तः सोमेशश्चापि खेचरी ।

लागलीश्च मञ्जर्या दारकेशश्च रूपिणी ॥ ९३ ॥

अर्द्धनारीशवीरिण्यावुमाकान्तः पुनर्युतः ।

काकोदर्या तथाषाढी पूतनायुक्त ईरितः ॥ ९४ ॥

चण्डीशो भद्रकालीयुगन्त्रीशो योगिनीयुतः ।

मीनेशः शखिनीयुक्तो मेषेशस्तर्जनीयुतः ॥ ९५ ॥

लोहितः कालरात्रिश्च शिखीशः कुब्जनायुतः ।

छगलण्डः कपर्दिन्या द्विरण्डेशश्च वज्रया ॥ ९६ ॥

महाकालो जयायुक्तो बालीशः सुमुखेश्वरी ।

भुजङ्गो रेवतीयुक्तः पिनाकी. माधवीयुतः ॥ ९७ ॥

खड्गीशो वारुणीयुक्तो बकेशो वायवीयुतः ।

श्वेतो रक्षोविदारिण्या भृगुः सहजयायुतः ॥ ९८ ॥

नकुलीशश्च लक्ष्मीयुक्छिवेशो व्यापिनीयुतः ।

सम्वर्तको महामाया प्रोक्ता श्रीकण्ठमातृका ॥ ९९ ॥

श्रीकण्ठ एवं पूर्णादरी, अनन्त एवं विरजा, सूक्ष्मेश एवं शाल्मली, त्रिमूर्तीश एवं लोलक्षि, अमरेश एवं वर्तुलाक्षी, अर्घीश एवं दीर्घघोणा, भारभूति एवं दीर्घमुखी, तिथीश एवं गोमुखी, स्थाण्वीश एवं दीर्घजिहवा, हर एवं कुम्भोदरी, झिण्टीश एवं ऊर्ध्वकेशी, भौतिकेश एवं विकृतमुखी, सद्योजात एवं ज्वालामुखी, अनुग्रहेश एवं उल्कामुखी, अक्रूरेश एवं श्रीमुखी, महासेनेश एवं विद्यामुखी, क्रोधीश अनुग्रहेश एवं उल्कामुखी, अक्रूरेश एवं श्रीमुखी, महासेनेश एवं विद्यामुखी, क्रोधीश एं महाकाली, चण्डेश एवं सरस्वती, पञ्चान्तक एवं सर्वसिद्धिगौरी, शिवोत्तमेश एवं त्रैलोक्यविद्या, एकरुद्र एवं मन्त्रशक्ति, कूर्मेश एवं आत्मशक्ति, एकनेत्रेश एवं भूतमातृ, चतुराननेश एवं लम्बोदरी, अजेश एवं द्रावणी, सर्वेश एवं नागरी, सोमेश एवं खेचरी, लाङ्गलीश एवं मञ्जरी, दारकेश एवं रुपिणी, अर्धनारीश एवं वारिणी, उमाकान्त एवं काकोदरी, आषाढीश एवं पूतना, चण्डीश एवं भद्रकाली, अन्त्रीश एवं योगिनी, मीनेश एवं शंखिनि, मेषेश एवं तर्जनी, लोहितेश एवं कालरात्रि, शिखीश एवं कुब्जिनी, छगलण्डेश एवं कपर्दिनी, द्विरण्डेश एवं रेवती, पिनाकीश एवं माधवी, खड्‌गीश एवं वारुणी, बकेश एवं वायवी, श्वतेश एवं रक्षोविदारिणी, भृग्वीश एवं सहजा, नकुलीश एवं लक्ष्मी, शिवेश एवं व्यापिनी तथा संवर्तक एवं महामाया – इतने श्रीकण्ठादि तथा मातृकायें कही गई हैं ॥८६-९९॥

यत्र त्वीशपदं नोक्तं श्रीकण्ठादिषु नामसु ।

तत्र सर्वत्र वक्तव्यं शक्तिभ्यां हृत् ततो वदेत् ॥ १०० ॥

श्रीकण्ठ आदि नामों में जहाँ ईश पद नहीं कहा गया है वहाँ सर्वत्र ईश पद जोड लेना चाहिये । जैसे श्री कण्ठेश, अनन्तेश आदि । शक्ति के अन्त में चतुर्थ्यन्त द्विवचन बोल कर नमः पद जोड देना चाहिये ॥१००॥

त्वगसृङ्मासमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राण्यसून वदेत् ।

शक्ति क्रोधं तथात्मभ्यामन्तान्यादि दशस्वपि ॥ १०१॥

अन्त के यकारादि द्श वर्णो के साथ, त्वग्, असृङ् मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र, प्राण, शक्ति एवं क्रोध के साथ आत्मभ्यां जोड देना चाहिये । तथा सर्वत्र आदि में ह्सौं यह बीज जोड देना चाहिये । इसका स्पष्टीकरण आगे वक्ष्यमाण न्यास में द्रष्टव्य हैं ॥१०१॥

विमर्श – न्यास विधि

ॐ ह्सौं अं श्रीकण्ठेशपूर्णोदरीभ्यां नमः ललाटे । ॐ हसौं आं अनन्तेशविरजाभ्यां नमः मुखवृत्ते । ॐ ह्स्ॐ इं सूक्ष्मेशशाल्मलीभ्यां नमः, दक्षनेत्रे । ॐ ह्सौं ईं त्रिमूर्तीशलोलाक्षीभ्यां नमः, वामनेत्रे । ॐ हसौं उं अमरेशवर्तुलाक्षीभ्यां नमः दक्षकर्णे, ॐ ह्सौं ऊं अर्घीशदीर्धघोणाभ्यां नमः वामकर्णे, ॐ ह्सौं ऋं भारभूतएशदीर्घमुखाभ्यां नमः दक्षनासापुटे, ॐ ह्सौं ऋं तिथीशगोमुखीभ्यां नमः वामनासापुटे, ॐ ह्सौं लृं स्थाण्वीशदीर्घजिह्‌वाभ्यां नमः दक्षगण्डे, ॐ हसौं लृं हरेशकुण्डोदरीभ्यां नमः वामगण्डे , ॐ ह्सौं एं झिण्टीशऊर्ध्वकेशीभ्यां नमः ऊर्ध्वोष्ठे, ॐ ह्सौं ऐं भौतिकेशविकृतमुखीभ्यां नमः अधरोष्ठे, ॐ ह्सौं ओं सद्योजातज्वालामुखीभ्यां नमः, ऊर्ध्वदन्तपंक्तौ, ॐ ह्सौं कं क्रोधीशमहकालीभ्यां नमः जिहवाग्रे, ॐ ह्सौं खं चण्डीशसरस्वतीभ्यां नमः कण्ठदेशे, ॐ ह्सौं गं पञ्चान्तकेशसर्वसिद्धिगौरीभ्यां नमः दक्षबाहुमूले, ॐ ह्सौं घं शिवोत्तमेशत्रैलोक्यविद्याभ्यां नमः दक्षकूर्परे, ॐ ह्सौं ङं एकरुद्रेशमन्त्रशक्तिभ्यां नमः दक्षमणिबन्धे, ॐ ह्सौं चं कूर्मेशाआत्मशक्तिभ्या नमः दक्षहस्ताङ्‌गुलिमूले, ॐ ह्सौं छं एकनेत्रेशभूतमातृभ्यां नमः दक्षहस्ताङ्‍गुल्यग्रे, ॐ ह्सौं जं चतुराननेशलम्बोदारीभ्यां नमः वामबाहुमूले, ॐ ह्सौं झं अजेशद्रावणीभ्या नमः वामकूर्परे, ॐ ह्सौं ञं सर्वेशनागरीभ्यां नमः वाममणिबन्धे, ॐ ह्सौं टं सोमेशखेचरीभ्यां नमः वामहस्ताङ्‌गुलिमूले, ॐ ह्सौं ठं लाङ्गलीशमञ्जरीभ्यां नमः वामहस्ताङ्‌गुल्यग्रे, ॐ हसौं डं दारकेशरुपिणीभ्या, ॐ हसौं ठं लाङ्गलीशमञ्जरीभ्यां नमः वामहस्तागुल्यग्रे , ॐ ह्सौं डं दारकेशरुपिणीभ्या नमः दक्षपादमूले, ॐ ह्सौं ढं अर्धनारीशवीरिणीभ्यां नमः दक्षजानूनि, ॐ ह्सौं णं उमाकान्तेशकाकोदरीभ्या नमः दक्षगुल्फे, ॐ ह्सौं तं आषाढीशपूतनाभ्यां नमः दक्षपादाङ्‌गुलिमूले, ॐ ह्सौं थं चण्दीशभद्रकालीभ्यां नमः दक्षपादाङ्‌गुल्यग्रे, ॐ ह्सौं दं अन्त्रीशयोनिनीभ्यां नमः वामपादमूले, ॐ ह्सौं धं मीनेशशंखिनीभ्यां नमः वामजानौ, ॐ ह्सौं नं मेषेशतर्जनीभ्यां नमः वामगुल्फे, ॐ ह्स्ॐ पं लोहितेशकालरात्रीभ्यां नमः वामपादाङ्‌गुलिमूले, ॐ ह्सौं फं शिखीशकुब्जिनीभ्यां नमः वामपादाङ्‌गुल्यग्रे, ॐ ह्सौं बं छागलण्डेशकपरिनीभ्यां नमः दक्षपार्श्वे, ॐ ह्सौं भं द्विरण्डेशवज्राभ्या नमः वामपार्श्वे, ॐ ह्सौं मं महाकालेशजयाभ्या नमः पृष्ठे, ॐ ह्सौं यं त्वगात्मभ्यां बालीशसुमुखेश्वरीभ्या नमः उदरे, ॐ ह्सौं रं असृगात्मभ्यां भुजङ्गेशरेवतीभ्यां नमः हृदि, ॐ ह्सौं लं मांसात्मभ्यां पिनाकीशमाधवीभ्यां नमः दक्षांसे, ॐ ह्सौं वं मेदात्मभ्यां खड्‌गीशवारुणीभ्यां नमः ककुदि, ॐ ह्स्ॐ शं अस्थ्यात्मभ्यां बकेशवायवीभ्यां नमः वामांसे, ॐ ह्सौं षं मज्जात्मभ्यां श्वेतेशरक्षिविदारिणीभ्यां नमः हृदयादिदक्षहस्तान्तम्, ॐ हसौं सं शुक्रात्मभ्यां भृग्वीशसहजाभ्यां नमः हृदयादिवामहस्तान्तम, ॐ ह्सौं हं प्राणात्मभ्यां नकुलीशलक्ष्मीभ्यां नमः हृदयादिक्षपादान्तम, ॐ ह्सौं लं शक्त्यात्मभ्यां शिवेशव्यापिनीभ्यां नमः हृदयादिवामपादान्तम्, ॐ ह्सौं क्षं क्रोधात्मभ्यां संवर्तकेशमाहामायाभ्यां नमः हृदयादिमस्तकान्तम् ॥८६-१०१॥

