मुण्डमालातन्त्र पटल ११ – Mundamala Tantra Patal 11
मुण्डमालातन्त्र (रसिक मोहन विरचित पंचम पटल) पटल ११ में देवी के काम-मन्दिर घर्षण (शृंगार) के विषय में कहा गया है।
|| मुण्डमालातन्त्रम् (रसिक मोहन विरचितम्) पंचमः पटलः ||
एकदा पार्वती देवी कैलास-निलयाश्रया ।
अट्टहासं प्रकुर्वन्ती प्राह गद्गदया गिरा ।।1।।
एक बार कैलास-निलय-निवासिनी पार्वती देवी अट्टहास करती हुई गद्गद्वाक्य से बोलीं ।।1।।
श्री पार्वत्युवाच –
देवदेव! महादेव! विश्वनाथ ! सदाशिव !।
पृच्छामि जगदीशान! मार-मन्दिर-घर्षणम् ।।2।।
श्री पार्वती बोलीं – हे देवदेव ! हे महादेव! हे विश्वनाथ ! हे सदाशिव ! हे जगदीशान ! मेरे काम-मन्दिर घर्षण (शृंगार) के विषय में जिज्ञासा कर रही हूँ ।।2।।
किंविधं वापि भो नाथ ! कस्मिन् काले महेश्वर !।
शिवशक्तिमयं ब्रह्म नित्यानन्दमयं वपुः ।।3।।
हे नाथ ! हे महेश्वर ! काम-मन्दिर घर्षण कैसा होता है ? एवं वैसा किस समय करना चाहिए ? ब्रह्म शिवशक्तिमय नित्यानन्द शरीर-स्वरूप हैं – ऐसा सुन चुकी हूँ ।।3।।
नवकन्या-पूजनञ्च श्रुतं विश्वेश्वर! प्रभो!।
कुमारी-पूजनं देव श्रुतं तव प्रसादतः ।।4।।
हे प्रभो ! हे विश्वेश्वर ! नवकन्या के पूजन (के विषय में) सुन चुकी हूँ। हे देव ! आपके अनुग्रह से कुमारी पूजन (के विषय में) भी सुन चुकी हूँ ।।4।।
श्री शिव उवाच –
शृङ्गारं द्वादशविधं विपरीतं चतुर्विधम् ।
चतुर्विधञ्च शैवानां नरेषु करणेषु च ॥5॥
यो न जानाति विश्वेशि ! स पशुर्नात्र संशयः।
पशोरग्रे न प्रकाश्यं न प्रकाश्यं कथञ्चन ।।6।।
श्री शिव ने कहा – श्रृंगार द्वादश प्रकार के हैं। विपरीत शृंगार चार प्रकार के हैं । शैवों का श्रृंगार चार प्रकार के हैं। हे विश्वेशि ! करण-भूत मनुष्यों में जो इस बात को नहीं जानता है, वह पशु है । इस विषय में कोई सन्देह नहीं है। पशु (स्वभाव-व्यक्ति) के सामने इसे किसी भी प्रकार से प्रकट न करें, प्रकट न करें ।।5-6।।
पशुस्तु दारुणः शत्रुः सर्वभाव-विलोपकृत् ।
कल्पकोटिशतेनापि वत्सरेणापि शङ्करि !।
न हि सिद्ध्यति विश्वेशि ! सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ।।7।।
समस्त भावों का विलोपकारी पशु (साधक के लिए) भयंकर शत्रु है। हे शङ्करि ! हे विश्वेशि ! कल्पकोटि शत वर्षों में भी पशु सिद्धिलाभ नहीं कर सकता। यह मैं सत्य, सत्य कह रहा हूँ ।।7।।
शृङ्गार-रस-लावण्यं यो न जानाति पण्डितः ।
स मूर्खः सर्वशास्त्रेषु शक्ति-भ्रष्टो न संशयः ॥8॥
