रुद्रयामल तंत्र पटल २३ , Rudrayamal Tantra Patal 23, रुद्रयामल तंत्र तेइसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र पटल २३ में वायु भक्षण की विधि का निरूपण है। साधक को पूरक, कुम्भक एवं रेचक विधि से उदर को वायु पूरित पञ्च प्राणों को वश में करना चाहिए। बिना आसनों के प्राणायाम की सिद्धि नहीं होती । अतः इसी प्रसङ्ग में पद्मासन आदि सव्यापसव्य भेद से (३२ + ३२ = ) ६४ आसनों का विधान किया गया है। इस प्रकार वायु को वश में करने के लिए इस पटल में आसनों का निरूपण किया गया है।
रुद्रयामल तंत्र तेइसवाँ पटल – योगिनी का भोजननियम
रुद्रयामल तंत्र त्रयोविंशः पटलः – योगिनां भोजननियमः
रूद्रयामल तंत्र शास्त्र
आसननिरूपणम्
श्रीभैरवी उवाच
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि ब्रह्ममार्गमनुत्तमम् ।
यद् यज्ज्ञात्वा सुराः सर्वे जयाख्याः परमं जगुः ॥१॥
श्री आनन्दभैरवी ने कहा — हे महाभैरव अब इसके अनन्तर मैं सर्वश्रेष्ठ ब्रह्ममार्ग का वर्णन करुँगी । जिसके ज्ञान करने मात्र से सभी देवताओं ने उत्कृष्ट विजय प्राप्त की ॥१॥
न तन्तेजःप्रकाशाय महतां धर्मवृद्धये ।
योगाय योगितां देव भक्षप्रस्थनिरुपणम् ॥२॥
भक्तों में तेजः प्रकाश के लिए, महान् लोगों में धर्म की वृद्धि के लिए और योगियों में योग के लिए, हे देव ! प्रस्थ मात्रा में भक्ष का निरुपण किया गया है ॥२॥
योगाभ्यास यः करोति न जानातीह भक्षणम् ।
कोटिवर्षसहस्त्रेण न योगी भवति ध्रुवम् ॥३॥
अतो वै भक्षमाहात्म्यं प्रवदामि समासतः ।
यज्ज्ञात्वा सिद्धिमाप्नोति स्वाधिष्ठानादिभेदनम् ॥४॥
आदौ विवेकी यो भूयाद भूतले परमेश्वर ।
स एव भक्षनियमं गृहेऽरण्ये समाचरेत् ॥५॥
जो योगाभ्यास करता है, किन्तु भक्षण की प्रक्रिया नहीं जानता वह करोड़ों वर्षों में भी योगी नहीं बन सकता यह निश्चित है। इसलिए भक्ष का माहात्म्य मैं संक्षेप में कहती हूँ, जिसके जान लेने पर साधक सिद्धि प्राप्त कर लेता है तथा स्वाधिष्ठान नामक चक्र के भेदन को भी जान लेता है । हे परमेश्वर ! इस भूतल पर सर्वप्रथम जो ज्ञानी बनना चाहता है, उसे घर पर अथवा अरण्य प्रदेश में भक्ष के नियम का आचरण करना चाहिए ॥३ – ५॥
वाय्वासन दृढानन्दपरमानन्दनिर्भरः ।
मिताहारं सदा कुर्यात पूरकाहलादहेतुना ॥६॥
तदा पूरकसिद्धिः स्याद् भक्षणादिनिरुपणात् ।
उदरं पूरयेन्नित्यं कुम्भयित्वा पुनः पुनः ॥७॥
वायु, आसन, दृढा़नन्द तथा परमानन्द में निर्भर साधक पूरक प्राणायाम के आह्लाद प्राप्ति हेतु सदैव प्रमित (संतुलित) आहार करना चाहिए । भक्षणादि नियम का पालन करने से पूरक प्राणायाम की सिद्धि होती है । उदर को कुम्भक प्राणायाम के द्वारा बारम्बार परिपूर्ण करते रहना चाहिए ॥६ – ७॥
निजहस्तप्रमाणाभिः पूरयेत् पूर्णमेव च ।
तत्पूरयेत् स्थापयेन्नाथ विश्वामित्रकपालके ॥८॥
हंसद्वादशवारेण शिलायामपि घर्षयेत् ।
नित्यं तत्पात्रपूण च पाकेनैकेन भक्षयेत् ॥९॥
तण्डुलान् शालिसम्भूतान्कपालप्रस्थपूर्णकान् ।
दिने दिने क्षयं कुर्याद् भक्षणादिषु कर्मसु ॥१०॥
अपने हाथ का जितना प्रमाण हो उतने ही ग्रासों से उदर को पूर्ण करे । हे नाथ ! जितनी अञ्जलि पूर्ण करे उसे विश्वामित्रकपाल (तावा) में स्थापित करे । १२ बार हंस मन्त्र का जप करते हुये उस कपाल की शिला पर घर्षण करे । तदनन्तर उस पूर्ण पात्र को एक बार पका (?) कर भक्षण करे । शालिधान्य का तन्दुल (चावल) कपाल में एक प्रस्थ परिमाण में स्थापित कर प्रतिदिन उसका भक्षण करे और प्रतिदिन भक्षण कर उसे खाली कर दे ॥८ – १०॥
हंसद्वादशवारेण जपेन संक्षयं चरेत् ।
शिलायां तत्कपालं च वर्द्धयेत् पूरकादिकम् ॥११॥
यावत्कालं क्षयं याति निजभक्षणनिर्णयम् ।
तत्काल्म वायुनापूर्य नोदरं काकचञ्चुभिः ॥१२॥
नियमपूर्वक १२ बार हंस मन्त्र का जप कर कपालस्थ तण्डुल का भोजन करे । पूरकादि प्राणायाम से युक्त उस कपाल को नित्य शिला पर अभिवर्द्धित करे । जब तक भक्षण से उस कपाल का क्षय हो तब तक उदर को वायु से पूर्ण करे किन्तु काकचञ्चु के समान वायु का आकर्षण कर उसे पूर्ण न करे ॥११ – १२॥
