और्ध्वदैहिक स्तोत्र || Ourdhva Daihik Stotra

0

पद्मपुराण के उत्तरखंड अध्याय७६ में उमामहेश्वरसंवाद के रूप में यह और्ध्वदैहिक स्तोत्र वर्णित है। ब्रह्मा द्वारा भगवान् श्रीरघुनाथजी की जो स्तुति की थी, वह ‘और्ध्वदैहिक स्तोत्र’ के नाम से प्रसिद्ध है। इसे भगवान् शिव ने माता पार्वती से कहा है।

और्ध्वदैहिक स्तोत्रम्

महादेव उवाच-

शृणु सुंदरि वक्ष्यामि स्तोत्रं चाभ्युदयं ततः।

यच्छ्रुत्वा मुच्यते पापी ब्रह्महा नात्र संशयः ॥१॥

धाता वै नारदं प्राह तदहं तु ब्रवीमि ते ।

तमुवाच ततो देवः स्वयंभूरमितद्युतिः ॥२॥

प्रगृह्य रुचिरं बाहुं स्मारयेच्चौर्ध्वदेहिकम् ।

महादेवजी कहते हैं-सुन्दरी ! सुनो, अब मैं अभ्युदयकारी स्तोत्र का वर्णन करूँगा, जिसे सुनकर ब्रह्महत्यारा भी निस्सन्देह मुक्त हो जाता है। ब्रह्माजी ने देवर्षि नारद से इस स्तोत्र का वर्णन किया था, वही मैं तुम्हें बताता हूँ। [पूर्वकाल में भगवान् श्रीरामचन्द्रजी जब रावण का वध कर चुके, उस समय समस्त देवता उनकी स्तुति करने के लिये आये। उसी अवसर पर] अमित तेजस्वी भगवान् ब्रह्मा ने श्रीरघुनाथजी की सुन्दर बाँह हाथ में लेकर जो उनकी स्तुति की थी, वह ‘और्ध्वदैहिक स्तोत्र’ के नाम से प्रसिद्ध है। आज मैं उसी को स्मरण करके तुमसे कहता हूँ।

भगवान्नारायणः श्रीमान्देवश्चक्रायुधोहरिः ॥३॥

शार्ङ्गधारी हृषीकेशः पुराणपुरुषोत्तमः।

अजितः खड्गभृज्जिष्णुः कृष्णश्चैव सनातनः ॥४॥

एकशृंगो वराहस्त्वं भूतभव्यभवात्मकः।

अक्षरं ब्रह्म सत्यं तु आदौ चांते च राघवः ॥५॥

लोकानां तु परो धर्मो विष्वक्सेनश्चतुर्भुजः।

सेनानी रक्षणस्त्वं च वैकुंठस्त्वं जगत्प्रभुः ॥६॥

श्रीब्रह्माजी बोले-श्रीरघुनन्दन ! आप समस्त जीवों के आश्रयभूत नारायण, लक्ष्मी से युक्त, स्वयं प्रकाश एवं सुदर्शन नामक चक्र धारण करनेवाले श्रीहरि हैं । शार्ङ्ग नामक धनुष को धारण करनेवाले भी आप ही हैं। आप ही इन्द्रियों के स्वामी एवं पुराण प्रतिपादित पुरुषोत्तम हैं। आप कभी किसी से भी परास्त नहीं होते । शत्रुओं की तलवारों को टूक-टूक करनेवाले, विजयी और सदा एकरस रहनेवाले-सनातन देवता सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण भी आप ही हैं। आप एक दाँतवाले भगवान् वराह हैं। भूत, भविष्य और वर्तमान-तीनों काल आपके ही रूप हैं। श्रीरघुनन्दन ! इस विश्व के आदि, मध्य और अन्त में जो सत्यस्वरूप अविनाशी परब्रह्म स्थित है, वह आप ही हैं। आप ही लोकों के परम धर्म हैं। आपको युद्ध के लिये तैयार होते देख दैत्यों की सेना चारों ओर भाग खड़ी होती है, इसीलिये आप विपक्सेन कहलाते है। आप ही चार भुजा धारण करनेवाले श्रीविष्णु हैं।

