मतंग ऋषि का जीवन परिचय – Matang Rishi Biography
वैसे ही त्रेतायुगीय शबरी के गुरु मतङ्ग एवं द्वापरयुगीन महाभारत के मतंग दो भिन्न व्यक्ति है,
मतंग ऋषि_आप महातपस्वी, योगी,त्यागी, वीतराग एवं सिद्ध महात्मा थे। हजारों वर्षों तक समाधि में रहते थे। इनकी ख्याति सर्वत्र व्याप्त थी। आप परम् अहिंसा व्रत का पालन करते थे।इनके अहिंसा व्रत के प्रभाव से आश्रम के चारों ओर विरोधी स्वभाव वाले जीव-जंतु भी परस्पर विरोध का त्याग करके सद्भाव पूर्वक रहते थे।
इनका विशेष जीवन-चरित्र बाल्मीकीय रामायण के अरण्य कांड के ७३-७४वें सर्ग में वर्णित है।
भगवान श्रीराम का लक्ष्मण सहित कन्दमूल फल से स्वागत करने के अनन्तर शबरी वन में जाकर गुरु जी का आश्रम उन्हें दिखाते हुए, मतंग ऋषि का चरित्र सुनाते हुए कहती हैं—– “हे राम ! जिस समय आप सीता लक्ष्मण सहित चित्रकूट में पधारे थे, उस समय मैं ही गुरु महाराज की सेवा करती थी। वे अति वृद्ध थे। योग समाधि द्वारा अपने शरीर का त्याग कर जाने की इच्छा उन्होंने की, तब मैंने भी शरीर त्याग कर जाने की इच्छा प्रकट की।’
इसपर गुरुजी ने मुझे मना करते हुए कहा—–“हे धर्मज्ञे !!! तुम इसी आश्रम में रहो, इसी पवित्र आश्रम में पूर्ण-परब्रह्म , श्रीराम के रूप में, लक्ष्मण सहित पधारेंगे।
तुम दोनों का आतिथ्य-सत्कार पूर्वक दर्शन करते हुए अपने अविनाशी रूप को प्राप्त होओगी।’
हे पुरुषश्रेष्ठ ! ऐसा कहकर गुरु जी ने शरीर त्याग दिया। उनके अनन्तर मैं आपकी प्रतीक्षा करती हुई आश्रम में ही रहने लगी।
शबरी ने श्रीराम को उनका आश्रम दिखाते हुए कहा— ‘हे रघुनंदन ! इस स्थान पर स्नानादि करने के अनन्तर गुरुजी बैठकर सन्ध्योपासना तथा अग्निहोत्र करने के उपरांत अपने वृद्ध कांपते हाथों से स्वयं पुष्प तोड़कर तथा उनका सुंदर हार बनाकर देवताओं को समर्पित किया करते थे।
हे रघुराम ! उनके तपस्या के प्रभाव से जिस चबूतरे पर बैठ कर वे पूजा करते थे, उस चबूतरे से दशों-दिशाओं को प्रकाशित करने वाला अतुलित प्रकाश आज भी निकल रहा है।
मेरे गुरुदेव द्वारा चढ़ाए गए पुष्प तेरह वर्ष व्यतीत हो जाने पर, आज भी ज्यों के त्यों है, वे मुरझाए नहीं है।’
अब आप गुरु जी का दूसरा चमत्कार देखें।
गुरु जी अत्यंत वृद्ध होने के कारण जब सम्पूर्ण तीर्थों की यात्रा करने में असमर्थ हुए, तब उन्होनें यहीं पर बैठे ही बैठे सात समुद्रों तथा नदियों का आवाहन किया, तो उनके स्नान के लिए सातों समुद्र यहां आये हुए देखे गए।
वे अपने वृद्ध हाथों से जिन पेडों की सिंचाई करते थे, उनके तप के प्रभाव से वह जल आजतक भी नहीं सूखा है।।
इतना कहने के पश्चात शबरी ने स्तुति करने के अनन्तर कहा—- “मैं अब आपका दर्शन करते हुए इस शरीर को त्यागना चाहती हूं।” भगवान की आज्ञा से शबरी ने योगाग्नि में शरीर त्यागकर गुरुजी का ब्रह्मलोक प्राप्त किया।
बाल्मीकि रामायण में शबरी द्वारा कहे हुए मतङ्गऋषि का चरित्र निष्कलंक आदर्श एवं तपोमय सिद्ध होता है।
मतंग रामायण कालीन एक ऋषि थे, रामायण के अनुसार ऋष्यमूक पर्वत के निकट इनका आश्रम था, जहाँ श्रीराम गए थे।
जनश्रुति के अनुसार इनका काल छठी सदी है । प्रोफेसर रामकृष्ण कवि इनका काल 9 वी सदी का मध्य भाग मानते हैं । मतंग के ग्रंथ का नाम जिए देसी है इसमें 8 अध्याय हैं। इस ग्रंथ में ताल और वाद्य पर विचार किया गया । इस ग्रंथ में देशी शब्द कई अर्थों में प्रकट हुआ है।
