मुण्डमालातन्त्र पटल ८ – Mundamala Tantra Patal 8

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मुण्डमालातन्त्र (रसिक मोहन विरचित द्वितीय पटल) पटल ८ में ध्यान, कुम्भक, प्राणायाम, कुल्लुका, सेतु के बिना, हस्त के बिना, हंस के बिना, देह के बिना, भाव के बिना, स्थान के बिना, जप, तपस्या एवं धारणा के बिना किस प्रकार से सिद्धि प्राप्त होती है, के विषय में कहा गया है।

|| मुण्डमालातन्त्रम् (रसिक मोहन विरचितम्)द्वितीयः पटलः||

एकदा पार्वती देवी कराल-वदना शिवा ।

पप्रच्छ पार्वती देवी हसन्ती कालिका परा ॥1॥

(पुराकाल में) एक समय पर्वत राज हिमालय-कन्या कराल-वदना शिवगृहिणी परा-कालिका पार्वती देवी हँसती हुई शिव से अपनी जिज्ञासा प्रकट करती हैं ।।1।।

श्री पार्वत्युवाच –

महादेव! महेशान! महेश्वर! सदाशिव !

पृच्छाम्येकं महाभाग ! कृपया कथक प्रभो ।।2।।

श्री पार्वती ने कहा – हे महादेव ! हे महेश्वर ! हे महेशान ! हे सदाशिव ! हे महाभाग ! मैं एक विषय आपसे पूछ रही हूँ। हे प्रभो ! आप कृपा करके इसका उत्तर दें ।।2।।

विना ध्यानं कुम्भकञ्च प्राणायामञ्च कुल्लुकाम् ।

जपं तपो धारणञ्च सेतुञ्चैव विना करम् ।।3।।

विना हंसं विना पिण्डं विना भावं विना पद्म ।

कथं वा जायते सिद्धिर्वद नाथ! जगद्वरो ! ।।4।।

ध्यान, कुम्भक, प्राणायाम, कुल्लुका, सेतु के बिना, हस्त के बिना, हंस के बिना, देह के बिना, भाव के बिना, स्थान के बिना, जप, तपस्या एवं धारणा के बिना किस प्रकार से सिद्धि प्राप्त होती है, हे जगद्गुरो ! हे नाथ ! इसे बतावें।।3-4।।

श्री शिव उवाच –

ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैः शूद्रैरेव च जातिभिः ।

वामभाव-प्रभावेण कर्त्तव्यं जप-पूजनम् ।।5।।

श्री शिव ने कहा – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र जाति के द्वारा वामभाव के प्रभाव के अनुसार जप एवं पूजा करनी चाहिए ।।5।।

ये शाक्ता ब्राह्मणा देवि ! क्षत्रिया ब्राह्मणाः स्मृताः ।

वैश्याश्च ब्राह्मणाश्चण्डि ! सर्वे शूद्राश्च ब्राह्मणाः ।।6।।

हे देवि ! जो ब्राह्मणगण शाक्त हैं, वे त्रिनेत्र चन्द्रशेखर-स्वरूप हैं। जो क्षत्रिय शाक्त हैं, वह ब्राह्मणस्वरूप हैं। जो वैश्य शाक्त हैं, वह भी ब्राह्मस्वरूप हैं । हे चण्डि ! शाक्त होने पर समस्त शूद्र ही ब्राह्मणस्वरूप बन जाते हैं ।।6।।

ब्राह्मणः शराश्चण्डि ! त्रिनेत्राश्चन्द्रशेखराः ।

रक्तपुष्पैर्जगद्धात्री पूजयेद् हरवल्लभाम् ॥7॥

हे चण्डि ! ब्राह्मणगण त्रिनेत्र चन्द्रशेखर शङ्कर-स्वरूप हैं। हरवल्लभा जगद्धात्री को रक्तपुष्पों के द्वारा पूजा करें।

वज्रपुष्पेण देवेशि! देवीं त्रिभुवनेश्वरीम् ।

पूजयेद् भक्तिभावेन दुर्गा मोक्षविद्यायिनीम् ।।8।।

हे देवेशि ! भक्तिभाव से वज्रपुष्प के द्वारा त्रिभुवनेश्वरी मोक्षविधायिनी देवी दुर्गा की पूजा करें ।।8।।

हरसम्पर्कहीनायाः लतायाः काममन्दिरे ।

जातं कुसुममादाय महादेव्यै निवेदयेत् ।।9।।

इष्ट देवता के मन्दिर में शिव सम्पर्क रहित लता में उत्पन्न पुष्प को लेकर महादेवी को निवेदन करें ।।9।।

