रासपंचाध्यायी॥ Rasapanchadhyayi

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श्रीमद भागवत महापुराण के दशम स्कंध के उनतीसवें अध्याय से तैंतीसवें अध्याय तक के पाँच अध्यायों को रास पंचाध्यायी कहा जाता है । इसे भागवत पुराण का प्राण माना जाता है । रास पंचाध्यायी के नित्य पाठ या श्रवण से घर में आ रही दुख,दरिद्रता,शोक तथा कलह का नाश होता है। यदि व्यक्ति आर्थिक परेशानियों से जूझ रहा हो तो उन्हे इनका पाठ या श्रवण नित्य-प्रति करना चाहिए। इनके पाठ या श्रवण से घर में प्रेम का वातावरण निर्मित होता है तथा सभी कष्टों का नाश होता है। यदि आप लम्बे समय से किसी बीमारियो से परेशान हों तो इनहे सुने या पढ़े शीघ्र ही बीमारियो से मुक्ति मिलेगी। जिन्हे मानसिक परेशानी अधिक हो वें नित्य श्रवण करें लाभ होगा। दिल या हृदय की बीमारियों में तो यह सटीक परिणाम देता है।

अथ रासपंचाध्यायी

प्रथम अध्याय

श्रीबादरायणिरुवाच

भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः।

वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः।।१।।

श्रीबादरायणि (व्यास जी) के पुत्र शुकदेव जी ने कहा – ऐश्वर्य-वीर्य आदि षडविध महान गुणों से युक्त भगवान श्रीकृष्ण ने वस्त्र हरण के समय गोपकुमारियों को दिये हुए वचन के अनुसार शरत्कालीन विकसित मल्लिका- चमेली आदि पुष्पों से परिशोभित उन रात्रियों को देखकर योगमाया नामक अपनी अचिन्त्य महाशक्ति को प्रकट किया और गोपरमणियों के साथ विहार करने की इच्छा की।।१।।

तदोडुराजः ककुभः करैर्मुखं प्राच्या विलिम्पन्नरुणेन शंतमैः।

स चर्षणीनामुदगाच्छुचो मृजन्। प्रियः प्रियाया इव दीर्घदर्शनः।।२।।

जब भगवान ने विहार करने की इच्छा की, तब उसी क्षण-दीर्घ प्रवास के पश्चात घर में आया हुआ प्रियतम जैसे अपने अत्यन्त सुखद हाथों से अपनी प्रेयसी का मुख-कमल अरुण वर्ग केसर से रँग दे, वैसे ही नक्षत्र पति चन्द्रमा ने गगन-मण्डल में उदित होकर अपने सुखमय सुस्निग्ध किरण रूपी कर-कमलों द्वारा पूर्व दिशा रूपी वधू का मुख अरुण वर्ण केसर से रँग दिया। इससे जगत के प्राणियों का शरत्कालीन सूर्य की प्रखर किरणों से उत्पन्न संताप दूर हो गया।।२।।

दृष्ट्‌वा कुमुद्वन्तमखण्डमण्डलं रमाननाभं नवकुंकुमारुणम्‌ ।

वनं च तत्कोमलगोभिरञ्जितं जगौ कलं वामदृशां मनोहरम्‌।।३।।

रासलीला के इच्छुक भगवान श्रीकृष्ण ने जब देखा कि कुमुदिनी को विकसित करने वाला पूर्ण चन्द्र आकाश-मण्डल में उदित हो गया है, लक्ष्मी जी के मुखकमल की भाँति उसकी किरण प्रभा सुशोभित है तथा नवीन कुंकुम के समान वह अरुणवर्ण हो रहा है और उसकी कोमल किरणों से समस्त वन प्रकाशित एवं सुरञ्जित हो उठा है, तब इसी समय को रासक्रीड़ा के लिये उपयुक्त दिव्य उज्ज्वल रस के उद्दीपन की पूर्ण सामग्री से युक्त समझकर उन्होंने सुन्दर नेत्रों वाली व्रज सुन्दरियों के मन को हरण करने वाला सुललित स्वरों में मधुर मुरली का वादन किया।।३।।

निशम्य गीतं तदनंगवर्धनं व्रजस्त्रिय: कृष्णगृहीतमानसा:।

आजग्मुरन्योन्यमलक्षितोद्यमा: स यत्र कांतो जवलोलकुण्डला:।।४।।

व्रज सुन्दरियों का मन तो पहले से ही श्यामसुन्दर ने अपने वश में कर रखा था। अब उस मिलन-लालसा-प्रेम बढ़ाने वाले वेणुगीत को सुनकर तो वे सर्वथा विमुग्ध हो गयीं। उनकी भय, संकोच, मर्यादा, धैर्य आदि सभी वृत्तियाँ विलुप्त हो गयीं। और वे जहाँ प्रियतम मुरली बजा रहे थे, वहाँ शीघ्रता से जा पहुँचीं। उनमें किसी ने भी परस्पर किसी को जाने की सूचना तक नहीं दी। बड़े वेग से चलने के कारण उस समय उनके कानों के कुण्डल नाच रहे थे।।४।।

दुहंत्योऽभिययु: काश्चिद्‌ दोहं हित्वा समुत्सुका:। पयोऽधिश्रित्य संयावमनुद्वास्यापरा ययु:।।५।।

श्रीकृष्ण का वंशीनाद सुनते ही-प्रियतम भगवान का आह्णान सुनते ही उनकी ऐसी दशा हुई कि श्रीकृष्ण से मिलने के लिये सदा ही समुत्सुक रहने वाली कुछ गोपियाँ जो दूध दुह रही थीं, वे दुहना बीच में ही छोड़कर चल दीं। कुछ चूल्हे पर दूध औटा रही थीं, वे दूध उफनता हुआ छोड़कर तथा कुछ दूसरी गोपियाँ हलुआ पका रही थीं, वे तैयार हुए हलुए को चूल्हे से बिना उतारे ही ज्यों-की-त्यों छोड़कर चली गयीं।।५।।

परिवेषयन्त्यस्तद्धित्वा पाययन्त्य: शिशून्‌ पय:। शुश्रुषन्त्य: पतीन्‌ काश्चिदश्नन्त्योऽपास्य भोजनम्‌।।६।।

कुछ अपने पति-पुत्रादि को भोजन परोस रही थीं, वे परोसना छोड़कर, कुछ छोटे बालकों को दूध पिला रही थीं, वे दूध पिलाना छोड़कर चल दीं। कुछ अपने पतियों की सेवा-शुश्रुषा कर रही थीं, वे सेवा-शुश्रुषा छोड़कर और कुछ स्वयं भोजन कर रही थीं, वे भोजन करना छोड़कर प्रियतम श्रीकृष्ण के पास चल पड़ीं।।६।।

लिम्पन्त्य प्रमृजन्त्योऽन्या अञ्जन्त्य: काश्च लोचने । व्यत्यस्तवस्त्राभरण: काश्चित्‌ कृष्णान्तिकं ययु:।।७।।

कुछ दूसरी गोपियाँ अपने शरीर में अंगराग-केसर-चन्दनादि लगा रहीं थीं, वे उसे छोड़कर, कुछ उबटन लगा रही थीं, वे उबटन छोड़कर और कुछ आँखों में अन्जन लगा रही थीं, वे अन्जन लगाना छोड़कर चल दीं। कुछ गोपांगनाएँ वस्त्र-अलंकार पहन रही थीं, वे उलटे-पलटे वस्त्राभूषण धारणकर-जैसे ओढ़नी को कमर में बाँधकर, लहँगा ओढ़कर, गले का हार कमर में पहनकर और करधनी को गले में डालकर-प्रियतम श्रीकृष्ण से मिलने के लिये पागल की तरह उनके पास दौड़ पड़ीं।।७।।

ता वार्यमाणा: पतिभि पितृभि: पितृभिर्भ्रातृबन्धुभि:। गोविन्दापहृतात्मानो न न्यवर्तन्त मोहिता:।।८।।

श्रीगोपांगनाओं का आत्मा-मन श्रीगोविन्द के द्वारा हर लिया गया था; इसलिये वे ऐसी सर्वथा मोहित-बाह्य विवेक से शून्य हो गयीं कि अपने पति, पिता तथा भाई-बन्धुओं के द्वारा रोकी जाने पर भी मुड़ीं नहीं। वे अपने-आपको भूलकर श्रीकृष्ण -संग की प्राप्ति के लिये दौड़ पड़ीं।।८।।

अंतर्गृहगता: काश्चिद्‌ गोप्योऽलब्धविनिर्गमा:। कृष्णं तद्भावनायुक्ता दध्युर्मीलितलोचना:।।९।।

श्रीगोपांगनाएँ दो प्रकार की थीं- नित्य सिद्धा और साधनसिद्धा। श्रीराधा तो भगवान की आह्लादिनी शक्ति ही थीं। ललिता, विशाखा, रूपमंजरी, अनंगमंजरी आदि सखी-सहचरी नित्यसिद्धा थीं। उन्हें तो कोई रोक ही नहीं सकता था। दण्डकारण्यवासी महर्षि आदि जो गोपीदेह को प्राप्त थे, वे साधनसिद्धा गोपियाँ थीं। उनमें से कुछ गोपांगनाओं की साधना अभी पूर्ण नहीं हुई थी, इसलिये उनकी श्रीकृष्ण के मिलन की रीति दूसरी थी। अतएव वे उस समय घर के भीतर गयी हुई थीं। पतियों ने घरों के दरवाजे बंद कर दिये; इसलिये उनको बाहर निकलने का मार्ग ही न मिला। तब वे आँखें मूँदकर उन प्रियतम श्रीकृष्ण की भावना से भावित होकर बड़ी तन्मयता से उनके सौन्दर्य-माधुर्य और उनकी मधुरतम लीलाओं का ध्यान करने लगीं।।९।।

दुस्सहप्रेष्ठविरहतीव्रतापधु ताशुभा:। ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेषनिर्वृत्या क्षीणमंगल:।।१०।।

तमेव परमात्मानं जारबुद्ध्यापि संगता:। जहुर्गुणमयं देहं सद्य: प्रक्षीणबंधना:।।११।।

परम प्रियतम श्रीकृष्ण के साक्षात मिलने में जब यों बाधा पड़ गयी, तब उसी क्षण उनके हृदयों में असह्य विरह की तीव्र ज्वाला धधक उठी – इतनी भयानक जलन हुई कि उनके अंदर अशुभ संस्कारों का जो कुछ लेशमात्र शेष था, वह सारा भस्म हो गया। फिर तुरन्त ही वे श्रीकृष्ण के ध्यान में निमग्न हो गयीं। ध्यान में प्राप्त हुए श्रीकृष्ण के आलिंगन से उन्हें इतना सुख मिला कि उनके सब-के-सब पुण्य के संस्कार भी एक ही साथ समूल नष्ट हो गये। यद्यपि गोपियों ने उस समय उन श्रीकृष्ण को जार-भाव से ही केवल ध्यान में प्राप्त किया था, फिर भी वे थे तो साक्षात परमात्मा ही, चाहे किसी भी भाव से उनका आलिंगन प्राप्त हुआ हो; अतएव उन्होंने पाप और पुण्यरूपी बन्धन से रहित होकर उसी क्षण प्राकृत शरीर को छोड़ दिया और भगवान की लीला में प्रवेश करने योग्य दिव्य अप्राकृत देह को प्राप्त कर वे प्रियतम श्रीकृष्ण से जा मिलीं।।१०-११।।

राजोवाच

कृष्णं विदु: परं कान्तं न तु ब्रह्मतया मुने। गुणप्रवाहोपरमस्तासां गुणधियां कथम्‌।।१२।।

महाराज परीक्षित ने पूछा – श्रीकृष्णलीला माधुरी का नित्य मनन करने वाले श्री शुकदेव जी! गोपियाँ तो श्रीकृष्ण को केवल परम प्रियतमरूप से ही जानती थीं; वे साक्षात परब्रह्म हैं, ऐसा अनुभव तो वे करती नहीं थीं। उनकी बुद्धि तो श्रीकृष्ण के सौन्दर्य-माधुर्य-लावण्य आदि गुणों में ही लगी हुई थी। ऐसी स्थिति में वे त्रिगुणमय देहादि संसार के प्रवाह से मुक्त कैसे हो गयीं? वे संसार से मुक्त होकर परमात्मा श्रीकृष्ण से कैसे जा मिलीं?।।१२।।

श्रीशुक उवाच

उक्तं पुरस्तादेतत्ते चैद्य: सिद्धिं यथा गत:। द्विषन्नपि हृषीकेशं किमुताधोक्षजप्रिया:।।१३।।

श्री शुकदेव जी ने कहा – परीक्षित! मैं तुमसे पहले ही कह चुका हूँ कि चेदिराज शिशुपाल सभी इन्द्रियों के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण से द्वेष रखने पर भी प्राकृत शरीर को त्यागकर अप्राकृत पार्षद देह रूप सिद्धि को प्राप्त हो गया था। फिर जो सम्पूर्ण प्रकृति और उसके गुणों से अतीत श्रीकृष्ण की प्रिया हैं और उनमें अनन्य प्रेम करती हैं, वे गोपियाँ उनको प्राप्त कर लें – इसमें कौन आश्चर्य की बात है।।१३।।

नृणां नि:श्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप। अव्ययस्याप्रेमयस्य निर्गुणस्य गुणात्मन:।।१४।।

राजन! भगवान श्रीकृष्ण जन्म-मृत्यु आदि षडविकारों से रहित अविनाशी परब्रह्म हैं, वे अपरिच्छिन्न हैं, मायिक गुणों से अथवा गुण-गुणी-भाव से रहित हैं और अचिन्त्यानन्त अप्राकृत परम कल्याण रूप दिव्य गुणों के परम आश्रय तथा सम्पूर्ण गुणों का नियन्त्रण करने वाले हैं, वे तो जीवों के परम कल्याण के लिये ही आविर्भूत होते हैं।।१४।।

कामं क्रोधं भयं स्नेहमैक्यं सौहृदमेव च। नित्यं हरौ विद्धतो यान्ति तन्मयतां हि ते।।१५।।

इसलिये जो व्यक्ति किसी भी सम्बन्ध से अपने जीवन को उन सर्व-दोषहारी भगवान से जोड़ देते हैं, वह सम्बन्ध चाहे सदा काम का हो, क्रोध का हो, भय का हो अथवा स्नेह, एकात्मता या सौहार्द का हो, वे निश्चय ही भगवान में तन्मय हो जाते हैं।।१५।।

न चैवं विस्मय: कार्यो भवता भगवत्यजे। योगेश्वरेश्र्वरे कृष्णे यत एतद्‌ विमुच्यते।।१६।।

अतएव तुम – सरीखे भागवत को जन्मादि रहित, योगेश्वरों के भी परम ईश्वर, ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य के परम निकेतन भगवान नन्दनन्दन श्रीकृष्ण के सम्बन्ध से केवल परम प्रियतम मानने वाली गोपियों की गुणमय देह से मुक्ति कैसे हो गयी – इस रूप में तनिक भी आश्चर्य नहीं करना चाहिये। गोपियों की तो बात ही क्या, श्रीकृष्ण के सम्बन्ध से तो स्थावर आदि समस्त जगत संसार-बन्धन से मुक्त हो सकता है।।१६।।

ता दृष्ट्‌वान्तिकमायाता भगवान्‌ व्रजयोषित:। अवदद्‌ वदतां श्रेष्ठो वाच:पेशैर्विमोहयन्‌।।१७।।

अस्तु, अब आगे क्या हुआ, यह सुनो! वक्ताओं में सर्वश्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण ने जब देखा कि व्रजसुन्दरियाँ मेरे अत्यन्त समीप आ गयी हैं, तब उन्होंने अपनी मनोहर वाक्चातुरी से उनको सर्वथा मोहित करते हुए कहा।।१७।।

श्रीभगवानुवाच

स्वागतं वो महाभागा: प्रियं किं करवाणि व:। व्रजस्यानामयं कच्चिद्‌ ब्रूतागमनकारणम्‌।।१८।।

भगवान श्रीकृष्ण बोले – महाभाग्यवती गोपियों! तुम भले आयीं, तुम आज्ञा दो, तुम लोगों को प्रिय लगने वाला मैं कौन-सा कार्य करूँ? व्रज में सब कुशल-मंगल तो है न? इस समय तुम लोग यहाँ मेरे पास किस प्रयोजन से पधारीं – यह तो बताओ।।१८।।

रजन्येषा घोररूपा घोरसत्त्वनिषेविता। प्रतियात व्रजं नेह स्थेयं स्त्रीभि: सुमध्यमा:।।१९।।

इस बात को सुनकर गोपियाँ लज्जायुक्त होकर मुस्कराने लगीं, तब उन्हें भय दिखाकर उनके प्रेम की परीक्षा लेते हुए भगवान ने फिर कहा – अरी सुन्दरियों! यह रात्रि का समय है; जो स्वभावतः बड़ा भयानक है; फिर इस वन में बाघ-सिंह आदि हिंसक प्राणी भरे हुए हैं। अतः तुम सब तुरंत व्रज को लौट जाओ। रात के समय इस घोर वन में स्त्रियों का ठहरना उचित नहीं है।।१९।।