1 ध्वनि को देशी कहते हैं इसलिए इसका अर्थ व्यापक है।
2 इन्होंने भाषा को भी देशी कहा है ।
तीसरे स्तर पर इन्होंने संगीत को देशी कहा है तथा चौथे स्तर पर इन्होंने संगीत को दो भागों में बांटा है । देशी का व्यापक अर्थ होने के कारण इस ग्रंथ का नाम बृहद्देशि पडा है। मतंग ने कश्यप, नंदी, कोहल, दतिल, शार्दुल की चर्चा की है।
नाटय शास्त्र के बाद तथा संगीत रत्नाकर के पहले का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है उस समय की परंपरा का अनुमान गृह देसी से मिलता है। इसमें नाद का निरुपण मिलता है। श्रुति और स्वरों के बीच के संबंध पर दार्शनिक दृष्टि से इस ग्रंथ में विचार किया गया है ।
मतंग चित्रा वीणा के श्रेष्ठ वादक थे इसलिए इन्हें चैत्रिक कहा जाता था। प्रोफेसर रामकृष्णन कवि के अनुसार किन्नरी वीणा के अविष्कारक मतंग ऋषि माने जाते हैं। मिथुन की किन्नरी वीणा पर 14 पर्दे होते थे वैसे उनकी संख्या 18 हो सकती थी। आधुनिक वे सभी तंत्री वाद्य किन्नरी वीणा के विकसित रूप हैं जिन पर सारीकायें विद्यमान हैं। मतन्ग के देसी रागों को भी ग्रामों में वर्गीकृत किया है। 14 पर्दे वाली किन्नरी वीणा पर संपूर्ण मंद्र सप्तक संपूर्ण मध्य सप्तक एवं तार सप्तक के केवल एक स्वर की प्राप्ति होती थी।
शबरी के आश्रयदाता*
पिता ने शबरी का विवाह एक लड़के से कराना चाहा। ,d fnu शबरी का मन बड़ा ही द्रवित हो उठा और वह आधी रात को भाग खड़ी हुई। भागते हुए एक दिन वह दण्डकारण्य में पम्पासर पहुँच गयी। वहाँ ऋषि मतंग अपने शिष्यों को ज्ञान दे रहे थे। शबरी का मन बहुत प्रभावित हुआ और उन्होंने उनके आश्रम से कुछ दूर अपनी छोटी-सी कुटिया बना ली। एक दिन मतंग के शिष्यों ने उन्हें देख लिया गया और मतंग ऋषि के सामने लाया गया। मतंग ऋषि ने कहा की एक दिन श्रीराम तुझे दर्शन देंगे। वो तेरी कुटिया में आयेंगे।
बालि को शाप
मतंग ऋषि के शाप के कारण ही वानरराज बालि ऋष्यमूक पर्वत पर आने से डरता था। इस बारे में कहा जाता है कि दुंदुभी नामक एक दैत्य को अपने बल पर बड़ा गर्व था, जिस कारण वह एक बार समुद्र के पास पहुँचा तथा उसे युद्ध के लिए ललकारा। समुद्र ने उससे लड़ने में असमर्थता व्यक्त की तथा कहा कि उसे हिमवान से युद्ध करना चाहिए। दुंदुभी ने हिमवान के पास पहुँचकर उसकी चट्टानों और शिखरों को तोड़ना प्रारम्भ कर दिया। हिमवान ऋषियों का सहायक था तथा युद्ध आदि से दूर रहता था। उसने दुंदुभी को इंद्र के पुत्र बालि से युद्ध करने के लिए कहा। बालि से युद्ध होने पर बालि ने उसे मार डाला तथा रक्त से लथपथ उसके शव को एक योजन दूर उठा फेंका। मार्ग में उसके मुँह से निकली रक्त की बूंदें महर्षि मतंग के आश्रम पर जाकर गिरीं। महर्षि मतंग ने बालि को शाप दिया कि वह और उसके वानरों में से कोई भी यदि उनके आश्रम के पास एक योजन की दूरी तक जायेगा तो वह मर जायेगा। अत: बालि के समस्त वानरों को भी वह स्थान छोड़कर जाना पड़ा। मतंग का आश्रम ऋष्यमूक पर्वत पर स्थित था, अत: बालि और उसके वानर वहाँ नहीं जा सकते थे।
’छन्दोदेव’ के नाम से तुम्हारी ख्याति होगी और तीनों लोकों में तुम्हारी अनुपम कीर्ति का विस्तार होगा। इस प्रकार उसे वर देकर इन्द्र वहीं अन्तर्धान हो गये। मतंग भी अपने प्राणों का परित्याग करके उत्तम स्थान (ब्रहमलोक)- को प्राप्त हुआ।