आकुञ्चयेत् सदा मूले कुण्डली भक्षधारणात् ।
तत्र सम्पूरयेद्योगी भक्षप्रस्थावनाशनात् ॥१३॥
कालक्रमेण तत् सिद्धिमाप्नोति जितेन्द्रियः ।
यत्स्थानं भक्षणस्यैव तत्स्थाने पूरयेत्सुखम् ॥१४॥
पुनः पुनर्भक्षणेन भक्षसिद्धिमुपैति हि ।
विना पूरकयोगेन भक्षणं नापि सिद्धयति ॥१५॥
अथवान्यप्रकारेण भक्षत्यांग विनिर्णयम् ।
येन हीना न सिद्धयन्ति नाडीचक्रस्थदेवताः ॥१६॥
योगी साधक भक्षण कर लेने पर सदैव मूलाधार में स्थित कुण्डली का सङ्कोचन करे और वायुप्राशन के द्वारा उसे पूर्ण करता रहे । यदि साधक भक्षण का जो नियत स्थान है उस स्थान में सुखपूर्वक वायु पूर्ण करता रहे तो ऐसा जितेन्द्रिय योगी धीरे-धीरे काल बीतने पर सिद्धि प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार बारम्बार वायुभक्षण से भक्ष पदार्थ पच जाता है । क्योंकि बिना पूरक प्राणायाम के भक्षण किया गया पदार्थ नहीं पचता । अथवा इस प्रकार के भक्षण को त्याग कर अन्य प्रकार से भक्षण करना चाहिए । क्योंकि भक्षण के बिना नाड़ी समूह पर स्थित देवता तृप्त नहीं होते ॥१३ – १६॥
द्वात्रिंशद् ग्रासमादाय त्रिपर्व्वाणि यथास्थितम् ।
अर्द्धग्रासं विहायापि नित्यं भक्षणमाचरेत् ॥१७॥
सदा सम्पूरयेद् वायुं भावको गतभीर्ममहान् ।
भक्षस्थाने समायोज्य पिबेद् वायुमहर्निशम् ॥१८॥
साधक बत्तीस ग्रास अन्न तीन सन्ध्याओं में जैसा भी हो उसे लेकर आधा ग्रास छोड़कर नित्य भक्षण करे । फिर वह महान् एवं भावुक साधक निडर हो कर वायु से (उदर) पूर्ण करता रहे । उसकी विधि इस प्रकार है कि भक्ष स्थान में वायु को संयुक्त कर दिन रात वायु पान करता रहे ॥१७ – १८॥
चतुःषष्टिदिने सर्वं क्षयं कृत्वा ततः सुधीः ।
पयोभक्षणमाकुर्यात् स्थिरचेता जितेन्द्रियः ॥१९॥
पयः प्रमाणं वक्ष्यामि हस्तप्रस्थत्रयं त्रयम् ।
शनैः शनैर्विजेतव्याः प्राणा मत्तगजेन्द्रवत् ॥२०॥
इस प्रकार चौसठ दिन लगातार करते हुए सुभी साधक सब का परित्याग कर स्थिर चित्त तथा जितेन्द्रिय हो दूध का भक्षण कर । अब दूध का प्रमाण कहती हूँ । दूध की मात्र हाथ के द्वारा ३, ३ प्रस्थ होना चाहिए । इस प्रकार की प्रक्रिया से साधक पञ्च प्राणों को मत्त गजेन्द्र के समान अपने वश में करे ॥१९ – २०॥
षण्मासाज्जायते सिद्धिः पूरकादिषु लक्षणम् ।
क्रमेणाष्टाङसिद्धिः स्यात् यतीनां कामरुपिणाम् ॥२१॥
बद्धपद्मासनं कृत्वा विजयानन्दनन्दितः ।
धारयेन्मारुतं मन्त्री मूलाधारे मनोलयम् ॥२२॥
इस प्रकार की पूरक की प्रक्रिया में छः मास में सिद्धि हो जाती है यही (प्राण्यायाम की पूर्णता का) लक्षण है । ऐसा करने वाले कामरुप यतियों को क्रमशः योगमार्ग के प्राणायामादि अष्टाङ्ग योग सिद्ध हो जाते हैं । बद्ध पद्मासन कर विजया के आनन्द में मस्त साधक मूलाधार में वायू धारण करे और वहीं अपने मन का भी लय करे ॥२१ – २२॥
रुद्रयामल तंत्र पटल २३
रुद्रयामल तंत्र तेइसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र त्रयोविंशः पटलः – आसननियमस्तद्भेदांश्च
रूद्रयामल तंत्र शास्त्र
आसननिरूपणम्
अथासनप्रभेदञ्च श्रृणु मत्सिद्धिकाङिक्षणाम् ।
येन विना पूरकाणां सिद्धिअभाक् न महीतले ॥२३॥
अधो मुण्डासनं वक्ष्ये सर्वेषां प्राणिनां सुखम् ।
ऊद्र्द्धमार्गे पदं दत्त्वा धारयेन्मारुतं सुधीः ॥२४॥
आसन निरुपण — हे महाभैरव ! अब मेरी सिद्धि चाहने वाले साधकों के लिए आसन के प्रभेदों को सुनिए जिन आसनों को बिना किए पूरक प्राणायाम करने वाले पृथ्वी पर सिद्धि के अधिकारी नहीं बनते । सर्वप्रथम मुण्डासन कहती हूँ जिससे सारे प्राणियों को सुख प्राप्त होता है । अपने पैर को ऊपर की ओर खडा़ करे, फिर नीचे मुख करके वायु का पान करे ॥२३ – २४॥
सर्वासनानां श्रेष्ठं हि ऊद्र्ध्वपादो यदा चरेत् ।
तदैव महतीं सिद्धिं ददाति वायवी कला ॥२५॥
एतत्पद्मासनं कुर्यात् प्राणवायुप्रसिद्ध्ये ।
शुभासन तदा ध्यायेत्पूरयित्वा पुनः पुनः ॥२६॥
पैर को ऊपर खडा़ करने वाला मुण्डासन का आचरण सभी आसनों में श्रेष्ठ है, क्योंकि वायवी कला उसी समय साधक को महती सिद्धि प्रदान करती है । प्राणवायु की सिद्धि के लिए पद्मासन उत्तम आसन है, इस आसन पर स्थित होकर पूरक प्राणायाम करते हुए ध्यान करे । इसे इस प्रकार करे ॥२५ – २६॥