मातर: पितर: पुत्रा भ्रातर: पतयश्च व:। विचिन्वन्ति ह्यपश्यंतो मा कृढ्वं बंधुसाध्वसम्‌।।२०।।

जब भय का उन पर कोई असर नहीं हुआ, तब भगवान ने उन्हें अपने घरवालों की दुश्चिन्ता का स्मरण दिलाया और कहा – देखो, तुम्हारे माता-पिता, पुत्र, भाई और पति तुम्हें घर में न देखकर इधर-उधर ढूँढ रहे होंगे। उन आत्मीय स्वजनों के मन में यह भय मत उत्पन्न होने दो कि पता नहीं, तुम्हारा क्या अनिष्ट हो रहा होगा।।२०।।

दृष्टं वनं कुसुमितं राकेशकररञ्जितम्‌। यमुनानिललीलैजत्तरुपल्लवशोभितम्‌।।२१।।

(उपर्युक्त तीन श्लोकों के द्वारा भगवान ने गोपियों के अनन्य प्रेमभाव की परीक्षा की। अनन्य-एकनिष्ठ प्रेम हुए बिना भगवान कभी प्रेमास्पद रूप से प्राप्त नहीं होते।) जब भगवान की ऐसी बातें सुनकर भी गोपियाँ कुछ बोलीं नहीं तथा प्रणय-कोप के वश होकर दूसरी ओर देखने लगीं, तब भगवान उन्हें वनशोभा की बात कहकर सती रूप से पतिसेवा करने तथा वात्सल्य भाव से बालक-वत्सों की सँभालने का कर्तव्य दिखाते हुए फिर कहने लगे- कदाचित तुम सब वन की शोभा देखने आयी होगी तो तुम लोगों ने भाँति-भाँति रंगो वाले परम विचित्र सुगन्धि से सम्पन्न पुष्पों से परिशोभित, पूर्णचन्द्रमा की किरण प्रभा से प्रभासित तथा यमुना जल का स्पर्श करके बहने वाले शीतल पवन की मन्द-मन्द गति से नाचते हुए वृक्षों के पत्तों से विभूषित वृन्दावन को भी देख लिया।।२१।।

तद्‌ यात माचिरं गोष्ठं शुश्रूषध्वं पतीन्‌ सती:। क्रन्दन्ति वत्सा बालाश्च तान्‌ पाययत दुह्यत।।२२।।

इसलिये हे सतियों! अब देर मत करो, बहुत शीघ्र व्रज को लौट जाओ। घर जाकर अपने-अपने पतियों की सेवा करो। देखो, तुम्हारे घर के बछड़े और छोटे-छोटे बच्चे रो रहे हैं, जाकर उन्हें दूध पिलाओ तथा बछड़ों के लिये गौएँ भी दुहो।।२२।।

अथवा मदभिस्नेहाद्‌ भवत्यो यन्त्रिताशया:। आगता ह्युपपन्नं व: प्रीयंते मयि जन्तव:।।२३।।

भगवान की इस बात को सुनकर गोपियों के मन में बड़ा क्षोभ हुआ, तब भगवान उनको आश्वासन देते हुए सती स्त्रियों के परम धर्म पतिसेवा तथा जार सेवन के दुष्परिणाम का स्मरण कराकर बोले – ‘अथवा यदि तुम लोग मेरे प्रति अत्यन्त प्रेमपरवश होकर आयी हो तो यह तुम्हारे योग्य ही है; क्योंकि प्राणिमात्र मुझसे प्रेम करते हैं।।२३।।

भुर्त: शुश्रूषणं स्त्रीणां परो धर्मो ह्यमायया। तद्‌बन्धूनां च कल्याण्य: प्रजानां चानुपोषणम्‌।।२४।।

परन्तु हे कल्याणी सतियों! यह सब होते हुए भी स्त्रियों का परम धर्म तो यही है कि निष्कपट भाव से पति और उसके भाई-बन्धुओं की सेवा करें तथा पुत्र-कन्यादि का और सेवक आदि का पालन-पोषण करें।।२४ ।।

दुश्शीलो दुर्भगो वृद्धो जडो रोग्यधनोऽपि वा। पति: स्त्रीभिर्न हातव्यो लोकेप्सुभिरपातकी।।२५।।

जिन स्त्रियों को इस लोक में कीर्ति और मृत्यु के पश्चात् श्रेष्ठ लोक प्राप्त करने की इच्छा हो, वे दुर्गुणों से भरे-बुरे स्वभाव वाले, भाग्यहीन, वृद्ध, मूर्ख, रोगी एवं निर्धन पति का भी कभी त्याग न करें, यदि वह महापापी न हो।।२५।।

अस्वर्ग्यमयशस्यं च फल्गु कृच्छ्रं भयावहम्‌। जुगुप्सितं च सर्वत्र औपपत्यं कुलस्त्रिया:।।२६।।

अच्छे कुल की स्त्रियों के लिये जारपुरुष की सेवा स्वदेश-परदेश, व्यवहार-परमार्थ, इहलोक-परलोक- सर्वत्र अत्यन्त निन्दनीय है। उसके कारण स्वर्ग से वंचित होना पड़ता है, संसार में अपयश होता है, इस लोक में स्वजनों का तथा परलोक में नरक यन्त्रणा का भय प्राप्त होता है। वह कुकर्म अत्यन्त तुच्छ-क्षणिक सुख देने वाला है और कष्टदायक है।।२६।।

श्रवणाद्‌ दर्शनाद्‌ ध्यानान्मयि भावोऽनुकीर्तनात्‌। न तथा संनिकर्षेण प्रतियात ततो गृहान्‌।।२७।।

इस पर भी जब गोपियों को चुप और अपनी अनन्यता पर दृढ़ देखा, तब उपदेश करते हुए बोले- फिर मेरे नाम-गुण-लीला आदि के श्रवण से, दूर से ही मेरा दर्शन करने से, निरन्तर मेरे रूप का चिन्तन-ध्यान करने से मेरे नाम-गुणों की चर्चा से मेरे प्रति जैसा प्रेम उमड़ता है, वैसा प्रेम अत्यन्त समीप रहने से नहीं होता, इसलिये तुम लोग अपने-अपने घर लौट जाओ।।२७।।

श्रीशुक उवाच

इति विप्रियमाकर्ण्य गोप्यो गोविन्दभाषितम्‌। विषण्णा भग्नसंकल्पाश्चिन्तामापुर्दुरत्ययाम्‌।।२८।।

श्री शुकदेव जी ने कहा – परीक्षित! गोविन्द की उपर्युक्त अत्यन्त अप्रिय बातें सुनकर गोपियाँ खिन्न हो गयीं, उनकी आशा टूट गयी और वे भीषण चिन्ता के अथाह समुद्र में डूब गयीं।।२८।।

कृत्वा मुखान्यव शुच: श्वसनेन शुष्यद्‌-बिम्बाधराणि चरणेन भुवं लिखन्त्य:।

अस्त्रैरुपात्तमषिभि: कुचकुंकुमानि तस्थुर्मृजंत्य उरुदु:खभरा: स्म तूष्णीम्‌।।२९।।

उनका हृदय दुःख से भर गया, उनके लाल-लाल पके हुए बिम्बफल-से अधर शोक के कारण चलने वाले लंबे तथा गरम श्वासों के ताप से सूख गये, उन्होंने अपने मुख नीचे की ओर लटका लिये और पैर के नखों से वे पृथ्वी को कुरेदने लगीं। उनके नेत्रों से काजल से सने आँसू बह-बहकर वक्षःस्थल पर पहुँच गये और वहाँ लगी हुई केसर को धोने लगे। वे चुपचाप खड़ी रह गयीं, कुछ भी बोल न सकीं।।२९।।

प्रेष्ठं प्रियेतरमिव प्रतिभाषमाणं कृष्णं तदर्थविनिवर्तितसर्वकामा:।

नेत्रे विमृज्य रुदितोपहते स्म किंचित्‌ संरम्भगद्गगदगिरोऽब्रुवतानुरक्ता:।।३०।।

उन गोपियों का मन एक मात्र श्रीकृष्ण में ही अनन्य भाव से अनुरक्त था। वे उनके लिये-उनकी सेवा के अतिरिक्त सभी भोगों का, सभी कामनाओं का सर्वथा त्याग कर चुकी थीं। जब उन्होंने अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के मुख से प्रेमशून्य व्यक्ति की-सी निष्ठुरता से भरी उपेक्षायुक्त वाणी सुनी, तब उन्हें बड़ी ही मर्म वेदना हुई। रोते-रोते उनकी आँखें रुँध गयीं, फिर उन्होंने धीरज धारण करके अपनी आँखों के आँसू पोंछे और पुनः रोती हुई प्रणयकोप के कारण गद्गदवाणी से कहने लगीं।।३०।।

गोप्य ऊचु

मैवं विभोऽर्हति भवान्‌ गदितुं नृशंसं संत्यज्य सर्वविषयांस्तव पादमूलम्‌।

भक्ता भजस्व दुरवग्रह मा त्यजास्मान्‌ देवो यथाऽऽदिपुरुषो भजते मुमुक्षून्‌।।३१।।

गोपियाँ बोलीं – हे सर्वसमर्थ प्रभो! हमारे प्राणवल्लभ! हे स्वच्छन्द विहारी! आप परम कोमल स्वभाव होकर भी इस प्रकार के निष्ठुरता भरे वचन क्यों बोल रहे हैं? ऐसा तो आपको नहीं चाहिये। हम धर्म-लज्जा-पति-स्वजनादि समस्त विषयों को सर्वथा त्यागकर यहाँ आयी हैं। हम तुम्हारे चरणतलों की सेविकाएँ हैं। हम लोगों का परित्याग मत करो। जैसे आदिदेव भगवान नारायण संसार-बन्धन से छूटने की इच्छा रखने वाले पुरुषों का मनोरथ पूर्ण करते हैं, वैसे ही तुम भी हमारे अंदर जाग्रत हुई तुम्हारी चरण सेवा-वासना को पूर्ण करके हमें कृतार्थ करो।।३१।।

यत्पत्यपत्यसुहृदामनुवृत्तिरंग स्त्रीणां स्वधर्म इति धर्मविदा त्वयोक्तम्‌।

अस्त्वेवमेतदुपदेशपदे त्वयीशे प्रेष्ठो भवांस्तनुभृतां किल बन्धुरात्मा।।३२।।

हे प्यारे! तुम सब धर्मों का रहस्य जानते हो। तुमने पति, पुत्र एवं अन्य स्वजनों की यथायोग्य सेवा करना ही स्त्रियों का अपना धर्म है, जो यह उपदेश दिया, सो तुम्हारा यह उपदेश तुम उपदेश करने वाले के प्रति ही हमारी ओर से चरितार्थ हो जाय; क्योंकि तुम ईश्वर हो- नहीं, नहीं तुम्हीं तो प्राणिमात्र के प्रियतम, बन्धु और आत्मा हो अर्थात् पति-पुत्रादि में जब तुम्हीं आत्मारूप से स्थित हो, अतः उनकी देह में भी सेव्य तुम्हीं हो- वे ही तुम जब साक्षात् हमें प्राप्त हो, तब एकमात्र तुम्हारी सेवा ही उन सबकी सेवा है; तुम्हारे उपदेश की सच्ची चरितार्थता तुम्हारी सेवा से ही होती है।।३२।।

कुर्वन्ति हि त्वयि रतिं कुशला: स्व आत्मन्‌ नित्यप्रिये पतिसुतादिभिरार्तिदै: किम्‌।

तन्न: प्रसीद परमेश्वर मा स्म छिन्द्या आशां भृतां त्वयि चिरादरविन्दनेत्र।।३३।।

प्रियतम! तुम्हीं सबके परम बन्धु, आत्मा और नित्यप्रिय सनातन-सहज प्रेमास्पद हो, इसलिये सार-असार को समझने वाले चतुर पुरुष तुम्हीं से प्रेम करते हैं। संसार के पति -पुत्रादि तो अपनी ममता में फँसाकर वस्तुतः नाना प्रकार से दुःख ही देने वाले हैं, उनसे हमारा कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होगा? अतएव हे परमेश्वर! तुम हम लोगों पर रीझ जाओ। कमलनयन! चिरकाल से पाली-पोसी हुई हमारी सेवाभिलाषा रूपी लता को यों निष्ठुरता से काट न दो।।३३।।

चित्तं सुखने भवतापहृतं गृहेषु यन्निर्विशत्यतु करावपि गृह्यकृत्ये।

पादौ पदं न चलतस्तव पादमूलाद्‌ याम: कथं व्रजभथो करवाम किं वा।।३४।।

श्रीकृष्ण! हम लोगों का जो चित्त अब तक घर में मजे में लग रहा था, उसको आपने सहज ही लूट लिया है तथा घर के कामों में लगे हुए हमारे दोनों हाथों को भी अपनी ओर खींच लिया है। इधर आपके द्वारा खींचे हुए हमारे ये दोनों चरण भी अब आपके चरणतल से दूर हटकर एक पग भी जाने के लिये तैयार नहीं हैं। तब आप ही बताओ, हम लोग कैसे व्रज को लौटकर जायँ और वहाँ जाकर भी क्या करें।।३४।।

सिञ्चागं नस्त्वदधरामृतपूरकेण हासावलोककलगीतजहृच्छयाग्निम्‌।

नो चेद्‌ वयं विरहजाग्न्युपयुक्तदेहा ध्यानेन याम पदयो: पदवीं सखे ते।।३५।।

प्राणवल्लभ! तुम्हारी मनोहर मुस्कान, प्रेम-सुधामयी दृष्टि और मुरली की मधुरतम तान ने हमारे हृदय में तुम्हारे प्रेम की अग्नि को धधका दिया है। उसे अपने अधरों की सुधा-धारा के प्रवाह से बुझा दो। ऐसा न करोगे तो प्यारे सखा! हम सब तुम्हारे विरह की प्रचण्ड अग्नि से अपने शरीर को जला देंगी और ध्यान के द्वारा तुम्हारे चरण कमलों के समीप जा पहुँचेंगी।।३५।।

यर्ह्यम्बुजाक्ष तव पादतलं रमाया दत्तक्षणं क्वचिदरण्यजनप्रियस्य।

अस्प्राक्ष्म तत्प्रभृति नान्यसमक्षमंग स्थातुं त्वयाभिरमिता बत पारयाम:।।३६।।

हे कमललोचन! तुम्हारे चरणतल वनवासियों को बड़े प्रिय हैं; और-तो-और नारायण की प्रिया लक्ष्मी देवी को भी सुख देने वाले हैं; उन चरणों का गोवर्धन आदि कुञ्जस्थलों में हमें जिस क्षण स्पर्श प्राप्त हुआ और तुमने हमें सेवा के लिये स्वीकार करके आनन्दित किया, उसी क्षण से प्यारे! हम किसी दूसरे के पास एक पल के लिये खड़ी भी नहीं हो सकतीं, पति-पुत्रादि की सेवा करना तो दूर की बात है।।३६।।

श्रीर्यत्पदाम्बुजरजश्चकमे तुलस्या लब्ध्वापि वक्षसि पदं किल भृत्यजुष्टम्‌।

यस्या: स्ववीक्षणकृतेऽन्यसुरप्रयास- स्तद्वद्‌ वयं च तव पादरज: प्रपन्ना:।।३७।।

जिन लक्ष्मी जी की कृपा दृष्टि प्राप्त करने के लिये ब्रह्मादि बड़े-बड़े देवता प्रयास करते रहते हैं, वे लक्ष्मी जी भी श्रीनारायण के वक्षःस्थल पर नित्य स्थान प्राप्त कर लेने पर भी तुलसी जी के साथ तुम्हारे चरण-कमल की उस रज को पाने के लिये लालायित रहती हैं, जो तुम्हारे सेवकों को सहज प्राप्त है; श्रीकृष्ण! हम लोग भी उन्हीं की भाँति सर्वत्याग करके तुम्हारी उसी चरणरज की शरण में आयी हैं।।३७।।

तन्न: प्रसीद वृजिनार्दन तेऽङ्‌घ्निमूलं प्राप्ता विसृज्य वसतीस्त्वदुपासनाशा:।

त्वत्सुन्दरस्मितानिरीक्षणतीव्रकाम-तप्तात्मनां पुरुषभूषण देहि दास्यम्‌।।३८।।

भगवन! तुम सबके सम्पूर्ण दुःखों का नाश करने वाले हो, हम सब तुम्हारे चरणों की सेवा करने की आशा से ही घर-कुटुम्बादि सब कुछ त्याग कर तुम्हारे चरणों की शरण में आयी हैं; अब तुम हम पर प्रसन्न होओ। हे पुरुषरत्न! तुम्हारी मधुर मुस्कान तथा तिरछी चितवन ने हमारे देह तथा मन को प्रेम-मिलन-लालसा की तीव्र अग्नि से संतप्त कर दिया है, अब तुम हम लोगों को दासी के रूप में स्वीकार कर सेवा का सौभाग्य प्रदान करो।।३८।।