स्वयम्भूकुसुमं देवि! रक्तचन्दन-संज्ञकम् ।

तथा त्रिशूलपुष्पञ्च रक्त-पुष्पं वरानने ।

अनुकल्पं लोहिताग्रं चन्दनं हरवल्लभाम् ।।10।।

हे देवि ! रक्तचन्दन नामक (= तुल्य) स्वयम्भूकुसुम महादेवी को निवेदन करें । हे वरानने ! उसी प्रकार त्रिशूल पुष्प एवं रक्तपुष्प भी प्रदान करें । लोहिताग्र चन्दनपुष्प अनुकल्प है, उसे हरवल्लभा को निवेदित करें ।।10।।

कदाचित् कस्य मुक्तिः स्यात् कदाचिद् भक्तिरेव च ।

एतस्याः साधकस्याथ भक्तिर्मुक्तिः करे स्थिता ।। 11।।

कदाचित् किसी की मुक्ति होती है, कदाचित् किसी की भक्ति होती है । किन्तु इनकी साधक के लिए भक्ति एवं मुक्ति करतल में स्थित होती है अर्थात् इनके उपासक में भक्ति एवं मुक्ति अनायास ही होती है ।।11।।

योगी स्यान्नहि भोगी स्याद् भोगी स्यान्न हि योगवान् ।

योग-योगात्मकं कौलं तस्मात् कौलं समभ्यसेत् ।।12।।

यदि योगी हैं, तो भोगी नहीं हो सकते । और यदि भोगी हैं, तो योगी नहीं हो सकते । (परन्तु) कौलमार्ग योग एवं भोग – उभयस्वरूप है। अतः कौलमार्ग का अभ्यास करें।

न हि योगी न वा भोगी न योगी योगवानिति ।

योगी भोगी न वा भोगी भवेद भोगी न संशयः ॥13॥

जो कौल है, वह योगी भी नहीं है, भोगी भी नहीं है। किन्तु योगवान् होने के कारण ‘योगी’ भी नहीं होता है और योगी भोगी भी हो-ऐसा नहीं होता है। भोगी भोगी ही होता है। इसमें संशय नहीं है ।

शिवशक्तिं विना देवि ! यो धावति च मूढधीः ।

न योगी स्यान्न भोगी स्यात् कल्प-कोटि-शतैरपि ।14।।

हे देवि ! शिव-शक्ति के बिना जो मूढ़धी अन्य देवता के प्रति धावित होता है, वह एक कल्प-कोटि में भी न तो योगी बन सकता है, न भोगी बन सकता है।।

रुद्रस्य चिन्तनाद्रौ विष्णुः स्याद् विष्णुचिन्तनात् ।

दुर्गायाश्चिन्तनाद् दुर्गा भवत्येव न संशयः ।।15।।

रुद्र की भावना करने पर रुद्र बन जाता है। विष्णु की भावना से विष्णु बनते हैं । दुर्गा की भावना से दुर्गा बनते हैं – इसमें कोई संशय नहीं है ।।15।।

यथा शिवस्तथा दुर्गा या दुर्गा शिव एव सा ।

तत्र यः कुरुते भेदं स एव मूढधीर्नरः ।।16।।

जैसे शिव हैं, वैसे दुर्गा हैं। जो दुर्गा हैं, वहीं शिव हैं। जो मनुष्य इन उभय में भेद की कल्पना करता है, वह मनुष्य मूढधी है ।।16।।

देवी-विष्णु-शिवादीनामेकत्वं परिचिन्तयेत् ।

भेदकृन्नरकं याति रौरवं पापपुरुषः ॥17॥

देवी, विष्णु एवं शिव प्रभृति देवता में एकत्व की भावना करें । जो पाप-पुरुष इनमें भेद की कल्पना करता है, वह रौरव नामक नरक में गमन करता है ।।17।।

न हि दुर्गा समा पूज्या न हि दुर्गा-समं फलम् ।

न हि दुर्गा समं ज्ञानं न हि दुर्गा-समं तपः ॥18।।

दुर्गा के समान पूज्या नहीं है। दुर्गा के समान फल भी नहीं है। दुर्गा के समान ज्ञान नहीं है। दुर्गा के समान तपस्या नहीं है।

दुर्गायाश्चरितं यत्र तत्र कैलास-मन्दिरम् ।

इदं सत्यमिदं सत्यमिदं सत्यं वरानने ! ॥19॥

जहाँ पर दुर्गा के चरित का कथन किया जाता है, वह स्थान कैलास मन्दिर है। हे वरानने ! यह सत्य है, यह सत्य है, यह सत्य है ।।