केशवादि मातृकायां साध्यनारायणो मुनिः ।

अमृताधा तु गायत्रीच्छन्दो लक्ष्मीहरिः सुरः ॥ १०२ ॥

षडङ्गन्यासः

द्विरुक्तैः शक्तिश्रीकामैः षडङ्गानि समाचरेत् ।

अब केशवादि मातृकाओं का विनियोग कहते हैं –

केशवमातृका मन्त्र के नारायण ऋषि हैं, अमृतगायत्री छन्द हैं तथा लक्ष्मी एवं हरि देवता हैं । शक्तिबीज, श्रीबीज एवं कामबीज की दो आवृत्तियाँ कर षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥१०२-१०३॥

विमर्श – विनियोग – अस्य केशवमातृकान्यासस्य नारायण ऋषिरमृतगायत्रीछान्दः लक्ष्मीहरीदेवते न्यासे विनियोगः ।

षडङ्गन्यास – ह्रीं हृदयाय नमः, श्रीं शिरसे स्वाहा, क्लीं शिखायै वषट्‍, ह्रीं कवचाय हुम्‍, श्रीं नेत्रत्रयाय वौषट, क्लीं अस्त्राय फट् ॥१०२-१०३॥

विष्णुध्यानादिकथनम्

शंख चक्र गदापदम कुम्भादर्शाब्जपुस्तकम् ॥ १०३ ॥

बिभ्रतं मेघचपलावर्ण लक्ष्मीहरिं भजे ।

एवं ध्यात्वा जपेच्छक्तिं श्रीकामपुटिताक्षराम् ॥ १०४॥

अब लक्ष्मी और हरि का ध्यान कहते हैं – अपने हाथों में शंख, चक्र, गदा, पद्म, कुम्भ, आदर्श, कमल एवं पुस्तक धारण किये हुये, मेघ एवं विद्युत जैसी कान्ति वाले लक्ष्मी और हरि का मैं ध्यान करता हूँ ॥१०३-१०४॥

भ्यामन्तविष्णुशक्त्यन्ता नमोन्तां प्रणवादिकाम् ।

शव कीर्तिसंयुक्तः कान्तिर्नारायणान्विता ॥ १०५॥

इस प्रकार ध्यान कर शक्ति (ह्रीं) श्री (श्रीं) तथा काम (क्लीं) से संपुटित अकारादि वर्ण, फिर विष्णु एवं उनकी शक्ति के नाम के अन्त में चतुर्थी द्विवचन तथा अन्त में नमः तथा प्रारम्भ में प्रणव लगा कर न्यास करना चाहिए ॥१०४-१०५॥

माधवस्तुष्टि संयुक्तो गोविन्दः पुष्टिसंयुतः ।

विष्णुस्तु धृतिसंयुक्तः शान्तियुङ्मधुसूदनः ॥ १०६ ॥

त्रिविक्रमः क्रियायुक्तो वामनो दययान्वितः ।

श्रीधरो मेधयायुक्तो हृषिकेशश्च हर्षया ॥ १०७ ॥

पद्मनाभयुक्ता श्रद्धा लज्जादामोदरान्विता ।

वासुदेवश्च लक्ष्मीयुक्संकर्षणसरस्वती ॥ १०८ ॥

प्रद्यम्नः प्रीतिसंयुक्तोऽनिरुद्धो रतिसंयुतः ।

चक्रीजयागदीदुर्गा शाही तु प्रभयान्वितः ॥ १०९ ॥

खड्गीतु सत्ययायुक्तः शङ्खीचण्डासमन्वितः ।

हलीवाणी समायुक्तो मुसली च विलासिनी ॥ ११० ॥

शूली विजयया युक्तः पाशी विरजयान्वितः।

अंकुशी विश्वया युक्तो मुकुन्दो विनदायुतः॥ १११ ॥

नन्दजः सुनदायुक्तो नन्दीसत्यासमन्वितः।

नरऋद्धीनरकजित् समृद्धीशुद्धियुग्घरिः॥ ११२ ॥

कृष्णबुद्धी सत्यभुक्ती सात्वतो मतिसंयुतः।

सौरिक्षमे शूररमे जनार्दनउमान्वितः॥ ११३ ॥

भूधरः क्लेदिनीयुक्तो विश्वमूर्तिश्च क्लिन्नया ।

वैकुण्ठो वसुधायुक्तो वसुदापुरुषोत्तमौ॥ ११४ ॥

बली तु परयायुक्तो बलानुजपरायणे ।

बालसूक्ष्मे वृषघ्नस्तु सन्ध्यायुक्प्रज्ञया वृषः॥ ११५ ॥

हंसः प्रभासमायुक्तो वराहो निशयान्वितः।

विमलो मेधयायुक्तो नृसिंहो विद्युतायुतः॥ ११६ ॥

केशवाद्या मातृकोक्तायादियोगश्च पूर्ववत् ।

केशव मातृकाएंकेशव एवं कीर्त्ति, नारायण एवं कान्ति, माधव एवं तुष्टि, गोविन्द एवं पुष्टि, विष्णु एवं धृति, मधुसूदन एवं शान्ति, त्रिविक्रम एवं क्रिया, वामन एवं दया, श्रीधर एवं मेधा, हृषीकेश एवं हर्षा, पद्मनाभ एवं श्रद्धा, दामोदर एवं लज्जा, वासुदेव एवं लक्ष्मी, संकर्षण तथा सरस्वती, प्रद्युम्न और प्रीति, अनिरुद्ध एवं रति, चक्री एवं जया, गदी एवं दुर्गा शाड्‌र्गी एवं प्रभा, खड्‌गी एवं सत्या, शंखी एवं चण्ड, हली एवं वाणी, मुसली एवं विलासिनी, शूली एवं विजया, पाशी एवं विरजा, अंकुशी एवं विश्वा, मुकुन्द एवं विनदा, नन्दज एवं सुनदा, नन्दी एवं सत्या, नर एवं ऋद्धि, नरकजित्‍ एवं समृद्धि, हरि एवं शुद्धि, कृष्ण एवं बुद्धि, सत्य एवं भुक्ति सात्त्वत एवं मति, सोरि एवं क्षमा, शूर एवं रमा, जनार्दन एवं उमा, भूधर एवं क्लेदिनी, विश्वमूर्त्ति एवं क्लिन्ना, वैकुण्ठ एवं वसुधा, पुरुषोत्तम एवं वसुदा, बली एवं परा, बलानुज एवं परायणा, बाल एवं सूक्ष्मा, वृषघ्न एवं सन्ध्या वृष एवं प्रज्ञा, हंस एवं प्रभा, वराह एव निशा, विमल एवं मेघा तथा नृसिंह एवं विद्युता – इतनी केशव मातृकाएं कही गई हैं ॥१०५-११७॥