जो पण्डित श्रृंगार-रस के लावण्य को नहीं जानता है, वह समस्त शास्त्रों में ही मूर्ख है, वह शक्ति-भ्रष्ट है। इसमें संशय नहीं है ।।8।।
शृङ्गार-रस-लावण्ये शाक्तानन्दो यथा भवेत् ।
न शैवे वैष्णवे नाऽपि सौरे वा गाणपत्यके ।। 9 ।।
हे महेशानि ! श्रृंगार-रस के लावण्य से जिस प्रकार शक्तानन्द होता है, शैव, वैष्णव, सौर या गाणपत्य में एवं विध आनंद किसी भी प्रकार से नहीं होता है ।।9।।
तथानन्दो महेशानि! जायते न कथञ्चन ।
शिवो जातिः शिवो गोत्रं शिवो धर्मः शिवो मतिः ।
शिवः कर्ता शिवः पाता शिवो हर्ता शिवात्मकः ।।10 ।।
शिव ही जाति है, शिव ही गोत्र है, शिव ही धर्म है, शिव ही मति है। शिव ही कर्ता है, शिव ही पांता (रक्षक) है, शिव ही हर्ता (संहारक) है, शिव ही शिवात्मक हैं ।।10।।
शिवो बुद्धिः शिवः शान्तिः शिवो गतिः शिवो मतिः ।
शिवः क्रिया शिवो भक्तिः शिवो मुक्तिः शिवात्मिका ।।11।।
शिव ही बुद्धि है, शिव ही शान्ति है, शिव ही गति है, शिव ही मति है, शिव ही क्रिया है, शिव ही भक्ति है, शिव ही शिवात्मक मुक्ति है ।।11।।
शिवोऽहं नात्र सन्देहो जीवोऽहं शिव एव हि ।
इत्येव यस्य मनसि वर्त्तते गिरि-नन्दिनि ।।
तदैव जायते सिद्धिर्मुक्तिरव्यभिचारिणी ।।12।।
हे गिरिनन्दिनि ! मैं शिव हूँ, यह जीव भी शिव ही है। इस प्रकार भाव जिसके मन में रहता है, तभी उसकी सिद्धि एवं अव्यभिचारिणी मुक्ति होती है। इसमें कोई सन्देह नहीं है ।।12।।
शक्तिमार्गे वरारोहेऽवधूतः शङ्करः स्वयम् ।
अवधूती यस्य रामाऽवधूतस्तु स्वयं भवेत् ।
यत्र कुत्र निवासश्च कैलासो नात्र संशयः ।।13।।
हे वरारोहे ! शक्तिमार्ग में अवधूत स्वयं ही शङ्कर-स्वरूप हैं। जिसकी सुन्दरी स्त्री अवधूती हैं, वह स्वयं ही अवधूत बन सकता है । उनका वास जिस किसी भी स्थान पर हो, वह स्थान कैलास है – इसमें संशय नहीं है ।
मन्दिरं तस्य कैलासं स्तम्भं मणिमयं स्मृतम् ।
वृक्षाश्च पर्वताश्चैव क्षुद्राः सर्वप्रिये ! शिवे ! ।।14।।
उनका गृह कैलास-स्वरूप है । (गृह के) सभी स्तम्भ मणिमय हैं-ऐसा कहा गया है। हे सर्वप्रिये शिवे ! वहाँ के सभी क्षुद्र वृक्ष पर्वत-स्वरूप हैं ।।14।।
क्षुद्राश्च बान्धवा रूद्राः सुप्रधानाः सदाशिवः ।
भैरवाः किङ्कराः सर्वे भैरव्यश्चेटिका दिकाः ॥15॥
उसके क्षुद्र बान्धवगण रुद्र-स्वरूप हैं, सुप्रधान बान्धवगण सदाशिव-स्वरूप हैं। उनके समस्त भृत्य भैरव-स्वरूप हैं एवं उनकी दासी प्रभृति भैरवी-स्वरूपा हैं ।।15।।