स्वर्गे मत्यै च पाताले न हि शाक्तात् पर: प्रियः ।

सौराणां गाणपत्यानां वैष्णवानां तथैव च ।

ततोऽन्ते चैव शाक्तानां क्रमशः क्रमशः प्रियः ।।20 ॥

स्वर्ग, मर्त्य एवं पाताल में शाक्त से अधिक प्रिय कोई नहीं है । हे प्रिये ! सौरगण, गाणपत्यगण एवं वैष्णवगणों में ये क्रमशः प्रिय हैं। उसके बाद अन्त में शाक्त ही सभी के प्रिय हैं ।।

श्रृणु देवि वरारोहे ! नास्ति शाक्तात् परो जनः ।

शाक्तोऽपि शङ्करः साक्षात् पर-ब्रह्मस्वरूपभाक् ।।21।।

हे वरारोहे ! हे देवि ! श्रवण करें । शाक्त की अपेक्षा श्रेष्ठतर कोई भी नहीं है। शाक्त ही साक्षात शङ्कर हैं एवं वही परब्रह्मस्वरूप हैं ।

आराधिता येन काली तारा त्रिभुवनेश्वरी ।

षोडशी चैव मातङ्गी छिन्ना च बगलामुखी ।

आराधितो महेशानि! स शिवो नात्र संशयः ।।22॥

जिस व्यक्ति ने काली, तारा, त्रिभुवनेश्वरी, षोडशी, मातङ्गी, छिन्नमस्ता एवं बगलामुखी की आराधना की है, हे महेशानि ! उन्होंने शिव की भी आराधना की है। वह शिव हैं, इसमें संशय नहीं है ।।22।।

अतिगोप्यं वारारोहे! शाक्तानां परमं पद्म ।

यो जानाति मही-मध्ये स शिवो नात्र संशयः ।।23।।

हे वरारोहे ! शाक्त का परम पद अतिगोप्य है। इस पृथिवी पर जो इस तथ्य को जानता है, वह शिवस्वरूप है। इसमें संदेह नहीं है ।।23।।

ब्रह्माद्यर्चित-पादाब्ज यो भजेत् सततं मुदा ।

स यात्यचिरकालेन मुक्ति-मन्दिर मेव हि ॥24॥

जो सर्वदा आनन्द के साथ ब्रह्मादि देवों के द्वारा अर्चित, शक्ति के पादाब्जयुगल की भजना करते हैं वह शीघ्र ही मुक्ति-मन्दिर में गमन करते हैं ।।24।।

एका विद्या च प्रकृतिरेकस्तु पुरुषः शिवः ।

एकोऽहं वै त्वमेवैका एकमेव प्रभाषते ।

एवञ्च मनसा दुर्गा यो भजेत् हरवल्लभाम् ।।25।।

प्रकृतिरूपा विद्या एक हैं। पुरुषरूप शिव भी एक हैं । मैं एक हूँ। आप भी एक हैं । हमें सभी लोग एक कहते हैं । एवं विविध प्रकार से जो हरवल्लभा दुर्गा की भजना करता है, वह शीघ्र मुक्ति-मन्दिर में गमन करता है ।।25।।

पूजयेद् यन्त्र-पुष्पैस्तु साधको भुवि मण्डले ।

काकचञ्चु विधायैवं प्राणायाम विशुद्धिय ।

कुम्भकं मातृकान्यासं प्राणायाम पुनः पनुः ।।26।।

साधक इस पृथिवी मण्डल पर काकचञ्चु का अनुष्ठान कर, विशुद्धिप्रद प्राणायाम, कुम्भक, मातृकान्यास एवं पुनः-पुनः प्राणायाम कर, मन्त्रपुष्प के द्वारा देवी की पूजा करें ।

प्राणायाम-त्रयं भद्रे! अधमोत्तम-मध्यमम् ।

अधमाज्जायते स्वेदो मध्यमाद् गात्र-चालनम् ।

उत्तमाच्च क्षितित्यागो जायते नात्र संशयः ।।27॥

हे भद्रे ! अधम, मध्यम एवं उत्तम भेद से प्राणायाम तीन प्रकार का है। अधम प्राणायाम से स्वेद होता है। मध्यम प्राणायाम से गात्र चलित होने लगता है। उत्तम प्राणायाम से क्षितित्याग होने लगता है अर्थात यथेच्छरूप में आकाशादि में विचरण किया जा सकता है ।।27।।

