माया तन्त्र पटल ६, मायातन्त्रम् षष्ठ: पटलः Maya Tantra Patal 6

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तन्त्र श्रृंखला में आगमतन्त्र से मायातन्त्र के पटल ६ में सुषुम्णा नाड़ी के मध्य स्थित सूर्य पर्व और चन्द्र पर्व तथा मन्त्रद्वय समुद्धार का वर्णन किया गया है।

अथ षष्ठः पटलः

श्रीदेवी उवाच

देवदेव! महादेव ! कथयस्वानुकम्पया ।

यदि न कथ्यते देव! विमुञ्चामि तदा तनुम् ॥ 1 ॥

सर्वतत्त्वमयस्त्वं हि सर्वयोगमयः सदा ।

सुषुम्णान्तर्गतं देव! यद् दृष्टं परेश्वर ।

एतद्रहस्यं परमं सर्वयोगोत्तमोत्तमम् ॥2 ॥

श्रीदेवी ने शंकर जी से कहा कि हे देवों के देव महादेव! तुम सब तत्त्वमय हो अर्थात् तुम सब तत्त्वों से युक्त हो तथा सभी योगों को जानने वाले हो । अतः मुझे यह बताओ कि सुषुम्णा नाड़ी के अन्तर्गत जो आपने देखा हो, इस सब योगों में उत्तम उत्तम रहस्य को मुझे बताओ । हे देव ! यदि तुम नहीं बताओगे तो मैं अपने शरीर को छोड़ दूंगी अर्थात् अपने प्राण दे दूंगी ॥1 – 2॥

श्रीईश्वर उवाच-

अधुना संप्रवक्ष्यामि सुषुम्णामध्यसंस्थितम् ।

सूर्यपर्व महेशानि चन्द्रपर्व तथैव ॥3॥

अब भगवान् शंकर ने कहा कि हे देवि ! अब मैं तुम्हें सुषुम्णा के मध्य स्थित सूर्य पर्व और चन्द्र पर्व को बताऊंगा ॥ 3 ॥

सुषुम्णावर्त्ममध्यस्थं सूर्यपर्व परात्परम् ।

यत्र ब्रह्मादयो देवा जपयज्ञेषु तत्पराः ॥4॥

सुषुम्णा नाड़ी में परात्पर एक-दूसरे के बाद सूर्य पर्व और चन्द्र पर्व स्थित हैं, जहाँ कि ब्रह्मा आदि देवता जप और यज्ञ में तत्पर हैं। वे लगातार जप और यज्ञ कर रहे हैं ॥ 4 ॥

किं पुनर्मानवाश्चैव वराकाः क्षुद्रबुद्धयः ।

पुष्करद्वीपवासाश्च ये चान्ये मानवाः प्रिये ॥5॥

तेषां च परमेशानि ! किञ्चित् सिद्धि प्रजायते ।

सूर्यपर्व वरारोहे बहुभाग्येन लभ्यते ॥6॥

जब ब्रह्मा आदि देवता ग्रहणकाल में जप यज्ञ कर रहे हैं, तब पुष्करद्वीप में रहने वाले बेचारे बेकार कम बुद्धि वाले मानवों की क्या कही जाये। अतः हे पार्वति ! उनकी भी कुछ सिद्धि हो जाती है। अतः हे देवि ! सूर्य का ग्रहण काल बड़े भाग्य से प्राप्त होता है ॥5-6॥

तथैव चन्द्रपर्वाख्यं जपयोग्यं सुदुर्लभम् ।

नातः परतरः कालः कश्चिदस्ति वरानने ॥ 7 ॥

उसी प्रकार चन्द्रग्रहण का काल जप के योग्य है, जो बहुत ही दुर्लभ है। अतः सुन्दर मुख वाली पार्वति ! इससे अच्छा समय अन्य कोई नहीं ॥7॥

सहस्त्रारे महापद्मे चन्द्रस्तिष्ठति सर्वदा ।

मूलाधारे महेशानि स्वयं सूर्यः प्रकाशते ॥8॥

अतः हे देवि ! सुषुम्णा नाड़ी में हजार कलियों वाले महापद्म (महाकमल) पर सूर्य सदा स्थित रहते हैं तथा सुषुम्णा के मूलाधार में स्वयं सूर्य सदा प्रकाशित रहते हैं ।। 8 ॥