विमर्श – इस केशवमातृका न्यास में भी अन्तिम यकारादि दश वर्णो के साथ त्वगात्मभ्यामित्यादि पूर्वोक्त रीति के अनुसार लगाकर न्यास करना चाहिये ।

न्यास विधि – न्यास विधि –

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं अं क्लीं श्रीं ह्रीं केशवकीर्तिभ्यां नमः ललाटे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं आं क्लीं श्रीं ह्रीं नारायणकान्तिभ्यां नमः, मुखवृत्ते,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं इं क्लीं श्रीं ह्रीं माधवतुष्टिभ्यां नमः, दक्षनेत्रे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ई क्लीं श्रीं ह्रीं गोविन्दपुष्टिभ्यां नमः, वामनेत्रे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं उं क्लीं श्रीं ह्रीं विष्णुधृतिभ्यां नमः, दक्षकर्णे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऊं क्लीं श्रीं ह्रीं मधुसूदनशान्तिभ्या नमः, वामकर्णे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऋं क्लीं श्रीं ह्रीं त्रिविक्रमक्रियाभ्या नमः, दक्षनासायाम,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऋं क्लीं श्रीं ह्रीं वामनदयाभ्यां नमः, दक्षनासायाम,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं लृं क्लीं श्रीं ह्रीं वामनदयाभ्या नमः, वामनासायाम्,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं लृं क्लीं श्रीं ह्रीं हृषीकेशहर्षाभ्यां नमः, वामगण्डे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं एं क्लीं श्रीं ह्रीं पद्‌नाभश्रद्धाभ्यां नमः, ओष्ठे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं क्लीं श्रीं ह्रीं दामोदरलज्जाभ्यां नमः, अधरे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ओं क्लीं श्रीं ह्रीं वासुदेवलक्ष्मीभ्यां नमः, ऊर्ध्वदन्तपंक्तौ,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं औं क्लीं श्रीं ह्रीं संकर्षणसरस्वतीभ्यां नमः, अधोदन्तपंक्तौ,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं अं क्लीं श्रीं ह्रीं प्रद्युम्नप्रीतिभ्यां नमः, मस्तके,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं अः क्लीं श्री ह्रीं अनिरुद्धरतिभ्यां नमः, मुखे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कं क्ली श्रीं ह्रीं चक्रीजयाभ्यां नमः, दक्षबाहुमूले,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं खं क्लीं श्रीं ह्रीं गदीदुर्गाभ्यां नमः, दक्षकूर्परे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं गं क्ली श्रीं ह्रीं शाङ्‌र्गीप्रभाभ्यां नमः, दक्षमणिबन्धे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं घं क्लीं श्रीं ह्रीं खड्‌गीसत्याभ्यां नमः, दक्षाड्‌गुलिमूले

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ङं क्लीं श्री ह्रीं शंखीचण्डाभ्या नमः, दक्षाड्‌गुल्यग्रे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं चं क्लीं श्रीं ह्रीं हलीवाणीभ्यां नमः, वामबाहुमूले,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं छं क्लीं श्रीं ह्रीं मुसलीविलसिनीभ्यां नमः, वामकूर्परे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं जं क्लीं श्रीं ह्रीं शूलीविजयाभ्यां नमः, वाममणिबन्धे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं झं क्लीं श्रीं ह्रीं पाशीविरजाभ्यां नमः, वामाड्‌गुलिमूले,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ञं क्लीं श्रीं ह्रीं अंकुशीविश्वाभ्या नमः, वामाड्‌गुल्यग्रे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं टं क्लीं श्रीं ह्रीं मुकुन्दविनदाभ्या नमः, दक्षपादमूले,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ठं क्लीं श्रीं ह्रीं नन्दजसुनदाभ्यां नमः, दक्षजानुनि,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं डं क्लीं श्रीं ह्रीं नन्दीसत्याभ्यां नमः, दक्षगुल्फे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ढं क्ली श्रीं ह्रीं नरऋद्धिभ्यां नमः, दक्षपादाड्‌गुलिमूले,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं णं क्लीं श्रीं ह्रीं नरकजित्समृद्धिभ्यां नमः दक्षपादाड्‌गुल्यग्रे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं तं क्लीं श्रीं ह्रीं हरशुद्धिभ्यां नमः वामपादमूले,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं थं क्लीं श्रीं ह्रीं कृष्णबुद्धिभ्यां नमः, वामजानुनि,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं दं क्लीं श्रीं ह्रीं सत्यमुक्तिभ्यां नमः, वामगुल्फे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं धं क्लीं श्रीं ह्रीं सात्वतमतिभ्यां नमः, वामपादाड्‌गुलिमूले,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं नं क्लीं श्रीं ह्रीं सौरिक्षमाभ्यां नमः, वामपादाड्‌गुल्यग्रे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं पं क्लीं श्रीं ह्रीं शूररमाभ्यां नमः, दक्षपार्श्वे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं फं क्लीं श्रीं ह्रीं जनार्दनोमाभ्यां नमः, वामपार्श्वे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं बं क्लीं श्रीं ह्रीं भूधरक्लेदिनीभ्यां नमः, पृष्ठे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं भं क्लीं श्रीं ह्रीं विश्वमूर्तिक्लिन्नाभ्यां नमः, नाभौ,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं मं क्लीं श्रीं ह्रीं वैकुण्ठवसुधाभ्यां नमः, उदरे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं यं क्लीं श्रीं ह्रीं त्वगात्मभ्यां पुरुषोत्तवसुदाभ्यां नमः, हृदि,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं रं क्लीं श्रीं ह्रीं असृगात्मभ्यां बलीपराभ्यां नमः, दक्षांसे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं लं क्लीं श्रीं ह्रीं मांसात्मभ्यां बालानुपरायणाभ्यां नमः, कुकुदि,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं वं क्लीं श्रीं ह्रीं मेदसात्मभ्यां बालसूक्ष्माभ्यां नमः, वामांसे,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं शं क्लीं श्रीं ह्रीं अस्थ्यात्मभ्यां वृषघ्नस्न्ध्याभ्यां नमः, हृदादिक्षकरान्तम,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं षं क्लीं श्री ह्रीं मज्जात्मभ्यां वृषप्रज्ञाभ्या नमः, हृदयादि वामकरान्तम,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं सं क्लीं श्रीं ह्रीं शुक्रात्मभ्यां हंसप्रभाभ्यां नमः, हृदादिदक्षपादान्तम,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं हं क्लीं श्रीं ह्रीं प्राणात्मभ्यां वराहनिशाभ्यां नमः, हृदादिवामपादान्तम,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ळं क्लीं श्रीं ह्रीं शक्त्यात्मभ्यां विमलमेघाभ्यां नमः, हृदादिउदरात्नम्,

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं क्षं क्लीं श्रीं ह्रीं क्रोधात्मभ्यां नृसिंहविद्युताभ्यां नमः, हृदादिमुखपर्यन्तम् ॥१०४-११७॥