ऊरुमूले वामपादं पुनस्तद्दक्षिणं पदम् ।
वामोरी स्थापयित्वा च पद्मासनमितिस्मृतम् ॥२७॥
सव्यपादस्य योगेन आसनं परिकल्पयेत् ।
तदैकासनकाले तु द्वितीयासनमाभवेत् ॥२८॥
दाहिने ऊरु के मूल में वामपाद, फिर दाहिन पैर बायें पैर के ऊरुमूल में स्थापित करे, तब उसी को पद्मासन कहते हैं । यह आसन प्रथम सव्यपाद को दाहिने पैर के ऊरुमूल में, तदनन्तर दाहिने पैर को बायें पैर के ऊरु पर रख कर करे अर्थात् एक पैर से आसन के बाद दूसरा पैर बदल कर आसन करे ॥२७ – २८॥
पृष्ठे करद्वयं नीत्वा वृद्धाङ्गुष्ठद्वयं सुधीः ।
कायसङ्कोचमाकृत्य धृत्वा बद्धासनो भवेत् ॥२९॥
बद्धपदासनं कृत्वा वायुबद्धं पुनः पुनः ।
चिबुंक स्थापयेद्यत्नाद् हलादितेजसि भास्करे ॥३०॥
पीछे की ओर दोनों हाथ कर शरीर को सिकोड़ कर बायें हाथ से दाहिने पैर का अंगूठा और दाहिने हाथ से बायें पैर का अंगूठा पकड़कर (पद्य की तरह) बद्धासन हो जावे । इस प्रकार बद्धपद्मासन कर वायु से बँधे चिबुक को सुखदायक प्रकाश वाले सूर्य में प्रयत्नपूर्वक स्थापित करे ॥२९ – ३०॥
इत्यासनं हि सर्वेषां प्राणिनां सिद्धिकारणम् ।
वायुवश्याय यः कुर्यात स योगी नात्र संशयः ॥३१॥
यह आसन समस्त प्राणियों की सिद्धि में हेतु है, इसलिए वायु को वश में करने के लिए योगी को अवश्य करना चाहिए इसमें संशय न करे ॥३१॥
स्वभावसिद्धिकरणं सर्वेषां स्वस्तिकासनम् ।
वामपादतले कुर्यात्पाददक्षिणमेव च ॥३२॥
सव्यापसव्ययोगेन आसनद्वयमेव च ।
सर्वत्रैवं प्रकारं च कृत्वा नाडीव सारमेत् ॥३३॥
सभी को स्वभावतः सिद्धि प्रदान करने वाला स्वस्तिकासन है । बायें पैर के तलवे पर दाहिना पैर अथवा दाहिने पैर के तलवे पर बायाँ पर रखे इस प्रकार सव्यापसव्या के योग से दोनों आसन करे । सर्वत्र इस प्रकार का आसन कर नाड़ियों का संचालन करे ॥३२ – ३३॥
आसनानि श्रृणु होतात्त्रिंशतासंख्यकानि च ।
सव्यापसव्ययोगेन द्विगुण प्रभवेदिह ॥३४॥
चतुःषष्टयासनानीह वदामि वायुसाधनात् ।
द्वात्रिंशद्बिन्दुभेदाय कल्पयेद् वायुवृद्धये ॥३५॥
अब हे महाभैरव ! तीस आसनों को सुनिए, ये सव्यापसव्य के योग से दूनी संख्या में हो जाते हैं । वायु साधन के लिए चौंसठ आसनों को मैं कहती हूँ, जिसमें से वायु की वृद्धि के लिए एवं बिन्दु का भेद करने के लिए बत्तीस आसन अवश्य करे ॥३४ – ३५॥
रुद्रयामल तंत्र पटल २३– आसननिरूपण
रुद्रयामल तंत्र तेइसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र त्रयोविंशः पटलः
कार्मकासनामाकृत्य उदरे पूरयेत् सुखम् ।
तदा वायुर्वशो याति कालेन सूक्ष्मवायुना ॥३६॥
कृत्वा पद्मासनं मन्त्री वेष्टयित्वा प्रधारयेत् ।
करेण दक्षिणेनैव वामपादन्तिकं तटम् ॥३७॥
सव्यापसव्यद्विगुणं कार्मुकासनमेव च ।
कार्मुकद्वययोगेन शरवद् वायुमानयेत् ॥३८॥
कार्मुकासन — धनुष के समान शरीर को बढा़कर सुख से उदर में वायु को पूर्ण करे तो इस सूक्ष्म वायु के प्रभाव से समय आने पर वायु स्वयं वश में हो जाता है । मन्त्रज्ञ साधक पद्मासन कर दाहिने हाथ से पृष्ठभाग में घुमाकर बायें पैर की अंगुली को पकड़े । इसी प्रकार बायें हाथ से पृष्ठभाग में घुमाकर दाहिने पैर की अंगुली को पकडे़ तो सव्यापसव्य योग से यहा आसन दुगुना हो जाता है, इसी प्रकार कार्मुकासन भी सव्यापसव्य से दुगुना हो जाता है, कार्मुकासन के द्वारा सीधे बाण की तरह वायु को भीतर ले जावे ॥३६ – ३८॥
कुक्कुटासनमावक्ष्ये नाडीनिर्मलहेतुना ।
मत्कुलागमयोगेन कुर्याद् वायुनिषेवणम् ॥३९॥
निजहस्तद्वयं भूमौ पातयित्वा जितेन्द्रियः ।
पदभ्यां बद्धं यः करोति कूर्परद्वयमध्यतः ॥४०॥
स्व्यापसव्ययुगलं कुक्कुटं ब्रह्मणा कृतम् ।
बद्धं कृत्त्वा अधःशीर्ष यः करोति खगासनम् ॥४१॥
खगासन प्रसादेन श्रमलोपो भवेद् द्रुतम् ।
पुनः पुनः श्रमादेव विषयश्रमलोपकृत ॥४२॥