स्वाधिष्ठाने तु देवेशि राहुस्तिष्ठति सर्वदा ।

चन्द्रसूर्यग्रहं देवि यदा भवति राहुतः ॥ 9 ॥

शंकर भगवान् ने कहा कि हे देवि ! सूर्य और चन्द्रमा को जब राहु ग्रस लेते हैं, तब सुषुम्णा के अधिष्ठान में राहु सदैव स्थित रहते हैं ॥ 9 ।।

तदैव सहसा देवि सहस्रारे मनो न्यसेत् ।

सूर्यपर्वणि माहेशि! मूलाधारे मनो दधे ॥ 10 ॥

उसी समय हे देवि ! सहस्रार हजार पंखुड़ियों वाले कमल में सहसा (अचानक ही) मन लग जाता है। अतः लगाना चाहिए। अत: हे महादेवि सूर्यग्रहण में मूलाधार में मन को लगाना चाहिए ।।10।।

ब्राह्मपर्व महेशानि! दृष्ट्वा पूर्णं च देशिकः ।

मनो निवेश्य चार्वङ्गि ! चन्द्रे च ब्रह्मपङ्कजे ॥11॥

सूर्ये वा चञ्चलापाङ्गि! सर्व भवति निष्फलम् ।

सुषुम्णाख्या नदी यत्र साक्षाद् ब्रह्मस्वरूपिणी ॥1 2 ॥

शंकरजी ने कहा कि हे महेशानि साधक पूर्ण ब्राह्मपर्व (पूर्णग्रहण) को देखकर ब्रह्मकमल और चन्द्र में मन को स्थित करके अथवा सूर्य में मन को पूरी तरह स्थित करके हे चञ्चल नेत्रों वाली पार्वति ! सब सांसारिक वस्तुएं निष्फल हो जाती है। जहाँ पर सुषुम्णा नदी है, जो साक्षात् ब्रह्मस्वरूप वाली है ।।11-12।।

गङ्गादिसर्वतीर्थानि प्रयागं बदरी तथा ।

हरिद्वारश्च चार्वङ्गि गया काशी सरस्वती ॥13 ॥

सिन्धुभैरवशोणाद्या ब्रह्मपुत्रश्च सुन्दरि ! ।

अयोध्या मथुरा काची काशी माया अवन्तिका ॥14 ॥

द्वारावती च तीर्थेशी भूत्वा प्रकृतिमूर्तितः ।

गयादिसर्वतीर्थानि तत्र तिष्ठन्ति सन्ततम् ॥15 ॥

तथा हे पार्वति ! वहाँ पर गङ्गा आदि सभी तीर्थ हैं तथा वहाँ प्रयाजराज और बदरीनाथ तीर्थ है तथा हे सुन्दर शरीर वाली देवी पार्वति ! हरिद्वार, गया और काशी तीर्थ है तथा सरस्वती, सिन्धु, भैरव, शोण और ब्रह्मपुत्र नदियां हैं। वहाँ अयोध्या, मधुरा, काञ्ची, काशी, माया, अवन्ती, तीर्थेशी, द्वारिकापुरी सभी प्रकृति की मूर्ति बनकर स्थित हैं। अतः गया आदि सभी तीर्थ वहाँ सदैव स्थित रहते हैं ॥13-15॥

चन्द्रसूर्यग्रहे देवि मनो ह्यन्तर्दधे शिवे ।

यः पश्येच्चञ्चलापाङ्गि सहस्रारे निशाकरम् ॥16॥

मूलाधारे महेशानि यः पश्येत् सूर्यपर्वणि ।

राहुग्रहसमायुक्तमन्तरात्मनि पार्वति ॥17॥

दृष्ट्वाश्चर्यमिदं भद्रे स्थापयेद् हृदयाम्बुजे ।

यत्र नित्या महामायां सुषुम्णा रुद्ररूपिणी ॥18 ॥

शंकर जी ने कहा कि हे देवि ! चन्द्र और सूर्यग्रहण में जो अपने मन को शिव में अन्तर्धान कर दे तथा जो सहस्रार कमल में चन्द्रमा को देखे तथा नाड़ी के मूलाधार में सूर्यग्रहण के समय अपनी अन्तरात्मा में राहु ग्रह से समायुक्त सूर्य को देखे तो वह देखकर यह आश्चर्य होगा कि हृदयकमल में नित्य रुद्ररूपिणी महामाया सुषुम्णा नाड़ी स्थित है ।।16-18।।