गणेशमातृकान्यासः

गणेशमातृकायास्तु मुनिर्गणकईरितः ॥ ११७॥

निवृद्गायत्रिकाछन्दो देवः शक्तिविनायकः।

स्मृत्या दीर्घाढ्ययाचाङ्गकृत्वाध्यायेद् गजाननम् ॥ ११८ ॥

अब गणेश मातृका न्यास का विनियोग एवं न्यास का प्रकार कहते हैं –

इस गणेशमातृकान्यास मन्त्र के गणक ऋषि निचृद्‌गायत्री छन्द तथा शक्ति विनायक देवता है । षड्‌दीर्घ सहित गकार से षड्ङ्ग न्यास करने के पश्चात् ‘गणेश’ का ध्यान करना चाहिये ॥११७-११८॥

विमर्श – विनियोग – अस्य श्रीगणेशमातृकान्यासमन्त्रस्य गणकऋषिर्निचृद्‌ गायत्रीच्छन्दः शक्तिविनायको देवता न्यासे विनियोगः ।

षडङ्गन्यास – ॐ गां हृदयाय नमः,        ॐ गीं शिरसे स्वाहा,

ॐ गूं शिखायै वषट्,        ॐ गैं कवचाय हुम्

ॐ गौं नेत्रत्रायाय वौषट्    ॐ गं अस्त्राय फट् ॥११७-११८॥

गणेशध्यानादिकथनम्

गुणाकुशवराभीतिपाणिं रक्ताजहस्तया ।

प्रिययालिंगितं रक्तं त्रिनेत्रं गणपं भजे ॥ ११९ ॥

अब गणपति का ध्यान कहते हैं – अपने हाथों में त्रिशूल, अंकुश, वर और अभय धारण किये हुये, अपनी प्रियतमा द्वारा रक्तवर्ण के कमलों के समान हाथों से आलिंगित, त्रिनेत्र गणपति का मैं ध्यान करता हूँ ॥११९॥

एवं ध्यात्वा न्यसेत् स्वीयबीजपूर्वाक्षरान्वितम् ।

गणेश मातृकाएं – उक्त प्रकार से ध्यान कर लेने के पश्चात् अपने बीजाक्षरों को पहले लगाकर तदनन्तर ‘विघ्नेश ह्रीं’ आदि में चतुर्थ्यन्त द्विवचन, फिर ‘नमः’लगा कर गणेश मातृका न्यास करना चाहिये ॥१२०॥

विघ्नेशो हींसमायुक्तो विघ्नराजः श्रियायुतः ॥ १२० ॥

विनायकः पुष्टियुतः शान्तियुक्तः शिवोत्तमः ।

विघ्नकृत्स्वस्तिसंयुक्तो विघ्नहर्ता सरस्वती ॥ १२१॥

गणस्तु स्वाहया युक्त एकदन्तः सुमेधया ।

द्विदन्तः कान्तिसंयुक्तो गजवक्त्रश्च कामिनी ॥ १२२ ॥

निरञ्जनो मोहिनीयुक्कपर्दी तु नटीयुतः ।

दीर्घजितः पार्वतीयुक्छंकुकर्णश्च ज्वालिनी ॥ १२३॥

वृषभध्वजनन्दौ च सुरेशगणनायकौ ।

गजेन्द्रः कामरूपिण्या सूपकर्णस्तथोमया ॥ १२४ ॥

त्रिलोचनस्तेजवत्या लम्बोदरस्तु सत्यया ।

महानन्दश्च विघ्नेशी चतुर्मूर्तिः सुरुपिणी ॥ १२५ ।।

सदाशिवः कामदायुगामोदो मदजिह्वया ।

दुर्मुखो भूतिसंयुक्तः सुमुखो भौतिकायुतः ॥ १२६ ॥

प्रमोदः सितयायुक्त एकपादो रमायुतः ।

द्विजिहह्वोमहिषीयुक्तः शूरश्चापि तु भञ्जिनी ॥ १२७ ॥

वीरो विकर्णया युक्तः षण्मुखो भृकुटीयुतः ।

वरदो लज्जया वामदेवः स्याद् दीर्घघोणया ॥ १२८ ॥

धनुर्धरावक्रतुण्डौ द्विरदो यामिनीयुतः ।

सेनानी रात्रिसंयुक्तः कामान्धो ग्रामणीयुतः ॥ १२९ ॥

मत्तः शशिप्रभायुक्तो विमत्तो लोललोचना ।

मत्तवाहनचञ्चले जटी दीप्तिसमन्वितः ॥ १३० ॥

मुण्डी सुभगयायुक्तः खड्गीदुर्भागया तथा ।

वरेण्यश्च शिवा युक्तो भगायुग्वृषकेतनः ॥ १३१॥

भक्तप्रियश्च भगिनी गणेशो भोगिनीयुतः।

मेघनादश्च सुभगा व्यासीस्यात्कालरात्रियुक् ॥ १३२ ॥

गणेश्वरः कालिकेति प्रोक्ता विघ्नेशमातृका ।

त्वगादियोगो यादीनां पूर्ववत्परिकीर्तितः ॥ १३३ ।।

विघ्नेश एवं ह्रीं, विघ्नराज एवं श्रीं, विनायक एवं पुष्टि, शिवोत्तम एवं शान्ति, विघ्नकृत्‍ एवं स्वस्ति, विघ्नहर्ता एवं सरस्वती, गण एवं स्वाहा, ’ मोहिनी, कपर्दी एवं नटी, दीर्घजिहव एवं पार्वती, शंकुकर्ण एवं ज्वालिनी, वृषभध्वज एवं नन्दा, सुरेश एवं गणनायक, गजेन्द्र एव्म कामरुपिणी, सूर्पकर्ण और उमा, त्रिलोचन और तेजोवती, लम्बोदर एवं सत्या, महानन्द एवं विघ्नेशी, चतुर्मूर्ति एवं सुरुपिणी, सदाशिव एवं कामदा, आमोद एवं मदजिह्वा, दुर्मुख एवं भूति, सुमुख एवं भौतिक, प्रमोद एवं सिता, एकपाद एवं रमा, द्विजिह्वा एवं महिषी, शूर एवं भञ्जिनी, वीर एवं विकर्णा, षन्मुखं एवं भृकुटी, वरद एवं लज्जा, वामदेव एवं दीर्घघोण वक्रतुण्ड एवं धनुर्धरा, द्विरद एवं यामिनी, सेनानी एवं रात्रि, कामान्ध एव्म ग्रामणी, मत्त एवं शशिप्रभा, विमत्त एवं लोललोचन, मत्तवाहन एवं चंचला, जटी एवं दीप्ति, मुण्डी एवं सुभगा, खड्‌गी एवं दुर्भगा, वरेण्य एवं शिवा, वृषकेतन एवं भगा, भक्तप्रिय एवं भगिनी, गणेश एवं भोगिनी, मेघनाद एवं सुभगा, व्यासी एवं कालरात्रि और गणेश्वर एवं कालिका – इतनी (५१) गणेशमातृकाये हैं ॥१२०-१३३॥

यकारादिवर्णो के साथ त्वगात्मभ्यामित्यादि का योग पूर्वोक्त रीति से कर लेना चाहिए ॥१३३॥

