मुण्डमालातन्त्र पटल १५ Mundamala Tantra Patal 15
मुण्डमालातन्त्र (रसिक मोहन विरचित नवम पटल) पटल १५ में भुवनेश्वरी-स्तोत्र, कृष्णादि पुष्पों का माहात्म्य, जवादि पुष्प-दान का फल का वर्णन है।
|| मुंडमाला तंत्र पटल १५ ||
रसिक मोहन विरचितम् मुण्डमालातन्त्रम् नवमः पटलः
रसिक मोहन विरचित मुण्डमालातन्त्र पटल ९
रहस्यं पार्वतीनाथ-वक्त्रात् श्रुत्वा च पार्वती ।
महादेवं महेशान मीशमाह महेश्वरी ॥1॥
महेश्वरी पार्वती-पति के मुख से रहस्य को सुनकर, सर्वेश्वर महेशान महादेव से कहने लगीं ।।1।।
पार्वत्युवाच –
त्रिलोकेश! जगन्नाथ! देवदेव! सदाशिव !।
त्वत् प्रसादान्महादेव! श्रुतं तन्त्रं पृथग्विधम् ।।2।।
श्री पार्वती ने कहा – हे त्रिलोकेश ! हे जगन्नाथ ! हे देवदेव ! हे सदाशिव ! हे महादेव ! आपके प्रसाद से नाना प्रकार के तन्त्रों का मैं श्रवण कर चुकी हूँ।।2।।
इदानीं वर्त्तते श्रद्धागमशास्त्रे ममैव हि ।
यदि प्रसन्नो भगवन् ! बुह्युपायं महोदयम् ।।3।।
इस समय मुझमें आगमशास्त्र में श्रद्धा हो रही है। हे भगवन् । यदि आप प्रसन्न हैं, तो मुझे महोदय लाभ के उपाय को बतावें ।।3।।
नानातन्त्रे महादेव! श्रृतं नानाविधं मतम् ।
कृतार्थास्मि कृतार्थास्मि कृतकार्यास्मि शङ्कर ! ॥4॥
हे महादेव ! नाना तन्त्रों में नाना प्रकार के मतों का मैंने श्रवण किया है। हे शङ्कर ! इससे मैं कृत-कृतार्थ बन गयी हूँ एवं कृतकार्य भी बनी हूँ ।।4।।
प्रसन्ने शङ्करे नाथ! किं भयं जगतीतले ।
विना शिव-प्रसादेन न सिध्यति कदाचन ।
इदानीं श्रोतुमिच्छामि भुवनाया रहस्यकम् ॥5॥
हे नाथ ! शङ्कर प्रसन्न होने पर इस पृथिवीतल पर कैसा भय ? कोई भय नहीं है । शिव के अनुग्रह के बिना कदापि कुछ सिद्ध नहीं होता । सम्प्रति मैं भुवनेश्वरी के रहस्य को सुनने की इच्छा कर रही हूँ ।।5।।
अब इससे आगे श्लोक ६ से २२ में श्रीभुवनेश्वरी के शतनाम स्तोत्र को दिया गया है इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-
॥ श्रीभुवनेश्वरीशतनामस्तोत्रम् ॥
रसिक मोहन विरचित मुण्डमाला तन्त्र पटल ९
मुंडमाला तंत्र पटल १५
रसिक मोहन विरचितम् मुण्डमालातन्त्रम् नवमः पटलः
मन्त्रसङ्केतमज्ञात्वा विद्या सङ्केतकं तथा ।
धीर-सङ्केतकं देवि योनिमुद्रात्मकं प्रिये ! ॥23॥
हे देवि ! हे प्रिये ! मन्त्र-संकेत को न जानकर, उसी प्रकार विद्या सङ्केत को न जानकर, योनिमुद्रा-रूप धीर-सङ्केत को न जानकर, कोई (व्यक्ति) सिद्धि लाभ नहीं कर सकता है ।।23।।
श्री पार्वती उवाच –
सङ्केतं समयाचारं कुल-सङ्केतकं तथा ।
यन्त्र-(ब्रह्म) सङ्केतकं सिद्धिसङ्केतं बहुविस्तरम् ।।24।।
कुलार्णवे श्रृतं नाथ! श्रुतं मे मोहने प्रभो ।
विद्या-सङ्केतचरितं ब्रूहि विश्वेश्वर ! प्रभो ! ।।25।।