यस्या वामे इडा नाडी दक्षिणे पिङ्गला मता ।

स्नात्वा तत्र हृदे वीरः शिवशक्तिमयो भवेत् ॥19॥

जिसके वाम भाग में इडा नामक नाड़ी है और दक्षिण (दांये) भाग में पिङ्गला मानी गयी है। उस नद में स्नान कर वीर पुरुष शिव की शक्ति से युक्त हो जाता है ।।19।।

विशेष :- (ग) पाण्डुलिपि में स्नात्वा तत्र हृदे वीर के स्थान पर गयादि सर्वतीर्थान्तः पाठ है, जिसके अनुसार अर्थ होता है कि गया आदि सब तीथों के अन्तर्गत मनुष्य शिवशक्तिमय हो जाता है।

शिवशक्तिमयी साक्षात् सा सन्ध्या वरवर्णिनि ।

सन्ध्यास्नानं मयैतत् ते कथितं योगिदुर्लभम् ॥20॥

शंकर जी कहते हैं कि हे वरवर्णिन (श्रेष्ठ वर्ण वाली) पार्वति ! ग्रहणकाल में जो सन्ध्या हो जाती है अर्थात् जो कुछ समय सायंकालीन अन्धकार सा हो जाता है, वह सन्ध्या शिवशक्तिमयी होती है। उस सन्ध्या में स्नान करना योगियों के लिए दुर्लभ है, यह मैंने तुम्हे कहा है ॥20॥

सुषुम्णावर्त्ममध्यस्थं यद् दृष्टं वरवर्णिनि ! ।

दृष्ट्वा चन्द्रग्रहं भद्रे सूर्यं वा जपमाचरेत् ॥ 21 ॥

तावत्कालं जपेन्मन्त्रं यावन्मोक्षं वरानने ! ।

सुषुम्णा नाड़ी के मार्ग के मध्य स्थित हो, जिसने ग्रहण को देखा, उसे चन्द्र अथवा सूर्यग्रहण को देखकर जप करना चाहिए तथा हे सुमुखि ! तब तक जप करना चाहिये, जब तक चन्द्र अथवा सूर्यग्रहण समाप्त न हो जाये ।। 21।।

एतत् तत्त्वं महेशानि ब्रह्मा जानाति माधवः ॥22॥

इन्द्राद्या देवताः सर्वा बहुभाग्येन लभ्यते ।

ज्ञात्वा तत्त्वमिदं देवि ! देव्या नागादयोऽपरे ॥23॥

प्रजप्यते इष्टविद्या शीघ्रं सिद्धिमवाप्नुयात् ।

शंकर जी ने कहा कि हे महेशानि! इस कथित तत्त्व को साधक ब्रह्मा और माधव जानते हैं। इन्द्र आदि सभी देवता बड़े भाग्य से इस तत्त्व को प्राप्त करते हैं। इस तत्त्व को जानकर नाग आदि दूसरे लोग प्रकृष्टरूप से जप करते हैं और इष्ट विद्या की शीघ्र सिद्धि प्राप्त करते हैं ।। 22-23।।

पुष्करादिनिवासाश्च ये लोकाः सुरवन्दिते ! ।।24।।

ते सर्वे च महेशानि! किञ्चित् फलमवाप्नुयुः ।

भारते बहुकालेन सिद्ध्यन्ति नगनन्दिनि ! ॥25॥

पुष्कर आदि तीर्थ में जो लोग निवास करते हैं, वे सभी हे महेशानि! कुछ ही फल प्राप्त करते हैं अर्थात् उन्हें सूर्य एवं चन्द्रग्रहण का पूरा फल प्राप्त नहीं होता; क्योंकि पुष्कर आदि द्वीपों में सूर्य और चन्द्रमा प्रायः बहुत कम समय ही दिखायी देते हैं, जिन्हें उत्तरी ध्रुव या दक्षिणी ध्रुव कहा जाता है, वहाँ सूर्य-चन्द्र का नाम मात्र दर्शन होता है। अत: वहाँ उन्हें ग्रहण का फल कैसे प्राप्त होगा; परन्तु भारत में हे पर्वत पुत्रि ! सूर्य और चन्द्रग्रहण बहुत समय तक रहते हैं ॥24-25॥