अब नाड़ियों को निर्मल करने के लिए मैं कुक्कुटासन की विधि कहती हूँ । मेरे सम्प्रदाय के आगम के अनुसार कुक्कुटासन से वायु सेवन करे । साधक अपने इन्द्रियों को वश में कर, दोनों हाथों को भूमि पर स्थापित कर, फिर दोनों पैरों को दोनों हाथ के केहुनी में घुमा कर दोनों हाथों को उससे आबद्ध करे । सव्यापसव्य योग से यह आसन भी दो की संख्या में हो जाता है । इसे ब्रह्मदेव ने किया है । शिर के नीचे वाले भाग को अपने हाथ मे बाँध कर जो किया जाता है वह खगासन है । खगासन की कृपा से निश्चय ही थकावट शीघ्रता से दूर हो जाती है । यह पुनः पुनः श्रम करने से तथा विषयों से होने वाले श्रम को विनष्ट करता है ॥३९ – ४२॥
लोलासनं सदा कुर्याद् वायुलोलापघातनात् ।
स्थिरवायुप्रसादेन स्थिरचेता भवेद्द्रुतम् ॥४३॥
पद्मासनं समाकृत्य पादयोः सन्धिगहवरे ।
हस्तद्वयं मध्यदेशं नियोज्य कुक्कुटाकृतिः ॥४४॥
वायु की चञ्चलता को दूर करने के लिए सर्वदा लोलासन का अभ्यास करना चाहिए क्योंकि वायु के स्थिर होने से ही शीघ्रता से चित्त स्थिर हो जाता है । दोनों पैरों के छिद्र के भीतर पद्मासन को समान रुप से करके हाथों को शरीर के मध्य भाग में नियुक्त करे तो कुक्कुटाकृति आसन होता है ॥४३ – ४४॥
निजहस्तद्वयद्वन्द्वं निपात्य हस्तनिर्भरम् ।
कृत्वा श्रीरमुल्लाप्य स्थित्वा पद्मासनेऽनिलः ॥४५॥
स्थित्वैतदासने मन्त्री अधःशीर्षं करोति चेत् ।
उत्तमाङासनं ज्ञेयं योगिनामतिदुर्लभम् ॥४६॥
दोनों हाथ के द्वन्द्व (जोड़े) को नीचे कर हाथ के बल शरीर को ऊपर उठाकर पद्मासन पर वायु के सामन ऊपर उठ जावे। फिर इस आसन पर स्थित हो कर अपने शिर को नीचा करले तो वह उत्तमाङ्गसन हो जाता है, जो योगियों के लिए अत्यन्त दुर्लभ है ॥४५ – ४६॥
एतदासनमात्रेण शरीरं शीतलं भवेत् ।
पुनः पुनः प्रसादेन चैतन्या कुण्डली भवेत् ॥४७॥
सव्यापसव्य योगेन यः करोति पुनः पुनः ।
पूरयित्वा मूलपद्मे सूक्ष्मवायुं विकुम्भयेत् ॥४८॥
कृत्वा कुम्भकमेव हि सूक्ष्मवायुलयं विधौ ।
मूलदिब्रह्मारन्ध्रान्ते स्थापयेल्लयगे पदे ॥४९॥
एतत् शुभासन कृत्त्वा सूक्ष्मरन्ध्रे मनोलयम् ।
सूचीरन्ध्रे यथासूत्रं पूरयेत् सूक्ष्मवायुना ॥५०॥
इस आसन के करने मात्र से शरीर शीतल हो जाता है । बारम्बार इस आसन को करने से कुण्डलिनि चेतनता को प्राप्त करती है । सव्यापसव्य योग से जो बारम्बार उत्तमाङ्गसन करता है और मूलाधार पद्म में सूक्ष्म वायु भर कर फिर कुम्भक करता है । इस प्रकार कुम्भक प्राणायाम करने से सूक्ष्मवायु को चन्द्र नाड़ी में लय कर उसे मूलाधार से लय करने वाले ब्रह्मरन्ध में स्थापित करना चाहिए । इस शुभासन को करने के बाद जिस प्रकार सूई के छिद्र को सूत डालकर पूर्ण किया जाता है, उसी प्रकार सूक्ष्म वायु से सूक्ष्म रन्ध्र को पूर्ण करे तब मन का लय हो जाता है ॥४७ – ५०॥
एतत् क्रमेण षण्मासान् पूरकस्तापि लक्षणम् ।
महासुखं समाप्नोति योगाष्टाङुनिषेवणात् ॥५१॥
अथ वक्ष्ये महादेव पर्वतासनमङुलम् ।
यत्कृत्वा स्थिररुपी स्याद् षट्चक्रादिविलोपनम् ॥५२॥
इसी क्रम से ६ महीने तक योग के आठों अङ्गों को करता हुआ साधक पूरक द्वारा सूक्ष्म रन्ध्र पूर्ण करे तो महान् सुख प्राप्त करता है । हे महादेव ! अब मैं मङ्गलकारी पर्वतासन कहती हूँ जिसके करने से साधक स्थिर स्वरुप हो जाता है । षट्चक्रादि का भेदन ही पर्वतासन है ॥५१ – ५२॥
योन्यासनं पर्वतेन योगं योगफलेऽनिलम् ।
तत्कालफललन्तावत् खेचरो यावदेव हि ॥५३॥
पादयोगेन चक्रस्य लिङाग्रं यो नोयोजयेत् ।
अन्यत्पदमूरौ दत्त्वा तत्र योन्यासनं भुवि ॥५४॥
पर्वत आसन के साथ योन्यासन का संयोग करने से योग के फलस्वरुप अनिल तब तक फल प्रदान करता है जब तक वह खेचर हो जाता है । जो पृथ्वी पर अपने लिङ्गो के अग्रभाग को एक पैर के अंगूठे से दबाकर रखता है तथा दूसरे पैर को दूसरे पैर के ऊरु पर स्थापित करता है, तो वह योन्यासन हो जाता है ॥५३ – ५४॥
तत्र मध्ये महादेव बन्द्धयोन्यासनं श्रृणु ।
यत्कृत्वा खेचरो भूत्वा विचरेदीश्वरो यथा ॥५५॥
कृत्वा योन्यासनं नाथ लिङुगुह्यादिबन्धनम् ।
मुखनासा नेत्रकर्णकनिष्ठाङगुलिभिस्तभा ॥५६॥
ओष्ठाधरं कनिष्ठाभ्यामनामाभ्याञ्च नासिके ।
मध्यमाभ्यां नेत्रयुग्मं तर्ज्जनीभ्यां परैः श्रुती ॥५७॥
