परमात्मा तत्व का स्वरूप क्या है Parmatma Tatv Ka Swaroop Kya Hai
परमात्मा तत्व का स्वरूप है सत्ता मात्र। परमात्मा सब देश में, सब काल में ,संपूर्ण वस्तुओं में, संपूर्ण व्यक्तियों में ,संपूर्ण अवस्थाओं में, संपूर्ण घटनाओं में, संपूर्ण परिस्थितियों में, संपूर्ण क्रियाओं में ,सत्ता के रूप में विद्यमान है।
उस चिन्मय ज्ञान स्वरूप सत्ता में मैं, तू यह, वह का भेद नहीं है। परमात्मा इन सब से अतीत तत्व है।
यह सब तो उसके भीतर की गई कल्पनाएं हैं। जैसे आकाश में बादल है, समुद्र में लहरें हैं, मन में मनोराज्य है, स्वप्न दृष्टा में स्वप्न है ।
ऐसे ही परमात्मा तत्व में देश काल वस्तु आदि की प्रतीति है।
वह तत्व संपूर्ण प्रतीतियों का आश्रय का आधार और प्रकाशक है। उसके अंतर्गत अनंत ब्रह्मांड उत्पन्न और लीन होते रहते हैं। पर वह ज्यों का त्यों रहता है।
जब हम प्रतीति को सप्ता देते हैं ।तब यह कहते हैं कि परमात्मा तत्व प्रतीति का आश्रय आधार और प्रकाशक है।
जब सर्वत्र को सत्ता देते हैं। तब यह कहते हैं की परमात्मा तत्व सर्वत्र परिपूर्ण है। जब हम नहीं की सत्ता मानते हैं, तब यह कहते हैं कि परमात्मा तत्व रूप से विद्यमान है।
असत की सत्ता मानने पर ही परमात्मा तत्व को सत कहते हैं। यदि असत की सत्ता ना माने तो परमात्मा तत्व को सच कहना बनता ही नहीं है।
जैसे हमारे यहां रात और दिन दो होते हैं। परंतु सूर्य में ना रात होती है न दिन होता है ।वहां तो दिन ही दिन है।
पर रात ना होने से उसका नाम दिन नहीं है दिन नाम रात की अपेक्षा से होता है। रात नहीं है तो दिन कैसे।
रामचरितमानस में गोस्वामी जी ने लिखा है
राम सच्चिदानंद दिनेशा ।
नहि तह मोह निशा लवलेसा।।
अर्थात भगवान सूर्य दिन के स्वामी हैं। ऐसा तभी कहना पड़ता है जब दिन की सत्ता मानते हैं। वहां लवलेश मात्र भी मोह – निशा नहीं है।
ऐसा तभी कहना पड़ता है जब निशा की सत्ता मानते हैं। वहां दिन और निशा कहना बनता ही नहीं, ऐसा कहना वही बनता है जहां द्वैत (दो होने का भाव ) हो
योग वशिष्ठ में श्री रामचंद्र जी और वशिष्ठ जी का संवाद आता है।
श्री राम जी ने वशिष्ठ जी से पूछा, कि महाराज आप जिस ब्रह्मा की बात कहते हैं। वह ब्रह्मा क्या है, कैसा है।
यह सुनकर वशिष्ठ जी चुप हो गए। थोड़ी देर बाद राम जी ने फिर कहा की महाराज उस ब्रह्मा का वर्णन कीजिए वशिष्ठ जी ने कहा मैंने उसका वर्णन कर दिया।
तात्पर्य है कि मौन ही उस ब्रह्मा का वर्णन है। वहां इंद्रिया नहीं है, वहां मन नहीं है, बुद्धि नहीं है, प्रश्न नहीं है, उत्तर नहीं है, शब्द नहीं है, अर्थ नहीं है, कुछ नहीं है, केवल मौन है। मौन ही गुरु का व्याख्यान है।
तात्पर्य है कि उस परमात्मा तत्व में मन, बुद्धि, वाणी, आदि की कोई गति नहीं होती। मन सहित वाणी आज सब इंद्रियां उसे न पाकर जहां से लौट आती है।
मन समेत जेहि जान ना बानी
उस परमात्मा तत्व का अनुभव उत्पन्न नहीं होता। यदि अनुभव उत्पन्न हो तो वह मिट जाएगा परमात्मा तत्व अनुभव स्वरूप ही है।
केवल उसकी तरफ दृष्टि जाती है। दृष्टि जाने से ह्रदय ग्रंथि का भेदन हो जाता है। सारे संशय मिट जाते हैं। और संपूर्ण कर्मों का नाश हो जाता है।
मैं हूं यह हृदय की ग्रंथि है। है की तरफ दृष्टि जाने से ,ना मैं रहता है, और ना हूं रहता है।
अर्थात हृदय ग्रंथि का भेदन हो जाता है। परमात्मा तत्व क्या है, कैसा है, कौन है, यह संदेश नहीं रहते हैं।
संचित क्रिया और प्रारब्ध कर्म इन सब का क्षय हो जाता है। परमात्मा तत्व प्रकृति से भी परे है। प्रकृति भी जहां तुच्छ हो जाती है अर्थात वहां तक नहीं पहुंच सकती है।
उस परावर पर से पर परमात्मा का वर्णन हो ही कैसे सकता है। ऐसे परमात्मा तत्व की तरफ लक्ष्य होने पर वह ज्यों का त्यों रह जाता है।
परमात्मा तत्व के लिए कुछ भी कहे– सुने ,पढ़ें विचार करें, चिंतन करें, वह दूसरे की कुछ न कुछ सत्ता मानने से ही होगा ।
वास्तव में उसका वर्णन विचार, चिंतन ,संकेत आदि कुछ भी नहीं हो सकता है। किसी देश, काल, वस्तु, व्यक्ति अथवा अवस्था नाम रूप आज की कुछ न कुछ कल्पना करके ही उसका वर्णन हो सकता है।
ऐसा वह स्वतह सिद्ध चिन्मय तत्व है। उसका स्वरूप सप्ता मात्र है। जिसकी किसी देश काल वस्तु व्यक्ति आदि के साथ कभी किंचित मात्र भी लिप्तता नहीं है। ना हुई है, ना होगी, ना हो सकती है।
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