विमर्श – न्यास विधि

ॐ अं विघ्नेशह्रींभ्यां नमः ललाटे, ॐ आं विघ्नराजश्रीभ्यां नमः मुखवृत्ते, ॐ इं विनायकपुष्टिभ्यां नमः दक्षनेत्रे, ॐ ई शिवोत्तशान्तिभ्यां नमः वामनेत्रे, ॐ उं विघ्नकृत्स्वस्तिभ्यां नमः दक्षकर्णे, ॐ ऊं विघ्नहर्तृसरस्वतीभ्यां नमः वामकर्णे, ॐ ऋं गणस्वाहाभ्या नमः दक्षनासायाम्, ॐ ऋं एकदन्तसुमेधाभ्यां नमः वामनासायाम्, ॐ लृं द्विदन्तकान्तिभ्यां नमः दक्षगण्डे, ॐ लृं गजवक्त्रकामिनीभ्यां नमः, वामगणे , ॐ एं निरञ्जनमोहिनीभ्यां नमः ओष्ठे, ॐ ऐं कपर्दीनटीभ्यां नम्ह अधरे, ॐ ओं दीर्घजिहवपार्वतीभ्यां नमः ऊर्ध्वदन्तपड्‌क्तौ, ॐ औं शड्‌कुकर्णज्वालिनीभ्यां नमः अधः दन्तपंक्तौ, ॐ अं वृषमध्वजनन्दाभ्यां नमः शिरसि, ॐ अः सुरेशगणनायकाभ्यां नमः मुखे ॐ कं गजेन्द्रकामरुपिणीभ्यां नमः दक्षबाहूमूले, ॐ खं सूर्पकर्णोमाभ्यां नमः दक्षकूर्परे, ॐ गं त्रिलोचनतेजोवतीभ्यां नमः दक्षमणिबन्धे, ॐ घं लम्बोदरसत्याभ्यां नमः दक्षाङ्‌गुलिमूले, ॐ ङं महानन्दविघ्नेशीम्यां नमः दक्षहस्ताड्‌गुल्यग्रे, ॐ चं चतुर्मूर्तिसुरुपिणीभ्यां नमः वामबाहूमूले, ॐ छं सदाशिवकामदाभ्यां नमः वाकमूर्परे, ॐ जं आमोदमदजिहवाभ्यां नमः वाममणिबन्धे, ॐ झं दुर्मुहभूतिभ्यां नमः वामबाहु अड्‌गुल्यगे, ॐ ञं सुमुखभौतिकाभ्यां नमः वामबाहु अड्‌गुल्यग्रे, ॐ टं प्रमोदसिताभ्यां नमः, दक्षपादमूले, ॐ ठं एकपादरमाभ्यां नमः दक्षजानौ ॐ डं द्विजिहवमहिषीभ्यां नमः दक्षगुल्फे, ॐ ढं शूरभञ्जनीभ्यां नमः दक्षपाड्‌गुलिमूले, ॐ णं वीरविकर्णाभ्यां नमः दक्षपादाड्‌गुल्यग्रे, ॐ तं षण्मुख भ्रुकुटीभ्यां नमः वामपादमूले, ॐ थं वरदलज्जाभ्या नमः वामजानौ, ॐ दं वामदेवदीर्घघोणाभ्यां नमः वामगुल्फे, ॐ धं वक्रतुण्डधनुर्धराभ्यां नमः वामपदाड्‌गुलिमूले, ॐ नं द्विरदयामिनीभ्यां नमः वामपादाड्‌गुल्यग्रे, ॐ पं सेनानीरात्रिभ्यां नमः, पृष्ठे, ॐ भं विमललोललोचनाभ्यां नमः नाभौ, ॐ मं मत्तवाहनचञ्ज्चलाभ्यां नम्ह उदरे, ॐ यं त्वगात्मभ्याञ्जटीदीप्तिभ्यां नमः हृदि, ॐ रं असृगात्मभ्यां मुण्डीसुभगान्यां नमः दक्षांसे, ॐ लं मांसात्मभ्यां खड्‌गीदुर्भगाभ्यां नमः ककुदि, ॐ वं मेदात्मभ्यां वरेण्यशिवाभ्यां नमः वामांसे, ॐ शं अस्थ्यात्मभ्यां वृषकेतनभगाभ्यां नमः हृदयादिदक्षहस्तानाम्, ॐ षं मज्जात्मभ्यां भक्तप्रियभगिनीभ्यां नमः हृदयादिवामहस्तान्तम्, ॐ सं शुक्रात्मभ्यां गणेशभोगिनीभ्यां नमः हृदयादिदक्षपादान्तम, ॐ हं प्राणात्मभ्यां मेघनादसुभगाभ्यां नमः हृदयादिवामपादात्नम्, ॐ ळं शक्त्यात्मभ्यां व्यासिकालरात्रिभ्यां नमः हृदयादिउदरात्नम् ॐ क्षं क्रोधात्मभ्यां गणेश्वरकालिकाभ्यां नमः हृदयादिमस्तकान्तम् ॥१२०-१३३॥

कलायुङ्मातृकायास्तु प्रजापतिऋषिः स्मृतः ।

छन्द उक्तं तु गायत्री देवता शारदाभिधा ॥ १३४ ॥

अब कलामातृका का विनियोगादि कहते हैं –

कलामातृका मन्त्र के प्रजापति ऋषि हैं, गायत्री छन्द है तथा ‘शारदा’ देवता हैं ॥१३४॥

कलामातृकाषडङ्गन्यासकथनम्

तारैः षडङ्गं कुर्वीत हस्वदीर्घान्तरस्थितैः ।

प्रणव के प्रारम्भ में तथा अन्त में दोनो ओर ह्स्व तथा दीर्घस्वरों को लगाकर षडङ्गन्यास का विधान किया गया है ॥१३५॥

विमर्श – विनियोग – अस्य श्रीकलामातृकान्यासस्य प्रजापतिऋषिः गायत्री छन्दः शारदादेवता हलोबीजानि स्वरा शक्तयः न्यासे विनियोग ।

ऋष्यादिन्यास –  ॐ प्रजापतिऋषये नमः, शिरसि,

ॐ गायत्रीछन्दसे नमः मुखे,        ॐ शारदादेवतायै नमः हृदि,

ॐ ह्ल्भ्यो बीजेभ्यो नमः गुहये,    ॐ स्वरशक्तिभ्यो नमः पादयोः

ॐ विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।

षडङ्गन्यास – अं ॐ आ हृदयाय नमः    इं ॐ ईं शिरसे स्वाहा,

उं ॐ ऊं शिखायै वषट्,        एं ॐ ऐं कवचाय हुम्

ओं ॐ औं नेत्रत्रयाय वौषट्        अं ॐ अः अस्त्राय फट् ॥१३४-१३५॥

शङ्खचक्राब्जपरशुकपालान्यक्षमालिकाम् ॥ १३५ ॥

पुस्तकातकुम्भौ च त्रिशूलं दधतीं करैः।

सितपीतासितश्वेतरक्तवर्णैस्त्रिलोचनैः ॥ १३६ ॥

पञ्चास्यैः संयुतां चन्द्रसकान्तिं शारदां भजे ।

अब शारदा देवी का ध्यान कहते हैं –

अपने हाथों में शंख, चक्र, परशु, कपाल, अक्षमाला, पुस्तक, अमृतकुम्भ और त्रिशूल धारण की हुई श्वेत, पीत, कृष्ण, श्वेत तथा रक्त वर्ण के पञ्चमुखों से युक्त त्रिनेत्रा तथा चन्द्रमा जैसी शरीर की आभा वाली शारदा देवी का मैं ध्यान करता हूँ ॥१३५-१३७॥

ध्यात्वैवं तारपूर्वा तां न्यसेन्डेन्तकलान्विता ॥ १३७ ॥

इस प्रकार ध्यान कर प्रारम्भ में प्रणव फिर चतुर्थ्यन्त कला लगा कर कलान्यास करना चाहिये ॥१३७॥

निवृत्तिश्च प्रतिष्ठा च विद्याशान्तिस्तथेन्धिका ।

दीपिका रेचिका चापि मोचिका च पराभिधा ॥ १३८ ॥

सूक्ष्मासूक्ष्मामृताज्ञानामृता चाप्यायनी ततः ।

व्यापिनी व्योमरूपा चानन्तासृष्टि: सऋद्धिका ॥ १३९ ॥

स्मृतिर्मेधाततःकान्तिर्लक्ष्मीद्युतिः स्थिरास्थितिः ।

सिद्धिर्जरापालिनी च क्षान्तिरीश्वरिका रतिः ॥ १४० ॥

कामिकावरदा चाथालादिनी प्रीतिसंयुता ।

दीर्घातीक्ष्णा तथा रौद्रीभयानिद्रा च तन्द्रिका ॥ १४१ ॥

क्षुधास्यात्क्रोधिनीपश्चात्रियोत्कारी समृत्युका ।

पीताश्वेतारुणापश्चादसितानन्तयान्विता ॥ १४२ ॥

अब कलामातृकाओं का न्यास का प्रकार कहते हैं –

निवृत्ति, प्रतिष्ठा विद्या, शान्ति, इन्घिका, दीपिका, रेचिका, मोचिका, पराभिधा, सूक्ष्मा, सूक्ष्मामृता, ज्ञानामृता, आप्यायनी, व्यापिनी, व्योमरुपा, अनन्ता, सृष्टि, ऋद्धिका, स्मृति, मेधा, कान्ति, लक्ष्मी, द्युति, स्थिरा, स्थिति, सिद्धि, जरा, पालिनी, क्षान्ति, ईश्वारिका, रति, कामिका, वरदा, आहलादिनी, प्रीति, दीर्घा, तीक्ष्णा, रौद्री, भया, निद्रा, तन्द्रिका, क्षुधा, क्रोधिनी, क्रिया, उत्कारी समृत्युका पीता, श्वेता, अरुणा सिता और अनन्ता ये ५१ कलाएं कही गई हैं ॥१३८-१४२॥