हे महादेव ! अब उसके मध्य में बद्धयोन्यासन सुनिए, जिसके करने से साधक खेचरता प्राप्त कर ईश्वर के समान सर्वत्र विचरण करता है । उक्त विधि से लिङ्ग गुह्मादि स्थान को बाँधकर योन्यासन कर मुख को दोनों कनिष्ठा से, नासिका को दोनों अनामिका से, दोनों नेत्रों को दोनों मध्यमा से और दोनों कानों को दोनों तर्जनी से आच्छादित करे । यह बद्ध योन्यासन है ॥५५ – ५७॥
कृत्त्वा योन्यासनं नाथ योगिनामति दुर्लभम् ।
कृत्त्वा यः पूरयेद् वायुं मूलमाकुञ्च्य स्तम्भयेत् ॥५८॥
सव्यापसव्ययोगेन सिद्धो भवति साधकः ।
शनैः शनैः समरुह्य कुम्भंक परिपूरयेत् ॥५९॥
हे नाथ ! योगियों को अत्यन्त दुर्लभ बद्ध योन्यासन कर जो शरीर में वायु को पूर्ण करता है तथा मूलाधार का सङ्कोच कर उसे स्तम्भित करता है । इस प्रकार बायें से दाहिने तथा दाहिने से बायें के क्रम से जो पूरक तथा स्तम्भन प्राणायाम करता है तो वह साधक सिद्ध हो जाता है ॥५८ – ५९॥
अरुणोदयकालाच्च वसुदण्डे सदाशिव ।
सव्यापसव्ययोगेन गृहणीद्वायुगानिलम् ॥६०॥
हे सदाशिव ! अरुणोदय काल से आठ दण्ड पर्यन्त धीरे-धीरे पूरक द्वारा वायु पूर्ण कर कुम्भक करे । बायें से दाहिने तथा दाहिने से बायें दोनों प्रकार से सव्यापसव्य योग से नासिका से वायु ग्रहण करे ॥५९ – ६०॥
द्वितीयप्रहरे कुर्याद वायुपूजां मनोरमाम् ।
एतदासनामाकृत्य सिद्धो भवति साधकः ॥६१॥
अथान्यदासनं वक्ष्ये यत्कुत्वा सोऽमरो भवेत् ।
मत्साधकः शुचिः श्रीमान् कुर्याद्गत्त्वा निराविले ॥६२॥
इसके बाद द्वितीय प्रहर प्राप्त होने पर मन को रमण करने वाली वायु की पूजा करनी चाहिए । यह पूजा भी किसी आसन विशेष को करते हुए करनी चाहिए । अब इसके बाद अन्य आसन कहाती हूँ, जिसके करने से साधक अमर हो जाता है । मेरा साधक पवित्र एवं शोभा सम्पन्न हो कर किसी निर्दोष स्थान में जाकर इन आसनों को करे ॥६१ – ६२॥
भेकानामासनं योगं निजवक्षसि सम्मुखम् ।
निधाय पादयुगलं स्कन्धे बाहू पदोपरि ॥६३॥
ध्यायेद्धि चित्पदं भ्रान्तमासनस्थः सुखाय च ।
यदि सर्वाङुमुत्तोल्य गगने खेचरासनम् ॥६४॥
साधक अपने दोनों पैरों को आमने-सामने वक्षः स्थल पर स्थापित करे । तदनन्तर दोनों हाथों को पैर के ऊपर से ले जाकर अपने कन्धे पर रखे । इस प्रकार के भेकासन पर बैठकर सुख प्राप्ति के हेतु प्रकाशमान चित्पद का ध्यान करे । सभी अङ्गो को समान समान भाग में ऊपर आकाश में स्थापित करे तो खेचरासन हो जाता है ॥६३-६४॥
महाभेकासनं प्रोक्तं सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।
महाविद्यां महामन्त्रं प्राप्नोति जपतीह यः ॥६५॥
एतत् प्रभेदं वक्ष्यामि करोति यः स चामरः ।
एकपादमूरौ बद्ध्वा स्कन्धेऽन्यत्पादरक्षणम् ॥६६॥
एतत्प्रणासनं नाम सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।
वायुमूले समारोप्य ध्यात्त्वाऽऽकुञ्च प्रकारयेत् ॥६७॥
सम्पूर्ण सिद्धियों को देने वाला भेकासन हम पहले कह आए हैं । इस आसन पर बैठकर जो महाविद्या के मन्त्र का जप करता है वह अवश्य ही महाविद्या को प्राप्त कर लेता है । अब इस (भेकासन) के भेद को कहती हूँ जो इसे करता है वह अमर हो जाता है । एक पैर को ऊरु पर और दूसरा पैर कन्धे पर रखे तो उसे प्राणासन कहते हैं । यह सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाला है । वस्तुतः वायु को मूलाधार में स्थापित कर ध्यान करते हुए उसे संकुचित कर प्राणासन करना चाहिए ॥६५ – ६७॥
केवलं पादमेकञ्च स्कन्धे चारोप्य यत्नतः ।
एकपादेन गगने तिष्ठेत् स दण्डवत प्रभो ॥६८॥
अपानासनमेतद्धि सर्वेषां पूरकाश्रयम् ।
कृत्त्वा सूक्ष्मे शीर्षपद्मे समारोप्य च वायुभिः ॥६९॥
तदा सिद्धो भवेन्मर्त्त्यः प्राणापानसमागमः ।
अपानासनयोगेन कृत्त्वा योगेश्वरी भुवि ॥७०॥
केवल एक पैर यन्त पूर्वक कन्धे पर स्थापित करे और दूसरा पैर ऊपर आकाश में डण्डे की तरह तान कर स्थित रहे, तो हे प्रभो ! यह अपान नामक आसन हो जाता है । यदि वायु के द्वारा सूक्ष्म शीर्षपदम में पूरक प्राणायाम करते हुए इसे करे तो साधक मनुष्य सिद्ध हो जाता है । इसमें प्राण और अपान दोनों परस्पर एक हो जाते हैं । अपान आसन करने से साधक पृथ्वी में योगेश्वर बन जाता है ॥६८ – ७०॥
