पितृ सूक्त || Pitru Sukta
पितृ सूक्तम् पितृदोष निवारण में अत्यंत चमत्कारी मंत्र पाठ है। यह पाठ शुभ फल प्रदान करने वाला सभी के लिए लाभदायी है। अमावस्या हो या पूर्णिमा अथवा श्राद्ध पक्ष के दिनों में संध्या के समय तेल का दीपक जलाकर पितृ-सूक्तम् का पाठ करने से पितृदोष की शांति होती है और सर्वबाधा दूर होकर उन्नति की प्राप्ति होती है। जो व्यक्ति जीवन में बहुत परेशानी का अनुभव करते हैं उनको तो यह पाठ प्रतिदिन अवश्य पढ़ना चाहिए। इससे उनके जीवन के समस्त संकट दूर होकर उन्हें पितरों का आशीष मिलता है…। पाठ के पश्चात् पीपल में जल अवश्य चढ़ाएं।
पितृ सूक्तम्
पितृसूक्त
उदीरतामवर उत् परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः ।
असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु ॥ १ ॥
नीचे, ऊपर और मध्य स्थानों मे रहनेवाले, सोमपान करने के योग्य हमारे सभी पितर उठकर तैयार हों । यज्ञ के ज्ञाता सौम्य स्वभाव के हमारे जिन पितरों ने नूतन प्राण धारण कर लिये हैं, वे सभी हमारे बुलाने पर आकर हमारी सुरक्षा करें।
इदं पितृभ्यो नमो अस्त्वद्य ये पूर्वासो य उपरास ईयुः ।
ये पार्थिवे रजस्या निषत्ता ये वा नूनं सुवृजनासु विक्षु ॥ २ ॥
जो भी नये अथवा पुराने पितर यहॉं से चले गये हैं, जो पितर अन्य स्थानों में हैं और जो उत्तम स्वजनों के साथ निवास कर रहे हैं अर्थात् यमलोक, मर्त्यलोक और विष्णुलोक में स्थित सभी पितरों को आज हमारा यह प्रणाम निवेदित हो।
आहंपितृन् त्सुविदत्रॉं अवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः ।
बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वस्त इहागमिष्ठाः ॥ ३ ॥
उत्तम ज्ञान से युक्त पितरों को तथा अपांनपात् और विष्णु के विक्रमण को, मैंने अपने अनुकूल बना लिया है । कुशासन पर बैठने के अधिकारी पितर प्रसन्नापूर्वक आकर अपनी इच्छा के अनुसार हमारे-द्वारा अर्पित हवि और सोमरस ग्रहण करें।
बर्हिषदः पितर ऊत्यर्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम् ।
त आ गतावसा शंतमेनाऽथा नः शं योरऽपो दधात ॥ ४ ॥
कुशासन पर अधिष्ठित होनेवाले हे पितर ! आप कृपा करके हमारी ओर आइये । यह हवि आपके लिये ही तैयार की गयी है, इसे प्रेम से स्वीकार कीजिये । अपने अत्यधिक सुखप्रद प्रसाद के साथ आयें और हमें क्लेश रहित सुख तथा कल्याण प्राप्त करायें।
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु ।
त आ गमन्तु त इह श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान् ॥ ५ ॥
पितरों को प्रिय लगनेवाली सोमरुपी निधियों की स्थापना के बाद कुशासन पर हमने पितरों को आवाहन किया है । वे यहॉं आ जायँ और हमारी प्रार्थना सुनें । वे हमारी सुरक्षा करने के साथ ही देवों के पास हमारी ओर से संस्तुति करें।
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्येमं यज्ञमभि गृणीत विश्र्वे ।
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरुषता कराम ॥ ६ ॥
हे पितरो ! बायॉं घुटना मोडकर और वेदी के दक्षिण में नीचे बैठकर आप सभी हमारे इस यज्ञ की प्रशंसा करें । मानव-स्वभाव के अनुसार हमने आपके विरुद्ध कोई भी अपराध किया हो तो उसके कारण हे पितरो, आप हमें दण्ड मत दें ( पितर बायॉं घुटना मोडकर बैठते हैं और देवता दाहिना घुटना मोडकर बैठना पसन्द करते हैं ) ।