एवं कैलास-भवनं सर्वानन्दकरं परम् ।
मनोरमं सुखमयं सर्वशक्तिमयं तथा ।
सर्वप्रियं गुणमयं सर्वसौख्यादि-सम्भवम् ।।16।।
एवं विध कैलास भवन सर्वानन्दकर, परम मनोहर, सुखमय एवं सर्वशक्तिमय है । यह (भवन) सभी के प्रिय, सर्वगुणमय एवं सर्व सौख्यादि के जनक हैं ।।16।।
एवं सर्वमयं सौख्यं यो वेद क्षमातले प्रिये !।
सर्वशक्तियुतो भूत्वा विहरेत् क्षिति-मण्डले ।।17।।
हे प्रिये ! इस पृथिवीतल पर जो कैलास को एवं विध सर्वगुणमय, सुखप्रदरूप में जानता है, वह पृथिवीतल पर सर्वशक्तिमय बनकर विचरण करता है ।।17।।
कृष्णाष्टम्यां नवम्यां वा प्रजपेदयुतं निशि ।
तदा सिद्धिमवाप्नोति मन्त्रध्यानपुरःसरम् ॥18॥
मन्त्रध्यानपूर्वक कृष्णा अष्टमी या कृष्णा नवमी की रात्री में अयुत संख्यक मन्त्र जप करें। वैसा करने पर, सिद्धिलाभ करेंगे ।18।।
एवं क्रिया प्रकर्त्तव्या गुप्ता गुप्ततरा स्मृता ।
गुप्ता गुप्ततरा पूजा प्रकटात् सिद्धिनाशिनी ॥19॥
इसी प्रकार पूजा की क्रिया को भी सुन्दर-रूप में करनी चाहिए एवं विध पूजा-क्रिया गुप्त से भी गुप्ततरा है – ऐसा कहा गया है । गुप्त से भी गुप्ततरा पूजा प्रकट हो जाने पर सिद्धि का नाश हो जाता है ।।19।।
अन्तः शाक्ता बहिः शैवाः सभायां वैष्णवा मताः ।
नानारूपधराः कौला विचरन्ति महीतले ॥20॥
नानारूपधारी कौलगण अन्तर में शाक्त, बाहर शैव, सभा में वैष्णव बनकर महीतल पर विचरण करते हैं – ऐसा कहा गया है ।।20।।
एवं विधान-सम्भूतं श्रुतं तन्त्रं च मोहनम् ।
कुलज्ञानं कुलीनस्य योगिनीहृदयं श्रुतम् ॥21॥
इस प्रकार विधान-जनक मोहन तन्त्र को सुना चुका हूँ। कुलीन के कुलज्ञान का जनक योगिनी-हृदय को सुना चुका हूँ ।।21।।
सम्मोहनं वीरतन्त्रं श्रुतं श्रीतन्त्रमुक्तमम् ।
कुलार्णवं तथा कालीतन्त्रं काली विलासकम् ॥22।।
सम्मोहन, वीरतन्त्र एवं उत्तम श्रीतन्त्र का श्रवण कर चुका हूँ । कुलार्णवतन्त्र, कालीतन्त्र, कालीविलास तन्त्र को भी सुना चुका हूँ ।।22 ।।
श्रीकाली कल्पलतिका श्रुता च परमादरात् ।
मतभेदे च गुप्ता सा पूजा प्रकट-नाशिनी ॥23॥
परम आदर के साथ श्रीकाली-कल्पलतिका को सुना चुका हूँ। मतभेद से वह पूजा गुप्त है। उसके प्रकाशित हो जाने पर सिद्धिनाश हो जाता है ।।23।।
अन्तः शाक्ता बहिः शाक्ता क्रिया-शाक्ता वरानने!।
भक्ति-शाक्ता ध्यान-शाक्ताः कामशाक्ता महेश्वरि !।
रतिशाक्ताः शक्तिशाक्ताः सर्वकर्मसु नान्यथा ।।24।।