श्री पार्वती ने कहा – हे नाथ ! हे प्रभो ! सङ्केत, समयाचार, कुलसङ्केत, यन्त्र (ब्रह्म) सङ्केत एवं सिद्धि-सङ्केत को मोहनतन्त्र में एवं कुलार्णव-तन्त्र में अनेक बार विस्तार से सुन चुकी हूँ। हे प्रभो ! हे विश्वेश्वर ! सम्प्रति विद्या-सङ्केत-चरित को बतावें ।। 24-25।।
श्रीशङ्कर उवाच –
विद्यानामुक्तमा विद्या महाविद्या प्रकीर्त्तिता ।
यस्याः स्मरणमात्रेण मन्त्रसिद्धिः प्रजायते ॥26॥
श्री शिव ने कहा – जिन विद्या के स्मरण-मात्र से ही मन्त्र-सिद्धि उत्पन्न होती है, उन विद्याओं में उत्तमा विद्या ‘महाविद्या’ के नाम से कही गयी है ।।26।।
मन्त्रसङ्केतमज्ञात्वा यो भजेद् विश्वमोहिनीम् ।
शतवर्ष जपेनापि तस्य सिद्धिर्न जायते ।।27।।
जो व्यक्ति मन्त्र-संकेत को न जानकर विश्वमोहिनी की भजना करता है, शतवर्ष जप के द्वारा भी उसकी सिद्धि उत्पन्न नहीं होती है ।।27।।
विद्याद्या च द्वितीया च षोडशी भुवनेश्वरी ।
भैरवी-ज्ञानमात्रेण सिद्धि-सिद्धा भवन्ति हि ।।28।।
आद्या विद्या (काली), द्वितीया विद्या (तारा) षोडशी, भुवनेश्वरी एवं भैरवी के ज्ञानमात्र के द्वारा साधकगण सिद्धि में सिद्ध हो जाते हैं ।।28।।
इड़ा पिङ्गलयोर्मध्ये दुर्गमा विश्वमोहिनी ।
तस्याः प्रभेद-संस्कारं यो जानाति स पण्डितः ॥29॥
इड़ा एवं पिङ्गला नाड़ी के मध्य में दुर्गमा विश्वमोहिनी अवस्थान कर रही हैं। जो उनके भेद संस्कार को जानता है, वही पण्डित है ।।29।।
स धन्यः स कृती लोके स वीरः सर्वशः शुचिः ।
स भैरवश्च विज्ञेयः सदा सुख विवर्द्धकः ।।30।।
इस लोक में वही धन्य है, वही कृति है, वही वीर है, वह सभी स्थानों में शुचि है। उसे सर्वदा सुखविवर्द्धक भैरव जानें ।।30।।
एवं करालवदनां मुण्डमाला-विभूषिताम् ।
यो जानाति जगद्धात्री जीवन्मुक्तः स एव हि ॥31॥
मुण्डमाला विभूषिता करालवदना जगद्धात्री को जो इस प्रकार से जानता है, वही जीवन्मुक्त है ।।31।।
विशेषञ्च प्रवक्ष्यामि कुलभक्त्या तु सिद्ध्यति ।
कुलभक्तिं विना देवि ! न मुक्तिर्न च सद्गतिः ।।32।।
यह विशेष बात बता रहा हूँ कि कुलभक्ति के द्वारा सिद्धि-लाभ होता है। हे देवि ! कुलभक्ति के बिना मुक्ति नहीं होती, सद्गति भी नहीं होती ।।32।।
सत्ये तु सुन्दरी आद्या त्रेतायां भुवनेश्वरी ।
द्वापरे तारिणी आद्या कलौ काली प्रकीर्त्तिता ।।33।।
सत्ययुग में ‘तारिणी’ आद्या (प्रधाना), त्रेता युग में ‘भुवनेश्वरी’ आद्या, द्वापर युग में ‘तारिणी’ आद्या एवं कलियुग में ‘काली’ आद्या के रूप में कही गयी हैं ।।33।।
नामभेदं प्रवक्ष्यामि रूपभेदं वरानने ! ।
न भेदः कालिकालाश्च ताराया जगदम्बिके ! ।।34।।
हे वरानने ! सम्प्रति नामभेद एवं रूपभेद (मूर्त्तिभेद) को बताऊँगा । हे जगदम्बिके ! कालिका एवं तारा में कोई भेद नहीं है ।।34।।