प्रभवश्चाव्ययस्त्वं च उपेंद्रो मधुसूदनः।

पृश्निगर्भो धृतार्चिस्त्वं पद्मनाभो रणांतकृत् ॥७॥

शरण्यं शरणं च त्वामाहुः सेन्द्रा महर्षयः।

ऋक्सामश्रेष्ठो वेदात्मा शतजिह्वो महर्षयः ॥८॥

त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कारस्त्वमोंकारः परंतपः।

शतधन्वा वसुः पूर्वं वसूनां त्वं प्रजापतिः ॥९॥

आप सबकी उत्पत्ति के स्थान और अविकारी हैं। इन्द्र के छोटे भाई वामन एवं मधु दैत्य के प्राणहन्ता श्रीविष्णु भी आप ही हैं। आप अदिति या देवकी के गर्भ में अवतीर्ण होने के कारण पृश्निगर्भ कहलाते हैं। आपने महान् तेज धारण कर रखा है। आपकी ही नाभि से विराट् विश्व की उत्पत्ति का कारणभूत कमल प्रकट हुआ था। आप शान्तस्वरूप होने के कारण युद्ध का अन्त करनेवाले हैं। इन्द्र आदि देवता तथा सम्पूर्ण महर्षिगण आपको ही सबका आश्रय एवं शरणदाता कहते हैं। ऋग्वेद और सामवेद में आप ही सबसे श्रेष्ठ बताये गये हैं। आप सैकड़ो विधिवाक्य रूप जिह्वाओं से युक्त वेदस्वरूप महान् वृषभ हैं। आप ही यज्ञ, आप ही वषट्कार और आप ही ॐकार हैं। आप शत्रुओं को ताप देनेवाले तथा सैकड़ों धनुष धारण करनेवाले हैं। आप ही वसु, वसुओं के भी पूर्ववर्ती एवं प्रजापति हैं।

त्रयाणामपि लोकानां आदिकर्ता स्वयंप्रभुः।

रुद्राणामष्टमो रुद्रः साध्यानामपि पंचमः ॥१०॥

आश्विनौ चापि कर्णौ ते सूर्यचंद्रौ च चक्षुषी ।

अंते चादौ च मध्ये च दृश्यसे त्वं परंतपः ॥११॥

प्रभवो निधनं चास्य न विदुः को भवानिति ।

दृश्यसे सर्वलोकेषु गोषु च ब्रह्मणेषु च ॥१२॥

दिक्षु सर्वासु गगने पर्वतेषु गुहासु च ।

सहस्रनयनः श्रीमाञ्छतशीर्षः सहस्रपात् ॥१३॥

आप तीनों लोकों के आदिकर्ता और स्वयं ही अपने प्रभु (परम स्वतन्त्र) हैं। आप रुद्रों में आठवें रुद्र और साध्यों में पाँचवें साध्य हैं। दोनों अश्विनीकुमार आप के कान तथा सूर्य और चन्द्रमा नेत्र हैं। परंतप ! आप ही आदि, मध्य और अन्त में दृष्टिगोचर होते हैं। सबकी उत्पत्ति और लय के स्थान भी आप ही हैं। आप कौन हैं-इस बात को ठीक-ठीक कोई भी नहीं जानते। सम्पूर्ण लोकों मे, गौओं में और ब्राह्मणों में आप ही दिखायी देते हैं तथा समस्त दिशाओं में, आकाश में, पर्वतों में और गुफाओं में भी आपकी ही सत्ता है। आप शोभा से सम्पन्न है। आपके सहस्त्रों नेत्र, सैकड़ों मस्तक और सहस्त्रों चरण है।

त्वं धारयसि भूतानि वसुधां च सपर्वताम् ।

अंतःपृथिव्यां सलिले सर्वसत्वमहोरगः ॥१४॥

त्रींल्लोकान्धारयन्नास्ते देवगंधर्वदानवान् ।

आप सम्पूर्ण प्राणियों को तथा पर्वतों सहित पृथ्वी को भी धारण करते हैं। पृथ्वी के भीतर पाताललोक में और क्षीरसागर के जल में आप ही महान् सर्प-शेषनाग के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। राम ! आप उस स्वरूप से देवता, गन्धर्व और दानवों के सहित तीनों लोकों को धारण करते है।