आसीनासो अरुणीनामुपस्थे रयिं धत्त दाशुषे मर्त्याय ।
पुत्रेभ्यः पितरस्तस्य वस्वः प्र यच्छत त इहोर्जं दधात ॥ ७ ॥
अरुणवर्ण की उषादेवी के अङ्क में विराजित हे पितर ! अपने इस मर्त्यलोक के याजक को धन दें, सामर्थ्य दें तथा अपनी प्रसिद्ध सम्पत्ति में से कुछ अंश हम पुत्रों को देवें।
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः ।
तेभिर्यमः संरराणो हवींष्युशन्नुशद्भिः प्रतिकाममत्तु ॥ ८ ॥
( यम के सोमपान के बाद ) सोमपान के योग्य हमारे वसिष्ठ कुल के सोमपायी पितर यहॉं उपस्थित हो गये हैं । वे हमें उपकृत करने के लिये सहमत होकर और स्वयं उत्कण्ठित होकर यह राजा यम हमारे-द्वारा समर्पित हवि को अपनी इच्छानुसार ग्रहण करें।
ये तातृषुर्देवत्रा जेहमाना होत्राविदः स्तोमतष्टासो अर्कैः ।
आग्ने याहि सुविदत्रेभिरर्वाङ् सत्यैः कव्यैः पितृभिर्घर्मसद्भिः ॥ ९ ॥
अनेक प्रकार के हवि-द्रव्यों के ज्ञानी अर्कों से, स्तोमों की सहायता से जिन्हें निर्माण किया है, ऐसे उत्तम ज्ञानी, विश्र्वासपात्र घर्म नामक हवि के पास बैठनेवाले ‘ कव्य ‘ नामक हमारे पितर देवलोक में सॉंस लगने की अवस्था तक प्यास से व्याकुल हो गये हैं । उनको साथ लेकर हे अग्निदेव ! आप यहॉं उपस्थित होवें।
ये सत्यासो हविरदो हविष्पा इन्द्रेण देवैः सरथं दधानाः ।
आग्ने याहि सहस्त्रं देववन्दैः परैः पूर्वैः पितृभिर्घर्मसद्भिः ॥ १० ॥
कभी न बिछुडनेवाले, ठोस हवि का भक्षण करनेवाले, द्रव हवि का पान करनेवाले, इन्द्र और अन्य देवों के साथ एक ही रथ में प्रयाण करनेवाले, देवों की वन्दना करनेवाले, घर्म नामक हवि के पास बैठनेवाले जो हमारे पूर्वज पितर हैं, उन्हें सहस्त्रों की संख्या में लेकर हे अग्निदेव ! यहॉं पधारें।
अग्निष्वात्ताः पितर एह गच्छत सदः सदः सदत सुप्रणीतयः ।
अत्ता हवींषि प्रयतानि बर्हिष्यथा रयिं सर्ववीरं दधातन ॥ ११ ॥
अग्नि के द्वारा पवित्र किये गये हे उत्तमपथ प्रदर्शक पितर ! यहॉं आइये और अपने-अपने आसनों पर अधिष्ठित हो जाइये । कुशासन पर समर्पित हविर्द्रव्यों का भक्षण करें और ( अनुग्रहस्वरुप ) पुत्रों से युक्त सम्पदा हमें समर्पित करा दें।
त्वमग्न ईळतो जातवेदो ऽवाड्ढव्यानि सुरभीणि कृत्वी ।
प्रादाः पितृभ्यः स्वधया ते अक्षन्नद्धि त्वं देव प्रयता हवींषि ॥ १२ ॥
हे ज्ञानी अग्निदेव ! हमारी प्रार्थना पर आप इस हवि को मधुर बनाकर पितरों ने भी अपनी इच्छा के अनुसार उस हवि का भक्षण किया । हे अग्निदेव ! ( अब हमारे-द्वारा ) समर्पित हवि को आप भी ग्रहण करें।
ये चेह पितरो ये च नेह यॉंश्च विद्म यॉं उ च न प्रविद्म ।
त्वं वेत्थ यति ते जातवेदः स्वधाभिर्यज्ञं सुकृतं जुषस्व ॥ १३ ॥
जो हमारे पितर यहॉं ( आ गये ) हैं और जो यहॉं नही आये हैं, जिन्हें हम जानते हैं और जिन्हें हम अच्छी प्रकार जानते भी नहीं; उन सभी को, जितने ( और जैसे ) हैं, उन सभी को हे अग्निदेव ! आप भली भॉंति पहचानते हैं । उन सभी की इच्छा के अनुसार अच्छी प्रकार तैयार किये गये इस हवि को ( उन सभी के लिये ) प्रसन्नता के साथ स्वीकार करें।