षोडश्या भुवनायाश्च भैरव्यस्त्रिपुरेश्वरि !।
छिन्नायाश्चैव धूमाया भीमाया परमेश्वरि ! ॥35॥
ततश्च बगला-मुख्या मातङ्कयाश्च सुरेश्वरि !।
न च भेदो महेशानि ! विद्याया वरवर्णिनि ! ॥36॥
हे परमेश्वरि ! हे त्रिपुरेश्वरि ! हे सुरेश्वरि ! हे वरवर्णिनि ! महाविद्या, षोडशी, भूवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, भीमा, धूमावती, बगलामुखी, मातङ्गी – इनमें परस्पर में भेद नहीं है ।।35-36।।
पार्वत्युवाच –
विश्वनाथ ! महादेव! महेश्वर! जगद्वरो !।
पृच्छाम्येकं महाभाग ! योगेन्द्रं! वृषभध्वज ! ॥37।।
श्री पार्वती ने कहा – हे विश्वनाथ ! हे महादेव ! हे महेश्वरी ! हे जगद्गुरो ! हे महाभाग ! हे योगेन्द्र ! हे वृषभध्वज ! एक बात की जिज्ञासा कर रही हूँ।।37।।
कृष्णायाः करबीरस्य द्रोणस्य च सदाशिवः।
बिल्वपत्रस्य माहात्म्यं जवाया वद शङ्कर ! ॥38॥
हे सदाशिव ! हे शङ्कर ! कृष्णापराजिता, करबीर, द्रोणपुष्प, जवा एवं बिल्वपत्र के माहात्म्य को बतावें ।।38।।
श्रीशङ्कर उवाच –
धन्यासि पतिभक्तासि प्राणतुल्यासि शङ्कर !।
अतिगोप्यं जगद्धात्रि! देवानामपि दुर्लभम् ।।39।।
श्रीशङ्कर ने कहा – हे शङ्करि ! आप पतिभक्ता हैं, आप मेरी प्राणतुल्या हैं । हे जगद्धात्रि ! आपका जिज्ञास्य विषय अतिगोपनीय है, देवतागणों के लिए भी दुर्लभ है ।।39।।
कृष्णापराजिता साक्षाद् भद्रकाली न संशयः ।
करबीरञ्च भुवना द्रोणं त्रिपुरसुन्दरी ।।40॥
कृष्णा अपराजिता साक्षात् भद्रकाली हैं – इसमें संशय नहीं है। करबीर पुष्प साक्षात् भुवनेश्वरी हैं एवं द्रोणपुष्प साक्षात् त्रिपुरसुन्दरी हैं ।।40।।
जवा साक्षाद् भगवती सर्वविद्या-स्वरूपिणी ।
ये साधका जगन्मातरर्चयन्ति शिवप्रियाम् ।।41।।
जवापुष्प सर्वविद्या-स्वरूपिणी साक्षात् भगवती हैं । हे जगन्मातः । जो साधक इन पुष्पों के द्वारा शिवप्रिया चण्डी की अर्चना करता है, वह ‘शिव’ बन जाता है। इसमें कोई संशय नहीं है ।।41।।
एतैश्च कुसुमैश्चण्डी स शिवो नात्र संशयः ।
किं जपैः किं तपोभिर्वा किं दानैः किमध्वरैः ॥42।।
जिस साधक के द्वारा जगद्धात्री, द्रोणपुष्प, कृष्णा अपराजिता पुष्प एवं जवापुष्प प्रभृति के द्वारा अर्चिता हुई हैं, उन (साधक) को जप से, तपस्या से, दान से या यज्ञ से क्या प्रयोजन ? अर्थात् कोई प्रयोजन नहीं है ।।42।।
येनार्चिता जगद्धात्री द्रोण-कृष्णा-जवादिभिः ।
राजसूयाश्वमेघाद्यैर्वाजपेयाग्नीषोमकैः ।
फलं यज्जायते चण्डि ! तत् सर्वं कुसुमार्चनात् ।।43 ।।
राजसूय यज्ञ, अश्वमेध यज्ञ, बाजपेय यज्ञ एवं अग्नीषोम यज्ञ के द्वारा जो फल प्राप्त होता है, हे चण्डि ! वे समस्त फल उन पुष्पों के द्वारा अर्चना किये जाने उत्पन्न हो जाते हैं ।।43।।
जवां द्रोण तथा कृष्णां मन्दारं करबीरजम् ।