वीक्ष्यालकावृतमुखं तव कुण्डलश्री-गण्डस्थलाधरसुधं हसितावलोकम्‌।

दत्ताभयं च भुजदण्डयुगं विलोक्य वक्ष: श्रियैकरमणं च भवाम दास्य:।।३९।।

प्रियतम! तुम्हारे मुखकमल को, जो घुँघराली अलकों के भीतर से झलक रहा है, जिसके कमनीय कपोलों पर कुण्डलों की छवि छा रही है, जिसके मधुर अधर अमृतमय हैं तथा जो हृदय को हर लेने वाली तिरछी चितवन तथा मधुर मुस्कान से समन्वित है, निरखकर तथा अभय दान देने वाली दोनों भुजाओं को एवं सौन्दर्य की एकमात्र मूर्ति श्रीलक्ष्मी जी के नित्य रतिप्रद वक्षःस्थल को निहारकर हम सब तुम्हारी सदा के लिये बिना मोल की दासी बन चुकी हैं।।३९।।

का स्त्र्यंग ते कलपदायतमूर्च्छितेन सम्मोहिताऽऽर्यचरितान्न चलेत्त्रिलोक्याम्‌।

त्रैलोक्यसौभगमिदं च निरीक्ष्य रूपं यद्‌ गोद्विजद्रुममृगा: पुलकान्यबिभ्रन्‌।।४०।।

प्रियतम! तीनों लोकों में ऐसी कौन-सी रमणी है, जो तुम्हारे मधुर-मधुर पद और आरोह-अवरोह क्रम से विभिन्न प्रकार की मुर्च्छनाओं से समन्वित मुरली-संगीत को सुनकर तथा त्रिभुवन के सौभाग्य रूप इस त्रिभंग-ललित श्यामसुन्दर-रूप को देखकर सर्वथा मोहित हो अपनी आर्य मर्यादा से विचलित न हो जाए। स्त्रियों की तो बात ही क्या है, तुम्हारा त्रिभुवन-मन-मोहन रूप तथा मुरली-संगीत ऐसा मोहक है कि इसे देख-सुनकर गौ, पक्षी, वृक्ष और मृग आदि प्राणी भी परमानन्द से पुलकित हो गये हैं।।४०।।

व्यक्तं भवान्‌ व्रजभयार्तिहरोऽभिजातो देवो यथाऽऽदिपुरुष: सुरलोकगोप्ता।

तन्नो निधेहि करपंकामार्तबन्धो तप्तस्तनेषु च शिरस्सु च किंकरीणाम्‌।।४१।।

दयामय! आप आर्तों के बन्धु हैं और यह प्रसिद्ध है कि जिस प्रकार आदिदेव भगवान श्रीनारायण देवताओं की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप भी व्रजमण्डल के भय को दूर करने के लिये प्रकट हुए हैं। हम भी आपके मिलन-मनोरथ की अग्नि से संतप्त, अत्यन्त आर्त हैं। अतएव आप हम किंकरियों के वक्षःस्थलों पर और सिर पर अपने कमल-कोमल हाथ रखकर हमें दुःख मुक्त कर दें।।४१।।

श्रीशुक उवाच

इति विक्लवितं तासां श्रुत्वा योगेश्र्वरेश्र्वर:। प्रहस्य सदयं गोपीरात्मारामोऽप्यरीरमत्‌।।४२।।

श्री शुकदेव जी बोले – परीक्षित! सनकादि-शिवादि योगेश्वरों के भी ईश्वर, नित्य आत्मस्वरूप में रमण करने वाले भगवान ने जब व्रज गोपियों की इस प्रकार मार्मिक व्यथा और व्याकुलता से पूर्ण वाणी को सुना, तब उनका हृदय दया से द्रवित हो गया और शुद्ध मन से हँसकर वे अपने कर-कमलों से उनके आँसू पोंछकर उनके साथ विलास-विहार करने लगे – उन्हें अपना स्वरूपभूत आनन्द देने लगे।।४२।।

ताभि: समेताभिरुदारचेष्टित: प्रियेक्षणोत्फुल्लमुखीभिरच्युत:।

उदारहासद्विजकुन्ददीधिति र्व्यरोचतैणांक इवोडुभिर्वृत:।।४३।।

प्रियतम की अत्यन्त समीपता प्राप्त करने से गोप रमणियों का विरह दुःख तथा प्रणय कोप शान्त हो गया और श्रीकृष्ण के दर्शन तथा उनकी प्रेम भरी चितवन के आनन्द से उनका मुख-कमल प्रफुल्लित हो उठा। वे जब हँसते थे, तब उनकी उज्ज्वल दन्त पंक्तियों पर कुन्दपुष्पों- जैसी शोभा छा जाती थीं। उस समय उनकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो ताराओं से घिरे हुए पूर्ण चन्द्रमा हों। श्रीकृष्ण इस प्रकार व्रजबालाओं को सुख देकर भी अपने सच्चिदानन्द घन स्वरूप से जरा भी च्युत नहीं हुए थे अर्थात् गोप रमणियों के साथ उनका यह क्रीड़ा-विहार सच्चिदानन्दमयी दिव्यलीला थी।।४३।।

उपगीयमान उद्गायन्‌ वनिताशतयूथप:। माला बिभ्रद्‌ वैजयन्तीं व्यचरन्मण्डयन्‌ वनम्‌।।४४।।

उस समय व्रज गोपियाँ अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के गुण, रूप तथा लीला आदि का मधुर स्वर से गान करने लगीं, उधर श्रीकृष्ण भी उच्च स्वर से उनके प्रेम और सौन्दर्य के गीत गाने लगे। इस प्रकार व्रज सुन्दरियों के सैकड़ों यूथों के नायक श्रीकृष्ण वैजयन्ती माला धारण किये श्रीवृन्दावन की शोभा बढ़ाते हुए विचरण करने लगे।।४४।।

नद्या: पुलिनमाविश्य गोपीभिर्हिमवालुकम्‌। रेमे तत्‌तरलानन्दकुमुदामोदवायुना।।४५।।

तदनन्तर गोपांगनाओं के साथ भगवान श्रीकृष्ण ने यमुना के उस परम रमणीय पुलिन पर पदार्पण किया। वह पुलिन यमुना जी की तरल तरंगों के स्पर्श से शीतल हो रहा था और कुमुदिनी की सुन्दर सुगन्ध से युक्त मन्द-मन्द वायु के द्वारा परिसेवित था। वहाँ बर्फ के समान उज्ज्वल तथा शीतल बालू बिछी हुई थी। इस प्रकार के आनन्दप्रद पुलिन पर भगवान अपनी स्वरूपभूता गोपियों के साथ क्रीड़ा करने लगे।।४५।।

बाहुप्रसारपरिरम्भकरालकोरु-नीवीस्तनालभननर्मनखाग्रपातै:।

क्ष्वेल्यावलोकहसितैर्व्रजसुन्दरीणा-मुत्तम्भयन्‌ रतिपतिं रमयांचकार।।४६।।

हाथ फैलाकर आलिंगन करना, हाथ, चोटी, जंघा, लँहगे और वक्षःस्थल का स्पर्श करना, विनोद करना, नखक्षत करना, विनोदपूर्ण चितवन से देखना, मुस्काना-इन सब चेष्टाओं के द्वारा गोपरमणियों के दिव्य कामरस-विशुद्ध प्रेम का उद्दीपन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण क्रीड़ा के द्वारा उन्हें आनन्द देने लगे – अपने दिव्य स्वरूपानन्द का वितरण करके उनको तृप्त करने लगे।।४६।।

एवं भगवतं कृष्णाल्लब्धमाना महात्मन:। आत्मानं मेनिरे स्त्रीणां मानिन्योऽभ्यधिकं भुवि।।४७।।

परम उदारशिरोमणि सच्चिदानन्द भगवान श्रीकृष्ण ने जब गोपियों का इस प्रकार सम्मान किया, तब उनके मन में ऐसा प्रेमाभिमान आ गया कि पृथ्वी भर की समस्त स्त्रियों में हम ही सबसे श्रेष्ठ हैं।।४७।।

तासां तत्‌ सौभगमदं वीक्ष्य मानं च केशव:। प्रशमाय प्रसादाय तत्रैवान्तरधीयत।।४८।।

तब उन व्रजसुन्दरियों के उस सौभाग्य के गर्व को तथा अकस्मात् उदय हुए प्रणय-अभिमान को देखकर उस गर्व को शान्त करने तथा मान को दूरकर उन्हें प्रसन्न करने के लिये भगवान श्रीकृष्ण वहीं उनके बीच में ही अन्तर्धान हो गये। रहे वहीं, पर उनको दिखना बंद हो गये।।४८।।

रासपंचाध्यायी – द्वितीय अध्याय

श्रीशुक उवाच

अन्तर्हिते भगवति सहसैव व्रजांगना:। अन्तप्यंस्तमचक्षाणा: करिण्य इव यूथपम्‌।।१।।

श्री शुकदेव जी बोले – भगवान श्रीकृष्ण अकस्मात् अन्तर्धान हो गये, उन्हें न देखकर व्रजसुन्दरियों की वैसी ही विकल दशा हो गयी, जैसी दल के स्वामी गजराज को न देखकर हथिनियों की हो जाती है। उनके हृदय में विरह की ज्वाला प्रज्वलित हो उठी।।१।।

गत्यानुरागस्मितविभ्रमेक्षितै-र्मनोरमालापविहारविभ्रमै:।

आक्षिप्तचित्ता: प्रमदा रमापते-स्तास्ता विचेष्टा जगृहुस्तदात्मिका:।।२।।

रमापति श्रीकृष्ण की ललित गति, प्रेमभरी सुमधुर मुस्कान, अत्यन्त मधुर तिरछी भृकुटी, प्रीतिभरी चितवन, मनोरम प्रेमालाप तथा अन्यान्य विविध लीला-विलास एवं श्रृंगार की भाव-भंगियों से उनका चित्त खिंचकर श्रीकृष्ण में लगा हुआ था। वे व्रज की गोपियाँ श्रीकृष्ण में ही तन्मय हो गयीं और फिर श्रीकृष्ण की ही विभिन्न चेष्टाओं का ध्यान करने लगीं।।२।।

गतिस्मितप्रेक्षणभाषणादिषु प्रिया: प्रियस्य प्रातिरूढमूर्तय:।

असावहं त्वित्यबलास्तदात्मिका न्यवेदिषु: कृष्णविहारविभ्रमा:।।३।।

इससे प्रियतम श्रीकृष्ण की ललित गति, मधुर हास, मनोरम चितवन, अमृतमय वचन आदि में वे श्रीकृष्ण की प्यारी व्रज सुन्दरियाँ उनके समान ही बन गयीं। उनके शरीर में भी वैसी ही चेष्टाओं का प्राकट्य हो गया और वे श्रीकृष्ण लीला-विलास के स्मरणजनित भाव से उन्मादिनी होकर श्रीकृष्ण स्वरूप ही बन गयीं तथा ‘मैं श्रीकृष्ण ही हूँ’ परस्पर इस प्रकार अपना परिचय देने लगीं।।३।।

गायन्त्य उच्चैरमुमेव संहता विचिक्युरुन्मत्तकवद्‌ वनाद्‌ वनम्‌

पप्रच्छुराकाशवदन्तरं बहिर्भूतेषु सन्तं पुरुषं वनस्पतीन्‌।।४।।

जब उनका यह श्रीकृष्णावेश कुछ शिथिल हुआ, तब भाव बदला और वे सब मिलकर ऊँचे स्वर से श्रीकृष्ण के गुणों का गान करने लगीं तथा प्रेम में पागल-सी होकर एक वन से दूसरे वन में उन्हें ढूँढने लगीं। भगवान श्रीकृष्ण जड़-चेतन सभी पदार्थों के अंदर और उनके बाहर भी सदा आकाश के सदृश एक रस तथा व्याप्त हैं। वे कहीं गये नहीं थे, परन्तु गोपियाँ उन्हें अपने बीच में न देखकर वनस्पतियों से-वृक्ष-लताओं से उनके समीप जा-जाकर प्रियतम का पता पूछने लगीं।।४।।

दृष्टो व: कच्चिदश्वत्थ प्लक्ष न्यग्रोध नो मन:। नन्दसूनुर्गतो हृत्वा प्रेमहासावलोकनै:।।५।।

व्रजसुन्दरियों ने पहले बड़े-बड़े वृक्षों के पास जाकर उनसे पूछा – ‘हे पीपल, पाकर, वट! नन्दनन्दन श्यामसुन्दर अपनी प्रेम भरी मुस्कान तथा चितवन से हम लोगों के मन चुराकर कहीं चले गये हैं, क्या तुम लोगों ने उनको देखा है?।।५।।

कच्चित्‌ कुरबकाशोकनागपुंनागचम्पका:। रामानुजो मानिनीनामितो दर्पहरस्मित:।।६।।

हे कुरबक! अशोक! नागकेशर! पुंनाग! चम्पक! जिनकी मधुरतम मुस्कान मात्र से बड़ी-बड़ी मानिनी रमणियों का दर्प चूर्ण हो जाता है, वे बलराम जी के छोटे भाई श्रीकृष्णचन्द्र इधर से गये हैं क्या? ।।६।।

कच्चित्तुलसि कल्याणि गोविन्दचरणप्रिये। सह त्वालिकुलैर्बिभ्रद्‌ दृष्टस्तेऽतिप्रियोऽच्युत:।।७।।

जब इन पुरुषजातीय वृक्षों से उत्तर नहीं मिला, तब उन्होंने स्त्रीजाति के पौधों से पूछा – ‘बहिन तुलसी! तुम तो कल्याणमयी हो, सबका कल्याण चाहती हो। तुम्हारा श्रीगोविन्द के चरणों में बड़ा प्रेम है और वे भी तुमसे प्रेम करते हैं; इसीलिये भ्रमरों से घिरी हुई तुम्हारी माला को सदा हृदय पर धारण करते हैं। उन अपने प्रियतम अच्युत-जो अपने प्रेम-स्वभाव से कभी च्युत नहीं होते – श्यामसुन्दर को क्या तुमने इधर से जाते देखा है?।।७।।

मालत्यदर्शि व: कच्चिन्मल्लिके जाति यूथिके। प्रीतिं वो जनयन्‌ यात: करस्पर्शेन माधव:।।८।।

गोपियों ने समझा तुलसी श्रीकृष्ण को अति प्यारी है, इसको उनका अवश्य पता होगा। पर जब उसने भी कोई उत्तर नहीं दिया, तब वे सुगन्धित पुष्पों वाले पौधों से पूछने लगीं – सोचा कि श्रीकृष्ण को इनके पुष्प बहुत प्रिय लगते हैं, अतः इनको पता होगा। हे मालती! चमेली! जूही! तुम्हारे सुन्दर, सुगन्धित पुष्पों का चयन करते समय अपने कोमल करों से स्पर्श करके तुम्हें आनन्द देते हुए क्या हमारे प्रियतम माधव को तुमने इधर से जाते देखा है?।।८।।

चूतप्रियालपनसासनकोविदार-जम्ब्वर्कबिल्वबकुलाम्रकदम्बनीपा:।

येऽन्ये परार्थभवका यमुनापकूला: शंसन्तु कृष्णपदवीं रहितात्मनां न:।।९।।

पुष्प लताओं से भी जब उत्तर नहीं मिला, तब यह सोचकर कि बड़े-छोटे सभी वृक्ष दीन-दुखियों के उपकार में ही सदा लगे रहते हैं, हम सब दुःख संतप्त हैं, अतः इनके स्वभाव की स्मृति कराते हुए इन वृक्षों से पूछें, वे उनसे बोलीं – हे रसाल, प्रियाल, कटहल, पीतशाल, कचनार, जामुन, आक, बेल, मौलसिरी, आम, कदम्ब, नीम और यमुना तट पर विराजमान अन्यान्य तरुवरों! तुमने तो केवल परोपकार के लिये ही जीवन धारण किया है। हमारा हृदय श्रीकृष्ण के बिना सूना हो रहा है; अतएव हम तुम लोगों से प्रार्थना करती हैं कि तुम कृपा करके श्रीकृष्ण का पता हमें बता दो।।९।।

किंते कृतं क्षिति तपो बत केशवाङ्‌घ्नि-स्पर्शोत्सवोत्पुलकितागंरुहैर्विभासि।

अप्यङ्‌घ्निसम्भव उरुक्रमविक्रमाद्‌ वा आहो वराहवपुष: परिम्भणेन।।१०।।

वृक्षों से भी जब कोई उत्तर नहीं मिला, तब उन्मादिनी व्रजसुन्दरियों ने पृथ्वी को सम्बोधन करके कहा – ‘भगवान की प्रियतमे पृथ्वी देवि! तुमने ऐसा कौन-सा तप किया है जो तुम श्रीकृष्ण के चरणारविन्द का स्पर्श प्राप्त करके आनन्द से उत्फुल्ल हो रही हो और तृण-अंकुर आदि के रूप में रोमांचित होकर शोभा पा रही हो? तुम्हारा यह आनन्दोल्लास अभी-अभी श्रीकृष्ण के चरण स्पर्श के कारण है। अथवा बलि को छलते समय वामनावतार में विराट रूप से अपने चरणों के द्वारा उन्होंने तुमको नापा था, उसके कारण है? या उससे भी पूर्व जब तुम्हारा उद्धार करने के लिये उन्होंने तुमसे वाराह रूप से आलिंगन किया था, उसके कारण तुम्हें इतना आनन्द हो रहा है?।।१०।।