विमर्श – न्यासविधि –     ॐ अं निवृत्यै नमः ललाटे,

ॐ आं प्रतिष्ठायै नमः मुखवृत्ते,        ॐ इं विद्यायै नमः दक्षनेत्रे,

ॐ ई शान्त्यै नमः वामनेत्रे            ॐ उं इन्धिकायै नमः दक्षकर्णे,

ॐ ऊं दीपिकायै नमः वामकर्णे        ॐ ऋं रेचिकायै नमः दक्षनासापुटे

ॐ ऋं मोचिकायै नमः वामनासापुटे,        ॐ लृं पराभिधायै नमः दक्षगण्डे

ॐ लृं सूक्ष्मायै नमः वामगण्डे,        ॐ एं सूक्ष्मामृतायै नमः ओष्ठे,

ॐ ऐं ज्ञानामृतायै नमः अधरे,        ॐ ओं आप्यायिन्यै नमः ऊर्ध्वदन्तपंक्तौ,

ॐ औं व्यापिन्यै नमः अधःदन्तपंक्तौ        ॐ अं व्योमरुपायै नमः शिरसि,

ॐ अः अनन्तायै नमः मुखे            ॐ कं सृष्टयै नमः जिहवाग्रे,

ॐ खं ऋद्धिकायै नमः कण्ठदेशे        ॐ गं स्मृत्यै नमः दक्षबाहुमूले,

ॐ घं मेधायै नमः दक्षकूर्परे            ॐ ङं कान्त्यै नमः दक्षमणिबन्धे,

ॐ चं लक्ष्म्यै नमः दक्षहस्ताड्‌गुलिमूले,    ॐ छं द्युत्यै नमः दक्षहस्ताड्‌गुल्यग्रे,

ॐ जं स्थिरायै नमः वामबाहुमूले,        ॐ झं स्थित्यै नमः वामकूर्परे,

ॐ ञं सिद्धयै नमः वाममणिबन्धे        ॐ टं जरायै नमः वामहस्तांगुलिमूले,

ॐ ठं पालिन्यै नमः वामहस्ताड्‌गुल्यग्रे    ॐ डं क्षान्त्यै नमः दक्षपादमूले,

ॐ ढं ईश्वरिकायै नमः दक्षजानौ         ॐ णं रत्यै नमः दक्षगुल्फे,

ॐ तं कामिकायै नमः दक्षपाड्‌गुलिमूले    ॐ थं वरदायै नमः दक्षपाड्‌गुल्यग्रे,

ॐ दं आहलादिन्यै नमः वामपादमूले,        ॐ धं प्रीत्यै नमः वामजानौ,

ॐ नं दीर्घायै नमः वामगुल्फे,            ॐ पं तीक्ष्णायै नमः वामपादाड्‍गुलिमूले,

ॐ फं रौद्रयै नमः वामपादाड्‌गुल्यग्रे        ॐ बं भयायै नमः दक्षपार्श्वे,

ॐ भं निद्रायै नमः वामपार्श्वे            ॐ मं तन्द्रिकायै नमः पृष्ठे,

ॐ यं क्षुधायै नमः वामपार्श्वे            ॐ रं क्रोधिन्यै नमः हृदि,

ॐ लं क्रियायै नमः दक्षांसे,            ॐ वं उत्कार्यै नमः ककुदि,

ॐ शं समृत्युकायै नमः वामांसे,

ॐ षं पीतायै नमः हृदयादिदक्षहस्तान्तम्

ॐ सं श्वेतायै नमः हृदयादिवामहस्तान्तम्

ॐ हं अरुणायै नमः हृदयादिदक्षपादन्तम्

ॐ ळं सितायै नमः हृदयादिवामपादान्तम्,

ॐ क्षं अनन्तायै नमः हृदयादिमस्तकान्तम् ॥१३७-१४२॥

उक्ता कलामातृकैवं तत्तद्भक्तः समाचरेत्  ।

ततः स्वमूलमन्त्रस्य न्यासान्कल्पोदितांश्चरेत् ॥ १४३ ॥

इस प्रकार विविध देवताओं का कलामातृका न्यास कहा गया । अतः कही गई विधि के अनुसार साधकों को अपने अपने इष्ट देवताओं का कलान्यास करना चाहिये । तदनन्तर कल्पग्रन्थों में कही गई विधि के अनुसार अपने अपने मूलमन्त्र के न्यासों को भी करना चाहिये ॥१४३॥

ऋषिश्छन्दोदैवतानि मूर्ध्नि वक्त्रेहृदि न्यसेत् ।

बीजं गुह्ये पदोः शक्तिमङ्गानि करयोरपि ॥ १४४ ॥

अब ऋष्यादिन्यास कहते हैं –

मूल मन्त्र के ऋषि का शिर, पर, छन्द का मुख पर, देवता का हृदय पर, बीज का गुह्य में तथा शक्ति का पैरों पर न्यास करना चाहिये । फिर अङ्गन्यास तथा करन्यास भी करना चाहिये ॥१४४॥

अङ्गुष्ठादिष्वगुलीषु करस्य तत्त्वपृष्ठयोः ।

अगुष्ठाभ्यां तर्जनीभ्यां नमइत्यादिकं वदेत् ॥ १४५॥

अब करन्यास विधि कहते हैं –

अड्‌गुष्ठादि अड्‌गुलियों पर तथा करतल करपृष्ठ पर न्यास करते समय अड्‌गुष्ठाभ्यां नमः, तर्जनीभ्यां नमः, मध्यमाभ्यां नमः, अनामिकाभ्यां नमः, कनिष्ठाभ्यां नमः एवं करतलपृष्ठाभ्यां नमः ऐसा कहना चाहिये ॥१४५॥

हृदयादिष्वथाङ्गानि जातियुक्तानि विन्यसेत् ।

स्वस्वमुद्राभिरधुना प्रोच्यन्ते जातयश्च ताः ॥ १४६ ॥

अब अङ्गन्यास का विधान करते हैं –

अपनी अपनी मुद्रा एवं जातियों के साथ हृदादि अङ्गों पर न्यास करना चाहिये । अब उन उन मुद्राओं को तथा जातियों को कहा जा रहा है ॥१४६॥

हृदयाय नमश्चेति शिरसे स्वाहया युतम् ।

शिखायैवषडङ्ग च कवचाय हुमित्यपि ॥ १४७ ।।

नेत्रत्रयाय वौषट् स्यादस्त्राय फडितीरितम् ।

जातिषट्कं द्विनेत्रे तु नेत्राभ्यां वौषडुच्चरेत् ॥ १४८ ॥

पञ्चाङ्गे नेत्रसन्त्यागो मुद्राङ्गानामथोच्यते ।

हृदयाय नमः शिरसे स्वाहा, शिखायै वषट्‍ कवचाय हुम्, नेत्रत्रयाय वौषट्‍ तथा अस्त्राय फट् से ६ जाति कही जाती है । दो नेत्रवाले देवता के न्यास में ‘नेत्रभ्यां वौषट्’ ऐसा कहना चाहिये । जहाँ पञ्चागन्यास करना हो वहाँ नेत्रन्यास वर्जित हैं ॥१४७-१४९॥