साक्षात् ब्रह्मस्वरूपञ्च महादेव्यै निवेदयेत् ।।44।।
साक्षात् बह्म-स्वरूप जवापुष्प, द्रोणपुष्प, कृष्ण अपराजिता पुष्प, मन्दारपुष्प एवं करबीर पुष्प महादेवी को निवेदित करें ।।44।।
श्वेतचन्दन-संयुक्तं रक्तचन्दन-लेपितम् ।
यो दद्याद् भक्तिभावेन स विश्वेशो न संशयः ॥45।।
जो साधक भक्तिभाव से महादेवी को श्वेतचन्दन-संयुक्त एवं रक्तचन्दनलिप्त इन पुष्पों को निवेदित करता है, वह ‘विश्वेश्वर’ है, इसमें सन्देह नहीं है ।।45।।
महाघोरे महोत्पाते महाविपदि सङ्कटे ।
महादुःखे महारोगे महाशोके महाभये ।।46।।
पूजयेत् कालिकां तारां भुवनां षोडशीं शिवाम् ।
बालां छिन्नां च बगलां धूमां भीमा करालिनीम् ॥47।।
कमलामन्नपूर्णां च दुर्गा दुःख-विनाशिनीम् ।
सर्वविद्यां जवा-द्रोण-करबीरैर्मनोहरैः ॥48॥
महाघोर में, महोत्पात में, महाविपद् में, संकट में, महादुःख में, महारोग में, महाशोक में, महाभय में जवापुष्प, द्रोणपुष्प एवं मनोहर करबीर पुष्प के द्वारा काली, भुवनेश्वरी, शिवा षोडशी, बाला, छिन्नमस्ता, बगला, करालिनी भीमा धूमावती, कमला, अन्नपूर्णा एवं सर्वविद्या स्वरूपिणी दुःखविनाशिनी दुर्गा की पूजा करें ।।46-48।।
मालुरपत्रैः कृष्णाभिः कृष्णां सम्पूज्य भूतले ।
साधकेन्द्रो महेशानि! स भवेन्नात्र संशयः ।।49।।
हे महेशानि ! इस भूतल पर बिल्वपत्र एवं कृष्णा अपराजिता पुष्प के द्वारा कृष्णा की पूजा करके साधक साधकेन्द्र बन जाता है। इसमें कोई संशय नहीं है ।।49।।
लक्षाणां महिषैमैषैरजैर्दानैर्मखैः शुभैः ।
पूजिता सा जगद्धात्री योषा कुसुमार्चिता ।।50।।
एक लक्ष महिष, मेष एवं छागल (बकरी) के द्वारा, दान के द्वारा एवं शुभ यज्ञ के द्वारा वह जगद्धात्री पूजिता होने पर, जो फल (साधक को) प्राप्त होता है, यदि वह (देवी) इन समस्त पुष्पों के द्वारा अर्चिता होती हैं, तो भी वही फल प्राप्त होता है ।।50।।
माहात्म्यञ्चापि कृष्णायाः कृष्णा जानाति भूतले ।
तदर्द्धञ्चाप्यऽहं देवि। तदर्द्ध श्रीपतिः सदा ।।51 ।।
इस पृथिवी पर कृष्णा, कृष्णा अपराजिता के माहात्म्य को सम्पूर्णरूप से जानती हैं । हे देवी ! मैं उस (माहात्म्य) के अर्द्धभाग को ही जानता हूँ । श्रीपति सर्वदा उसके (अर्द्धभाग के) अर्द्धभाग को ही जानते हैं ।।51।।
तदर्द्धमब्जजन्मा वै तदर्द्ध वेद-साधकः ।
अस्य पुष्परस्य माहात्म्यं संक्षेपाद् वच्मि शङ्कर ! ॥52।।
पद्मयोनि ब्रह्मा उसके भी अर्द्धभाग को जानते हैं। वेद-साधक उसके भी अर्द्धभाग को जानते हैं। हे शङ्करि ! इस पुष्प के माहात्म्य को संक्षेप में बता रहा हूँ ।।52।।
पृथिव्यामतले स्वर्गे वैकुण्ठे कालिकापुरे ।
जवादि-करबीरैश्च दानैः किं किं फलं भवेत् ।
न जानामि जगद्धात्रि ! को वेद पार्वती विना ।।53॥