हे वरानने ! शाक्तगण अन्तर में शाक्त हैं, बाहर में भी शाक्त हैं, क्रिया में भी शाक्त हैं। हे महेश्वरि ! वे लोग भक्ति में शाक्त हैं, ध्यान में शाक्त हैं, काम में शाक्त हैं, रति में शाक्त हैं, समस्त कर्मों की शक्ति में भी शाक्त हैं; वे अन्य प्रकार के नहीं हैं ।
अन्तः शैवा बहिः शैवाः सभायां वा गृहेऽथवा ।
वैष्णवास्तादृशा एव सर्वकालेषु शङ्करि ! ।
इत्येवं परमो भावो गदितः सर्वयोनिषु ।।25।।
हे शङ्करि ! सभा में अथवा गृह में शैवगण अन्तर में शैव हैं, बाहर भी शैव हैं। सभी कालों में वैष्णवगण भी उसी प्रकार ही हैं-अन्तर में वैष्णव हैं, बाहर में भी वैष्णव हैं। समस्त प्राणियों में इस प्रकार परम भाव को कहा गया है।
एवं भावं समाश्रित्य शाक्ता परम-पूजकाः ।
नित्यानन्दमयाः सर्वे त्रिनेत्राश्चन्द्रशेखराः ।।26।।
परम पूजक शाक्तगण एवं विध भाव का आश्रय कर अवस्थान करते हैं। वे सभी नित्यानन्दमय त्रिनेत्र चन्द्रशेखर के तुल्य हैं ।।26।।
सदा शक्ति-विहारञ्च सदानन्द-परिप्लुताः ।
सदानन्दः स विज्ञेयः सर्वकर्मसु कौशलाः ॥27॥
वे लोग सर्वदा आनन्द से परिप्लुत होकर सर्वदा शक्ति के साथ विहार करते हैं। उन्हें समस्त कर्मों में कुशल एवं सदानन्दमय-रूप में जानें ।।27।।
कुलधर्म समाश्रित्य ये वसन्ति महीतले ।
ते शिवास्ताः शिवा देव्यो भवन्ति कुलधर्मतः ।।28।।
जो लोग पृथिवीतल पर कुलधर्म का आश्रय करके वास करते हैं, वे लोग कुलधर्म के प्रभाव से शिवस्वरूप बन जाते हैं, उनकी स्त्रियाँ शिवा-स्वरूपा बन जाती हैं ।।28।।
कुलीनः शङ्करो ज्ञेय कुलीनस्तु हरिः स्वयम् ।
कुलीनो वासवो देवः कुलीनस्तु पितामहः ।।29॥
देवदेव शङ्कर को कुलीन जानें । स्वयं हरि भी कुलीन हैं । इन्द्र देव भी कुलीन हैं। पितामह भी कुलीन हैं ।।29 ।।
कुलीना मनुयः सर्वे कुलीनाः पितरः स्वयम् ।
किन्नराश्च कुलीनाश्च नराश्च पशुजीविनः ॥30॥
असुराश्च कुलीनाश्च कुलजा न कुलीनकाः ।
अतो न भक्ति। मुक्तिरसुराणां कदाचन ॥31॥
समस्त मुनिगण कुलीन-स्वरूप हैं । पितृपुरुषगण स्वयं कुलीन-स्वरूप हैं। किन्नरगण कुलीनस्वरूप हैं। पशुजीवी मनुष्यगण एवं असुरगण भी कुलीन बन सकते हैं। किन्तु कुलज होने से ही कुलीन नहीं होता है। अतः अकुलीन असुरगणों में कदापि भक्ति नहीं होती, मुक्ति भी नहीं होती ।।30-31।।
राक्षसाश्च कुलीनाश्च गन्धर्वाप्सर-यक्षजाः ।
देवीभक्तिं समास्थाय कृतार्थाश्च महीतले ।।32॥
कुलीन राक्षसगण एवं गन्धर्ववंशजात, अप्सरावंशजात, यक्षवंशजात व्यक्तिगण देवीभक्ति का अवलम्बन कर, इस पृथिवी पर कृतार्थ बन जाते हैं।।32।।
