परमात्मा (अद्वितीय) है उसके समान दूसरा कोई नहीं Parmatma Adwateey Hai Uske Saman Doosra Koi Nahi
तात्पर्य है कि परमात्मा में कोई भेद नहीं है किसी तरह का भी भेद नहीं है। भेद तीन प्रकार का होता है।
पहला स्वगत भेद
दूसरा सजातीय भेद
तीसरा विजातीय भेद
स्वगत भेद
जैसे एक शरीर में पैर अलग है हाथ अलग है पेट अलग है सिर अलग है यह स्वगत भेद है।
सजातीय भेद
वृक्ष- वृक्ष में कई भेद है हर तरह का वृक्ष अलग-अलग है। गाय- गाय में भी अनेक भेद है। कई तरह की गाय हैं यह सजातीय भेद है।
बिजातीय भेद
वृक्ष अलग हैं और गाय भैंस भेड़ आदि पशु अलग है या स्थावर और जंगम का भेद है ।इसे विजातीय भेद कहते हैं।
परमात्मा तत्व ऐसा है। कि उसमें न स्वागत भेद है, न सजातीय भेद है, और ना ही विजातीय भेद है, परमात्मा तत्व में कोई अवयव नहीं है।
इसलिए उसमें स्वगत भेद नहीं है।
जीव भिन्न-भिन्न होने पर भी स्वरूप से एक ही है। अतः उसमें सजातीय भेद भी नहीं है।
उस तत्व के सिवाय दूसरी सत्ता है ही नहीं। इसलिए उसमें विजातीय भेद भी नहीं है। वह परमात्मा तत्व सत्ता रूप से एक ही है।
जैसे समुद्र में लहरें उठती हैं, बुलबुले पैदा होते हैं, ज्वार भाटा आता है, पर यह सब का सब जल ही है।
इस जल से भाप निकलती है, वह भाप बादल बन जाती है, बादलों से फिर वर्षा होती है, कभी ओले गिरते हैं, बरसात का जल बह करके सरोवर नदी नाले में चला जाता है। नदी समुद्र में मिल जाती है।
इस प्रकार एक ही जल कभी समुद्र रूप से, कभी भाप रूप से, कभी बादल के रूप से, कभी बूंद के रूप से, कभी ओले के रूप से, कभी नदी के रूप से, और कभी आकाश में परमाणु के रूप से हो जाता है।
समुद्र, भाप, बादल, वर्षा, बर्फ, नदी, आदि में तो फर्क दिखाई देता है। पर जल के तत्व में कोई फर्क नहीं दीखता है। केवल जल तत्व को ही देखें तो उसमें ना समुद्र है, ना भाप है, ना बूंदे हैं, ना ओले हैं, ना नदी है, ना तालाब है, यह सब जल की अलग-अलग उपाधियां हैं।
तत्व से एक जल के सिवाय कुछ भी नहीं है। इसी प्रकार सोने के अनेक आभूषण हो सकते हैं। और उनका अलग-अलग रूप हो सकता है। उनका अलग-अलग आकार हो सकता है। उनका अलग-अलग वजन हो सकता है। और उनका मूल्य भी अलग-अलग हो सकता है।
परंतु यदि हम उसे तात्विक रूप से देखें तो वह सोना ही है। सोने के सिवाय कुछ नहीं, वह पहले भी सोना ही था, और बाद में भी सोना है।
इसी तरह मिट्टी के बर्तन जो कुम्हार बनाता है। उसके कई आकार हो सकते हैं सुराही के रूप में, दीपक के रूप में, घड़े के रूप में, उनका अलग-अलग नाम होता है। अलग-अलग आकार होता है।
लेकिन तत्व के रूप से वह मिट्टी ही है। वह पहले भी मिट्टी थी और बाद में भी मिट्टी ही है ।
ठीक इसी प्रकार पहले भी परमात्मा थे, बाद में भी परमात्मा रहेंगे, बीच में संसार रूप से अनेक रूप में देखने पर भी तत्व से परमात्मा ही हैं।