अप्येणपत्न्युपगत: प्रिययेह गात्रै-स्तन्वन्‌ दृशां सखि सुनिर्वतिमच्युतो व:।

कान्तांगसंगकुचकुंकुमञ्जिताया: कुन्दस्त्रज: कुलपतेहि वाति गन्ध:।।११।।

तदनन्तर हिरणियों की दृष्टि को प्रसन्न देखकर गोपांगनाओं ने सोचा, इन्होंने श्रीकृष्ण को देखा होगा और उनसे कहने लगीं – ‘अरी सखी हिरणियों! अपने प्रेममय स्वभाव में नित्य स्थित श्यामसुन्दर अपनी प्राणप्रिया के साथ अपने मनोहर अंगों के सौन्दर्य-माधुर्य से तुम्हारे नेत्रों को निरतिशय आनन्द प्रदान करते हुए तुम्हारे समीप से तो नहीं गये हैं? हमें तो ऐसा लगता है, वे यहाँ अवश्य आये हैं, क्योंकि यहाँ गोकुलनाथ श्रीकृष्ण के हृदय पर झूलती हुई उस कुन्दकुसुमों की माला की मनोरम सुगन्ध आ रही है, जो उनकी परम प्रेयसी के आलिंगन के कारण लगी हुई उसके वक्षःस्थल की केसर से अनुरंजित रहती है।।११।।

बाहुं प्रियांस उपधाय गृहीतपद्‌मो रामानुजस्तुलसिकालिकुलैर्मदान्धै:।

अन्वीयमान इह वस्तरव: प्रणामं किं वाभिनन्दति चरन्‌ प्रणयावलोकै:।।१२।।

हिरणियों को निस्तब्ध देखकर उन्होंने सोचा, एक बार पुनः वृक्षों से पूछकर देखें; अतः वे बोलीं – ‘पवित्र तरुवरों! तुलसी -मंजरी के मधुपान से मत्त हुए भ्रमर जिनके पीछे-पीछे मँडराते चले जा रहे हैं, जो अपने दाहिने हाथ में नीला कमल धारण किये हुए हैं और बायें हाथ को प्रियतमा के कंधे पर रखे हुए हैं, ऐसे श्रीबलराम जी के छोटे भाई हमारे प्रियतम श्यामसुन्दर इधर से विचरते हुए निकले थे क्या? तुम जो प्रणाम करने की तरह झुके हुए हो सो क्या उन्होंने प्रेमपूर्ण दृष्टि से तुम्हारे इस प्रणाम का अभिनन्दन किया था?’ ।।१२।।

पृच्छतेमा लता बाहूनप्याश्र्लिष्टा वनस्पते:। नूनं तत्करजस्पृष्टा बिभ्रत्युत्पुलकान्यहो।।१३।।

कुछ गोपियों ने कहा – अरी सखियों! वृक्षों से क्या पूछ रही हो। इन लताओं से भी पूछो, जो अपने पति वृक्षों की भुजाओं-शाखाओं से लिपटी हुई हैं। पर इनके शरीर में जो नये-नये अंकुरों के उद्गम रूप में पुलकावली छायी हुई है, यह अवश्य ही इनके पति-वृक्षों से लिपटी रहने के कारण नहीं है। यह तो भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के नखों के स्पर्श का ही परिणाम है। अहो! इनका कैसा सौभाग्य है?।।१३।।

इत्यन्मुत्तवचोगोप्य: कृष्णान्वेषणकातरा:। लीला भगवतस्तास्ता ह्यनुचक्रुस्तदात्मिका:।।१४।।

परीक्षित! इस प्रकार पागलों की भाँति प्रलाप करती हुई व्रजसुन्दरियाँ भगवान श्रीकृष्ण को ढूँढती हुई विरह दुःख के कारण कातर और असमर्थ हो गयीं। तब उनकी कृष्ण तन्मयता फिर बढ़ी और वे अपने को भगवान श्रीकृष्ण ही मानकर भगवान की विभिन्न लीलाओं का अनुकरण करने लगीं।।१४।।

कस्याश्चित्‌ पूतनायन्त्या: कृष्णायन्त्यपिबत्‌ स्तनम्‌। तोकयित्वा रुदत्यन्या पदाहञ्छकटायतीम्‌।।१५।।

श्रीकृष्णलीला का अनुकरण करने वाली एक गोपी पूतना बन गयी, दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसका स्तनपान करने लगी। एक गोपी छकड़ा बन गयी तो दूसरी बालकृष्ण बनकर रोते हुए उसको चरण की ठोकर मारकर उलट दिया।।१५।।

दैत्यायित्वा जहारान्यामेका कृष्णार्भभावनाम्‌। रिंगयामास काप्यङ्‌घ्नी कर्षन्ती घोषनि:स्वनै:।।१६।।

कोई एक गोपी तृणावर्त दैत्य बन गयी और बालकृष्ण बनी हुई दूसरी गोपी का हरण करने का भाव दिखाने लगी। किसी गोपी ने अपने पैरों की पायजेब की मधुर ध्वनि को श्रीकृष्ण की किंकिणी-ध्वनि समझकर अपने को शिशु कृष्ण मान लिया और दोनों चरणों को भूमि पर घसीट-घसीट कर रेंगने लगी – भगवान की मधुर बकैयाँ चलने की लीला का अनुकरण करने लगी।।१६।।

कृष्णरामायिते द्वे ते गोपायन्त्यश्च काश्चन। वत्सायतीं हन्ति चान्या तत्रैका तु बकायतीम्‌।।१७।।

दो गोपियाँ श्रीकृष्ण और बलराम बनकर उनके-जैसे खेल करने लगीं। कुछ गोपियाँ गोप – बालकों के समान बनकर क्रीड़ा करने लगीं, कुछ बछड़ों का अनुकरण करने लगीं। एक गोपी वत्सासुर बन गयी, दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसे मारने की लीला करने लगी। इसी प्रकार एक गोपी बकासुर बनी और दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसे चीर डालने का भाव दिखाने लगी।।१७।।

आहूय दूरगा यद्वत्‌ कृष्णस्तमनुकुर्वतीम्‌। वेणुं क्वणन्तीं क्रीडन्तीमन्या: शंसन्ति साध्विति।।१८।।

जिस प्रकार श्रीकृष्ण वन में दूर गये हुए गाय-बछड़ों को वंशी बजा-बजाकर बुलाया करते थे, वैसे ही एक गोपी अपने को श्रीकृष्ण समझकर वंशी ध्वनि के द्वारा गायों को बुलाने का भाव दिखाने लगी। उस गोपी की इस वंशी बजाने की लीला को देखकर दूसरी कुछ गोपियाँ ‘वाह-वाह! तुम बहुत ही मधुर मुरली बजा रहे हो’ यों कहकर उसकी प्रशंसा करने लगीं।।१८।।

कस्यांचित्‌ स्वभुजं न्यस्य चलन्त्याहापरा ननु। कृष्णोऽहं पश्यत गतिं ललितामिति तन्मना:।।१९।।

श्रीकृष्ण के साथ एक मन हुई एक दूसरी गोपी अपने को श्रीकृष्ण मानकर दूसरी किसी गोपी के गले में बाँह डालकर चलने लगी और कहने लगीं – अरे सखाओं! मैं श्रीकृष्ण हूँ, तुम मेरी यह मनोहर चाल तो देखो।।१९।।

मा भैष्ट वातवर्षाभ्यां तत्त्राणं विहितं मया। इत्युक्त्वैकेन हस्तेन यतन्त्युन्निद्‌धेऽम्बरम्‌।।२०।।

एक गोपी श्रीकृष्ण बनकर कहने लगी – तुम लोग आँधी-पानी से मत डरो, मैंने उससे बचने की सारी व्यवस्था कर दी है। यों कहकर वह गोपी गोवर्धन-धारण का अनुकरण करती हुई एक हाथ से अपनी ओढ़नी को ऊपर उठाकर उसे तानकर खड़ी हो गयी।।२०।।

आरुह्यैका पदाऽऽक्रम्य शिरस्याहापरं नृप। दुष्टाहे गच्छ जातोऽहं खलानां ननु दण्डधृक्‌।।२१।।

राजा परीक्षित! एक गोपी कालिय नाग बनी तो दूसरी कोई गोपी श्रीकृष्ण बनकर पैर से ठोकर मारकर और उसके सिर पर चढ़कर बोली – ‘अरे दुष्ट सर्प! तू यहाँ से चला जा। मैं दुष्टों को दण्ड देने के लिये ही आविर्भूत हुआ हूँ।।२१।।

तत्रैकोवाच हे गोपा दावाग्निं पश्यतोल्बणम्‌। चक्षूंष्याश्वपिदध्वं वो विधास्ये क्षेममञ्जसा।।२२।।

उसी समय एक गोपी कृष्ण बनकर दावानल से डरे हुए गोपों का अनुकरण करने वाली कई गोपियों से बोली – हे गोपो! देखो वन में भयंकर दावानल जल उठा है; तुम लोग डरो मत, तुरन्त अपनी आँखें मूँद लो। मैं अनायास ही तुम लोगों की रक्षा कर लूँगा।।२२।।

बद्धान्यया स्त्रजा काचित् तन्वी तत्र उलूखले। भीता सुदृक् पिधायास्यं भेजे भीतिविडम्बनम्।।२३।।

इतने में एक गोपी ने व्रजेश्वरी श्री यशोदा जी का भाव ग्रहण किया, दूसरी एक गोपी श्रीकृष्ण के भाव से भावित हुई। यशोदा बनी गोपी ने फूलों की माला से श्रीकृष्ण बनी गोपी को ऊखल से बाँधने की भाँति बाँध दिया। तब वह श्रीकृष्ण बनी हुई व्रजसुन्दरी डरी हुई-सी अपने सुन्दर नेत्रों वाले मुख को हाथों से ढँककर, जिस प्रकार श्रीकृष्ण यशोदा मैया के द्वारा बाँधे जाने पर भयभीत हो गये थे, ठीक उसी प्रकार रुदन आदि भय की चेष्टाओं का अनुकरण करने लगी।।२३।।

एवं कृष्णं पृच्छमाना वृन्दावनलतास्तरून्। व्यचक्षत वनोद्देशे पदानि परमात्मनः।।२४।।

इस प्रकार वृन्दावन के वृक्ष-लताओं से श्रीकृष्ण का पता पूछती हुई वे वन में एक ऐसे स्थान पर पहुँची, जहाँ उन्हें अकस्मात् परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्र के चरण चिह्न दिखायी पड़े।।२४।।

पदानि व्यक्तमेतानि नन्दसूनोर्महात्मनः। लक्ष्यन्ते हि ध्वजाम्भोजवज्राङ्कुशयवादिभिः।।२५।।

चरण चिह्नों को देखकर वे परस्पर कहने लगीं – ये चरण चिह्न निश्चय ही महात्मा पुरुषोत्तम नन्दनन्दन श्री श्याम सुन्दर के हैं, क्योंकि इनमें ध्वजा, कमल, वज्र, अंकुश, जौ आदि के चिह्न स्पष्ट दिखायी दे रहे हैं।।२५।।

तैस्तैः पदैस्तत्पदवीमन्विच्छन्त्योऽग्रतोऽबलाः। वध्वाः पदैः सुपृक्तानि विलोक्यार्ताः समब्रुवन्।।२६।।

उन चरण-चिह्नों के सहारे प्रियतम श्रीकृष्ण को ढूँढती हुई वे व्रजसुन्दरियाँ आगे बढ़ीं तो उन्हें श्रीकृष्ण के चरण-चिह्नों के साथ ही किसी व्रज वधू के भी चरण चिह्न दिखायी दिये। उन्हें देखकर वे अत्यन्त पीड़ित हुईं और परस्पर कहने लगीं।।२६।।

कस्याः पदानि चैतानि याताया नन्दसूनुना। अंसन्यस्तप्रकोष्ठायाः करेणोः करिणा यथा।।२७।।

ओह! जैसे हथिनी अपने प्रियतम गजराज के साथ जाती हो और गजराज उस हथिनी के कंधे पर अपनी सूँड रख दे और दोनों मिलकर चलें, वैसे ही अपने कंधे पर श्री श्यामसुन्दर की भुजा को धारण किये हुए उनके साथ-साथ चलने वाली किस सौभाग्यवती व्रजसुन्दरी के ये दूसरे चरण चिह्न हैं?।।२७।।

अनयाऽऽराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वरः। यन्नो विहाय गोविन्दः प्रीतो यामनयद् रहः।।२८।।

निश्चय ही यह हम लोगों का मन हरण करने वाले सर्वशक्तिमान श्रीकृष्ण की आराधना करने वाली – उनसे परम प्रेम करने वाली आराधिका होगी। उस परम प्रेम के फलस्वरूप ही इस पर रीझकर गोविन्द श्रीकृष्णचन्द्र इस बड़भागिनी को एकान्त में ले गये हैं और हम लोगों को वन में छोड़ दिया है।।२८।।

धन्या अहो अमी आल्यो गोविन्दाङ्घ्र्यब्जरेणवः। यान् ब्रह्मेशो रमा देवी दधुर्मूर्ध्न्यघनुत्तये।।२९।।

कुछ व्रजसुन्दरियों ने कहा – प्रिय सखियों! अहा! ये श्रीकृष्ण चरणारविन्दों के रजःकण धन्य हैं। ये अत्यन्त पवित्र हैं; क्योंकि श्रीकृष्ण के पद-कमलों से इनका स्पर्श हो चुका है। इसीलिये तो ब्रह्मा, शंकर और लक्ष्मी आदि भी अपने-अपने अशुभों-दुःखों का नाश करने के लिये इन्हें मस्तक पर धारण करते हैं। आओ, हम भी इन रजःकणों को सिर पर चढ़ायें, ये रजःकण अवश्य ही हमारे श्रीकृष्ण वियोग रूप अशुभ को दूर कर देंगे।।२९।।

तस्या अमूनि नः क्षोभं कुर्वन्त्युच्चैः पदानि यत्। यैकापहृत्य गोपीनां रहो भुङ्क्तेऽच्युताधरम्।।३०।।

कुछ गोपियाँ बोलीं – सखियों! यह तो ठीक है; परन्तु वह जो सखी श्रीकृष्ण को एकान्त में ले जाकर हम सब गोपियों की सार-सर्वस्व वस्तु उनके मधुर अधरामृत-रस को हमसे छीनकर अकेली ही उसका पान कर रही है, उसके ये उभरे हुए चरणचिह्न हम सबके हृदयों में अत्यधिक जलन उत्पन्न कर रहे हैं।।३०।।

न लक्ष्यन्ते पदान्यत्र तस्या नूनं तृणांकुरैः। खिद्यत्सुजाताङ्घ्रितलामुन्निन्ये प्रेयसीं प्रियः।।३१।।

कुछ आगे बढ़ने पर जब गोपियों को उस गोपी के चरण चिह्न नहीं दिखलायी दिये, तब वे बोलीं – ‘अरी सखियों! देखो, यहाँ तो उस गोपी के चरण-चिह्न नहीं दिखायी पड़ रहे हैं। जान पड़ता है, प्यारे श्यामसुन्दर ने देखा होगा कि हमारी प्रेयसी सुकुमार तलवों में घास की कठोर नोंक गड़ रही है; इसलिये वे हो-न-हो उसको अपने कंधे पर चढ़ाकर ले गये होंगे।।३१।।

इमान्यधिकमग्नानि पदानि वहतो वधूम्। गोप्यः पश्यत कृष्णस्य भाराक्रान्तस्य कामिनः।।३२।।

उससे कुछ आगे बढ़ने पर उनमें से एक ने कहा – अरी गोपियों! देखों तो यहाँ श्रीकृष्ण के चरण कमल पृथ्वी में गहरे धँसे हुए दिखायी देते हैं। निश्चय ही वे प्रेम विह्ल श्याम सुन्दर उस गोप वधू को अपने कंधे पर चढ़ाकर ले गये हैं, उसी के भार से उनके ये चरण जमीन में धँस गये हैं।।३२।।

अत्रावरोपिता कान्ता पुष्पहेतोर्महात्मना। अत्र प्रसूनावचयः प्रियार्थे प्रेयसा कृतः।

प्रपदाक्रमणे एते पश्यतासकले पदे।।३३।।

सखियों! महात्मा (नित्य काम विजयी) श्यामसुन्दर ने प्रेमवश यहाँ पुष्प चयन करने के लिये अपनी प्रेयसी को कंधे से नीचे उतार दिया है और उन परम प्रेमी व्रज राजकुमार ने अपनी प्रिया का श्रृंगार करने के लिये उचक-उचक कर पुष्पों का चयन किया है, इससे उनके चरणों के पंजों के ही चिह्न पृथ्वी पर उभर पाये हैं। देखो तो यहाँ वे अधूरे चरण चिह्न दिखायी दे रहे हैं।।३३।।

केशप्रसाधनं त्वत्र कामिन्याः कामिना कृतम्। तानि चूडयता कान्तामुपविष्टमिह ध्रुवम्।।३४।।

देखो! यहाँ उन प्रेमी श्री श्याम सुन्दर ने उस प्रेमिका के केश सँवारे हैं और निश्चय ही यहाँ बैठकर उन्होंने अपने कर – कमलों द्वारा चुने हुए पुष्पों द्वारा अपनी कान्ता को चूड़ामणि से सजाया है।।३४।।