हे जगद्धात्रि ! जवादि करबीर पुष्यों के दान से क्या-क्या फल प्राप्त होता है, उसे इस पृथिवी पर, अतल में, स्वर्ग में, वैकुण्ठ में या कालिकापुर में दुर्गा के बिना कौन जानता है ? मैं नहीं जानता ।।53 ।।
करबीरैः। श्वेतरक्तैः रक्तचन्दन-मिश्रितैः ।
पूजयेत् क्ष्मातले यस्तु स विश्वेशो भवेद् ध्रुवम् ।।54।।
जो व्यक्ति पृथिवी पर रक्तचन्दन से लिप्त श्वेत एवं रक्त-करबीर पुष्प के द्वारा महादेवी की पूजा करता है, वह निश्चय ही ‘विश्वेश्वर’ बन जाता है ।।54।।
कृष्णापराजिता-पुष्पैर्यस्तु देवीं प्रपूजयेत् ।
सोऽश्वमेध-सहस्राणां फलं प्राप्य शिवां व्रजेत् ।
बिल्वपत्रस्य माहात्म्यं देवानामपि दुर्लभम् ।।55॥
जो व्यक्ति कृष्णा अपराजिता पुष्प के द्वारा देवी की पूजा करता है, वह सहस्र अश्वमेध यज्ञ के फल को प्राप्त कर शिवा का लाभ करता है ।।55।।
यो दद्याद् बिल्वपत्रञ्च शिवायै शङ्कराय च ।
सदाशिव समो भूत्वा सद् गच्छेद् ब्रह्ममन्दिरम् ।।56।।
विल्वपत्र का माहात्म्य देवगणों के लिए भी दुर्लभ है। जो व्यक्ति शिव एवं शिवा को विल्वपत्र का दान करता है, वह सदाशिव के तुल्य बनकर ब्रह्ममन्दिर में गमन करता है ।।56।।
महाविपत्तौ देवेशि ! जवां कृष्णापराजिताम् ।
द्रोणं वा करबीरं वा स गच्छेत् कालिकापुरम् ।।57॥
हे देवेशि ! जो महाविपद् में जवा, कृष्णा अपराजिता, द्रोण या करबीर पुष्प देवी को दान करता है, वह कालिकापुर में गमन करता है ।।57।।
किञ्च पाद्यैः किञ्च वाद्यैर्नैवेद्यैः किञ्च पूजनैः ।
मधुदानैर्मधुपर्कैः कुम्भकैः किञ्च रेचकैः ।।58।।
जो करबीर एवं जवापुष्पादि के द्वारा भगवती की अर्चना करता है, उसके लिए पाद्य ही क्या है ? वाद्य ही क्या है ? नैवेद्य ही क्या है ? पूजा ही क्या है ? मधुदान ही क्या है ? मधुपर्क ही क्या है ? कुम्भक ही क्या है ? या रेचक से ही उसे क्या प्रयोजन है अर्थात् कोई प्रयोजन नहीं है ।।58 ।।
पूरकैः किञ्च वा ध्यानैः प्राणायामैश्च किञ्च वा ।
किं जपैः किं तपोभिर्वा मत्स्यैर्मासैश्च पञ्चमैः ।।59।।
उस (साधक) के लिए पूरक ही क्या है ? ध्यान ही क्या है ? प्राणायाम ही क्या है ? जप ही क्या है ? मत्स्य ही क्या है ? मांस ही क्या है ? पञ्चमकार से उसे क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कोई प्रयोजन नहीं है ।।59।।
किञ्च मन्त्रैः किञ्च तन्त्रैः किं यन्त्रैः किञ्च साधनैः ।
किं शवै रासवैः किंवा श्मशानमन्त्रसाधनैः ।।60।।
उस (साधक) के लिए मन्त्र ही क्या है ? तन्त्र ही क्या है ? यन्त्र ही क्या है ? साधना ही क्या है ? शव ही क्या है ? आसव ही क्या है ? श्मशान ही क्या है ? या मन्त्र-साधना से ही उसे क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कोई प्रयोजन नहीं है ।।60।।
किमध्वरैर्मन्त्रपूतैर्मन्त्रार्थमन्त्रजीवनैः।