समानासनमावक्ष्ये सिद्धमन्त्रदिसाधनात् ।
एकपादमूरौ दत्त्वा गुह्योऽन्यल्लिङवक्त्रके ॥७१॥
एतद् वीरासनं नाथ समानासनसंज्ञकम् ।
इत्याकृत्य जपेन्मन्त्रं धृत्वा वायुं चतुर्दले ॥७२॥
अब सिद्धमन्त्र का कारणभूता समानासन (= वीरासन) कहती हूँ । एक पैर ऊरु पर रखे दुसरा पैर गुह्म तथा लिङ्ग के मुख भाग पर रखे तो इसे वीरासन और समानासन दोनों कहा जाता है । इस आसन को करते हुए मूलाधार में स्थित चतुर्दल पर वायु धारण कर मन्त्र का जप करे ॥७१ – ७२॥
कुण्डलीं भावयेन्मन्त्रं कोटिविद्युल्लताकृतिम् ।
आत्मचन्द्रामृत रसिअराप्लुतां योगिनीं सदा ॥७३॥
वीरासनं तु वीराणां योगवायुप्रधारणम् ।
यो जानाति महावीरः स योगी भवति ध्रुवम् ॥७४॥
अथवा मन्त्रज्ञ साधक आत्मा रुप चन्द्रमा से निकले हुए अमृत रस से परिपूर्ण योगिनी स्वरुपा करोड़ों विद्युल्लता के समान कुण्डलिनी का ध्यान करे । यही वीरासन वीरों को योगवायु धारण करने के लिए है, जो महावीर इस आसन को जानता है वह निश्चित रुप से योगी हो जाता है ॥७३ – ७४॥
रुद्रयामल तंत्र पटल २३
रुद्रयामल तंत्र तेइसवाँ पटल– आसननिरूपण
रुद्रयामल तंत्र त्रयोविंशः पटलः
अथ वक्ष्ये महाकाल समानासनसाधनम् ।
भेदक्रमेण यज्ज्ञात्वा वीराणामधिपो भवेत् ॥७५॥
समानासनमाकृत्य वृद्धाड्गुष्ठं करेण च ।
एकेन सोऽधिकारी स्यात् स्वरयोगादिसाधने ॥७६॥
हे महाकाल ! अब समानासन के साधन को कहती हूँ, जिसके भेदों को क्रमशः जान कर साधक वीरेश्वर बन जाता है । समानासन कर एक हाथ से अंगूठा बाँध रखे । ऐसा करने से साधक स्वरयोगादि के साधन में अधिकारी बन जाता है ॥७५ – ७६॥
आसनं यो हि जानाति वायूनां हरणं तथा ।
कालादीनां निर्णयं तु स कदाचिन्न नश्यति ॥७७॥
कालेन लभ्यते सिद्धिः कालरुपो महोज्ज्वलः ।
साधकैर्योगिभिर्ध्येयः सिद्धवीरासनात्मना ॥७८॥
जो आसन करना जानता है, वायु का हरण करना जानता है तथा कालादि का निर्णय करना जानता है, वह कभी नष्ट नहीं होता । काल प्राप्त करने पर सिद्धि होती है । काल का स्वरुप उज्ज्वल (प्रकाश करने वाला) है । इसलिए साधक योगियों को सिद्ध वीरासन से उसका ध्यान करना चाहिए ॥७७ – ७८॥
अथ वक्ष्ये नीलकण्ठ ग्रन्थिभेदासनं शुभम् ।
ज्ञात्वा रुदो भवेत् क्षिप्रं सूक्ष्मवायुनिषेवणात् ॥७९॥
कृत्वा पद्मासनं मन्त्री जङ्कयोः ह्रदये करौ ।
कूर्परस्थान पर्यन्तं विभेद्य स्कन्धधारणम् ॥८०॥
अब हे नीलकण्ठ ! परम कल्याणकारी ग्रन्थि भेद नामक आसन कहती हूँ । जिसके द्वारा सूक्ष्म वायु ग्रहण कर साधक शीघ्रता से रुद्र बन जाता है । मन्त्रज्ञ साधक पद्मासन कर दोनों जंघा और हृदय में दोनों को कूर्पर (केहुनी) पर्यन्त उसमें डालकर कन्धे पर धारण करे ॥७९ – ८०॥
भित्वा पद्मासनं मन्त्री सहस्त्रार्द्धेन घाटनम् ।
येन शीर्ष भावनम्रं सर्वाङ्गुलिभिराश्रमम् ॥८१॥
ग्रन्थिभेदासन्ञ्चैतत् खेचरादिप्रदर्शनम् ।
कृत्त्वा सूक्ष्मवायुलयं परमात्मनि भावयेत् ॥८२॥
मन्त्रवेत्ता साधक पद्मासन के भीतर हाथ डालकर ५०० बार सिर को नीचे की ओर झुका कर नम्र करे । यह ग्रन्थिभेद नामक आसन है । ऐसा करने से आकाश में रहने वाले समस्त खेचर दिखाई पड़ते हैं अतः साधक इससे सूक्ष्म वायु में मन का लय कर परमात्मा में ध्यान करे ॥८१ – ८२॥
अथान्यासनमावक्ष्ये योगपूरकरक्षणात् ।
कृत्त्वा पद्मासनं पादा अङ्गुष्ठजङ्कयोः स्थितम् ॥८३॥
हस्तमेकं तु जङ्काया कार्मुकं कूर्परोर्द्धकम् ।
पद्मासने समाधाय अङ्गुष्ठं परिधावयेत् ॥८४॥
कार्मुकासनमेतद्धि सव्यापोअसव्ययोगतः ।
पद्मासनं वेष्टयित्वा अड्गुष्ठांग्र प्रधावयेत् ॥८५॥
इसके बाद अन्य आसन कहती हूँ यह योग में पूरक प्राणायाम के रक्षण में कारण है । पद्मासन कर दोनों पैर के अंगूठों को जङ्घा पर रक्खे । एक हाथ जङ्घा पर रखे, दूसरा हाथ घनुष के समान टेढा़ कर कूर्पर के अध्रभाग पर और पद्मासन पर रक्खे अपने पैर के अंगूठों को चलाता रहे । सव्यापसव्य के योग से इसे कार्मुकासन कहते हैं ॥८३ – ८५॥
यः करोति सदा नाथ कार्मुकासनमुत्तमम् ।
तस्य रोगदिशत्रनां क्षयं नीत्वा सुखी भवेत् ॥८६॥
अथ वक्ष्येऽत्र संक्षेपात् सर्वाङासनमुत्तमम् ।