रेमे तया चात्मरत आत्मारामोऽप्यखण्डितः। कामिनां दर्शयन् दैन्यं स्त्रीणां चैव दुरात्मताम्।।३५।।

श्री शुकदेव जी ने कहा – परीक्षित! श्रीकृष्ण नित्य अपने स्वरूप में ही संतुष्ट और पूर्ण हैं, वे नित्य-निरन्तर आत्मा में ही रमण करने वाले हैं, वे अखण्ड हैं-उनके सिवा और कोई है ही नहीं अतः कामिनियों का कोई भी विलास उनको कभी अपनी ओर नहीं खींच सकता। इतने पर भी वे कामियों की दीनता- स्त्री पर वशता और स्त्रियों की कुटिलता दिखलाते हुए उस व्रजसुन्दरी के साथ एकान्त में (अपने आत्माराम स्वरूप से सर्वथा अच्युत तथा उसमें नित्य प्रतिष्ठित रहते हुए ही) विहार कर रहे थे।।३५।।

इत्येवं दर्शयन्त्यस्ताश्चेरुर्गोप्यो विचेतसः। यां गोपीमनयत् कृष्णो विहायान्याः स्त्रियो वने।।३६।।

सा च मेने तदाऽऽत्मानं वरिष्ठं सर्वयोषिताम्। हित्वा गोपीः कामयाना मामसौ भजते प्रियः।।३७।।

किंतु उन व्रजसुन्दरियों को कुछ पता नहीं था कि नन्दनन्दन कहाँ, किस स्थान पर हैं। वे गोपसुन्दरियाँ श्री श्यामसुन्दर में तन्मय होकर एक-दूसरी को श्री श्यामसुन्दर के तथा उनकी प्रिया के चरण चिह्न को दिखलाती हुई उन्हें ढूँढ़ने के लिये व्याकुल हृदय होकर वन-वन भटक रही थीं। इस बीच में उधर यह लीला हुई कि श्रीकृष्णचन्द्र दूसरी व्रज वनिताओं को वन में छोड़कर जिस भाग्यवती गोपी को एकान्त में ले गये थे, उसके मन में यह अभिमान का भाव आ गया कि ‘मैं ही समस्त गोपियों में श्रेष्ठ हूँ। इसीलिये प्यारे श्यामसुन्दर सब गोपियों को छोड़कर एकमात्र मुझको ही चाहते हैं और मुझको ही भज रहे हैं – मुझसे ही सुख प्राप्त कर रहे हैं’।।३६-३७।।

ततो गत्वा वनोद्देशं दृप्ता केशवमब्रवीत्‌। न पारयेऽहं चलितुं नय मां यत्र ते मनः।।३८।।

इस प्रकार अभिमान का आविर्भाव होने पर वह गोपी वन में एक स्थान पर जाकर सौभाग्यमद से मतवाली हो गयी और श्रीकृष्ण से-जो ब्रह्मा और शंकर के भी शासक हैं – कहने लगी – ‘अब तो मुझसे चला नहीं जाता। मेरे कोमल चरण थक गये हैं, अतः तुम जहाँ चलना चाहो, मुझे अपने कंधे पर चढ़ाकर वहाँ ले चलो’।।३८।।

एवमुक्तः प्रियामाह स्कन्ध आरुह्यतामिति। ततश्चान्तर्दधे कृष्णः सा वधूरन्वतप्यत।।३९।।

अपनी प्रियतमा की गर्व भरी वाणी सुनकर श्री श्यामसुन्दर ने उससे कहा – ‘अच्छा प्रिये! अब तुम मेरे कंधे पर चढ़ जाओ।’ यह सुनकर ज्यों ही वह गोपी कंधे पर चढ़ने लगी, त्यों ही भगवान अन्तर्धान हो गये; तब तो उन्हें न देखकर वह गोप-वधू अविरत रोने- कलपने लगी।।३९।।

हा नाथ रमण प्रेष्ठ क्कासि क्कासि महाभुज। दास्यास्ते कृपणाया मे सखे दर्शय संनिधिम्।।४०।।

वह कातर कण्ठ से बोली – ‘हा प्राणनाथ! हा रमण! हा प्रियतम! हा महाबाहो! तुम कहाँ हो कहाँ हो? हे मेरे प्राणसखा! मैं तुम्हारी अत्यन्त दीन दासी हूँ। शीघ्र ही मुझे अपने सांनिध्य का दर्शन कराओ, मुझे प्रत्यक्ष दर्शन दो।।४०।।

अन्विच्छन्त्यो भगवतो मार्ग गोप्योऽविदूरतः। ददृशुः प्रियविश्लेषमोहितां दुःखितां सखीम्।।४१।।

परीक्षित! इसी बीच भगवान श्रीकृष्ण के चरण-चिह्नों के सहारे उनके जाने के मार्ग को ढूँढ़ती हुई गोपियाँ वहाँ आ पहुँचीं और उन्होंने बहुत ही समीप आकर देखा कि उनकी भाग्यवती सखी अपने प्रियतम के वियोग से अत्यन्त दुःखी होकर मूर्च्छित पड़ी है।।४१।।

तया कथितमाकर्ण्य मानप्राप्तिं च माधवात्। अवमानं च दौरात्म्याद् विस्मयं परमं ययुः।।४२।।

तब उन्होंने और भी समीप आकर प्रयत्न करके उसको मूर्छा से जगाया। जागने पर प्रियतम श्री श्यामसुन्दर के विरह में कातर हुई उस गोपसुन्दरी ने भगवान माधव के द्वारा उसे जो प्रेम तथा सम्मान प्राप्त हुआ था, वह सुनाया तथा यह भी बतलाया कि फिर ‘मैंने ही गर्व में भरकर कुटिलतावश उनका अपमान किया, तब वे मुझे छोड़कर अन्तर्धान हो गये।’ इन दोनों विचित्र घटनाओं को सुनकर गोपियों को परम आश्चर्य हुआ।।४२।।

ततोऽविशन् वनं चन्द्रज्योत्स्ना यावद् विभाव्यते। तमः प्रविष्टमालक्ष्य ततो निववृतुः स्त्रियः।।४३।।

तदनन्तर वन में जहाँ तक चन्द्रमा की किरणें छिटक रही थीं, वहाँ तक तो वे समस्त व्रज गोपियाँ श्यामसुन्दर को ढूँढती हुई चली गयीं; परंतु आगे जब उन्होंने अत्यन्त अन्धकारमय गहन वन देखा, तब यह सोचा कि यदि हम इस अन्धकार में उन्हें ढूँढती हुई चली जायँगी तो वे और भी घने अन्धकारमय वन में जा छिपेंगे और हमें नहीं मिलेंगे, इसलिये वे उधर से वापस चली आयीं।।४३।।

तन्मनस्कास्तदालापास्तद्विचेष्टास्तदात्मिकाः। तद्गुणानेव गायन्त्यो नात्मागाराणि सस्मरुः।।४४।।

उन सब गोपियों का मन श्रीकृष्णचन्द्र के मन वाला हो रहा था, उनकी वाणी केवल श्रीकृष्ण के लिये और श्रीकृष्ण की ही चर्चा में लगी हुई थी, उनके शरीर से होने वाली प्रत्येक चेष्टा केवल श्रीकृष्ण की ही थी। वे श्रीकृष्ण में ही सर्वथा घुल-मिल गयी थीं, श्रीकृष्ण के गुणों का ही गान कर रही थीं। वे इतनी तन्मय हो रही थीं कि उन्हें अपने देह-गेह की भी सुध नहीं थी, फिर घर-बार की स्मृति होती ही कैसे?।।४४।।

पुनः पुलिनमागत्य कालिन्द्याः कृष्णभावनाः। समवेता जगुः कृष्णं तदागमनकांक्षिताः।।४५।।

श्रीकृष्ण के शीघ्र ही आगमन की आकांक्षा से एकत्र होकर श्रीकृष्ण की भावना से तन्मय हुई वे सब भाग्यवती व्रजसुन्दरियाँ फिर श्री यमुना जी के पावन पुलिन पर लौट आयीं और वहाँ सब मिलकर प्रियतम श्रीकृष्ण की लीलाओं का मधुर गान करने लगीं।।४५।।

रासपंचाध्यायी – तृतीय अध्याय

गोप्य ऊचुः

जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजःश्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि।

दयित दृश्यतां दिक्षु तावका-स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते।।१।।

श्रीकृष्ण के विरह में व्याकुल वे प्रेममयी गोपियाँ गाने लगीं-‘हे प्रियतम! तुम्हारे प्रकट होने के कारण इस व्रज का गौरव वैकुण्ठ आदि दिव्य लोकों से भी अधिक हो गया है; तभी तो अखिल सौन्दर्य-माधुर्य की दिव्य मूर्ति श्री लक्ष्मी जी अपने नित्य निवास वैकुण्ठ को छोड़कर इस व्रज को सुशोभित करती हुई यहाँ निरन्तर निवास कर रही हैं। इस महान सुख से पूर्ण सौभाग्यमय व्रज में हम गोपियाँ ही ऐसी हैं, जो तुम्हारी भी, तुममें अपने प्राणों को पूर्णरूप से समर्पण करके भी वन-वन भटककर सब ओर तुम्हें ढूँढ़ रहीं हैं, पर तुम मिल नहीं रहे हो। विरहज्वाला से जलती हुई भी इसी आशा से हम सर्वथा भस्म नहीं हो रही हैं कि तुम शीघ्र मिलोगे! अतएव अब तुम तुरंत दीख जाओ।।१।।

शरदुदाशये साधुजातसत्-सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा। सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः।।२।।

हे हमारे रसेश्वर! हे वर देने वाले में श्रेष्ठ! हम तुम्हारी बिना मोल की दासियाँ हैं। तुम शरद ऋतु के सरोवर में खिले हुए उत्कृष्ट जाति के परमसुन्दर कमल कोशों की कर्णिका की सौन्दर्य-सुषमा को चुराने वाले अपने नेत्रों की मार से हमें मार चुके हो। इस जगत में इस प्रकार नेत्रों से किसी को मार डालना क्या वध नहीं है?।।२।।

विषजलाप्ययाद् व्यालराक्षसाद् वर्षमारुताद् वैद्युतानलात्।

वृषमयात्मजाद् विश्वतोभया-दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः।।३।।

हे पुरुषश्रेष्ठ! कालियह्रद के विषमय जलपान के कारण होने वाली मृत्यु से, अघासुर से, इन्द्र की वर्षा, आँधी अथवा तृणावर्त दैत्य से तथा वज्रपात से, भीषण दावानल से, अरिष्टासुर और मय के पुत्र व्योमासुर आदि से और इसी प्रकार के अनेक भयों से तुमने ही तो बार-बार हमारी रक्षा की थी। फिर आज तुम्हीं अपनी विरहज्वाला से हमें क्यों भस्म कर रहे हो?।।३।।

न खलु गोपिकानन्दनो भवा-नखिलदेहिनामन्तरात्मदृक्।

विखनसार्थितो विश्वगुप्तये सख उदेयिवान् सात्वतां कुले।।४।।

हम जानती हैं कि आप निश्चय ही केवल यशोदा मैया के लाला ही नहीं हैं, अपितु समस्त प्राणियों के अन्तरात्मा के साक्षी हैं। ब्रह्मा जी की प्रार्थना सुनकर विश्व की रक्षा के लिये ही आप यदुकुल में आविर्भूत हुए हैं। इस प्रकार विश्वभर की रक्षा के लिये अवतीर्ण होकर भी आप हमारे प्रति इतने निर्दय होकर हमें क्यों मार रहे हैं?।।४।।

विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते चरणमीयुषां संसृतेर्भयात्। करसरोरुहं कान्त कामदं शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम्।।५।।

हे यादवों में श्रेष्ठ! संसार से-जन्म-मरण के चक्र से भयभीत होकर जो प्राणी तुम्हारे चरणों की शरण में आ जाते हैं, तुम्हारे कर-कमल उनको अभय कर देते हैं। श्री लक्ष्मी जी के कर-कमल को धारण करने वाला तथा सबकी समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला वह अपना कर-कमल हमारे सिर पर रख दो-शीघ्र दर्शन देकर हमें भी अभय कर दो।।५।।

व्रजजनार्तिहन् वीर योषितां निजजनस्मयध्वंसनस्मित। भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो जलरुहाननं चारु दर्शय।।६।।

हे व्रजवासियों के दुःखों का नाश करने वाले वीरशिरोमणि! तुम्हारी मधुर मन्द मुस्कान तुम्हारे प्रेमीजनों के गर्व ध्वंस करने वाली है। हे हमारे प्राणसखा! हम सब तुम्हारी दासियाँ हैं, हमें अवश्य प्रेमदान दो और हम अबलाओं को अपना मनोहर मुखकमल दिखलाकर सुखी करो।।६।।

प्रणतदेहिनां पापकर्शनं तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम्। फणिफणार्पितं ते पदाम्बुजं कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम्।।७।।

तुम्हारे जो चरण-कमल शरण में आये हुए मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट कर डालते हैं, जो समस्त सौन्दर्य श्री के धाम हैं – श्री लक्ष्मी जी के परम आश्रयभूत हैं, जो घास चरने वाले गौ-वत्सों के पीछे-पीछे चलते हैं तथा जिन्होंने कालियनाग के फणों पर चढ़कर नृत्य किया था, उन अपने चरण-सरोजों को हमारे वक्षःस्थल पर रख दो। हमारे हृदय तुम्हारे विरह की ज्वाला से जल रहे हैं, इस प्रकार चरण-सरोजों को रखकर उस जलन को मिटा दो।।७।।

मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण।

विधिकरीरिमा वीर मुह्यती-रधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः।।८।।

हे कमलनयन! तुम्हारे वचन बड़े ही मधुर हैं, उनका एक-एक पद परम मनोहर है। बड़े-बड़े पण्डित भी उनके गाम्भीर्य पर मुग्ध हो जाते हैं। उन वचनों से हम सब गोपियाँ मोहित हो रही हैं। हम सभी तुम्हारे चरणों की किंकरियाँ हैं। हमारे प्राण निकले जा रहे हैं। हे दानवीर! तुम अपनी दिव्य मधुर अधर-सुधा पिलाकर हम सबको आप्यायित करो और जीवनदान दो।।८।।

तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम्। श्रवणमंगलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः।।९।।

हे प्राणेश्वर! तुम्हारी लीला-कथा अमृतमयी है। वह जलते हुए प्राणियों को जीवनदान करती है, बड़े-बड़े ब्रह्मज्ञानी कवियों ने उसका गान तथा स्तवन किया है, उसके श्रवण-कीर्तन से सब पापों का नाश होता है। जो श्रवणमात्र से ही प्रेमरूपी परम सम्पत्ति का दान करती है, ऐसी अत्यन्त विस्तृत कथा का पृथ्वी पर जो कीर्तन-गान करते हैं, वे जगत में सबसे बड़े दानी लोग हैं। यह तुम्हारी लीला-कथा की महिमा है। तुम्हारे दर्शन की महिमा तो अवर्णनीय है।।९।।

प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं विहरणं च ते ध्यानमंगलम्।

रहसि संविदो या हृदिस्पृशः कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि।।१०।।

हमारे प्यारे श्यामसुन्दर! तुम्हारे ध्यान मात्र से ही परम आनन्द प्राप्त होता है। फिर हमें तो तुमने अपनी मधुर हँसी, प्रेमभरी दृष्टि तथा लीला विहार का सुख प्रदान किया था, एकान्त में हमारे साथ हृदयस्पर्शी विनोद तथा प्रेमभरी संकेत-चेष्टाएँ की थीं। अरे छलिया! आज वे ही तुम हम लोगों से छिप गये हो। तुम्हारी वे सभी प्रेमभरी बातें इस समय याद आ रही हैं और हमारे मन को क्षुब्ध कर रही हैं।।१०।।

चलसि यद् व्रजाच्चारयन् पशून् नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम्।

शिलतृणांकुरैः सीदतीति नः कलिलतां मनः कान्त गच्छति।।११।।

हमारे प्राणनाथ, जीवनसर्वस्व! तुम्हारे चरण अरुणिमा, मृदुता तथा दिव्य सुगन्ध में कमल के समान अत्यन्त सुन्दर हैं; जिस समय तुम गौओं को चराते हुए व्रज से वन की ओर आते हो, उस समय यह सोचकर कि तुम्हारे उन अत्यन्त मृदु चरण-कमलों में कुश, काँटे, अंकुर तथा कंकण आदि गड़ते होंगे और बड़ी पीड़ा होती होगी, हम लोगों के मन में बड़ी ही व्यथा होती है। यह दशा तो दिन में वनगमन के समय होती है। इस रात्रि के समय तो उन मृदुल चरणों में विशेष पीड़ा हो रही होगी-इस चिन्ता से हमारे प्राण निकले जा रहे हैं। तुम तुरंत आकर उनकी रक्षा करो।।११।।

दिनपरिक्षये नीलकुन्तलै-र्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम्। धनरजस्वलं दर्शयन् मुहुर्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि।।१२।।