विष्णवाद्यङ्गमुद्राकथनम्

प्रसारितमनगुष्ठ तर्जन्यादि चतुष्टयम् ॥ १४९ ॥

हृदिमूर्ध्नि हि चाङ्गुष्ठहीनोमुष्टिः शिखातले ।

स्कन्धमारभ्य नाभ्यन्ता दशाङ्गुल्यस्तु वर्मणि ॥ १५० ॥

तर्जन्यादित्रयं नेत्रत्रये नेत्रद्वये द्वयम् ।

प्रसारिताभ्यां हस्ताभ्यां कृत्वा तालत्रयं सुधीः ।। १५१ ॥

तर्जन्यगुष्ठयोरग्रे स्फालयन्बन्धयन्दिशः ।

एषास्त्रमुद्रा श्रीविष्णोरङ्गमुद्रा उदीरिताः ॥ १५२ ॥

अब अङ्गन्यास की मुद्रायें कहते हैं –

अड्‌गूठे के अतिरिक्त शेष तर्जनी आदि ४ अड्‌गुलियों को फैला कर हृदय और शिर पर पुनः अड्‌गूठा रहित मुट्ठी से शिखा पर तथा कन्धे से लेकर नाभि पर्यन्त, दश अड्‌गुलियों से कवच पर, तीन नेत्र वाले देवता के न्यास में तर्जनी आदि ३ अड्‌गुलियाँ तथा दो नेत्र वाले देवता के न्यास में तर्जनी और मध्यमा इन दो अड्‌गुलियों से न्यास करना चाहिये । हाथ को फैलाकर ३ बार ताली बजाकर साधक तर्जनी और अड्‌गूठे के अग्रभाग को फैलाते हुये दिग्बधन करे – यह अस्त्र मुद्रा कही गई है  । विष्णु के अङ्गन्यास की मुद्रायें कही गई हैं ॥१४९-१५२॥

हृद्यगुलित्रयं न्यस्येत्तजन्यादिद्वयं तुके ।

शिखाप्रदेशेथागुष्ठं दशाङ्गुल्यस्तु वर्मणि ॥ १५३ ॥

हृद्वन्नेत्रं पूर्वमस्त्रं शक्तरङ्गस्य मुद्रिकाः ।

तर्जनी आदि तीन अङ्गगुलियों को फैलाकर हृदय पर, दो अड्‌गुलियों से शिर पर, अड्‌गूठे से शिखा पर, दशों अड्‌गुलियों से वर्म पर, हृदय के समान हो नेत्र पर तथा पूर्ववत् विष्णु के न्यास के समान अस्त्र पर न्यास करना चाहिये । यहाँ तक शक्ति न्यास की मुद्रायें कही गई ॥१५३-१५४॥

मुष्टीविनिर्गतागुष्ठौ संयुक्तौ हृदि विन्यसेत् ॥ १५४ ।।

निस्तर्जनी तादृशी तु शिरस्यथ शिखातले ।

निरङ्गुष्ठकनिष्ठौ तौ निरगुष्ठप्रदेशिनी ॥ १५५॥

मुष्टीपृथक्कृतौ स्कन्धाद्धृदन्तं वर्मणि स्मृतौ ।

तजन्यादित्रयं नेत्रे तलास्फोटोऽस्त्रमीरितम् ॥ १५६ ॥

शैवी षडङ्गमुद्रोक्ता वर्णन्यासमथाचरेत् ।

जप्त्वा चाप्यफलामन्त्रा विघ्नदा न्यासमन्तरा ॥ १५७ ॥

अड्‌गूठे को बाहर निकाल कर बनी मुष्टि की मुद्रा से हृदय पर, तर्जनी और अड्‌गूठा के अतिरिक्त शेष अड्‌गुलियों को मिलाकर मुट्ठी बनाकर शिर पर न्यास करना चाहिये । अड्‍गूठा और कनिष्ठा रहित मुटिठयों से शिखा पर, अङ्‍गूठा और तर्जनी रहित मुटिठयों से कवच पर तथा तर्जनी आदि ३ अङ्‌गुलियों से नेत्र पर न्यास करन चाहिये। दोनो हथेली को बजा देने से अस्त्र मुद्रा बन जाती है ये शिव के षङ्गन्यास की मुद्रायें कही गई ॥१५४-१५७॥

इसके बाद वर्णन्यास करना चाहिये । न्यास किये बिना मन्त्र का जप निष्फल और विघ्नदायक कहा गया है ॥१५७॥

पीठन्यासकथनम्

पीठस्य देवतान्यासादेहे पीठं प्रकल्पयेत् ।

न्यसेन्मण्डूकमाधारे स्वाधिष्ठाने ततः सुधीः ॥ १५८ ॥

कालाग्निरुद्र नाभौ तु कच्छपं हृदये ततः।

आधारशक्तिमारभ्य हेमपीठावधि न्यसेत् ॥ १५९ ॥

पीठ देवताओं के न्यास करने के लिये अपेन शरीर को ही पीठ मान लेना चाहिए । साधक को मूलाधार पर मण्डूक का, स्वाधिष्ठान पर कालाग्नि का, नाभि पर कच्छप का तथा हृदय में आधार शक्ति से आरम्भ कर (कूर्म, अनन्त,पृथ्वी, सागर, रत्नद्वीप, प्रासाद एवं) हेमपीठ तक का न्यास करना चाहिये (द्र० १.५०-५६) ॥१५८-१५९॥

दक्षवामांसवामोरुदक्षोरुषु यथाक्रमात् ।

धर्मो ज्ञानं च वैराग्यमैश्वर्य विन्यसेत्ततः ॥ १६० ॥

वदने वामपार्वे च नाभौ दक्षिणपार्श्वके ।

फिर दाहिने कन्धे, बायें कन्धे, वाम ऊरु एवं दक्षिण ऊरु पर क्रमशः धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य का न्यास करना चाहिये और मुख, वाम पार्श्व नाभि एवं दक्षिण पार्श्व पर क्रमशः अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य, और अनैश्वर्य का न्यास करना चाहिये ॥१६०-१६१॥

अधर्मादीन्प्रविन्यस्य हृद्यनन्तमितोऽम्बुजम् ॥ १६१॥

पदमे सूर्येन्दुवह्नींश्च तेष्वर्णाद्यानिजाः कलाः ।

तत्तन्नामादि वर्णाद्यान्सत्त्वाधास्त्रीनगुणान्यसेत् ॥ १६२ ॥

तत्रात्मत्रयमाद्यर्णपूर्व तुर्य परादिकम् ।

इसके बाद पुनः हृदय में (अनन्त से पद्म तक तल्पाकार अनन्त, आनन्दकन्द, सविन्नाल, पद्म, प्रकृतिमय, पत्र, विकारमय केसर तथा रत्नमय पञ्चाशद्‌बीजाढ्य कर्णिका का) न्यास कर, पद्म पर सूर्य की (तपिनी आदि १२) कलाओं का, चन्द्रमण्डल की (अमृता आदि १६) कलाओं का तथा वह्निमण्डल की (धूम्रार्चिष् आदि १०) कलाओं का नाम तथा उन कलाओं के आदि में वर्णो के प्रारम्भ के अक्षरों को लगाकर न्यास करना चाहिये । फिर अपने नाम के आद्यक्षर सहित सत्त्वादि तीन गुणों का न्यास करना चाहिये । तत्पश्चात् अपने नाम के आदि वर्ण सहित आत्मा अन्तराल और परमात्मा का तथा आदि में परा (ह्रीं) लगाकर ज्ञानात्मा का न्यास करना चाहिये ॥१६१-१६३॥

मायातत्त्वं कलातत्त्वं विद्यातत्त्वं ततो न्यसेत् ।। १६३ ॥

परतत्त्वं च नामादिवर्णपूर्वाणि विन्यसेत् ।

स्वपीठशक्तिर्विन्यस्य न्यसेत्पीठमनुं निजम् ॥ १६४ ॥

हृदि न्यस्यानन्तमुखं देवानामुत्तरोत्तरम् ।

प्रत्याधारत्वमुदितं पूर्वपूर्वस्य सत्तमैः ॥ १६५ ॥

पुनः माया तत्त्व, कलातत्त्व, विद्यातत्त्व और परतत्त्व का भी अपने नाम के आदि वर्ण सहित न्यास करना चाहिये। तदनन्तर पीठ शक्तियों का न्यास कर अपने पीठ मन्त्र का भी न्यास करना चाहिये । हृदय में अनन्त आदि देवों को उत्तरोत्तर एक दूसरे का आधार माना गया हैं (द्र०. १. ५०-५६) क्योंकि सज्ज्नों ने पूर्व पूर्व का उत्तरोत्तर आधार कहा है ॥१६३-१६५॥