यत्कृत्वा योगनिपुणो विद्याभिः पण्डितो यथा ॥८७॥
अधो निधाय शीर्षं च ऊद्र्ध्वपादद्वयं चरेत् ।
पद्मासनं तु तत्रैव भूमौ कूर्परयुग्मकम् ॥८८॥
हे नाथ ! जो इस उत्तम कार्मुकासन को करता है, उसके रोगादि समस्त शत्रु नष्ट हो जाते हैं और वह सुखी हो जाता है । अब इसके अनन्तर संक्षेप संक्षेप में सर्वश्रेष्ठ सर्वाङ्गासन कहती हूँ । जिसके करने से साधक योगशास्त्र में इस प्रकार निपुण हो जाता है जैसे विद्या में पण्डित निपुण होता है । यह आसन नीचे शिर रख कर तथा दोनों पैरों को ऊपर कर करना चाहिए । भूमि में दोनों हाथों की केहुनियों को पद्मासन की तरह स्थापित करे ॥८६ – ८८॥
दण्डे दण्डे सदा कुर्यात श्रमशान्तिपरः सुधीः ।
नित्यं सर्वासनं हित्वा न कुर्याद वायुधारणम् ॥८९॥
मासेन सूक्ष्मवायूनां गमनं चोपलभ्यते ।
त्रिमासे देवपदवीं त्रिमासे शीतलो भवेत् ॥९०॥
बुद्धिमान् साधक को अपने श्रमापनोदन के लिए एक एक दण्ड के अनन्तर यह आसन करना चाहिए । सर्वाङ्गासन को छोड़कर नित्य वायु धारण न करे । ऐसा करने वाले साधाक के शरीर में एक महीने में सूक्ष्म वायु चलने लगती है और वह तीन मास में देव पदवी प्राप्त कर शीतल हो जाता है ॥८९ – ९०॥
रुद्रयामल तंत्र पटल २३
रुद्रयामल तंत्र तेइसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र त्रयोविंशः पटलः – आसननिरूपणम्
अथ वक्ष्ये महादेव मयूरासनमुत्तमम ।
भूमौ निपात्य हस्तौ द्वौ कूर्परोपरि देहकम् ॥९१॥
कूर्परोपरि संस्थाप्य सर्वदेहं स्थिराशयः ।
केवलं हस्तयुगलं निपात्य भुवि सुस्थिरः ॥९२॥
हे महादेव ! अब इसके अनन्तर सर्वश्रेष्ठ मयूरासन कहती हूँ । दोनों हाथों को पृथ्वी पर स्थापित करे तथा दोनों केहुनी पर समस्त शरीर स्थापित करे और आशय (उदर) को केहुनी पर स्थिर रखे तो मयूरासन हो जाता है ॥९१ – ९२॥
एतदासनमात्रेण नाडीसभेदनं भवेत् ।
पूरकेण दृढो याति सर्वत्राङाश्रयेण च ॥९३॥
अथान्यदासनं कृत्त्वा सर्वव्याधिनिवारणम् ।
योगाभ्यासी भवेत्क्षिप्रं ज्ञानासनप्रसादतः ॥९४॥
केवल दोनों हाथों को पृथ्वी पर रखकर सुस्थिर होकर बैठ जावे । इस आसन के करने मात्र से सभी नाड़ियाँ परस्पर एक हो जाती हैं । पूरक प्राणायाम के द्वारा सर्वाङ्ग का आश्रय हो जाने से साधक दृढ़ता प्राप्त करता है । इसके बाद अन्य ज्ञानासन करने से सभी व्याधियों का विनाश हो जाता है और साधक शीघ्रता से योगाभ्यासी बन जाता है ॥ ९३ – ९४॥
दक्षपादोरुमूले च वामपादतलंतथा ।
दक्षपादतलं दक्षपार्श्वे संयोज्य धारयेत् ॥९५॥
एतज्ज्ञानासनं नाथ ज्ञानद्विद्याप्रकाशकम् ।
निरन्तरं यः करोति तस्य ग्रन्थिः श्लथी भवेत् ॥९६॥
दाहिने पैर के ऊरुमूल पर बायें पैर का तलवा रखे । फिर दाहिने पैर के तलवे को दाहिने बगल के पार्श्वभाग से संयुक्त कर धारक करे । हे नाथ ! इसे ज्ञानासन कहा जाता है । इस ज्ञानासन से विद्या का प्रकाश होता है । अतः जो इस आसन का अभ्यास निरन्तर करता है उसकी अज्ञान ग्रन्थि ढी़ली पड़ जाती है ॥९५ – ९६॥
सव्यापसव्ययोगेन मुण्डासनमिति स्मृतम् ।
कृत्वा ध्यात्वा स्थिरो भूत्वा लीयते परमात्मनि ॥९७॥
गरुडासनमावक्ष्ये येन ध्यानं स्थिरं भुवि ।
सर्वदोषाद्विनिर्मुक्तो भवतीह महाबली ॥९८॥
सव्यापसव्य के योग से इसे मुण्डासन भी कहा जाता है । इसको करने से, ध्यान करने से और स्थिर रखने से साधक परमात्मा में लीन हो जाता है । अब मैं गरुडा़सन कहती हूँ जिसके करने से पृथ्वी पर ध्यान स्थिर रहता है, साधक सारे दोषों से मुक्त हो जाता है और महाबलवान् हो जाता है ॥९७ – ९८॥
एकपादमुरी बद्ध्वा एकपादेन दण्डवत् ।
जङ्कापादसन्धिदेशे ज्ञानव्यग्रं व्यवस्थितम् ॥९९॥
एतदासनमाकृत्य पृष्ठे संहारमुद्रया ।
आराध्य योगनाथं च सदा सर्वेश्चरस्य च ॥१००॥
एक पैर को ऊरु पर रखे दूसरे पैर से दण्ड के समान खडा़ रहे तो गरुडा़सन होता है । एक पैर को जंघा और पैर के सन्धि स्थान में रखे दूसरे को डण्डे के समान खडा़ रखे तो वह व्यवस्थित किन्तु ज्ञानव्यग्र होता है । इस आसन को करने के पश्चात् पीछे से संहार मुद्रा द्वारा योगनाथ की तथा सर्वेश्वर की आराधना करनी चाहिए ॥९९ – १००॥