हमारे हृदयों को प्रेम बाण से बींध देने में तुम बड़े ही शूरवीर हो। संध्या के समय जब तुम वन से लौटते हो, तब हम देखती हैं कि तुम्हारे मुख-सरोज पर नीली घुँघराली अलकावली छायी हुई है और वह गोधूलि से धूसरित हो रहा है। उस समय तुम अपनी उस मुख-माधुरी के हमें बार-बार दर्शन कराकर हमारे मन में प्रेम-व्यथा का संचार कर देते हो। इस प्रकार नित्य ही तुम हमारे हृदयों का प्रेम बाण से बींधा करते हो, पर आज तो उसकी चरम सीमा हो गयी है – पहले तो हमें वेणुगान करके अपने पास बुलाया, हमारे साथ लीला-विहार किया और फिर छोड़कर चले गये!।।१२।।

प्रणतकामदं पद्मजार्चितं धरणिमण्डनं ध्येयमापदि। चरणपंकजं शंतमं च ते रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन्।।१३।।

परंतु प्रियतम! हमारे मन की सारी व्यथा का हरण करने वाले भी एकमात्र तुम्हीं हो। तुम्हारे चरण-कमल शरण में आये हुए मनुष्यों के मनोरथों को पूर्ण करने वाले हैं। स्वयं ब्रह्मा जी उनका नित्य पूजन करते हैं। विपत्ति के समय ध्यानमात्र से ही वे समस्त विपत्तियों का नाश कर देते हैं और पृथ्वी के तो वे भूषण ही हैं। उन अपने चरण-सरोजों को, हे विहार-सुख देने वाले प्रियतम! हमारे वक्षःस्थल पर रखकर हृदय की सारी व्यथा का नाश कर दो।।१३।।

सुरतवर्धनं शोकनाशनं स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम्। इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेऽधरामृतम्।।१४।।

हृदय की व्यथा का हरण करने में समर्थ वीरशिरोमणे! तुम्हारी अधर-सुधा दिव्य सम्भोग-रस को बढ़ाने वाली है, सुन्दर स्वरों में गान करने वाली बाँसुरी उसे सदा भलीभाँति चूमती रहती है। जिसने एक क्षण के लिये एक बिन्दुमात्र भी कभी उसका पान कर लिया, उसकी अन्य समस्त आसक्तियाँ ता कामनाएँ सदा के लिये विस्मृत हो जाती हैं, ऐसी अपनी वह अधरसुधा हम लोगों में वितरण कर दो-हम सबको पिलाकर कृतार्थ करो।।१४।।

अटति यद् भवानह्नि काननं त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम्।

कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद् दृशाम्।।१५।।

प्रियतम! दिन के समय जब तुम गौएँ चराने के लिये वन में चले जाते हो, तब तुम्हें देखे बिना हमारा आधे क्षण का समय भी युग बन जाता है। फिर जब संध्या के समय तुम वन से लौटते हो, तब तुम्हारे घुँघराले केशों से सुशोभित श्रीमुख का हम दर्शन करती हैं। उस समय पलकों का गिरना हमें असह्य हो जाता है; क्योंकि उतने समय तक तुम्हारे दर्शन से नेत्र वञ्चित रहते हैं। इसलिये हमें जान पड़ता है कि नेत्रों पर पलकें बनाने वाला विधाता मूर्ख है।।१५।।

पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवा-नतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः।

गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि।।१६।।

प्रियतम! तुम कभी अपने प्रेममय स्वभाव से च्युत नहीं होते। तुम चतुर-शिरोमणि भलीभाँति जानते हो कि हम सब तुम्हारे मुरली गान से मोहित होकर अपने पति-पुत्र, भाई-बन्धु, कुल-परिजन- सबका त्याग करके उनकी इच्छा का अतिक्रमण करके तुम्हारे पास आयी हैं। फिर भी तुम हमें छोड़कर चले गये। अरे कपटी! इस प्रकार की घोर रात्रि के समय शरण में आयी हुई तरुणियों को तुम्हारे अतिरिक्त और कौन त्याग सकता है।।१६।।

रहसि संविदं हृच्छयोदयं प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम्। बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः।।१७।।

प्रियतम! तुमने एकान्त में हम से प्रेमभरी बातें की हैं, तुम्हारा वह प्रेमालाप, प्रेम की कामना को उद्दीप्त करने वाला तुम्हारा मुसकाता हुआ मुख-कमल, तुम्हारी प्रेमभरी तिरछी चितवन, लक्ष्मी जी नित्यनिवासधाम तुम्हारा विशाल वक्षःस्थल-इन सभी को देखकर, इनका स्मरण करके हमारी तुमसे मिलने की लालसा अत्यन्त बढ़ गयी है और हमारा मन अधिकाधिक मुग्ध हो रहा है।।१७।।

व्रजवनौकसां व्यक्तिरंग ते वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमंगलम्

त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम्।।१८।।

प्रियतम श्यामसुन्दर। तुम्हारा यह व्रज में अविर्भाव व्रजवासियों के समस्त दुःखों का नाश करने और विश्व का परम कल्याण करने के लिये है। हमारे हृदय के समस्त मनोरथ एकमात्र तुम्हीं में केन्द्रित हो गये हैं, हम तुम्हारे सिवा और कुछ चाहतीं ही नहीं। हम तुम्हारी अपनी ही हैं; हमें अब थोड़ी-सी वह वस्तु दो, जो तुम्हारे निजजनों के हृदय रोगों को सर्वथा नष्ट कर दे।।१८।।

यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेषु भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु।

तेनाटवीमटसि तद् व्यथते न किंस्वित् कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः।।१९।।

प्रियतम! तुम्हारे चरण कमल अत्यन्त सुकुमार हैं, हम उन्हें अपने उरोजों पर भी बहुत ही धीरे से रखती हैं; हमें डर लगता रहता है कि हमारे कठोर उरोजों से उन कोमल पद-कमलों को कहीं चोट न लग जाय। उन्हीं सुकुमार चरणों से आज हमसे छिपकर तुम वन-वन भटक रहे हो। कंकट-पत्थरों की नोंक लगकर उनमें बड़ी पीड़ा हो रही होगी। हमारी बुद्धि इसी चिन्ता से व्याकुल होकर चक्कर खा रही है। प्यारे! हमारे जीवन के जीवन तो एकमात्र तुम्हीं हो।।१९।।

रासपंचाध्यायी –चतुर्थ अध्याय

श्रीशुक उवाच

इति गोप्यः प्रगायन्त्यः प्रलपन्त्यश्च चित्रधा। रुरुदुः सुस्वरं राजन् कृष्णदर्शनलालसाः।।१।।

श्रीशुकदेवजी ने कहा – राजा परीक्षित! भगवान श्यामसुन्दर के विरह में गोपियाँ इस प्रकार विविध भाँति से गाती और प्रलाप करती हुई, प्राण-मन को सर्वथा आकर्षित कर लेने वाले उन प्रियतम के दर्शन की लालसा लिये हुए करुणा पूर्ण मधुर स्वर से फूट-फूटकर रोने लगीं।।१।।

तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः। पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्ममन्मथः।।२।।

उसी सयम उनके बीच में शूरसेन के वंशज भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। उनके मुख-सरोज पर मधुर मुस्कान खेल रही थी, वे गले में वनमाला और शरीर पर पीताम्बर धारण किये हुए थे। उनका रूप-सौन्दर्य सबके मन को मथ डालने वाले स्वयं कामदेव के मन को भी मथ डालने वाला था।।२।।

तं विलोक्यागतं प्रेष्ठं प्रीत्युत्फुल्लदृशोऽबलाः। उत्तस्थुर्युगपत् सर्वास्तन्वः प्राणमिवागतम्।।३।।

उन सौन्दर्य-माधुर्य-निधि प्रियतम श्यामसुन्दर को अपने बीच में आया देख गोपियों के नेत्र प्रेमानन्द से खिल उठे। ये गोपियाँ सब-की-सब एक साथ ही इस प्रकार उठ खड़ी हुई, जैसे प्राणहीन शरीर प्राणों के लौटते ही उठ खड़ा हो।।३।।

काचित् कराम्बुजं शौरेर्जगृहेऽञ्जलिना मुदा। काचिद्दधार तद्बाहुमंसे चन्दनरूषितम्।।४।।

उनमें से किसी गोपी ने प्रमुदित होकर भगवान श्यामसुन्दर के कर-कमल को अपने हाथों में ले लिया। किसी ने उनकी चन्दन से चर्चित भुजा को अपने कंधे पर रख लिया।।४।।

काचिदञ्जलिनागृह्णात् तन्वी ताम्बूलचर्वितम्। एका तदङ्घ्रिकमलं संतप्ता स्तनयोरधात्।।५।।

किसी सुन्दरी गोपी ने उनका चबाया हुआ पान अपने दोनों हाथों में ले लिया और एक गोपी ने, जिसके हृदय में विरह की आग धधक रही थी, उसे शान्त करने के लिये भगवान के चरण-कमल को अपने वक्षःस्थल पर रख लिया।।५।।

एका भ्रुकुटिमाबध्य प्रेमसंरम्भविह्वला। घ्नतीवैक्षत् कटाक्षेपैः संदष्टदशनच्छदा।।६।।

एक व्रजसुन्दरी प्रणय कोप से विहल होकर, अपनी धनुष के समान टेढ़ी भौहों को चढ़ाकर और दाँतों से होठ दबाकर अपने कटाक्षरूपी बाणों से बींधती हुई-सी उनकी ओर ताकने लगी।।६।।

अपरानिमिषद्दृग्भ्यां जुषाणा तन्मुखाम्बुजम्। आपीतमपि नातृप्यत् सन्तस्तच्चरणं यथा।।७।।

एक गोपी नेत्ररूपी प्यालों से श्रीकृष्ण के मुख-कमल-मकरन्द का पान करने भी-भगवान के सुन्दरवदन-सरोज को बार-बार देखकर भी फिर अपलक नेत्रों से वैसे ही अतृप्त होकर देखने लगी, जैसे शान्त एवं दासभक्त भगवान के श्रीचरणों का बार-बार दर्शन करने पर भी तृप्त नहीं होते और उन्हें निरन्तर देखते ही रहना चाहते हैं।।७।।

तं काचिन्नेत्ररन्ध्रेण हृदिकृत्य निमील्य च। पुलकांग्युपगुह्यास्ते योगीवानन्दसम्प्लुता।।८।।

कोई एक व्रजसुन्दरी नेत्रों के मार्ग से श्यामसुन्दर को अपने हृदय में ले गयी और फिर नेत्रों को बंद करके भीतर-ही-भीतर उनको हृदय से लगाकर वैसे ही परमानन्द में निमग्न एवं रोमाञ्चित हो गयी, जैसे योगी अपने इष्ट परमात्मा को ध्यान के द्वारा प्राप्त कर उसमें निमग्न हो जाते हैं।।८।।

सर्वास्ताः केशवालोकपरमोत्सवनिर्वृताः। जहुर्विरहजं तापं प्राज्ञं प्राप्य यथा जनाः।।९।।

जैसे मुमुक्षु साधक ब्रह्म को प्राप्त करके समस्त संसार-ताप से सर्वथा मुक्त हो जाते हैं, वैसे ही वे सब व्रजसुन्दरियाँ श्रीकृष्ण के मधुर दर्शन से परम उल्लास और दिव्य आनन्द को प्राप्त हो गयीं तथा उन्होंने विरह से उत्पन्न संताप का सर्वथा परित्याग कर दिया।।९।।

ताभिर्विधूतशोकाभिर्भगवानच्युतो वृतः। व्यरोचताधिकं तात पुरुषं शक्तिभिर्यथा।।१०।।

अपने दिव्य-सौन्दर्य-माधुर्ययुक्त सच्चिदानन्दघन स्वरूप में नित्य स्थित, षडैश्वर्य सम्पन्न भगवान श्रीकृष्ण आज विरह-विषाद से मुक्त गोपियों के बीच में और भी विशेष सुशोभित होने लगे, जैसे परात्पर पुरुष परमात्मा प्रत्यक्षरूप में अपनी ज्ञान, बल आदि शक्तियों से घिरकर सुशोभित होते हैं।।१०।।

ताः समादाय कालिन्द्या निर्विश्य पुलिनं विभुः। विकसत्कुन्दमन्दारसुरभ्यनिलषट्पदम्।।११।।

तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण उन समस्त गोप-ललनाओं को साथ लेकर यमुना जी के पावन पुलिन पर आ विराजे। उस समय वहाँ खिले हुए कुन्द और मन्दार के पुष्पों की सुगन्धि को लिये वायु चल रही थी और उससे मत वाले हुए भ्रमर सर्वत्र उड़ रहे थे।।११।।

शरच्चन्द्रांशुसंदोहध्वस्तदोषातमः शिवम्। कृष्णाया हस्ततरलाचितकोमलवालुकम्।।१२।।

शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा की किरणें सब ओर छिटक रही थीं, इससे रात्रि का अन्धकार सर्वथा मिट गया था और सारा वातावरण मंगलमय हो रहा था। श्री यमुना जी ने भगवान की मधुरलीला के लिये अपने तरंगरूपी हाथों से वहाँ सुकोमल वालुका बिछा रखी थी।।१२।।

तद्दर्शनाह्लादविधूतहृद्रुजो मनोरथान्तं श्रुतयो यथा ययुः।

स्वैरुत्तरीयैः कुचकुंकुमांकितै-रचीक्लृपन्नासनमात्मबन्धवे।।१३।।

भगवान श्यामसुन्दर के दर्शन से उन गोपसुन्दरियों को इतना महान आनन्द हुआ कि उनके हृदय की सारी व्यथा मिट गयी। वे गोपियाँ भगवान को पाकर उसी प्रकार पूर्णकाम हो गयीं, जिस प्रकार श्रुतियाँ कर्मकाण्ड के वर्णन के अनन्तर ज्ञानकाण्ड का प्रतिपादन करके पूर्णकाम हो जाती हैं। अब उन्होंने वक्षःस्थल पर लगी हुई केसर से चिन्हित अपनी ओढ़नी को अपने परम प्रियतम भगवान श्रीकृष्ण के विराजने के लिये वहाँ बिछा दिया।।१३।।

तत्रोपविष्टो भगवान् स ईश्वरो योगेश्वरान्तर्हृदि कल्पितासनः।

चकास गोपीपरिषद्गतोर्चित-स्त्रैलोक्यलक्ष्म्येकपदं वपुर्दधत्।।१४।।

बड़े-बड़े योगेश्वर अपने विशुद्ध हृदय-कमल में जिन भगवान के आसन की कल्पना किया करते हैं, पर बैठा नहीं पाते, वे ही सर्वसमर्थ सर्वेश्वर भगवान श्रीकृष्ण यमुना-तट की वालुका में गोपियों की ओढ़नी पर बैठ गये। गोपियों ने उन्हें सब ओर से घेर लिया और उनकी पूजा करने लगीं। त्रिलोकी की समस्त सौन्दर्य-शोभा के जो एकमात्र परम आश्रय हैं, ऐसे अनन्त-सौन्दर्य-माधुर्यमय दिव्य विग्रह को धारण किये उस समय वे अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे।।१४।।

सभाजयित्वा तमनंगदीपनं सहासलीलेक्षणविभ्रमभ्रुवा।

संस्पर्शनेनांककृताङ्घ्रिहस्तयोः संस्तुत्य ईषत्कुपिता बभाषिरे।।१५।।

भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी सौन्दर्य-सुधा पिलाकर जिनके मन में विशुद्ध काम-भगवत्प्रेम को उद्दीप्त कर दिया था, वे गोपियाँ अपनी मधुर मुसकान, विलासपूर्ण कटाक्ष तथा भौहों की मटक से एवं अपनी गोद में रखे हुए भगवान के चरण-कमलों और कर-कमलों को सहलाकर उनका सम्मान करती हुई आनन्दातिरेक से उनके रूप-गुणों की प्रशंसा करने लगीं। फिर उनके अन्तर्धान होने की बात याद आते ही किंचित प्रणय-कोप दिखाती हुई वे बोलीं।।१५।।

गोप्य ऊचुः

भजतोऽनुभजन्त्येक एक एतद्विपर्ययम्। नोभयांश्च भजन्त्येक एतन्नो ब्रूहि साधु भोः।।१६।।

गोपियों ने कहा – कुछ लोग तो प्रेम करने वालों से ही बदले में प्रेम करते है; कुछ लोग इसके विपरीत, प्रेम न करने वालों से भी प्रेम करते हैं और कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करने वालों तथा न करने वाले – दोनों से ही प्रेम नहीं करते। प्रियतम! इन तीनों के विषयों में हमें समझाकर बतलाओ। यह बतलाओ कि तुम इनमें से किसको अच्छा समझते हो और तुम कौन-से हो?।।१६।।

श्रीभगवानुवाच

मिथो भजन्ति ये सख्यः स्वार्थेकान्तोद्यमा हि ते। न तत्र सौहृदं धर्मः स्वार्थार्थ तद्धि नान्यथा।।१७।।

इसके उत्तर में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा – प्रिय सखियों! जो लोग प्रेम करने पर ही बदले में प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्यम केवल स्वार्थ के लिये ही है। उनमें न तो सौहार्द है और न धर्म या कर्तव्य का भाव ही है। उनकी तो वह प्रेम- चेष्टा केवल स्वार्थ के हेतु से ही होती है, उनका और कोई प्रयोजन नहीं होता।।१७।।