यह संसार दिखाई देता है। इसमें तरह-तरह के शरीर स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, और कारण शरीर, यह तीन प्रकार के शरीर होते हैं। कोई एक स्थान पर स्थिर रहने वाला आस्थावर शरीर है।
कोई गतिमान एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने वाला जंगम शरीर है। स्थिर रहने वालों में कोई नीम का वृक्ष हो सकता है। कोई आम का वृक्ष हो सकता है। कोई पीपल का वृक्ष हो सकता है।
तरह-तरह के पौधे हैं घास हैं, चलने फिरने बालों में एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने वालों में तरह-तरह के पशु -पक्षी मनुष्य यह सभी पृथ्वी पर हैं। पृथ्वी, जल तेज, वायु, आकाश, यह पंचमहाभूत है।
इन से आगे समष्टि (एक जगह एकत्रित बहुत वस्तु ) अहंकार है। फिर महत्तत्व समष्टि बुद्धि है।
महत्त्व तत्व के बाद फिर मूल रूप से प्रकृति है। यह सब मिलकर के ही संसार है। संसार के प्रारंभ में भी परमात्मा है। अंत में भी परमात्मा है। और बीच में अनेक रूपों से दिखाई देते हुए भी तत्व रूप से परमात्मा ही हैं।
श्रीमद्भागवत में भगवान ने कहा है
मन से, वचन से ,दृष्टि से, तथा अन्य इंद्रियों से जो कुछ भी ग्रहण किया जाता है वह सब मैं ही हूं। अतः मेरे सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं है।
अर्थात देखने, सुनने और चिंतन करने में जितना संसार आता है। वह मोह का मूल ही है। क्योंकि उसकी वास्तविकता और स्वतंत्रता है ही नहीं।
रामचरितमानस में गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने लिखा है
देखिय सुनिय गुनिय मन माही।
मोह मूल परमारथु नाही।।
अर्थात संसार पहले नहीं था, पीछे नहीं रहेगा, केवल बीच में बना हुआ दिखाई देता है ।बनावटी चीज निरंतर मिटती रहती है। और स्वतः सिद्ध परमात्मा तत्व ज्यों का त्यों विद्यमान है। वह एक परमात्मा तत्व ही अनेक रूपों में दिखाई देता है।
परमात्मा तत्व एक होते हुए भी अनेक रूपों में दिखाई देता है। और वह अनेक रूपों से देखने परभी स्वरूप से एक ही होता है।
कारण यह है कि वह एक ही था। और एक ही है। एक ही रहेगा। वह एक रूप से दिखे तो भी वही है। और अनेक रुप से दिखाई दे तो भी वही है।
जल से बने भाप, बादल, बर्फ ,आदि सब जल ही हैं। सोने से बने गहना सोना ही है। मिट्टी से बने बर्तन मिट्टी ही हैं।
इसी तरह जो अनेक रूपों में एक परमात्मा तत्व को ही देखता है। वही तत्वग्य, जीवनमुक्त, ज्ञानी- महात्मा होता है।
कारण कि उसको यथार्थ का ज्ञान हो गया, उसने परमात्मा को जान लिया, परमात्मा को तत्व से पहचान लिया, तत्व से जानते ही वह परमात्मा में प्रविष्ट हो जाता है।
परमात्मा तत्व पहले एक था, पीछे एक रहेगा, और अभी अनेक रूपों से दिखता है यह तीनों बातें काल, भूत, भविष्य और वर्तमान को लेकर परंतु उस तत्व में काल है ही नहीं।
इसी तरह वहां ना देश है, ना क्रिया है ना वस्तु है, ना व्यक्ति है, ना घटना है, ना परिस्थिति है, न अवस्था है, वह केवल एक ही तत्व है। अद्वैत है ,दूसरा कोई नहीं है।