अथान्यदासनं वक्ष्ये येन सिद्धो भवेन्नरः ।
अकस्माद् वायुसञ्चारं कोकिलाख्यासनेन च ॥१०१॥
ऊद्र्ध्वे हस्तद्वंयं कृत्वा तदग्रे पादयोः सुधीः ।
वृद्धाङगुष्ठद्वयं नाथ शनैः शनैः प्रकारयेत् ॥१०२॥
अब मैं अन्य आसन कहती हूँ जिससे मनुष्य सिद्धि प्राप्त करता है । वह है कोकिल नामक आसन, जिससे शरीर में अकस्मात् वायुसञ्चार होता है । पैर को आगे पसार कर उस पर दोनों हाथ रख कर पैर के आगे का अंगूठा पकड़े, इस क्रिया को धीरे-धीरे सम्पन्न करे ॥१०१ – १०२॥
पद्मासनं समाकृत्य मूर्परोपरि संस्थितः ।
अथ वक्ष्ये वीरनाथ आननदमन्दिरासनम् ॥१०३॥
यत्कृत्वा अमरो धीरो भवत्येवेह साधकः ।
हस्तयुग्मं पाददेशे पादयुग्मं प्रदापयेत् ॥१०४॥
प्रकृत्य दण्डवत् कौल नितम्बाग्रे प्रतिष्ठति ।
अथवा पद्मासन कर दोनों कूर्पर के बल स्थित हो जावे तो कोकिलासन होता है । हे वीरनाथ ! अब मैं आनन्दमन्दिरासन कहती हूँ, जिसके करने से धीर साधक अमर बन जाता है । हे कौल ! दोनों पैरों के ऊपर किसी देश पर क्रमशः दोनों हाथों को रखकर फिर उन्हें दण्डे के समान खड़ा कर नितम्ब के अग्रभाग में स्थापित करे ॥१०३ – १०५॥
खञ्जनासनमावक्ष्ये यत्कृत्वा सुस्थिरो भवेत् ॥१०५॥
पृष्ठे पादद्वयं बद्ध्वा हस्तौ भूमौ प्रधारयेत् ।
भूमौ हस्तद्वयं नाथ पातयित्वानिलं पिबेत् ॥१०६॥
पृष्ठे पादद्वयं बद्ध्वा खञ्जनेन जयी भवेत् ।
अथान्यदासनं वक्ष्ये साधकानां हिताय वै ॥१०७॥
अब खञ्जनासन कहती हूँ, जिसके करने से साधक सुस्थिर हो जाता है । दोनों पैरों को पीठ पर बाँधकर दोनों हाथ पृथ्वी पर रखे । हे नाथ ! भूमि पर दोनों हाथों को रख कर वायु पान करे । पीठ पर दोनों पैर को बॉध कर खञ्जनासन करने से साधक जयी हो जाता है ॥१०५ – १०७॥
पवनासनरुपेण खेचरो योगिराड्भवेत् ।
स्थिर्वा बद्धासने धीरो नाभेरधः करद्वयम् ॥१०८॥
ऊद्र्ध्वमुण्डः पिबेद् वायुं निरुद्ध्येत यमाविले ।
अब साधकों के लिए अन्य आसन कहती हूँ । पवनासन करने से साधक खेचर तथा योगिराज हो जाता है । धीर होकर पद्मासन पर स्थित होकर नाभि के नीचे दोनों हाथ रखकर शिर को ऊपर उठा कर वायु पान करे और दो छिद्र वाले इन्द्रियों (कान, आँख, नासिका) को रोके ॥१०८ – १०९॥
अथ सर्पासनं वक्ष्ये वायुपानाय केवलम् ॥१०९॥
शरीरं दण्डवत्तिष्ठेदरज्जुबद्धस्तु पादयोः ।
वायवी कुण्डली देवी कुण्डलाकारमङ्गुले ॥११०॥
मण्डिता भूषणाद्यैश्व वक्ष्ये सर्पासनस्थितम् ।
निद्रालस्यभयान् त्यक्त्वा रात्रौ कुर्यात्पुनः पुनः ॥१११॥
अब केवल वायु पान के लिए सर्पासन कहती हूँ । दोनों पैरों में रस्सी बाँधकर शरीर को डण्डे के समान खड़ा रखे। कुण्डली देवी वायवी हैं । उनका आकार कुण्डल के समान गोला है । वे भूषणादि से मण्डित हैं तथा सर्पासन पर स्थित रहने वाली हैं इसे आगे कहूँगी । साधक निद्रा आलस्य तथा भय का त्याग कर बारम्बार इस सर्पासन को करे ॥१०९ – १११॥
सर्वान् विघ्नान् वशीकृत्य निद्रादीन वायुसाधनात् ।
अथ वक्ष्ये काकरुपस्कन्धास्नमनुत्तमम् ॥१२२॥
कलिपापात् प्रमुच्येत वायवीं वशमानयेत् ।
निजपदद्वयं बदध्वा स्कन्धदेशे च साधकः ॥११३॥
नित्यमेतत् पदद्वन्द्वं भूमौ पुष्टिकरद्वयम् ॥११४॥
इस आसन से वायु साधन करने के कारण सभी प्रकार के विघ्न तथा निद्रादि उसके वश में हो जाते हैं । अब सर्वश्रेष्ठ काकस्कन्ध आसन कहती हूँ । इस आसन से साधक कलि के पापों से मुक्त हो जाता है । वायवी कुण्डलिनी को वश में कर लेता है । साधक अपने दोनों पैरों को बाँधकर कन्धे पर रखे । अथवा दोनों पैरों को पृथ्वी पर ही बाँध कर रखे । ये दोनों प्रकार के आसन पुष्टिकारक हैं ॥११२ – ११४॥
॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने भावासननिर्णये पाशवकल्पे षट्चक्रसारसङ्केते सिद्धमन्त्रप्रकरणे भैरवीभैरवसंवादे त्रयोविंशः पटलः ॥२३॥
इस प्रकार श्रीरुद्रयामल के उत्तरतंत्र में महातंत्रोद्दीपन में भावासन निर्णय में पाशवकल्प में षट्चक्रसारसङ्केत में सिद्धमन्त्र प्रकरण में भैरवी भैरव संवाद में तेइसवें पटल की डॅा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्णं हुई ॥ २३ ॥