भजन्त्यभजतो ये वै करुणाः पितरो यथा। धर्मो निरपवादोऽत्र सौहृदं च सुमध्यमाः।।१८।।

सुन्दरियों! जो लोग प्रेम न करने वालों से प्रेम करते हैं, जैसे स्वभाव से ही करुण हृदय पुरुष एवं माता-पिता प्रेम करते हैं, उनके इस बर्ताव में कोई दोष नहीं होता, और पूर्ण धर्म तथा सौहार्द ही भरा रहता है।।१८।।

भजतोऽपि न वै केचिद् भजन्त्यभजतः कुतः। आत्मारामा ह्याप्तकामा अकृतज्ञा गुरुद्रुहः।।१९।।

कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करने वालों से भी प्रेम नहीं करते, फिर प्रेम न करने वालों से प्रेम करने की बात ही क्या है। ऐसे लोग चार प्रकार के होते हैं – एक तो वे जो नित्य आत्मस्वरूप में ही रमण करते हैं, दूसरे वे जिनकी सब कामनाएँ पूर्ण हो चुकी हैं; तीसरे वे, जो कृतघ्न हैं, किये गये उपकार तथा प्रेम का स्मरण भी नहीं करते; और चौथे वे, जो अपना सहज हित करने वाले गुरुजनों से भी द्रोह करते हैं।।१९।।

नाहं तु सख्यो भजतोऽपि जन्तून् भजाम्यमीषामनुवृत्तिवृत्तये।

यथाधनो लब्धधने विनष्टे तच्चिन्तयान्यन्निभृतो न वेद।।२०।।

सखियों! यदि तुम मेरी बात जानना चाहती हो तो मैं तो प्रेम करने वाले प्राणियों से भी वैसा प्रेम नहीं करता; उनकी चित्तवृत्ति निरन्तर मुझमें लगी रहे, इसलिये कभी-कभी उनसे उदासीन-सा हो जाता हूँ। जैसे निर्धन मनुष्य को कभी बहुत-सा धन मिल जाय और फिर वह खो जाय तो उसके हृदय में खोये हुए धन की चिन्ता छायी रहती है, वह दूसरी वस्तु का स्मरण ही नहीं करता, इसी प्रकार मैं भी मिल-मिलकर छिप जाया करता हूँ, जिससे मेरा चिन्तन नित्य-निरन्तर बना रहे।।२०।।

एवं मदर्थोज्झितलोकवेद-स्वानां हि वो मय्युनुवृत्तयेऽबलाः।

मया परोक्षं भजता तिरोहितं मासूयितुं मार्हथ तत्प्रियं प्रियाः।।२१।।

गोपललनाओं! तुम लोगों ने मेरे लिये सारी लोक-मर्यादा, वेदमार्ग और आत्मीय स्वजनों का भी परित्याग कर दिया। इस स्थिति में तुम्हारी मनोवृत्ति मेरे द्वारा प्राप्त होने वाले किसी सुख में लगकर मुझे छोड़ न दे, केवल मुझमें ही लगी रहे, इसीलिये ही मैं तुम लोगों से दृष्टि बचाकर तुम्हारे प्रेम रस का पान करता हुआ ही यहाँ छिप रहा था। मेरी गोपियों! तुम मेरी अत्यन्त प्रिया हो और मैं तुम्हारा परम प्रियतम हूँ, अतः तुम लोग मुझमें दोष मत देखो।।२१।

न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः।

या मा भजन् दुर्जरगेहश्रृंखलाः संवृश्च्य तद् वः प्रतियातु साधुना।।२२।।

प्रियाओ! प्रयत्न करने वाले साधकों से भी जो घर-गृहस्थी की बेड़ियाँ नहीं टूटतीं, तुमने उनको भलीभाँति तोड़कर मुझसे यथार्थ प्रेम किया है। मेरे साथ तुम्हारा यह मिलन सर्वथा निर्दोष-निज सुख के इच्छालेश से भी रहित परम पवित्र है। तुम लोगों ने केवल मुझको सुख देने के लिये ही इतना त्याग किया है। मेरे प्रति किये जाने वाले तुम्हारे इस प्रेम, सेवा और उपकार का बदला मैं देवताओं की लंबी आयु में भी सेवा करके नहीं चुका सकता। तुम अपनी साधुता, सौजन्य से ही चाहो तो मुझे उऋण कर सकती हो। मैं तो तुम्हारा ऋण चुकाने में सर्वथा असमर्थ हूँ।।२२।।

रासपंचाध्यायी – पंचम अध्याय

श्रीशुक उवाच

इत्थं भगवतो गोप्यः श्रुत्वा वाचः सुपेशलाः। जुहुर्विरहजं तापं तदंगोपचिताशिषः।।१।।

श्री शुकदेव जी ने कहा – परीक्षित! इस प्रकार गोपियाँ प्रेम समुद्र भगवान की सुमधुर वाणी सुनकर और उन सौन्दर्य-माधुर्य-निधि प्रियतम के अंग-संग से पूर्णकाम होकर उनके विरह जनित संताप से मुक्त हो गयीं।।१।।

तत्रारभत गोविन्दो रासक्रीडामनुव्रतैः। स्त्रीरत्नैरन्वितः प्रीतैरन्योन्याबद्धबाहुभिः।।२।।

तदनन्तर यमुना तट पर भगवान श्रीकृष्ण की रुचि के अनुसार चलने वाली उनकी परम प्रेयसी गोपियाँ एक दूसरे की बाँह में बाँह डालकर खड़ी हो गयीं और भगवान श्रीकृष्ण ने उन स्त्रीरत्नों के साथ मिलकर परम रसमयी रासलीला आरम्भ की।।२।।

रासोत्सवः सम्प्रवृत्तो गोपीमण्डलमण्डितः। योगेश्वरेण कृष्णेन तासां मध्ये द्वयोर्द्वयोः।

प्रविष्टेन गृहीतानां कण्ठे स्वनिकटं स्त्रियः।।३।।

यं मन्येरन् नभस्तावद् विमानशतसंकुलम्। दिवौकसां सदाराणामौत्सुक्यापहृतात्मनाम्।।४।।

योगेश्वरेश्वर भगवान श्रीकृष्ण दो-दो गोपियों के बीच में अनेक रूपों में प्रकट होकर, उनके गले में बाँह डालकर खड़े हो गये। अब सहस्रों गोपियों के बीच-बीच में शोभायमान श्रीभगवान ने दिव्य रासोत्सव प्रारम्भ किया। प्रत्येक गोपी यही समझ रही थी कि मेरे प्रियतम श्रीकृष्ण तो मेरे ही पाश्र्व में स्थित हैं। भगवान के द्वारा प्रारम्भ किये गये उस रसमय रासोत्सव को देखने की उत्सुकता से जिनका मन अपने वश में नही रह गया था, वे सभी देवता अपनी-अपनी पत्नियों के साथ वहाँ आ पहुँचे। सारा आकाश देवताओं के विमानों से भर गया।।३-४।।

ततो दुन्दुभयो नेदुर्निपेतुः पुष्टवृष्टयः। जगुर्गन्धर्वपतयः सस्त्रीकास्तद्यशोऽमलम्।।५।।

उस समय स्वर्ग की दुन्दुभियाँ बजने लगीं, दिव्य पुष्पों की वृष्टि होने लगी और गन्धर्वों के स्वामी अपनी-अपनी पत्नियों के साथ भगवान श्रीकृष्ण का निर्मल यशोगान करने लगे।।५।।

वलयानां नुपूराणां किंकिणीनां च योषिताम्। सप्रियाणामभूच्छब्दस्तुमुलो रासमण्डले।।६।।

रासमण्डल में सभी गोपियाँ अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के साथ नृत्य करने लगीं। उस समय वहाँ भी उन सहस्रों गोपियों के हाथों के कंकण, पैरों की पायजेब तथा कटिकी करधनियाँ बजने लगीं, जिनकी मिश्रित मधुर ध्वनि सर्वत्र छा गयी।।६।।

तत्रातिशुशुभे ताभिर्भगवान् देवकीसुतः। मध्ये मणीनां हैमानां महामरकतो यथा।।७।।

उस रासमण्डल में व्रजसुन्दरियों के साथ षडैश्वर्य सम्पन्न भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे, जैसे स्वर्णमयी मणियों के बीच में प्रभामयी नीलमणि सुशोभित हो।।७।।

पादन्यासैर्भुजविधुतिभिः सस्मितैर्भ्रूविलासै-र्भज्यन्मध्यैश्चलकुचपटैः कुण्डलैर्गण्डलोलैः।

स्विद्यन्मुख्यः कबररशनाग्रन्थयः कृष्णवध्वो गायन्त्यस्तं तडित इव ता मेघचक्रे विरेजुः।।८।।

श्रीकृष्ण की परम प्रेयसी गोप सुन्दरियाँ अति मधुर स्वर से प्रियतम की मधुर लीलाओं का गान करती हुई नृत्य कर रही थीं। उस समय, वे मस्तक की वेणी और कमर के लहँगे की डोरी को कसकर बाँधे हुए भाँति-भाँति से पैरों को नचा रही थीं, चरणों की गति के अनुसार भुजाओं से कलापूर्ण भाव प्रकट कर रही थीं, मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं और भौंहों को मटका रही थीं। नाचने में कभी-कभी पतली कमर लचक जाती थी, उनके स्तनों के वस्त्र उड़ जा रहे थे, कानों के कुण्डल हिल-हिलकर अपनी प्रभा से उनके कपोलों को और भी चमका रहे थे। नाचने के श्रम से उनके मुखों पर पसीने की बूँदें झलक रही थीं। उस समय वे व्रज सुन्दरियाँ ऐसी असीम शोभा पा रही थीं मानो नील बादलों के बीच-बीच में स्वर्ण वर्णा बिजलियाँ चमक रही हों।।८।।

उच्चैर्जगुर्नृत्यमाना रक्तकण्ठ्यो रतिप्रियाः। कृष्णाभिमर्शमुदिता यद्गीतेनेदमावृतम्।।९।।

श्रीकृष्ण के साथ क्रीड़ा में आसक्त वे सुन्दर कण्ठवाली व्रजरमणियाँ भगवान श्रीकृष्ण का संस्पर्श प्राप्त कर आनन्दमग्न हो रही थी। वे नाचती हुई ऊँचे स्वर से परम मधुर गान कर रही थीं। उनकी संगीत-ध्वनि से सम्पूर्ण जगत व्याप्त हो रहा था।।९।।

काचित् समं मुकुन्देन स्वरजातीरमिश्रताः। उन्निन्ये पूजिता तेन प्रीयता साधु साध्विति।

तदेव ध्रुवमुन्निन्ये तस्यै मानं च बह्वदात्।।१०।।

कोई गोपी भगवान श्रीकृष्ण के स्वर की अपेक्षा भी विलक्षण ऊँचे स्वर से गाने लगी। उसके विलक्षण मधुर गान को सुनकर भगवान अत्यन्त प्रसन्न हुए और ‘बहुत अच्छा’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसकी प्रशंसा करने लगे। उसी राग को एक दूसरी गोपी ने ध्रुपद ताल में उठाकर गाया और भगवान ने उसको भी बड़ा आदर दिया।।१०।।

काचिद्रासपरिश्रान्ता पार्श्वस्थस्य गदाभृतः। जग्राह बाहुना स्कन्धं श्लथद्वलयमल्लिका।।११।।

कोई एक सखी रास में प्रियतम श्री श्यामसुन्दर के साथ नृत्य करते-करते थक गयी। उसके हाथों के कंगन तथा वेणियों में बँधे हुए बेले के पुष्प खिसकने लगे। तब वह अपने पार्श्व में ही स्थित श्यामसुन्दर के कंधे को पकड़कर उसके सहारे खड़ी हो गयी।।११।।

तत्रैकांसगतं बाहुं कृष्णस्योत्पलसौरभम्। चन्दनालिप्तमाघ्राय हृष्टरोमा चुचुम्ब ह।।१२।।

वहाँ एक गोपी ने श्रीकृष्ण का कोमल कर-कमल अपने कंधे पर रख लिया। भगवान के उस हाथ से स्वाभाविक ही कमल-सी दिव्य सुगन्ध आ रही थी और उस पर अत्यन्त सुगन्धित चन्दन लगा हुआ था। भगवान के भुजस्पर्श और उनके दिव्य अंग-गन्ध से उस गोपी के आनन्द से रोमान्च हो आया और उसने झट भगवान के हाथ को चूम लिया।।१२।।

कस्याश्चिन्नाट्यविक्षिप्तकुण्डलत्विषमण्डितम्। गण्डं गण्डे संदधत्या अदात्ताम्बूलचर्वितम्।।१३।।

एक दूसरी गोपी रास में नाच रही थी, इससे उसके कानों के कुण्डल हिल रहे थे और उन कुण्डलों की झलक उसके कपोलों पर चमक रही थी। उस गोपी ने अपने कपोल को भगवान के कपोल से सटा दिया। तब भगवान ने बड़े प्रेम से अपना चबाया हुआ पान उसके मुख में दे दिया।।१३।।

नृत्यन्ती गायती काचित् कूजन्नूपुरमेखला। पार्श्वस्थाच्युतहस्ताब्जं श्रान्ताधात् स्तनयोः शिवम्।।१४।।

कोई एक गोपी अपने पैरों की पाजेब तथा करधनी के घुँघुरूओं को मधुरस्वर से झनकारती हुई नाच-गा रही थी। वह जब थक गयी और उसका हृदय धड़कने लगा, तब उसने अपने बगल में ही खड़े हुए श्यामसुन्दर के शीतल सुकोमल कर-कमल को अपने दोनों स्तनों पर रख लिया।।१४।।

गोप्यो लब्ध्वाच्युतं कान्तं श्रिय एकान्तवल्लभम्। गृहीतकण्ठ्यस्तद्दोर्भ्या गायन्त्यस्तं विजहिरे।।१५।।

साक्षात श्री लक्ष्मी जी के एकमात्र परम प्रियतम तथा सदा अपने तत्त्व स्वरूप में ही प्रतिष्ठित भगवान श्रीकृष्ण को अपने कान्त-हृदयेश्वर के रूप में प्राप्त कर गोपसुन्दरियाँ उनके गलों में अपनी भुजाएँ डालकर उन प्रियतम की प्रेमलीला का गान करती हुई उनके साथ विहार करने लगीं।।१५।।

कर्णोत्पलालकविटंककपोलधर्म-वक्त्रश्रियो वलयनूपुरघोषवाधैः।

गोप्यः समं भगवता ननृतुः स्वकेश-स्त्रस्तस्त्रजो भ्रमरगायकरासगोष्ठ्याम्।।१६।।

उन गोपसुन्दरियों के कानों में कमल पुष्प सुशोभित थे। घुँघुराली लटें गालों को विभूषित कर रही थीं। पसीने की बूँदों से उनके मुख-सरोजों की अपूर्व शोभा हो रही थी। वे रासमण्डल में भगवान श्रीकृष्ण के साथ नृत्य कर रही थीं। उस नृत्य के साथ उनके हाथों के कंगन और पैरों की पाजेबों के बाजे बज रहे थे और भ्रमरों के दल सुर में सुर मिलाकर गान कर रहे थे। उस समय उनकी वेणियाँ में गुँथे हुए पुष्प खिसक-खिसकर गिरे जा रहे थे।।१६।।

एवं परिष्वंगकराभिमर्शस्निग्धे-क्षणोद्दामविलासहासैः रेमे रमेशो

व्रजसुन्दरी-भिर्यथार्भकः स्वप्रतिबिम्बविभ्रमः।।१७।।

जैसे छोटा-सा शिशु निर्विकारभाव से अपनी परछाई के साथ खेलता है, वैसे ही रमानाथ भगवान श्रीकृष्ण कभी उन गोपियों का आलिंगन करते, कभी हाथों से उनका अंगस्पर्श करते, कभी प्रेमभरी तिरक्षी चितवन से उनकी ओर निहारते और कभी विलासपूर्ण रीति से खिलखिलाकर हँस पड़ते। इस प्रकार उन्होंने उन निजस्वरूपभूता व्रजसुन्दरियों के साथ रमण किया। (वस्तुतः भगवान श्रीकृष्ण की यह स्वरूपभूता लीला थी। गोपियाँ तत्त्वतः श्रीकृष्ण से अभिन्न थीं; पर जैसे बालक अपना मुख स्वयं न देख पाने के कारण उसके साथ खेल नहीं सकता, परंतु दर्पणादि में अपनी परछाई देखकर विचित्र भाव-भंगिमाओं से उसके साथ खेलकर आनन्द का अनुभव करता है, वैसे ही श्रीभगवान भी अपने आप क्रीड़ा नहीं कर सकते। इसीलिये वे अपनी ही परछाईरूपा अह्लादिनी शक्ति की विकसित मूर्तियों श्रीव्रजसुन्दरियों के साथ विविध विलास करके निर्मल दिव्य रसानन्द का अनुभव करते हैं। अपने अलौकिक अनुपमेय प्रतिक्षणवर्धमान सौन्दर्य-माधुर्य-सुधारस का अनुभव करने के लिये ही वे निजस्वरूपा व्रज सुन्दरियों के साथ लीला करके उसका रसास्वादन करते हैं।)।।१७।।