विना दुर्गा-परिज्ञानाद् विफलं पूजनं जपः ।
तपः क्रिया विशुद्धिः स्यादेतत् सर्वमनर्थकम् ॥33॥
दुर्गा के परिज्ञान के बिना पूजा एवं जप विफल है। तपस्या एवं पूजाक्रिया की विशुद्धि – ये सभी भी अनर्थक (व्यर्थ) हो जाते हैं – ऐसा जानें ।।33।।
मूर्यो वा पण्डितो वापि ब्राह्मणो वा वरानने !।
क्षत्रियो वैश्याजः शूद्रश्चाण्डालो वरवर्णिनि !।
सर्वे तुल्याश्च शाक्ताश्च एतत् सर्वार्थ साधकम् ॥34॥
हे वरानने ! हे वरवर्णिनि ! मूर्ख या पण्डित अथवा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र एवं चण्डाल – शाक्त होने पर ही सभी तुल्य बन जाते हैं – यह समस्त पुरुषार्थों का साधन है ।।34।।
शृणु देवि! वरारोहे ! मम वाक्यं सुनिश्चितम् ।
शृङ्गार-रसलावण्यं कोविदः सर्वकर्मसु ।।35।।
हे देवि ! हे वरारोहे ! मेरे इस सुनिश्चित वाक्य का श्रवण करें। शृंगाररस के लावण्य को जानने पर ही समस्त कर्मों में पण्डित बन जाते हैं ।।35।।
शृङ्गाराज्जायते सृष्टिः शृङ्गाराज्जायते रतिः ।
शृङ्गाराच्छङ्करस्तुष्टः शृङ्गारादपि पार्वती ॥36॥
श्रृंगार से सृष्टि होती है, श्रृंगार से रति उत्पन्न होती है। श्रृंगार से शङ्कर तृष्ट होते हैं। श्रृंगार से पार्वती भी तुष्टा हो जाती हैं ।।36।।
सन्तुष्टा त्वञ्च सन्तुष्टो ह्यहमेव वरानने ।
शृङ्गार-शब्दं ललितं कर्कशं वा सुरेश्वरि ! ।।37॥
हे वरानने ! हे सुरेश्वरि ! ललित या कर्कश शृंगार-शब्द का श्रवण कर, आप सन्तुष्ट हैं, मैं भी सन्तुष्ट हूँ ।।37।।
शृङ्गार-शब्द-मात्रेण जना यास्यन्ति सद्गीतम् ।
स्त्रियो देव्यः स्त्रियः प्राणाः स्त्रिय एव विभूषणम् ।।38।।
शृङ्गार शब्द-मात्र के द्वारा मनुष्यगण सद्गति को प्राप्त होते हैं। स्त्रीगण समस्त देवीस्वरूपा हैं। स्त्रीगण प्राणसमूह-स्वरूप हैं। स्त्रीगण ही सभी के विभूषण हैं ।।38।।
स्त्रीद्वेषो नैव कर्त्तव्यस्तासु निन्दा प्रहारकम् ।
वर्जयेद् देवदेवेशि! घृणा-लज्जा-विवर्जितः ।।39।।
स्त्री के प्रति द्वेष नहीं करना चाहिए। उनकी निन्दा न करें। हे देवेशि ! उनके प्रति घृणा एवं लज्जा से विवर्जित बनें। उनेक प्रति प्रहार का भी वर्जन करें ।।39।।
स्त्रीरूपं तारिणीरूपं यो वेत्ति धरणीतले ।
स श्रीपतिश्च विज्ञेयः स एव पार्वतीपतिः ॥40॥
इस धरणीतल पर जो व्यक्ति स्त्रीरूप को तारिणी-रूप में जानता है, उसे श्रीपति जानें; वही पार्वतीपति है।।40।।
कुब्जे शनैश्चरे वारे गुरौ वा भार्गवे तथा ।
