निर्वाण षटकम् || Nirvan Shatkam

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“आत्मा” ही सच्चा स्व है। “निर्वाण” पूर्ण समता, शांति, स्वतंत्रता और आनंद है। “सत्का” या षटकम् का अर्थ है “छः” या “छह से मिलकर।”

निर्वाण संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ विलोपन या ‘बुझा हुआ’ होता है। निर्वाण का अर्थ – कामनाओं का अंत या इंद्रियातीय मुक्ति है। मोह और इनसे उत्पन्न कामनाएँ मनुष्य को पुनर्जन्म के सतत चक्र तथा इसके दु:ख के बंधन में बांधे रखती हैं। इन बंधनों से मुक्ति ही को निर्वाण कहा जाता है अर्थात् मोक्ष ।

निर्वाण षट्कम्, जिसे आत्मषट्कम् के रूप में भी जाना जाता है। एक गैर-द्वैतवादी (अद्वैत) रचना है जिसमें 6 छंद या श्लोक शामिल हैं, जिसका श्रेय अद्वैत की मूल शिक्षाओं, आदि शंकर की शिक्षाओं को दिया गया है।

ऐसा कहा जाता है कि जब आदि शंकर आठ वर्ष का था और नर्मदा नदी के पास भटक रहा था, अपने गुरु को खोजने की तलाश में, उन्होंने द्रष्टा गोविंदा भगवत्पाद से मुलाकात की, जिन्होंने उनसे पूछा, “आप कौन हैं?” लड़के ने इन श्लोकों के साथ उत्तर दिया, और स्वामी गोविंदपाद ने आदि शंकर को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया। कहा जाता है कि छंदों को आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाने वाले चिंतन प्रथाओं में प्रगति के लिए मूल्यवान माना जाता है।

निर्वाण षटकम् अथवा आत्मषट्कम्

॥ निर्वाण षटकम्॥

मनो बुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहम्

न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राण नेत्रे

न च व्योम भूमिर् न तेजो न वायु:

चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥१॥

मैं मन नहीं हूँ, न बुद्धि ही, न अहंकार हूँ, न अन्तःप्रेरित वृत्ति; मैं श्रवण, जिह्वा, नयन या नासिका सम पंच इन्द्रिय कुछ नहीं हूँ। मैं न आकाश, न ही पृथ्वी, और न ही अग्नि, और न ही वायु (अर्थात् पंच तत्वों सम नहीं हूँ) हूँ। वस्तुतः मैं चिर आनन्द हूँ, चिन्मय रूप शिव हूँ, शिव हूँ।

न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायु:

न वा सप्तधातुर् न वा पञ्चकोश:

न वाक्पाणिपादौ न चोपस्थपायू

चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥२॥

मैं प्राण संज्ञा नहीं हूँ, न मैं पंच-प्राण स्वरूप ही(पंचप्राण- प्राण, उदान, अपान, व्यान, समान) हूँ, न सप्त धातु (सप्तधातु- त्वचा, मांस, मेद, रक्त, पेशी, अस्थि, मज्जा) हूँ और नहीं पंचकोश (पंचकोश- अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनन्दमय) हूँ, और न ही मैं माध्यम हूँ निष्कासन, प्रजनन, सुगति, संग्रहण और वचन (गुदा, जननेन्द्रिय, पैर, हाथ, वाणी) का; वस्तुतः मैं चिर आनन्द हूँ, चिन्मय रूप शिव हूँ, शिव हूँ।

न मे द्वेष रागौ न मे लोभ मोहौ

मदो नैव मे नैव मात्सर्य भाव:

न धर्मो न चार्थो न कामो ना मोक्ष:

चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥३॥

न मुझमें द्वेष है, न राग है, न लोभ है, न मोह,न मुझमें अहंकार है, न ईर्ष्या की भावना न मुझमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही हैं,वस्तुतः मैं चिर आनन्द हूँ, चिन्मय रूप शिव हूँ, शिव हूँ।

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खम्

न मन्त्रो न तीर्थं न वेदा: न यज्ञा:

अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता

चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥४॥

न मुझमें पुण्य है न पाप है, न मैं सुख-दुख की भावना से युक्त ही हूँ, मन्त्र और तीर्थ भी नहीं, वेद और यज्ञ भी नहीं, मैं त्रिसंयुज (भोजन, भोज्य, भोक्ता) भी नहीं हूँ, वस्तुतः मैं चिर आनन्द हूँ, चिन्मय रूप शिव हूँ, शिव हूँ।

न मृत्युर् न शंका न मे जातिभेद:

पिता नैव मे नैव माता न जन्म

न बन्धुर् न मित्रं गुरुर्नैव शिष्य:

चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥५॥

न मुझे मृत्यु का भय है (मृत्यु भी कैसी?), मैं अपने सच्चे आत्म, मेरे अस्तित्व के बारे में कोई संदेह नहीं है से कोई अलग नहीं है, और न ही जन्म के आधार पर मैं भेदभाव किया है। न मेरा कोई पिता है, न माता और न लिया ही है मैंने कोई जन्म । न मैं कोई बन्धु, न मित्र और न ही कोई गुरु या शिष्य ही हूँ। वस्तुतः मैं चिर आनन्द हूँ, चिन्मय रूप शिव हूँ, शिव हूँ।

अहं निर्विकल्पॊ निराकार रूपॊ

विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्

न चासंगतं नैव मुक्तिर् न मेय:

चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥६॥

मैं संदेह रहित निर्विकल्प हूँ, आकार रहित हूँ, सर्वव्याप्त, सर्वभूत, समस्त इन्द्रिय-व्याप्त स्थित हूँ, न मुझमें मुक्ति है, न बंधन है; मैं सब कहीं, सब कुछ, सभी क्षण साम्य स्थित हूँ, वस्तुतः मैं चिर आनन्द हूँ, चिन्मय रूप शिव हूँ, शिव हूँ।

।। इति: निर्वाण षटकम् सम्पूर्ण ।।

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