प्राणोऽपानः समानश्चोदान-व्यानौ च वायवः ।

नागः कर्मोऽथ कृकरो देवदत्तो धनञ्जयः ।।28।।

प्राण, अपान, समान, उदान एवं व्यान – ये वायु हैं । अथवा, नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त एवं धनञ्जय – ये पाँच वायु हैं ।।

प्राणायामेन सर्वेषां विश्रामं जायते भृशम् ।

जवापुष्पैोण-पुष्पैः करवीरैर्मनोहरैः ॥29॥

कृष्णापराजितापुष्पैः रक्तैश्च मनिपुष्पकैः ।

पूजयेत् परया भक्तया चण्डिकां परमेश्वरीम् ॥30॥

प्राणायाम के द्वारा सभी में अत्यन्त विश्राम (आराम) उत्पन्न होता है । जवापुष्प, द्रोणपुष्प, मनोहर करबीर पुष्प, कृष्णा अपराजिता पुष्प, रक्तवर्ण मुनिपुष्प(= बकपुष्प) के द्वारा परम शक्ति के साथ परमेश्वरी चण्डिका की पूजा करें।।29-30।।

काली करालवदनां मुण्डमाला-विभूषिताम् ।

प्रणमेद् भक्तिभावेन पूजयेत् हरवल्लभाम् ॥31॥

मुण्डमाला-विभूषिता, कराल-वदना हरवल्लभा काली की पूजा भक्तिभाव से करें एवं प्रणाम करें ।।

हिमगिविहितो यस्तु सर्वालङ्ककार-भूषितः ।

रक्ताम्बर-परीधानो रक्तमाल्यानुलेपन : ॥32॥

क्रमेणैवं महेशानि सोऽहमित्येव चिन्तयन् ।

एवं कुलासने दुर्गे ! स्थिता च साधकोत्तमः ।।33॥

श्मशानं शवमारुह्य मध्यस्थो नरसाधकः ।

जप्त्वा महामनुं गुह्यं वसेत् कैलास-मन्दिरे ॥34॥

हे महेशानि ! जो उत्तरदिशा में उपविष्ट एवं समस्त अलङ्कारों से भूषित होकर, रक्त-वस्त्र परिधान कर, रक्त-माल्य को धारण कर एवं रक्त-चन्दन से चर्चित होकर, ‘सोऽहं’ इस प्रकार चिन्तन करते हुए इस क्रम से पूजा करते हैं । हे दुर्गे! इस प्रकार जो साधक-सत्तम कुलासन पर उपवेशन कर, देवी की पूजा करते हैं; जो साधक श्मशान में शव के मध्यस्थान में आरोहण कर, गोपनीय महामन्त्र का जप करते हैं, वह (वस्तुतः) कैलास-मन्दिर में वास करते हैं ।।32-34।।

शिवोऽहञ्च शिवेयञ्च सदा वै मध्य-भावना ।

आद्यामाद्यां समास्थाय ध्यायेत् कुण्डलिनी सदा ।।35।।

मैं शिव हूँ, ये शिवा हैं – सर्वदा यह मध्य भावना रहती है। आद्या महामाया का आश्रय कर, सर्वदा कुण्डलिनी का ध्यान करें ।।35।।

कदाचित् तारिणीं विद्यां दुर्गा तारक-तारिणीम् ।

पूजयेत् क्रियया शक्त्या ब्रह्मविद्यां मनोरमाम् ।।3 6।।

कभी तारिणी विद्या की, तारक-तारिणी मनोरम ब्रह्म-विद्या स्वरूपिणी दुर्गा की पूजा, भक्ति के साथ, सामर्थ्यानुसार उपचारों से करें ।।36।।

सहस्रारे महादेवं नीलकण्ठं सदाशिवम् ।

ब्रह्मादि-गोप्यं देवेशं ध्यायेत् शक्ति-समन्वितम् ।।37।।

सहस्रार-पद्म में, ब्रह्मादि देवों के गोपनीय देवेश्वर, सदाशिव, नीलकण्ठ, महादेव की, शक्ति के समभिव्याहार से ध्यान करें ।।37।।

इदञ्च दुर्लभं तन्त्रं मन्त्रं यन्त्रं महीतले ।

वाक्यं परम-निर्वाणं दाम्भिके पशुसङ्कटे ।

गोप्तव्यं वै वरारोहे स्वयोनिरिव पार्वति ! ॥38।।

हे वरारोहे ! हे पार्वति ! इस पृथिवी पर दुर्लभ तन्त्र, मन्त्र, यन्त्र, एवं परम निर्वाण-कारक वाक्य को दाम्भिक पशुओं के निकट निज योनि के समान गोपन करें ।।38।।