विशेष-उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि पुष्कर द्वीप ग्रीन लैण्ड अथवा उत्तरी ध्रुव ही हो सकता है; क्योंकि वहीं पर सूर्य का दर्शन बहुत कम होता है।

नानादोषवृत्तः कालः कलिरेव तु मूर्तिमान् ।

ग्रहणे चन्द्रसूर्यस्य देवा नागादयोऽपरे ॥ 26 ॥

ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च ये चान्ये सुरसत्तमाः ।

चन्द्रसूर्यपदं गत्वा प्रजपन्तीष्टसिद्धये ॥27॥

यह कलिकाल अर्थात् कलियुग का समय अनेकों दोषों से युक्त है। इसमें साक्षात् कलि उपस्थित रहते हैं। सूर्य और चन्द्र के ग्रहण में देवता, नाग आदि दूसरे लोग ब्रह्मा, विष्णु और शिव और जो अन्य श्रेष्ठ देवता हैं, वे चन्द्र और सूर्य के पद को प्राप्त कर इष्ट सिद्धि के लिए दुर्गा का जाप करते ॥26-27॥

चन्द्रसूर्यग्रहे देवि ! यत् तेजः सूपजायते ।

तत् सर्वं चञ्चलापाङ्गि ! ब्रह्माद्यास्त्रिदिवौकसः ॥28॥

वहन्ति चञ्चलापाङ्गि ! मानुषास्त्वधमाःकुतः।

कलिकालस्य लोके तु भारते वरवर्णिनि ! ॥ 29 ॥

नानादोषाः प्रजायन्ते अतो नैव च सिद्धियति ।

चन्द्रसूर्यग्रहे देवि ! लोका भारतवासिनः ॥30॥

तत्पूजयेदेकभवत्या नान्यथा तु कदाचन ।

स्नानं दानं तथा श्राद्धमिन्दोः कोटिगुणं भवेत् ॥31॥

शंकर जी ने कहा कि हे देवि ! चन्द्र और सूर्य के ग्रहण के समय जो तेज उत्पन्न होता है, उस तेज को हे चञ्चल नेत्रों वाली पार्वति ! ब्रह्मा आदि स्वर्ग के देवता वहन करते हैं। अधम मनुष्यों का तो कहना ही क्या है ? कलियुग में हे वरवर्णिनि ! भारत में अनेक दोष पैदा होते हैं। अतः सिद्धि नहीं होती है। इसलिए हे देवि ! चन्द्र और सूर्यग्रहण के समय भारतवासी लोगों को उस मांदुर्गा की भक्ति से पूजा करनी चाहिए, यदि नहीं की जायेगी तो कभी भी सिद्धि नहीं होगी; क्योंकि चन्द्रग्रहण काल में स्नान-दान तथा श्राद्ध का फल करोड़ गुना हो जाना चाहिए ।। 28-31।।

सूर्ये दशगुणं देवि! नान्यथा मम भाषितम् ।

जपेत् तर्हि फलं यद्वन्नान्यथा तद् भवेत् क्वचित् ॥32॥

तथा हे देवि! पार्वति ! सूर्यग्रहण में स्नान-दान तथा श्राद्ध का फल उससे भी दश गुना अर्थात् दश करोड़ गुना हो जाता है। यह मैंने अन्यथा नहीं कहा है। इसलिए जैसा फल बताया गया है, उसी के अनुसार जप करना चाहिए, अन्यथा कहीं भी कभी भी वैसा फल नहीं प्राप्त होगा ।।32।।

एतत् तत्त्वं हि कथितं सुषुम्णामार्गसंस्थितम् ।

अतिगोप्यं महत्पुण्यं सारात्सारं परात्परम् ॥

न कस्मैचित् प्रवक्तव्यं यदि कल्याणामिच्छसि ॥33॥

अन्त में शंकरजी ने कहा कि हे पार्वति ! यह मैंने तुमसे सुषुम्णा नाड़ी के मार्ग में स्थित तत्त्व कहा है। यह तत्त्व सारों का सार है तथा परा विद्याओं से भी आगे तथा महान् पुण्य रूप है तथा अत्यन्त गोपनीय है। अतः तुम यदि कल्याण चाहती हो तो किसी को भी मत बताना ॥33॥

॥ इति श्री माया तन्त्रे षष्ठः पटलः ।।

।।इस प्रकार श्री मायातन्त्र में छठवां पटल समाप्त हुआ ।।

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