ये अग्निदग्धा ये अनग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते ।
तेभिः स्वराळसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयस्व ॥ १४ ॥
हमारे जिन पितरों को अग्नि ने पावन किया है और जो अग्नि द्वारा भस्मसात] किये बिना ही स्वयं पितृभूत हैं तथा जो अपनी इच्छा के अनुसार स्वर्ग के मध्य में आनन्द से निवास करते हैं । उन सभी की अनुमति से, हे स्वराट् अग्ने ! ( पितृलोक में इस नूतन मृतजीव के ) प्राण धारण करने योग्य ( उसके ) इस शरीर को उसकी इच्छा के अनुसार ही बना दो और उसे दे दो ।
इति: पितृ सूक्तम् ॥
पितृसूक्तम् एक अन्य प्रकार से भी है-
पितृ-सूक्तम्
उदिताम् अवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः।
असुम् यऽ ईयुर-वृका ॠतज्ञास्ते नो ऽवन्तु पितरो हवेषु॥1॥
अंगिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वनो भृगवः सोम्यासः।
तेषां वयम् सुमतो यज्ञियानाम् अपि भद्रे सौमनसे स्याम्॥2॥
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः।
तेभिर यमः सरराणो हवीष्य उशन्न उशद्भिः प्रतिकामम् अत्तु॥3॥
त्वं सोम प्र चिकितो मनीषा त्वं रजिष्ठम् अनु नेषि पंथाम्।
तव प्रणीती पितरो न देवेषु रत्नम् अभजन्त धीराः॥4॥
त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कर्माणि चक्रुः पवमान धीराः।
वन्वन् अवातः परिधीन् ऽरपोर्णु वीरेभिः अश्वैः मघवा भवा नः॥5॥
त्वं सोम पितृभिः संविदानो ऽनु द्यावा-पृथिवीऽ आ ततन्थ।
तस्मै तऽ इन्दो हविषा विधेम वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥6॥
बर्हिषदः पितरः ऊत्य-र्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्।
तऽ आगत अवसा शन्तमे नाथा नः शंयोर ऽरपो दधात॥7॥
आहं पितृन्त् सुविदत्रान् ऽअवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः।
बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वः तऽ इहागमिष्ठाः॥8॥
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
तऽ आ गमन्तु तऽ इह श्रुवन्तु अधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥9॥
आ यन्तु नः पितरः सोम्यासो ऽग्निष्वात्ताः पथिभि-र्देवयानैः।
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तो ऽधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥10॥
अग्निष्वात्ताः पितर एह गच्छत सदःसदः सदत सु-प्रणीतयः।
अत्ता हवींषि प्रयतानि बर्हिष्य-था रयिम् सर्व-वीरं दधातन॥11॥
येऽ अग्निष्वात्ता येऽ अनग्निष्वात्ता मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।
तेभ्यः स्वराड-सुनीतिम् एताम् यथा-वशं तन्वं कल्पयाति॥12॥
अग्निष्वात्तान् ॠतुमतो हवामहे नाराशं-से सोमपीथं यऽ आशुः।
ते नो विप्रासः सुहवा भवन्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥13॥
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्य इमम् यज्ञम् अभि गृणीत विश्वे।
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरूषता कराम॥14॥
आसीनासोऽ अरूणीनाम् उपस्थे रयिम् धत्त दाशुषे मर्त्याय।
पुत्रेभ्यः पितरः तस्य वस्वः प्रयच्छत तऽ इह ऊर्जम् दधात॥15॥
॥ ॐ शांति: शांति:शांति:॥
पितृ सूक्तम् समाप्त॥