अहं ते हृदयं राम जिह्वा देवी सरस्वती ॥१५॥

देवा रोमाणि गात्रेषु निर्मितास्ते स्वमायया ।

निमिषस्ते स्मृता रात्रिरुन्मेषो दिवसस्तथा ॥१६॥

श्रीराम ! मैं (ब्रह्मा) आपका हृदय हूँ, सरस्वती देवी जिह्वा है तथा आपके द्वारा अपनी माया से उत्पन्न किये हुए देवता आपके अङ्गों में रोम हैं। आपका आँख मूंदना रात्रि और आँख खोलना दिन है।

संस्कारस्ते भवेद्देहो न तदस्ति विना त्वया ।

जगत्सर्वं शरीरे तत्स्थैर्यं च वसुधातलम् ॥१७॥

अग्निः कोपः प्रसादस्ते शेषः श्रीमांश्च लक्ष्मणः।

शरीर और संस्कार की उत्पत्ति आपसे ही हुई है। आपके बिना इस जगत् की स्थिति नहीं है। सम्पूर्ण विश्व आपका शरीर है, पृथ्वी आपकी स्थिरता है, अग्नि आपका कोप है और शेषावतार श्रीमान् लक्ष्मण आपके प्रसाद है।

त्वया लोकास्त्रयः क्रांताः पुराणैर्विक्रमैस्त्रिभिः ॥१८॥

त्वयेंद्रश्च कृतो राजा बलिर्बद्धो महासुरः।

लोकान्संहृत्य कालस्त्वं निवेश्यात्मनि केवलम् ॥१९॥

करोष्येकार्णवं घोरं दृश्यादृश्ये च नान्यथा ।

पूर्वकाल में वामनरूप धारण कर आपने अपने तीन पगों से तीनों लोक नाप लिये थे तथा महान् असुर बलि को बाँधकर इन्द्र को स्वर्ग का राजा बनाया था। आप ही कालरूप से समस्त लोकों का संहार करके अपने भीतर लीनकर सब ओर केवल भयङ्कर एकार्णव का दृश्य उपस्थित करते हैं। उस समय दृश्य और अदृश्य में कुछ भेद नहीं रह जाता।’

त्वया सिंहवपुः कृत्वा परमं दिव्यमुत्तमम् ॥२०॥

भयदः सर्वभूतानां हिरण्यकशिपुर्हतः।

आपने नृसिंहावतार के समय परम अद्भुत एवं दिव्य सिंह का शरीर धारण करके समस्त प्राणियों को भय देनेवाले हिरण्यकशिपु नामक दैत्य का वध किया था।

त्वमश्ववदनो भूत्वा पातालतलमाश्रितः ॥२१॥

संहृतं परमं हव्यं रहस्यं वै पुनः पुनः।

आपने ही हयग्रीव अवतार धारण करके पाताल के भीतर प्रवेश कर दैत्यों द्वारा अपहरण किये हुए वेदों के परम रहस्य और यज्ञ-यागादि के प्रकरणों को पुनः प्राप्त किया।

यत्परं श्रूयते ज्योतिर्यत्परं श्रूयते परः ॥२२॥

यत्परं परतश्चै वपरमात्मेति कथ्यते ।

परो मंत्रः परं तेजस्तमेव हि निगद्यसे ॥२३॥

जो परम ज्योतिःस्वरूप तत्त्व सुना जाता है, जो परम उत्कृष्ट परब्रह्म के नाम से श्रवण गोचर होता है, जिसे परात्पर परमात्मा कहा जाता है तथा जो परम मन्त्र और परम तेज है, उसके रूप में आपके ही स्वरूप का प्रतिपादन किया जाता है।

हव्यं कव्यं पवित्रं च प्राप्तिः स्वर्गापवर्गयोः।

स्थित्युत्पत्तिविनाशांस्ते त्वामाहुः प्रकृतेः परम् ॥२४॥

यज्ञश्च यजमानश्च होता चाध्वर्युरेव च ।

भोक्ता यज्ञफलानां च त्वं वै वेदैश्च गीयसे ॥२५॥

हव्य (यज्ञ), कव्य (श्राद्ध), पवित्र, स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति , संसार की उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार ये सब आपके ही कार्य हैं । ज्ञानी पुरुष आपको प्रकृति से पर बतलाते हैं। वेदों के द्वारा आप ही यज्ञ, यजमान, होता, अध्वर्यु तथा यज्ञफलों के भोक्ता कहे जाते हैं।