किं योनिमुद्रया किं वा तीर्थैः किं ब्रह्म-साधनैः ॥61।।
उस (साधक) के लिए मन्त्रपूत यज्ञ से ही क्या है ? मन्त्रार्थ से ही क्या है ? मन्त्रजीवन से ही क्या है ? योनिमुद्रा से ही क्या है ? तीर्थ से ही क्या है ? अथवा ब्रह्मसाधन से ही उसे क्या प्रयोजन है अर्थात् कोई प्रयोजन नहीं है ।।61।।
किं मातृकान्यासवगैः किं कटैः किं घटैः पटैः ।
किं काकचञ्चभिः षोढ़ान्यासैः किं कर्मसाधनैः ।
येनार्चिता भगवती करबीरैर्जवादिभिः ।।62।।
उस (साधक) के लिए मातृकान्यास वर्ग से ही क्या है ? कट से ही क्या है ? घट से ही क्या है ? पट से ही क्या है ? काकचञ्च से ही क्या है ? षोढ़ान्यास से ही क्या है ? अथवा उसे कर्मसाधना का ही क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कोई प्रयोजन नहीं है ।।62।।
कृष्णापराजितापुष्पैः करबीरैर्मनोहरैः।
द्रोणौस्तु केतकी पुष्पैर्जवा-मालुरपत्रकैः ।
पूजिता यैर्भगवती तेषां किं कर्म-साधनैः ।।63 ।।
कृष्णा अपराजिता पुष्प, मनोहर करबीर पुष्प, द्रोण पुष्प, केतकी पुष्प, जवापुष्प एवं बिल्वपत्र के द्वारा जिन्होंने भगवती की पूजा की है, उनके लिए साधना का क्या प्रयोजन ? अर्थात् कोई प्रयोजन नहीं है ।।63 ।।
इत्येवञ्च श्रुतं देवि ! रहस्यं परमं शिवम् ।
यं श्रुत्वा मोक्षमाप्नोति साधको नात्र संशयः ।।64।।
हे देवि ! साधक जिसका श्रवण करके मोक्ष लाभ कर लेता है, उन परम कल्याणकर रहस्य को इस प्रकार मैंने सुना है। इसमें कोई संशय नहीं है ।।64।।
तन्त्रराजं महेशानि! सारात् सारतरं प्रिये !।
श्रुत्वा ज्ञात्वा मोक्षमाशु लभते नात्र संशयः ।।65 ।।
हे प्रिये ! हे महेशानि ! सार से भी सारतर तन्त्रराज का श्रवण कर, जानकर (साधक) शीघ्र मोक्ष का लाभ कर लेता है । इसमें कोई संशय नहीं है ।।65 ।।
महाभये बन्धने च विपत्तौ बहुसङ्कटे ।
पूजयित्वा जगद्धात्री मुच्यते भवबन्धनात् ।।66।।
महाभय में, बन्धन में, विपद् में एवं अति संकट में जगद्धात्री की पूजा कर, (साधक) भवबन्धन से मुक्तिलाभ कर लेता है ।।66।।
श्रद्धयाऽश्रद्धया वापि यः कश्चित्तारिणीं यजेत् ।
स धन्यः स कवि/रः सर्वशास्त्रार्थकोविदः ।।67।।
जो कोई श्रद्धा से या अश्रद्धा से तारिणी की पूजा करता है, वह धन्य है, वह कवि है, वह धीर है, वह सर्वशास्त्रों में पण्डित है ।।67।।
स च मानी स च ज्ञानी पूजयेद यस्तु कालिकाम् ।
इत्येवञ्च श्रुतं देवि ! भूयः किं श्रोतुमिच्छसि ।।68।।
जो कालिका की पूजा करता है, वह मानी है, वह ज्ञानी है। हे देवि ! इस प्रकार मैंने सुना है । आप पुनः क्या सुनने की इच्छा करती हैं ? ।।68 ।।
इति मुण्डमालातन्त्र पार्वतीश्वर सम्वादे नवमः पटलः ॥9॥
मुण्डमालातन्त्र में पार्वती एवं ईश्वर के संवाद में नवम पटल का अनुवाद समाप्त ॥9॥