दिवारात्रौ महाभागे! प्रजपेत् परमं मनुम् ।

जप्त्वा भवेन्महाज्ञानी गाणपत्यं लभेत् तु सः ॥39॥

हे महाभागे ! इस श्रेष्ठ मन्त्र का जप, दिवा एवं रात्रि में करें । इसे जप करने पर महाज्ञानी बन जाते हैं। वह गाणपत्य का लाभ करते हैं ।।39।।

अहमेव शिवो ब्रह्म शिवोऽहं भैरवो ह्यह्म ।

भैरवोऽहं भैरवोऽहं रमणी मम भैरवी ।

मनसा ज्ञानमासाद्य साधकेन्द्रो भवेद भुवि ॥40॥

मैं ही शिव हूँ, मैं ही ब्रह्म हूँ, मैं ही शिव हूँ, मैं भैरव हूँ, मैं ही भैरव हूँ, मेरी स्त्री भैरवी है । मन के द्वारा इस ज्ञान का लाभ कर, जगत् में साधकेन्द्र (= साधक-श्रेष्ठ) बन सकते हैं ।।40।।

एवं ज्ञानं परं नित्यं निर्विकारं मनोरमम् ।

प्राप्यैवं सर्वदा जीवो विहरेत् क्षिति-मण्डले ॥41॥

इस प्रकार मनोरम, निर्विकार, श्रेष्ठ, नित्य ज्ञान का लाभ कर, जीव इस क्षितिमण्डल पर सर्वदा विचरण करें।।

पाद्यार्घ्याचमनीयाद्यैः पूजयेत् परमेश्वरीम् ।

सदानन्दः स विज्ञेयः सर्व-धर्मार्थ-साधकः ।।42॥

पाद्य, अर्घ्य, आचमन प्रभृति के द्वारा परमेश्वरी की पूजा करें। जो इस प्रकार पूजा करता है, उसे सदानन्द एवं सर्वधर्म तथा अर्थ के साधक-रूप में जानें ।।

भक्त्या च क्रियया चण्डी प्रणमेद् यस्तु कालिकाम् ।

जीवः शिवत्वं लभते सत्यं सत्यं न संशयः ॥43।।

हे चण्डि ! जो जीव भक्ति, क्रिया के साथ कालिका को प्रणाम करता है, वह जीव शिवत्व का लाभ करता है। यह सत्य, सत्य है। इसमें कोई संशय नहीं है ।।43 ।।

क्वः यमः क्व तपो विष्णुः क्व कलिः कर्म-हिंसकः।

सर्वञ्च मानसं क्लेशं सदा सत्यं विभावयेत् ।।44॥

कहाँ हैं यम ? कहाँ हैं तपस्या ? कहाँ हैं विष्णु ? कहाँ हैं कर्महिंसक कलि ? ये समस्त मानसिक क्लेश हैं। सर्वदा सत्य भावना करें ।।44।।

एवं विधानमासाद्य प्रजपेत् भावयेत् सुधीः।

सोऽचिरेणैव कालेन शिवत्वं लभते जनः ।।45।।

जो सुधी साधक एवं विध विधान का अनुसरण का जप करता है एवं भावना करता है, वह व्यक्ति शीघ्र ही शिवत्व का लाभ करता है ।।45।।

सदा क्रिया प्रकर्त्तव्या क्रियया सिद्धिमुक्तमाम् ।

प्राप्नोति सर्वदा सिद्धिमत एव न तां त्यजेत् ।।46॥

सर्वदा ही जपादि क्रिया को करें । क्रिया के द्वारा सर्वदा उत्तम सिद्धि का लाभ करता है। अतः सर्वदा उस सिद्धि का त्याग न करें ।।46।।

श्मशानसिद्धि-वैराग्यं शवसिद्धिर्वरानने ।

दर्गानग्रहमात्रेण भविष्यति न संशयः ।।47।।

हे वरानने ! श्मशान-सिद्धि, वैराग्य एवं शवसिद्धि, दुर्गा को अनुग्रह-मात्र से ही होती है, इसमें कोई संशय नहीं है।

दिव्यस्तु देववत् प्रायो वीरश्चोद्धत-मानसः ।

पशुभावस्तथा देवि! शुद्धश्च धरणीतले ।।48॥

दिव्य भाव का साधक प्रायः देवता के समान शुद्ध है । वीर भाव का साधक प्रायः उद्धत मना हैं । हे देवि ! इस प्रृथिवी-तल पर पशु-भाव का साधक उसी प्रकार हैं ।।48।।