सीतालक्ष्मीर्भवान्विष्णुर्देवः कृष्णः प्रजापतिः।

वधार्थं रावणस्य त्वं प्रविष्टो मानुषीं तनुम् ॥२६॥

सीता साक्षात् लक्ष्मी हैं और आप स्वयंप्रकाश विष्णु, कृष्ण एवं प्रजापति हैं। आपने रावण का वध करने के लिये ही मानव-शरीर में प्रवेश किया है।

तदिदं च त्वया कार्यं कृतं धर्मभृतां वर ।

निहतो रावणो राम प्रहृष्टा देवताः कृताः ॥२७॥

कर्म करनेवालों में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी ! आपने हमारा यह कार्य पूरा कर दिया। रावण मारा गया, इससे सम्पूर्ण देवताओं को आपने बहुत प्रसन्न कर दिया है।

अमोघं देववीर्यं ते न ते मोघः पराक्रमः।

अमोघदर्शनं राम न च मोघस्तव स्तवः ॥२८॥

देव! आपका बल अमोघ है। अचूक पराक्रम कर दिखानेवाले श्रीराम ! आपको नमस्कार है। राम ! आपके दर्शन और स्तवन भी अमोघ है।

अमोघास्ते भविष्यंति भक्तिमंतो नरा भुवि ।

ये च त्वां देव संभक्ताःपुराणं पुरुषोत्तमम् ॥२९॥

देव ! जो मनुष्य इस पृथ्वी पर आप पुराण पुरुषोत्तम का भली-भाँति भजन करते हुए निरन्तर आपके चरणों में भक्ति रखेंगे, वे जीवन में कभी असफल न होंगे।

इममार्षस्तवं पुण्यमितिहासं पुरातनम् ।

ये नराः कीर्तयिष्यंति नास्ति तेषां पराभवः ॥३०॥

जो लोग परम ऋषि ब्रह्माजी के मुख से निकले हुए इस पुरातन इतिहास रूप पुण्यमय स्तोत्र का पाठ करेंगे, उनका कभी पराभव नहीं होगा।

इति श्रीपाद्मे महापुराणे पंचपंचाशत्साहस्र्यां संहितायामुत्तरखंडे उमामहेश्वरसंवादे आभ्युदयिकमूर्ध्वदैहिकस्तोत्रं नाम षट्सप्ततितमोऽध्यायः ॥
और्ध्वदैहिक स्तोत्र का फल व लाभ

यह श्रीरघुनाथजी का स्तोत्र है, जो सब स्तोत्रों में श्रेष्ठ है। जो प्रतिदिन तीनों समय इस और्ध्वदैहिक स्तोत्र का पाठ करता है, वह महापातकी होने पर भी मुक्त हो जाता है। श्रेष्ठ द्विजों को चाहिये कि वे संध्या के समय विशेषतः श्राद्ध के अवसर पर भक्तिभाव से मन लगाकर प्रयत्नपूर्वक इस स्तोत्र का पाठ करें। यह परम गोपनीय स्तोत्र है। इसे कहीं और कभी भी अनाधिकारी व्यक्ति से नहीं कहना चाहिये। इसके पाठ से मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है। निश्चय ही उसे सनातन गति प्राप्त होती है। नरश्रेष्ठ ब्राह्मणों को श्राद्ध में पहले तथा पिण्ड-पूजा के बाद भी इस और्ध्वदैहिक स्तोत्र का पाठ करना चाहिये। इससे श्राद्ध अक्षय हो जाता है। यह परम पवित्र स्तोत्र मनुष्यों को मुक्ति प्रदान करनेवाला है। जो एकाग्र चित्त से इस स्तोत्र को लिखकर अपने घर में रखता है, उसकी आयु, सम्पत्ति तथा बल की प्रतिदिन वृद्धि होती है। जो बुद्धिमान् पुरुष कभी इस स्तोत्र को लिखकर ब्राह्मण को देता है, उसके पूर्वज मुक्त होकर श्रीविष्णु के परमपद को प्राप्त होते हैं। चारों वेदों का पाठ करने से जो फल होता है, वही फल मनुष्य इस और्ध्वदैहिक स्तोत्र का पाठ और जप करके पा लेता है। अतः भक्तिमान् पुरुष को यत्नपूर्वक इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिये। इसके पढ़ने से मनुष्य सब कुछ पाता है और सुखपूर्वक रहकर उत्तरोत्तर उन्नति को प्राप्त होता है।

इस प्रकार और्ध्वदैहिक स्तोत्र समाप्त हुआ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *