पुरुषसूक्तम् || Purush Suktam

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पुरुषसूक्तम्- पुरुष अर्थात् विराट पुरुष या महामानव । सूक्त अर्थात् स्तुति ।

पुरुषसूक्तम् का तात्पर्य एक ऐसे पुरुष की स्तुति से जो विराट है,जिसका ओर-छोर सामान्य नेत्रों से देख भी पाना संभव नहीं है। जिसे वेद पुराण नेति-नेति कह कर संबोधित करता है, जो साक्षात् परमेश्वर है। इनके अंगों में ही सारी सृष्टि समाहित हैं। इसका वर्णन ऋग्वेद, यजुर्वेद व अथर्ववेद में भी किया गया है। श्री कृष्णजी ने अपने इसी विराट स्वरूप का दर्शन अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में कराया था ।

 

पुरुषसूक्तम् –

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमि ँ सर्वत स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥

जो सहस्रों सिरवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरणवाले विराट पुरुष हैं, वे सारे ब्रह्मांड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं ॥१॥

पुरुष एवेद ँ सर्वम् यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥

जो सृष्टि बन चुकी, जो बननेवाली है, यह सब विराट पुरुष ही हैं । इस अमर जीव-जगत के भी वे ही स्वामी हैं और जो अन्न द्वारा वृद्धि प्राप्त करते हैं, उनके भी वे ही स्वामी हैं ॥२॥

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥

विराट पुरुष की महत्ता अति विस्तृत है । श्रेष्ठ पुरुष के एक चरण में सभी प्राणी हैं और तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में स्थित हैं ॥३॥

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः ।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत् साशनानशने अभि ॥

चार भागोंवाले विराट पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार, जड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है । इसके तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में समाये हुए हैं ॥४॥

ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥

उस विराट पुरुष से यह ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ , उस विराट से समष्टि जीव उत्पन्न हुए । वही देहधारी रूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को, फिर शरीरधारियों को उत्पन्न किया ॥५॥

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः संभृतं पृषदाज्यम् ।
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ॥

उस सर्वश्रेष्ठ विराट प्रकृति यज्ञ से दधियुक्त घृत प्राप्त हुआ (जिससे विराट पुरुष की पूजा होती है) । वायुदेव से संबंधित पशु हरिण, गौ, अश्वादि की उत्पत्ति उस विराट पुरुष के द्वारा ही हुई ॥६॥

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दा ँ सि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥

उस विराट यज्ञ पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद का प्रकटीकरण हुआ । उसी से यजुर्वेद एवं अथर्ववेद का प्रादुर्भाव हुआ अर्थात् वेद की ऋचाओं का प्रकटीकरण हुआ ॥७॥

तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः ॥

उस विराट यज्ञ पुरुष से दोनों तरफ दाँतवाले घोड़े हुए और उसी विराट पुरुष से गौए, बकरिया और भेड़ आदि पशु भी उत्पन्न हुए ॥८॥

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः ।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥

मंत्रद्रष्टा ऋषियों एवं योगाभ्यासियों ने सर्वप्रथम प्रकट हुए पूजनीय विराट पुरुष को यज्ञ (सृष्टि के पूर्व विद्यमान महान ब्रह्मांड रूपयज्ञ अर्थात् सृष्टि यज्ञ) में अभिषिक्त करके उसी यज्ञरूप परम पुरुष से ही यज्ञ (आत्मयज्ञ ) का प्रादुर्भाव किया ॥९॥

यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादा उच्येते ॥

संकल्प द्वारा प्रकट हुए जिस विराट पुरुष का, ज्ञानीजन विविध प्रकार से वर्णन करते हैं, वे उसकी कितने प्रकार से कल्पना करते हैं ? उसका मुख क्या है ? भुजा, जाघें और पाँव कौन-से हैं ? शरीर-संरचना में वह पुरुष किस प्रकार पूर्ण बना ? ॥१०॥

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भया ँ शूद्रो अजायत ॥

विराट पुरुष का मुख ब्राह्मण अर्थात् ज्ञानी (विवेकवान) जन हुए । क्षत्रिय अर्थात् पराक्रमी व्यक्ति, उसके शरीर में विद्यमान बाहुओं के समान हैं । वैश्य अर्थात् पोषणशक्ति-सम्पन्न व्यक्ति उसके जंघा एवं सेवाधर्मी व्यक्ति उसके पैर हुए ॥११॥

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणाश्च मुखादग्निरजायत ॥

विराट पुरुष परमात्मा के मन से चन्द्रमा, नेत्रों से सूर्य, कर्ण से वायु एवं प्राण तथा मुख से अग्नि का प्रकटीकरण हुआ ॥१२॥

नाभ्या आसीदन्तरिक्ष ँ शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ२ अकल्पयन् ॥

विराट पुरुष की नाभि से अंतरिक्ष, सिर से द्युलोक, पाँवों से भूमि तथा कानों से दिशाएँ प्रकट हुई । इसी प्रकार (अनेकानेक) लोकों को कल्पित किया गया है (रचा गया है) ॥१३॥

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तोऽस्यासीदाज्यम् ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥

जब देवों ने विराट पुरुष रूप को हवि मानकर यज्ञ का शुभारम्भ किया, तब घृत वसंत ऋतु, ईंधन(समिधा) ग्रीष्म ऋतु एवं हवि शरद ऋतु हुई ॥१४॥

सप्तास्यासन् परिधस्त्रिः सप्त समिधः कृताः ।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबन्धन् पुरुषं पशुम् ॥

देवों ने जिस यज्ञ का विस्तार किया, उसमें विराट पुरुष को ही पशु (हव्य) रूप की भावना से बाँधा (नियुक्त किया), उसमें यज्ञ की सात परिधियाँ (सात समुद्र) एवं इक्कीस (छंद) समिधाएँ हुई ॥१५॥

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥

आदिश्रेष्ठ धर्मपरायण देवों ने, यज्ञ से यज्ञरूप विराट सत्ता का यजन किया । यज्ञीय जीवन जीनेवाले धार्मिक महात्माजन पूर्वकाल के साध्य देवताओं के निवास, स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं ॥१६॥

पुरुषसूक्तम् से लाभ-

पुरुषसूक्तम् के नित्य पाठ व श्रवण से भुक्ति-मुक्ति कि प्राप्ति होती है।

॥इतिः श्री पुरुषसूक्तम् ॥

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