श्रुत्वा हसन्ती सा काली कराली कमला-कला ।

दिगम्बरा दिव्यदेहा च प्राह देवं त्रिलोचनम् ॥49॥

वह कराली कमला कला दिव्यदेह धारिणी दिगम्बरा काली, देवदेव हर के निकट से इसे सुनकर हँसती हुई देवदेव त्रिलोचन से बोलीं ।।49।।

श्री पार्वत्युवाच –

गोप्यं यत् कथितं नाथ ! श्रुतं परममादरात् ।

अतिगोप्यं रहस्यञ्च श्रोतुमिच्छाम्यहं पुनः ।।50॥

श्री पार्वती ने कहा – हे नाथ ! आपने परम गोपनीय जो कुछ भी कहा है, अत्यन्त आदर के साथ उसे सुन चुकी हूँ। अतिगोपनीय रहस्य मैं पुनः सुनने की इच्छा करती हूँ ।।50।।

दिव्यस्तु दुर्लभो नाथ! वीरो-जाति-विहिंसकः ।

पशौ नाधिष्ठिता दुर्गा वीरतन्त्रे पुरा श्रुता ।

इदानीं श्रोतुमिच्छामि ब्रह्मवाक्यं सदाशिवः ! ॥51॥

हे नाथ ! दिव्य पुरुष दुर्लभ है । वीर स्वभाव से ही बहुत हिंसक होते हैं। पशु में दुर्गा अधिष्ठिता नहीं है। ऐसा पहले वीरतन्त्र में सुन चुकी हूँ। हे सदाशिव ! सम्प्रति ब्रह्मवाक्य को सुनने की इच्छा करती हूँ ।।51।।

श्री शिव उवाच –

श्रुतं भैरवतन्त्रं च योनि तन्त्रं कुलार्णवम् ।

कुलाचारं तथा गुप्तसाधनं गुरुतन्त्रकम् ।।52।।

श्री शिव ने कहा – भैरवतन्त्र, योनितन्त्र, कुलार्णवतन्त्र, कुलाचारतन्त्र, गुप्तसाधनतन्त्र एवं गुरुतन्त्र को मुझसे सुन चुकी हो ।।52 ।।

निर्वाणं समयाचारं वीरतन्त्रं श्रुतं पुरा ।

डामरं डमरं डीनं श्रुतं काली विलासकम् ।।53॥

पहले आपने मुझसे निर्वाणतन्त्र, समयाचारतन्त्र एवं वीरतन्त्र को सुना है । और डामरतन्त्र, डमरतन्त्र, डीनतन्त्र, काली-विलासतन्त्र को भी सुना है ।। 53 ।।

सप्तकोटि महाविद्या मम वक्रद् विनिर्गता ।

जामलं देवि ! ब्रह्माद्यं जामलं विष्णु-जामलम् ।।54॥

शिव जामलकं देवि जामलं मित्र-जामलम् ।

शक्ति-जामलकं दुर्गे! कथितञ्च श्रुतं त्वया ।।55।।

हे दुर्गे ! सात कोटि महाविद्याएँ मेरे मुख से निर्गत हुई हैं। हे देवि ! ब्रह्मजामल, विष्णुजामल, शिवजामल, मित्र (सूर्य) जामल और शक्तिजामल को भी बता चुका हूँ, आपने भी इन्हें सुना है ।।54-55।।

तथापि हृदय-ग्रन्थिरस्ति ते परमेश्वरि ।

पुरा सुकथितं तन्त्रं पुरा देवि! त्वया श्रुतम् ।।56।।

तथापि हे परमेश्वरि ! आपमें हृदयग्रन्थि (=अज्ञान) है। हे देवि ! पुराकाल में मैंने सुन्दर-रूप में तन्त्र को बताया है और आपने भी इन्हें सुना है ।।56।।

सङ्केतं समयाचारं तन्तसङ्केतकं तथा ।

कुलसङ्केतकं नाम सङ्केतं बहुविस्तरम् ।।57।।

श्मशान-साधनं भद्रे शवसाधनमेव च ।

एतत्ते कथितं देवि नाना-भावं पृथग्विधम् ।।58।।

हे भद्रे ! हे देवि ! मैंने अनेक विस्तार से सङ्केत, समयाचार, तन्त्रसङ्केत, कुलसङ्केत नामक सङ्केत, श्मशान-साधन, शव-साधन एवं पृथक्-पृथक् नाना भावों को अपासे कहा है ।।57-58।।