तदंगसंगप्रमुदाकुलेन्द्रियाः केशान् दुकूलं कुचपट्टिकां वा। नाञ्ज

प्रतिव्योढुमलं व्रजस्त्रियो विस्त्रस्तमालाभरणाः कुरुद्वह।।१८।।

परीक्षित! प्रियतम भगवान के अंगों का संस्पर्श पाकर गोपियों की इन्द्रियाँ प्रेमानन्द से विह्वल हो गयीं। उनके कण्ठों में पड़े हुए पुष्पहार टूट गये। उनके आभूषण अस्त-व्यस्त हो गये। सजाये हुए केश बिखर गये। वे अपनी ओढ़नी तथा चोली को भी जल्दी से सँभालने में असमर्थ हो गयीं।।१८।।

कृष्णविक्रीडितं वीक्ष्य मुमुहुः खेचरस्त्रियः। कामार्दिताः शशांकश्च सगणो विस्मतोऽभवत्।।१९।।

भगवान श्रीकृष्ण की इस प्रेममयी रासक्रीड़ा को देखकर आकाश में विमानों में बैठी देवांगनाएँ भी मिलन की इच्छा से मोहित हो गयीं और चन्द्रमा अपने गणों-नक्षत्रों तथा तारों के साथ आश्चर्यचकित हो गया।।१९।।

कृत्वा तावन्तमात्मानं यावतीर्गोपयोषितः। रेमे स भगवांस्ताभिरात्मारामोऽपि लीलया।।२०।।

भगवान श्रीकृष्ण आत्माराम हैं, नित्य स्वभाव से आत्मस्वरूप में ही रमण करते हैं। फिर भी उन्होंने, जितनी गोपरमणियाँ थीं, उतने ही रूपों में अपने को प्रकट करके अपनी लीला से ही-किसी कामना-वासना से नहीं-उनके साथ रमण किया।।२०।।

तासामतिविहारेण श्रान्तानां वदनानि सः। प्रामृजत्करुणः प्रेम्णा शंतमेनांग पाणिना।।२१।।

प्रिय परीक्षित! यों बहुत देर तक नृत्य, गान, विहार आदि करने के कारण अत्यधिक श्रम से जब सारी गोपियाँ थक गयीं, तब करुणामय भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं परम शान्तिदायक कोमल कर-कमलों द्वारा बड़े ही प्रेम से उनके मुख-कमलों को पोंछ दिया।।२१।।

गोप्यः स्फुरत्पुरटकुण्डलकुन्तलत्विड्-गण्डश्रिया सुधितहासनिरीक्षणेन।

मानं दधत्य ऋषभस्य जगुः कृतानि पुण्यानि तत्कररुहस्पर्शप्रमोदाः।।२२।।

भगवान श्यामसुन्दर के कर-कमलों और नखों के स्पर्श से गोपियाँ प्रमुदित हो गयीं। उन्होंने अपने कपोंलों की सुन्दरता से, जिन पर झिलमिलाते हुए सुवर्णमय कुण्डलों की आभा छिटक रही थी तथा घुँघराले केशों की लटें लहरा रहीं थीं, एवं अपनी सुधामयी मधुर मुस्कान से युक्त प्रेममयी चितवन से उन पुरुषोत्तम भगवान का सम्मान किया और फिर वे उनकी परम पवित्र प्रेम सुधामयी लीलाओं का गान करने लगीं।।२२।।

ताभिर्युतः श्रममपोहितुमंगसंग-घृष्टस्त्रजः स कुचकुंकुमरञ्जितायाः।

गन्धर्वपालिभिरनुद्रुत आविशद् वाः श्रान्तो गजीभिरिभराडिव भिन्नसेतुः।।२३।।

तदनन्तर जैसे विलास-क्रिया से थका हुआ गजराज बाँध को तोड़ता हुआ हथिनियों के साथ जल में प्रवेश करके विविध प्रकार से क्रीड़ा करता है, वैसे ही थके हुए भगवान श्रीकृष्ण लोक और वेद की मर्यादा को भंग करके अपनी थकान दूर करने के लिये उन गोप-सुन्दरियों को लेकर श्री यमुना जी के जल में घुस गये। उस समय भगवान के गले की उस वनमाला से, जो गोप-सुन्दरियों के अंगों की रगड़ से कुछ मसली गयी थी और जो उनके वक्षःस्थल के केसर से केसरी रंग की हो रही थी, खिंचकर भ्रमरों के दल-के-दल उनके पीछे-पीछे मधुर गुंजार करते हुए उड़े आ रहे थे, मानों गन्धर्वगण उनकी लीलाओं का सुमधुर गान करते हुए पीछे-पीछे चल रहे हों।।२३।।

सोऽम्भस्यलं युवतिभिः परिषिच्यमानः प्रेम्णेक्षितः प्रहसतीभिरिस्तस्ततोऽग।

वैमानिकैः कुसुमवर्षिभिरीड्यमानो रेमे स्वयं स्वरतिरत्र गजेन्द्रलीलः।।२४।।

परीक्षित! यमुना जी के जल में वे व्रजतरुणियाँ प्रेममयी चितवन से श्रीकृष्ण की ओर देखती हुई तथा खिलखिलाकर हँसती हुई उन पर चारों ओर से खूब जल उलीचने लगीं। इस दृश्य को देखकर विमानों पर बैठे हुए देवता फूल बरसाकर उनकी स्तुति करने लगे। इस प्रकार अपने-आप में ही नित्य रमण करने वाले भगवान स्वयं गजराज की भाँति यमुना जल में गोपांगनाओं के साथ जल-विहार की लीला करने लगे।।२४।।

ततश्च कृष्णोपवने जलस्थल-प्रसूनगन्धानिलजुष्टदिक्तटे।

चचार भृंगप्रमदागणावृतो यथा मदच्यृद् द्विरदः करेणुभिः।।२५।।

इसके पश्चात यमुना जी से निकलकर भ्रमरों तथा व्रजयुवतियों से घिरे हुए भगवान उस रमणीय उपवन में गये, जहाँ सब ओर स्थल में सुन्दर सुगन्धयुक्त पुष्प खिले हुए थे और उनकी सुगन्ध का प्रसार करती हुई मन्द मनोहर वायु चल रही थी। उस उपवन में भगवान उसी प्रकार विचरने लगे, जैसे मद चुवाता हुआ गजराज हथिनियों के साथ घूम रहा हो।।२५।।

एवं शशांकांशुविराजिता निशाः स सत्यकामोऽनुरताबलागणः।

सिषेव आत्मन्यवरुद्धसौरतः सर्वाःशरत्काव्यकथारसाश्रयाः।।२६।।

शरद की वह रात्रि अनेक रात्रियों से समन्वित होकर बड़ी ही शोभा पा रही थी। चन्द्रमा की किरण-ज्योत्स्ना सब ओर छिटक रही थी। काव्यों में शरत्काल की जिन रस-सामग्रियों का विवेचन किया गया है, वे सम्पूर्ण उसमें विद्यमान थीं। उस रात्रि में सत्यसंकल्प भगवान श्यामसुन्दर ने अपनी परमप्रेयसी निजस्वरूपा चिन्मयी गोपरमणियों के साथ चिन्मय लीला-विहार किया। भगवान की सत्ता से ही कामदेव में सत्ता आती है, इसलिये कामदेव का उन पर कोई भी वश नहीं चल सकता। अतएव वह यहाँ भी सर्वदा पराजित रहा। भगवान सर्वथा अस्खलितवीर्य बने रहे।।२६।।

राजोवाच

संस्थापनाय धर्मस्य प्रशमायेतरस्य च। अवतीर्णो हि भगवानंशेन जगदीश्वरः।।२७।।

स कथं धर्मसेतूनां वक्ता कर्ताभिरक्षिता।। प्रतीपमाचरद् ब्रह्मन् परदाराभिमर्शनम्।।२८।।

आप्तकामो यदुपतिः कृतवान् वै जुगुप्सितम्। किमभिप्राय एतं नः संशयं छिन्धि सुव्रत।।२९।।

इसी बीच में राजा परीक्षित भगवान की चिन्मयी लीला का रहस्य पूरी तरह से न समझने के कारण लौकिक भाव से शंका करते हुए श्रीशुकदेवजी से प्रश्न कर बैठे। उन्होंने कहा-भगवन! भगवान श्रीकृष्ण तो सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं, उन्होंने अपने वंश श्रीबलराम जी के साथ धर्म की स्थापना और अधर्म के विनाश के लिये ही परिपूर्णरूप में अवतार ग्रहण किया था। ब्रह्मन! वे स्वयं धर्म-मर्यादाओं की रचना करने वाले उनकी रक्षा करने वाले तथा उपदेशक थे। फिर, उन भगवान ने स्वयं धर्म के विपरीत परस्त्रियों का अंगस्पर्श कैसे और क्यों किया? भगवान श्रीकृष्ण तो नित्य पूर्णकाम हैं, उनके मन में कभी कोई कामना जागती ही नहीं; फिर यादवेन्द्र भगवान ने किस अभिप्राय से ऐसा निन्दनीय कर्म किया? उत्तम निष्ठा वाले श्रीशुकदेवजी! आप कृपापूर्वक मेरे इस संदेह को दूर कीजिये।।२७-२९।।

श्रीशुक उवाच

धर्मव्यतिक्रमो दृष्ट ईश्वराणां च साहसम्। तेजीयसां न दोषाय वह्ने सर्वभुजो यथा।।३०।।

परीक्षित के इस संदेहयुक्त प्रश्न से विरक्त शिरोमणि शुकदेव जी के द्वारा प्रवाहित लीलारस का प्रवाह रुक गया और वे परीक्षित का संदेह दूर करने के लिये लौकिक युक्तिपूर्ण वचन बोले-श्रीशुकदेव जी ने कहा – परीक्षित! कर्म की अधीनता से मुक्त ईश्वरकोटि के महान तेजस्वी देवताओं द्वारा कभी-कभी धर्म का उल्लंघन तथा ऐसे परम साहस के कार्य होते देखे जाते हैं। परन्तु उन कार्यो से उन तेजस्वी देवताओं का कोई दोष नहीं माना जाता। जैसे अग्नि शवदेहादिपर्यन्त सब कुछ खा जाता है, परंतु उसके उस कार्य को कोई भी दोषयुक्त नहीं मानता।।३०।।

नैतत् समाचरेज्जातु मनसापि ह्यनीश्वरः। विनश्यत्याचरन् मौढ्याद्यथारुद्रोऽब्धिजं विषम्।।३१।।

परन्तु जो अनीश्वर हैं, समर्थ नहीं हैं, अजितेन्द्रिय तथा देहाभिमानी हैं, उन्हें, शरीर से तो दूर रहा, कभी मन से भी ऐसी चेष्टा नहीं करनी चाहिये। यदि कोई मूर्खतावश ईश्वर की इस लीला का अनुकरण करके इस प्रकार का आचरण कर बैठेगा तो वह नष्ट-पतित हो जायगा। भगवान शिव जी ने समुद्र से उत्पन्न हलाहल विष पी लिया था, पर उनकी देखा-देखी दूसरा कोई पीयेगा तो वह निश्चय ही जलकर भस्म हो जायगा।।३१।।

ईश्वराणां वचः सत्यं तथैवाचरितं क्कचित्। तेषां यत् स्ववचोयुक्तं बुद्धिमांस्तत्समाचरेत्।।३२।।

इसलिये श्री शंकर के सदृश समर्थ देवताओं के वचनों का ही अधिकारानुसार यथार्थरूप से पालन करना चाहिये, उनके स्वच्छन्द आचरणों का नहीं। कहीं-कहीं उनके आचरणों का भी अनुकरण किया जा सकता है, परंतु बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि उनके उसी आचरण का अनुकरण करे, जो उनके उपदेश के सर्वथा अनुकूल हो।।३२।।

कुशलाचरितेनैषामिह स्वार्थो न विद्यते। विपर्ययेण वानर्थो निरहंकारिणां प्रभो।।३३।।

राजा परीक्षित! इस संसार में ऐसे समर्थ ईश्वर सर्वथा अहंकार शून्य होते हैं। शुभ कर्म करने से उनका कोई स्वार्थ साधन-लाभ नहीं होता और उसके विपरीत लोक दृष्टि में अशुभ कर्म से उनकी कोई हानि नहीं होती। वे स्वार्थ या अनर्थ अर्थात् लाभ-हानि और शुभ-अशुभ से ऊपर उठे होते हैं।।३३।।

किमुताखिलसत्त्वानां तिर्यङ्मर्त्यदिवौकसाम्। ईशितुश्चेशितव्यानां कुशलाकुशलान्वयः।।३४।।

यह तो ईश्वर कोटि के समर्थ देवताओं तथा पुरुषों की बात है। भगवान श्रीकृष्ण तो पशु-पक्षी, कीट-पतंग, मनुष्य-देवता आदि समस्त चराचर जीवों के एकमात्र नियन्ता-शासक प्रभु, सर्वलोक महेश्वर हैं। उनके साथ किसी लौकिक शुभ और अशुभ से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध हो ही कैसे सकता है।।३४।।

यत्पादपंकजपरागनिषेवतृप्ता योगप्रभावविधुताखिलकर्मबन्धाः।

स्वैरं चरन्ति मुनयोऽपि न नह्यमाना-स्तस्येच्छयाऽऽत्तवपुषः कुत एव बन्धः।।३५।।

जिनके चरण-कमलों की रज का सेवन करके भक्तजन पूर्णकाम हो जाते हैं, जिनके साथ मन का योग हो जाने के प्रभाव से योगी मुनिजनों के समस्त कर्मबन्धन कट जाते हैं, वे किसी भी विधि- निषेध को न मानकर स्वेच्छानुसार नियन्त्रण रहित स्वच्छन्द आचरण करते हुए भी बन्धन से सर्वथा मुक्त रहते हैं, वे ही साक्षात् भगवान, जो कर्मबन्धन से पंचभौतिक देह को प्राप्त न होकर अपनी लीला से ही सच्चिदानन्दमय विग्रहरूप में प्रकट हुए हैं, उन कर्तु-अकर्तु-अन्यथा कर्तु समर्थ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान में किसी प्रकार के कर्मबन्धन की कल्पना ही कैसे हो सकती है?।।३५।।

गोपीनां तत्पतीनां च सर्वेषामेव देहिनाम्। योऽन्तश्चरति सोऽध्यक्षः क्रीडनेनेह देहभाक्।।३६।।

जो भगवान गोपियों के उनके पतियों के तथा सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामी आत्मारूप से विहार करते हैं, वे सबके साक्षी परमपति परमेश्वर ही दिव्य चिन्मय देह धारण करके यहाँ लीला कर रहे हैं।।३६।।

अनुग्रहाय भूतानां मानुषं देहमास्थितः। भजते तादृशीः क्रीडा याः श्रुत्वा तत्परो भवेत्।।३७।।

जीवों पर कृपा करने के लिये ही भगवान अपने सच्चिदानन्दघन स्वरूप को मनुष्य देह के रूप में प्रकट करके वैसी ही लीलाएँ करते हैं, जिन्हें सुनकर मनुष्य उन भगवान के परायण हो जाता है। अतएव भगवान की इस दिव्य भावमयी लीला में तनिक भी संदेह नहीं करना चाहिये।।३७।।

नासूयन् खलु कृष्णाय मोहितास्तस्य मायया। मन्यमानाः स्वपार्श्वस्थान् स्वान् दारान् व्रजौकसः।।३८।।

यह भावमयी दिव्य लीला थी, जिसके कारण व्रजवासी गोपों ने भगवान की योगमाया से मोहित होकर ऐसा अनुभव किया कि हमारी पत्नियाँ हमारे पास ही सोयी हैं और उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के प्रति तनिक भी दोषदृष्टि नहीं की।।३८।।

ब्रह्मरात्र उपावृत्ते वासुदेवानुमोदिताः। अनिच्छन्त्यो ययुर्गोप्यः स्वगृहान् भगवत्प्रियाः।।३९।।

फिर जब ब्राह्म मुहूर्त आ गया, तब भगवान की अत्यन्त प्यारी वे गोपसुन्दरियाँ अपने-अपने घरों को लौट गयीं। यद्यपि उनकी लौटकर जाने की तनिक भी इच्छा नहीं थी, तथापि वे अपनी प्रत्येक क्रिया से भगवान श्रीकृष्ण को ही सुखी करना चाहती थीं, उनमें श्रीकृष्ण-सुख से पृथ्क किसी निज-सुख की कामना तो थी नहीं, इसलिये वे भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा होते ही चली गयीं।।३९।।

विक्रीडितं व्रजवधूभिरिदं च विष्णोः श्रद्धान्वितोऽनुश्रृणुयादथ वर्णयेद्यः।

भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीरः।।४०।।

जो धीर पुरुष व्रजललनाओं के साथ भगवान श्रीकृष्ण की इस दिव्य भावमय चिन्मय रासक्रीड़ा का श्रद्धा के साथ बार-बार श्रवण और वर्णन करेगा, वह शीघ्र ही भगवान श्रीकृष्ण की पराभक्ति को-सर्वश्रेष्ठ प्रेमस्वरूपा भक्ति को प्राप्त हो जायगा तथा तुरन्त हृदय के विकाररूप लौकिक काम से सर्वथा मुक्त हो जायगा।।४०।।

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