विमर्श – पीठन्यास – प्रयोगविधि – अपने संप्रदाय में (वैष्णव शैव, शाक्त, गाणपत्य एवं सौर) कल्पोक्त करन्यास, अङ्गन्यास तथा वर्णन्यासों के करने के बाद अपने शरीर को इष्टदेवता का पीठ मानकर उसके विधि अङ्गों पर पीठ देवताओं का इस प्रकार न्यास करना चाहिये – ॐ मण्डूकाय नमः मूलाधारे, ॐ कालाग्निरुद्राय नमः स्वाधिष्ठाने, ॐ कच्छपाय नमः नाभौ, ॐ आधारशक्तयै नमः हृदि, ॐ प्रकृतये नमः हृदि, ॐ कूर्माय नमः हृदि, ॐ अनन्ताय नमः हृदि, ॐ पृथिव्यै नमः हृदि ॐ क्षीरसागराय नमः हृदि ॐ रत्नद्वीपाय नमः हृदि ॐ मणिमण्डपाय नमः हृदि, ॐ कल्पवृक्षाय नमः हृदि, ॐ मणिवेदिकयै नमः हृदि, ॐ हेमपीठाय नमः हृदि ।

पुनः धर्म अदि का तत्तस्थानों में इस प्रकार न्यास करना चाहिए । यथा –

ॐ धर्माय नमः दक्षिणस्कन्धे, ॐ ज्ञानाय नमः वामस्कन्धे, ॐ वैराग्याय नमः वामोरी, ॐ ऐश्वर्याय नमः दक्षिणोरीः ॐ अधर्माय नमः मुखे, ॐ अज्ञानाय नमः वामपार्श्वे, ॐ अवैराग्याय नमः नाभौ, ॐ अनैश्वर्याय नमः दक्षिणपार्श्वे ।

तदनन्तर हृदय में अनन्त आदि देवताओं का निम्नलिखित मन्त्रों से न्यास करना चाहिए । यथा –

ॐ तल्पाकारायानन्ताय नमः हृदि,

ॐ आनन्तकन्दाय नमः हृदि        ॐ संविन्नालाय नमः हृदि,

ॐ सर्वतत्त्वात्मकपद्माय नमः हृदि,    ॐ प्रकृतमयपत्रेभ्यो नमः हृदि

ॐ विकारमयकेसरेभ्यो नमःहृदि,    ॐ पञ्चाशद्‌बीजाढ्यकर्णिकायै नम्ह हृदि

ॐ अं सूर्यमण्डलाय द्वादशकलात्मने नमः

पुनः हृत्पद्म पर – ॐ कं भं तपिन्यै नमः ॐ खं बं तापिन्यै नमः

ॐ गं फं धूम्रायै नमः        ॐ घं पं मरीच्यै नमः     ॐ ङं नं ज्वालिन्यै नमः,

ॐ चं धं रुच्यै नमः,        ॐ छं दं सुषुम्णायै नमः,    ॐ जं थं भोगदायै नमः,

ॐ झं तं विश्वायै नमः        ॐ ञं णं बोधिन्यै नमः,

ॐ टं ढं धारिण्यै नमः        ॐ ठं डं क्षमयै नमः ।

पुनस्तत्रैव – ॐ उं सोममण्डलाय षोडशकलात्मने नमः

ॐ अं अमृतायै नमः,        ॐ आं मानदायै नम्ह,        ॐ इं पूषायै नमः

ॐ ईं तुष्टयै नमः        ॐ उं पुष्टयै नमः        ॐ ऊं रत्यै नमः

ॐ ऋं धृत्यै नमः        ॐ ऋं शशिन्यै नमः        ॐ लृं चण्डिकायै नमः

ॐ ल्रुं कान्त्यै नमः        ॐ एं ज्योत्स्नायै नमः    ॐ ऐं श्रियै नमः

ॐ ओं प्रीत्यै नमः        ॐ औं अङ्गदायै नमः        ॐ अं पूर्णायै नमः

ॐ अः पूर्णामृतायै नमः ।

पुनस्तत्रैव – ॐ रं वह्निमण्डलाय दशकलात्मने नमः,

ॐ यं धूम्रार्चिषे नमः,        ॐ रं ऊष्मायै नमः,        ॐ लं ज्वलिन्यै नमः

ॐ वं ज्वालिन्यै नमः        ॐ शं विस्फुलिङ्गिन्यै नमः,    ॐ षं शुश्रियै नमः,

ॐ सं स्वरुपायै नमः        ॐ हं कपिलायै नमः,        ॐ ळं हव्यवाहनायै नमः

पुत्रस्तत्रैव – ॐ सं सत्त्वाय नमः,    ॐ रं रजसे नमः,

ॐ तं तमसे नमः        ॐ आं आत्मने नमः,        ॐ अं अन्तरात्मने नमः,

ॐ पं परमात्मने नमः,    ॐ ह्रीं ज्ञानात्मने नमः,    ॐ मां मायातत्त्वाय नमः,

ॐ कं कलातत्त्वाय नमः,    ॐ विं विद्यातत्त्वाय नमः,    ॐ पं परतत्त्वाय नमः ।

उपर्युक्त रीति से सभी न्यास सभी देवताओं की उपासना में विहित है । इसके बाद हृत्पद्म के पूर्वादि केसरों पर तत्तद्‌देवताओं की कल्पोक्त पीठ शक्तियों का न्यास करना चाहिये । तदनन्तर पुनः हृदय के मध्य में पीठमन्त्र से न्यास करना चाहिये ॥१५९-१६५॥

स्वागताधुपचारैर्मानसपूजाविधिकथनम्

इति देहमये पीठे ध्यायेत्स्वाभीष्टदेवताम् ।

तत्तन्मुद्रां प्रदाथ कुर्यान्मानसपूजनम् ॥ १६६ ॥

इस प्रकार अपने देहमय पीठ पर अपने इष्ट देवता का ध्यान करना चाहिये । तदनन्तर उनकी मुद्रायें प्रदर्शित कर मानस पूजा भी करनी चाहिये ॥१६६॥

अथार्चयेत्ततो देवं मन्त्रेणानेन तन्मनाः ।

स्वागतं देवदेवेश सन्निधौ भव केशव ॥ १६७ ॥

गृहाण मानसीं पूजां यथार्थपरिभाविताम् ।

केशवेतिपदस्थाने कार्य ऊहोन्यदैवते ॥ १६८ ॥

मानस पूजा करते समय तन्मय हो कर इन मन्त्रों से इष्टदेव का पूजन भी करना चाहिये ।

इसी प्रकार अन्य देवताओं के मानस पूजन में केशव के स्थान में शंकर, पार्वती, गणेश, दिनेश, आदि पद का ऊह कर के उच्चारण करना चाहिये ॥१६७-१६८॥

मनसा पूजयित्वैवं क्षणं तद्गतमानसः ।

स्थित्वामूलमनु विद्वाजपेदष्टोत्तर शतम् ॥ १६९ ॥

मानस पूजा विधि – सर्वप्रथम अपने इष्टदेव के स्वरुप का ध्यान कर उनकी मुद्रा प्रदर्शित करे । तदनन्तर तन्मय हो कर ‘स्वागत’ आदि मन्त्र से उनका स्वागत कर सन्निधिकरण करे । फिर मानसोपचारों से उनका पूजन करे । इस प्रकार मानस पूजा करने के बाद साधक कुछ क्षणों के लिये तन्मय हो इष्टदेव के मूल मन्त्र का १०८ बार जप करे ॥१६९॥

जपं निवेद्य देवाय स्थापयेदर्यमुत्तमम् ।

बाह्यसंपूजनायाथ तत्प्रकारो निगद्यते ॥ १७० ॥

तदनन्तर देवता को जप समर्पित कर विशेषार्घ्य भी स्थापित करना चाहिये । यहाँ तक मानस पूजा का प्रकार कहा गया । अब बाह्य पूजा के लिये उसकी विधि निरुपण करता हूँ ॥१७०॥

॥ इति श्रीमन्महीधरविरचिते मन्त्रमहोदधौ देवस्य स्नानादिनिरूपणंनामैकविंशस्तरङ्गः ॥ २१ ॥

॥ इस प्रकार श्रीमन्महीधर विरचित मन्त्रमहोदधि के एकविंश तरङ्ग की महाकवि पं० रामकुबेर मालवीय के द्वितीय आत्मज डॉ० सुधाकर मालवीय कृत ‘अरित्र’ नामक हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ २१ ॥

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