किन्त्वेकं शृणु चार्वङ्गि कथयामि समासतः।

मत्स्यं मांसञ्च मद्यञ्च मुद्रा मैथुनमेव च ।

दिव्यानां चैव वीराणां साधनं भावनाशनम् ।।59॥

हे चार्वङ्गि ! किन्तु सम्प्रति संक्षेप में आपको कुछ बता रहा हूँ, श्रवण करें । मत्स्य, मांस, मद्य, मुद्रा एवं मैथुन – ये दीव्य एवं वीर साधकों के भावनाशक साधन हैं ।।59।।

न मद्यं प्रपिबेद् विप्रो न मुद्रां भक्षयेत् सदा ।

न मैथुनमगम्यासु कर्त्तव्यं सिद्धिनाशनम् ।।60।।

विप्र मद्यपान न करें, कदापि मुद्रा (मद्यपानोपयोगी चटनी-विशेष) भक्षण न करें। अगम्या स्त्री में मैथुन कर्त्तव्य नहीं है। क्योंकि ये सभी सिद्धिनाशक हैं ।।60।।

अवधूतः शिवः साक्षादवधूतः सदाशिवः ।

अवधूती शिवा देवी अवधूताश्रयं शृणु ।।61।।

अवधूत साक्षात् शिवस्वरूप हैं । अवधूत साक्षात् सदाशिव हैं। अवधूती साक्षात् शिवादेवी हैं । अवधूत के सम्बन्ध में इन बातों को सुनें ।।61 ।।

चतुराश्रमिणां मध्ये अवधूताश्रमो महान् ।

अवधूतश्च द्विविधो गृहस्थश्च हितानुगः ।।62।।

सचेलश्चापि दिग्वासो विधियोनि-विहारवान् ।

सदारः सर्वदास्थो हट्टहासो दिगम्बरः ।।63।।

चार आश्रमों में अवधूताश्रम ही श्रेष्ठ आश्रम है। अवधूत दो प्रकार के हैं – (1) हितानुगामी वस्त्रपरिधानकारी गम्या स्त्री-गमनकारी गृहस्थ एवं (2) दिग्वासी (अकाशतलवासी गृहहीन)। दिगम्बर गृहावधूत हैं सस्त्रीक सर्वस्त्रीगामी एवं अट्टहासकारी ।।62-63 ।।

गृहावधूतो देवेशो द्वितीयस्तु सदाशिवः ।

न कलौ साधनं मद्यं प्रत्यक्षं वरवर्णिनि ! ॥64॥

गृहस्थ अवधूत हैं देवेश । दिगम्बर अवधूत हैं सदाशिव ! हे वरवर्णिनि ! कलिकाल में मद्य प्रत्यक्ष सिद्धि का साधन नहीं है ।।64।।

गृहावधूतो मैथुनं न कर्त्तव्यं दिगम्बरः ।

अत एव वरारोहे! मिश्राचारं प्रकल्पयेत् ।।65।।

गृहस्थ अवधूत दिगम्बर होकर मैथुन न करें। अतः हे वरारोहे ! मिश्राचार की कल्पना करें ।।65।।

एवमाचारमिश्रेण पूजयेद् यस्तु कालिकाम् ।

सन्तुष्टा सा जगद्धात्री योगमार्गविधायिनी ।।66॥

एवंविध मिश्र आचार के द्वारा जो कालिका की पूजा करते हैं, जगद्धात्री कालिका सन्तुष्टा होकर उनके मोक्षमार्ग का विधान करती हैं ।।66।।

स्वकरस्थश्च भोगश्च स्वकरस्थश्च मोक्षकः ।

देवीमन्त्रप्रसादेन किं न सिध्यति भूतले ।।67॥

भोग भी अपने करतलगत हो जाता है, मोक्ष भी अपने करतलगत हो जाता है। देवी के मन्त्र के प्रसाद से इस जगत् में क्या नहीं सिद्ध होता है ? अर्थात् समस्त ही सिद्ध होता है ।।67।।

सुराणाञ्च नराणाञ्च किन्नराणाञ्च पार्वति!।

शरण्यं तारिणीपादपद्मं मोक्षप्रदायकम् ।।68।।

हे पार्वति ! सुरगण, मनुष्यगण एवं किन्नरगणों के मोक्ष-प्रदायक तारिणी का पादपद्म ही एकमात्र आश्रय है।।