तृतीयां वा द्वितीयां वा पूजयेद् भक्तिभावतः ॥41॥
मङ्गलवार, शनिवार, गुरुवार या शुक्रवार को तृतीया या द्वितीया तिथि में भक्तिभाव से पूजा करें ।।41।।
प्रथमो भक्ति-सम्पन्नो जनो वापि जनाईनः ।
आद्यां ज्योतिर्मयीं देवीं चतुर्थी वापि शङ्करि ! ।।42।।
हे शङ्कर ! प्रथम भक्तिसम्पन्न मनुष्य अथवा लोकपीड़क मनुष्य आद्या ज्योतिर्मयी देवी की अथवा चतुर्थी देवी भुवनेश्वरी की पूजा करें ।।42।।
पूजयेत् पञ्चमी विद्यां पञ्चमेन विभूषिताम् ।
पञ्चानन-प्रियां दुर्गा पूजयेद् भक्तिभावतः ।।43।।
अथवा पञ्चम के द्वारा विभूषिता पञ्चमी विद्या भैरवी की पूजा करें । भक्तिपूर्ण होकर शिवप्रिया दुर्गा की पूजा करें।।43।।
एषा क्रिया वरारोहे! सात्त्विकी राजसी तथा ।
तामसी चैव देवेशि! श्रुता पूजा महेश्वरि ! ।।44।।
हे वरारोहे ! यह पूजा-क्रिया सात्त्विक, राजसिक एवं तामसिक होती है। हे महेश्वरि ! इन तीन प्रकार की पूजाओं को आपने सुना है ।।44।।
या या पूजा निगदिता सा सा पूजा त्वया श्रुता ।
इदानीं कुण्ड-पुष्पेण गोल-पुष्येण शङ्करि ! ॥45।।
जिन-जिन पूजा के विषय में मैंने बताया है, उन-उन पूजा को आपने सुना है । हे शङ्करि ! सम्प्रति कुण्डपुष्प एवं गोल-पुष्प के द्वारा की जाने वाली पूजा के विषय में बता रहा हूँ ।।45।।
चक्रपुष्पेण शूलेन वज्रपुष्पेण पार्वति !।
कालपुष्पेण देवेशि! पूजयेद् हरवल्लभाम् ।।46।।
हे पार्वति ! हे देवेशि ! कुण्डपुष्प के द्वारा, गोलपुष्प के द्वारा, चक्रपुष्प के द्वारा, शूलपुष्प के द्वारा, वज्रपुष्प के द्वारा एवं काल-पुष्प के द्वारा हरवल्लभा की पूजा करें ।।46।।
तदा सिद्धिमवाप्नोति सत्यं सत्यं न संशयः।
कलमार्गरतो जीवः शिव एव न संशयः ॥47।।
तब सिद्धिलाभ होता है। यह सत्य, सत्य हैं इसमें कोई संशय नहीं है। कलमार्ग में रत जीव शिव ही है। इसमें कोई संशय नहीं है ।।47।।
कुलधर्मार्थगो जन्तुविहरेत् कुलमार्ग के ।
कुलपुष्पं समाश्रित्य कुलीनाश्रममाश्रमेत् ॥48॥
कुलधर्म रक्षा-परायण शक्ति सर्वदा कुलमार्ग में विचरण करें। कुलपुष्प का आश्रय कर कुलीनाश्रम में वास करें ।।
कलौ मत्स्य कलौ मांसं मद्यं मुद्राञ्च मैथुनम् ।
यथा दिव्यस्तथा वीरो नास्ति भिन्नः शुचिस्मिते! ।।49॥
कलिकाल में मत्स्य, मांस, मद्य, मुद्रा एवं मैथुन विहित है। दिव्य जिस प्रकार है, वीर भी उसी प्रकार है। हे शुचिस्मिते ! वे भिन्न नहीं हैं ।।49।।
भक्षणात् पञ्चमस्यापि न दोषो जायते नृणाम् ।
अशक्तानामकर्त्तव्यं सर्वयोनि-विवर्द्धनम् ।।50॥
पञ्चम के भक्षण से मनुष्यों में किसी प्रकार का दोष उत्पन्न नहीं होता है। समस्त प्राणियों के शक्तिवर्धक मद्यपान, अशक्त को नहीं करना चाहिए ।।50।।
मद्यपानं न कर्त्तव्यं न कर्त्तव्यं कलौ युगे ।
शाक्तानां चैव शैवानां कर्त्तव्यं सर्व सिद्धिदम् ।।51।।
मद्यपान नहीं करना चाहिए । कलियुग में साधारण लोगों के लिए यह कर्त्तव्य नहीं है । किन्तु शैव एवं शाक्तगणों के लिए सर्वसिद्धिप्रद मद्यपान कर्त्तव्य है ।।51।।
महापीठाश्रमं याति महापीठस्य दर्शनात् ।
महापीठे यजेद् देवीं भक्तया परम-यत्नतः ।।52॥
महापीठ के दर्शन के लिए महापीठाश्रम में गमन करें । परम यत्न के साथ, भक्ति के साथ महापीठ में देवी की पूजा करें ।।
पूजयेद् रक्त-पुष्पैश्च रक्तगन्धानुलेपनैः ।
बिल्वपत्रैस्तथा पुष्पैर्मणि पुष्पैश्च चम्पकैः ।।53॥
रक्त चन्दन, रक्त-अनुलेपन, रक्त पुष्प, बिल्वपत्र, बिल्वपुष्प, मणिपुष्प एवं चम्पकपुष्प के द्वारा देवी की पूजा करें।
रक्ताम्बुजै रक्तमाल्यै रक्ताभरण भूषणैः ।
महिषैश्च यजेद् देवीं मेषजैः क्षतजैरपि ।।54।।
रक्तपद्म, रक्तमाल्य, रक्त आभरण, रक्तभूषण, महिष एवं मेषजात रक्त के द्वारा देवी की पूजा करें ।।54।।
छागलैर्लो हितैर्देवीं गात्राह्मणैरपि ।
एवं विधि-विधानेन पूजनं तव सुन्दरि ! ।।55॥
हे सुन्दरि ! छाग के द्वारा एवं उसके गात्रोत्पन्न रक्त के द्वारा देवी की पूजा करें । ब्राह्मणगण भी इस विधि के अनुसार आपकी पूजा करें ।।55।।
कर्त्तव्यं जीवलोकेषु गुह्यं तव महेश्वरि ! ।
एवं तव विधातव्या पूजा त्रिभुवनेश्वरि ! ।।56।।
हे महेश्वरि ! जीवलोक में आपका यह गुह्य पूजन कर्त्तव्य है । हे त्रिभुवनेश्वरि ! इस प्रकार आपकी पूजा का अनुष्ठान (साधक) करें ।।56।।
तदा सिद्धेश्वरो भूत्वा गाणपत्यं लभेत् तु सः ।
न प्रकाश्यं पशोरग्रे मम दिव्यं सुरेश्वरि ! ।।57॥
जो इस प्रकार पूजा करता है, वह सिद्धेश्वर बनकर गाणपत्य का लाभ करता है । हे सुरेश्वरि ! मेरे दिव्य (= पूजा) को पशु के समक्ष इसे प्रकाशित नहीं करना। चाहिए ।।57।।
पशोर्दर्शनमात्रेण नश्यन्ति धीर-शुद्धयः ।
महासिद्धिकरी पूजा मानसी मुक्तिदायिनी ॥58॥
पशु के दर्शन-मात्र से पण्डितों की शुद्धियाँ नष्ट हो जाती हैं। यह पूजा महासिद्धिकारक है, मानसी पूजा मुक्तिदायिनी है ।
अन्तर्यागात्मिका सर्व-जीवत्व-परिनाशिनी ।
बाह्यपूजा राजसी च सर्वसौभाग्य-दायिनी ॥59॥
अन्तर्यागात्मिका समस्त पूजा जीवत्व का नाश करता है। राजसी बाह्य पूजा समस्त सौभाग्य को प्रदान करता है।
भक्ति-मुक्ति-प्रदा चैव सर्वापत् परिनाशिनी ।
सर्वदोषक्षयकारी सर्वशुत्रनिपातिनी ।।60॥
यह राजसी पूजा भोग एवं मोक्ष को प्रदान करता है, समस्त विपत्तियों का नाश करता है, समस्त दोषों का क्षय करता है, समस्त शत्रुओं का निपात करता है ।।60।।
न वीराणां पशूनाञ्च बाह्यपूजाऽधमाधमा ।
केवलानाञ्च दिव्यानां बाह्य-पूजाधमा इति ।।61।।
(यह राजसी पूजा) समस्त रोगों का क्षय करता है, समस्त बन्धों का मोचन करता है। वीर एवं पशुओं का यह बाह्य-पूजा अधमाधमा नहीं है। केवल दिव्यगणों के लिए यह बाह्यपूजा अधमाधमा है ।।61।।
तोडले जामले देवि ! श्रुता पूजा च विस्तरात् ।
तथापि पूजा संक्षेपात् मयोक्ता गिरिनन्दिनि ! ।।62।।
हे देवि ! तोड़लतन्त्र में एवं जामलतन्त्र में विस्तारपूर्वक आपने पूजा के विषय में सुना है। तथापि हे गिरिनन्दिनि! यहाँ पर संक्षेप में पूजा के विषय में मैंने बताया है ।।62।।
स्तुतिपाठाद् दृढ़ज्ञानात् पूजनाच्छिव-सुन्दरि !।
सुप्रसन्ना महाविद्या-जपात् सिद्धिर्भविष्यति ।।63॥
हे शिवसुन्दरि ! स्तुतिपाठ, दृढ़ज्ञान एवं पूजा से महाविद्या सुप्रसन्ना हो जाती हैं। जप से सिद्धि होती है ।।63 ।।
जपाद्भक्तिर्जपान्मुक्तिर्जपात् सिद्धि पात् क्रिया ।
जपात् तन्त्रं जपान्मन्त्रं जपाद् यन्त्रं सुरेश्वरि ! ।।64।।
हे सूरेश्वरि ! जप से भक्ति प्राप्त होती है। जप से मुक्ति प्राप्त होती है। जप से सिद्धि प्राप्त होती है। जप से क्रिया, जप से तन्त्र, जप से मन्त्र एवं जप से यन्त्र की प्रप्ति होती है ।।64।।
जपात् कान्तिर्जपाच्छान्तिर्जपाच्छद्धा जपाद् दया ।
जपात् तुष्टिर्जपात् पुष्टिर्जपाद् गतिर्जपान्मतिः ।।65 ।।
जप से कान्ति, जप से शान्ति, जप से श्रद्धा, जप से दया, जप से तुष्टि, जप से पुष्टि, जप से गति एवं जप से मति प्राप्त होती है ।।65।।
जपाद् बुद्धिर्जपाल्लक्ष्मीर्जपाज् जातिर्जपात् स्थितिः ।
जपात् शान्तिर्जपाच्छान्तिर्जपाच्छान्तिर्न संशयः ।।66।।
जप से बुद्धि, जप से लक्ष्मी, जप से जन्म एवं जप से स्थिति प्राप्त होती है। जप से शान्ति प्राप्त होती है, शान्ति प्राप्त होती है, शान्ति प्राप्त होती है । इसमें कोई संशय नहीं है ।।66।।
इति मुण्डमालातन्त्र पार्वतीश्वर संवादे पञ्चमः पटलः ।।5।।
मुण्डमालातन्त्र में पार्वतीश्वर-संवाद में पञ्चम पटल का अनुवाद समाप्त ।।5।।
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