जवापराजिता-द्रोण-करवीरैः सितेतरैः।

गन्धैर्मालूरपत्रैश्च नैवेद्यैर्विविधैरपि ।।69।।

एवं विधि विधातव्या क्रिया सिद्धिकरात्मिका ।

तदैव जायते सिद्धिर्जीवन्मुक्तः सदाशिवः ॥70॥

शुक्ल एवं रक्त-जवा, अपराजिता, द्रोण एवं करबीर-पुष्प के द्वारा, चन्दन एवं बिल्वपत्र के द्वारा, नानाविध नैवेद्य के द्वारा, सिद्धकरी तारिणी की आराधनारूप क्रिया को एवं विध विधान के द्वारा करना चाहिए । तभी साधक को सिद्धि प्राप्त होती है। साधक जीवन्मुक्त होकर सदाशिव बन जाते हैं ।।69-70।।

नारिकेलोदकं चार्द्र जलं सर्वार्थ-साधनम् ।

कांस्ये गुड़े सव्यकरे कृत्वा कारण-कल्पनम् ।।71 ।।

वाम हस्त में कांस्यपात्र में नारिकेलोदक, आर्द्रक, सर्वार्थसाधन जल एवं गुड़ लेकर उन्हें कारण ( मद्य) रूप में कल्पना करें ।।71।।

तदा पूजा विधातव्या मद्येन नगनन्दिनि !

ब्राह्मणी क्षत्रिया वैश्या शूद्राणी सर्व मङ्गला ।

शुक्लं रक्तं तथा पीतं कृष्णं भद्रं समीरितम् ॥72॥

हे नगनन्दिनि ! तब मद्य के द्वारा पूजा करें । ब्राह्मणी, क्षत्रिया, वैश्या एवं शूद्राणी सुरा सर्वमङ्गलकारक है। शुक्लवर्ण, रक्तवर्ण, पीतवर्ण एवं कृष्णवर्ण मद्य को शुभ बताया गया है ।।72।।

शुक्लपुष्पं ब्राह्मणे तु रक्तपुष्पं च क्षत्रिये ।

वैश्ये च पीतपुष्पञ्च शूद्रे कृष्णमुदीरितम् ।।73 ।।

ब्राह्मण के लिए शुक्ल पुष्प, क्षत्रिय के लिए रक्त पुष्प, वैश्य के लिए पीत पुष्प एवं शूद्र के लिए कृष्ण पुष्प को शुभ बताया गया है ।।73।।

सम्विदासवयोर्मध्ये सम्विदैव गरीयसी ।

अनुकल्पानि चान्यानि न दद्यात् केवलां सुराम् ।।74।।

सम्विदा (सिद्धि) एवं आसव में सम्विदा ही गरीयसी है। अन्य सभी अनुकल्प है। केवल सुरा का दान न करें।।

साम्विदा-पानमात्रेण स वीरः स च मद्यपः ।

वाग्जाल-शास्त्रे कथितं निषिद्धं नगनन्दिनि ! ॥75।।

सम्विदा के पान-मात्र से ही वह वीर बन जाता है, वह मद्यप भी बन जाता है । हे नगनन्दिनि ! वाग्जाल (= मिथ्यातन्त्र) को शास्त्र में निषिद्ध कहा गया है।।75।।

अग्राह्यं तस्य वाक्यञ्च ग्राह्य तन्त्रात्मकं वचः ।

शिवा कर्त्री शिवा हर्त्री शिवा शिव विधायिनी ॥76॥

उस वाग्जाल-शास्त्र का वाक्य अग्राह्ल (=ग्रहण न करने योग्य) है। तन्त्र का वाक्य ही ग्राह्ल है। शिवा हर्त्री है। शिवा हर्त्री है। शिवा मङ्गल-कारिणी है ।।76।।

शिवेयं रमणी देवी शिवोऽहं शिवकामिनी ।

सदाशिव-शिवाराध्या शिवानन्द-विधायिनी ॥77।।

यह रमणी शिवकामिनी शिवा देवी हैं। मैं शिव हूँ। ये सदाशिव एवं शिव की आराध्या हैं एवं शिव की आनन्ददायिनी हैं ।।77।।

वामानन्दः शिवानन्दो भवेद्भव-समो जनः ।

त्रयाणां भावतत्त्वज्ञो भवत्येवं वरानने ॥78॥

हे वरानने ! वामानन्द प्राप्त एवं शिवानन्द प्राप्त साधक महादेवतुल्य बन जाते हैं। इस प्रकार वे शिव, शिवकामिनी एवं शिवा – इन तीनों के भावतत्त्वज्ञ बन सकते हैं ।।78।।

इति मुण्डमालातन्त्र पार्वतीश्वर-संवादे द्वितीयः पटलः ।।2।।

मुण्डमालातन्त्र के द्वितीय पटल का अनुवाद समाप्त ॥2॥

2 thoughts on “मुण्डमालातन्त्र पटल ८ – Mundamala Tantra Patal 8

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