समस्त पापनाशक स्तोत्र || Samasta Pap Nashak Stotra

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भगवान वेदव्यास द्वारा रचित अठारह पुराणों में से एक ‘अग्नि पुराण’ में अग्निदेव द्वारा महर्षि वशिष्ठ को दिए गए विभिन्न उपदेश हैं। इसी के अंतर्गत इस समस्त पापनाशक स्तोत्र के बारे में महात्मा पुष्कर कहते हैं कि मनुष्य चित्त की मलिनता वश चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन आदि विभिन्न पाप करता है, पर जब चित्त कुछ शुद्ध होता है तब उसे इन पापों से मुक्ति की इच्छा होती है। उस समय भगवान नारायण की दिव्य स्तुति करने से समस्त पापों का प्रायश्चित पूर्ण होता है। इसीलिए इस दिव्य स्तोत्र का नाम ‘समस्त पापनाशक स्तोत्र’ है। इस प्रकार करें भगवान नारायण की स्तुति-

समस्त पापनाशक स्तोत्र

पुष्करोवाच

विष्णवे विष्णवे नित्यं विष्णवे नमः।

नमामि विष्णुं चित्तस्थमहंकारगतिं हरिम् ।।१।।

पुष्कर जी बोलेः “सर्वव्यापी विष्णु को सदा नमस्कार है। श्री हरि विष्णु को नमस्कार है। मैं अपने चित्त में स्थित सर्वव्यापी, अहंकारशून्य श्रीहरि को नमस्कार करता हूं।

चित्तस्थमीशमव्यक्तमनन्तमपराजितम् ।

विष्णुमीड्यमशेषेण अनादिनिधनं विभुम् ।।२।।

मैं अपने मानस में विराजमान अव्यक्त, अनन्त और अपराजित परमेश्वर को नमस्कार करता हूं। सबके पूजनीय, जन्म और मरण से रहित, प्रभावशाली श्रीविष्णु को नमस्कार है।

विष्णुश्चित्तगतो यन्मे विष्णुर्बुद्धिगतश्च यत् ।

यच्चाहंकारगो विष्णुर्यद्वष्णुर्मयि संस्थितः।।३।।

विष्णु मेरे चित्त में निवास करते हैं, विष्णु मेरी बुद्धि में विराजमान हैं, विष्णु मेरे अहंकार में प्रतिष्ठित हैं और विष्णु मुझमें भी स्थित हैं।

करोति कर्मभूतोऽसौ स्थावरस्य चरस्य च ।

तत् पापं नाशमायातु तस्मिन्नेव हि चिन्तिते ।।४।।

वे श्री विष्णु ही चराचर प्राणियों के कर्मों के रूप में स्थित हैं, उनके चिंतन से मेरे पाप का विनाश हो।

ध्यातो हरति यत् पापं स्वप्ने दृष्टस्तु भावनात् ।

तमुपेन्द्रमहं विष्णुं प्रणतार्तिहरं हरिम् ।।५।।

जो ध्यान करने पर पापों का हरण करते हैं और भावना करने से स्वप्न में दर्शन देते हैं, इन्द्र के अनुज, शरणागतजनों का दुःख दूर करने वाले उन पापापहारी श्रीविष्णु को मैं नमस्कार करता हूं।

जगत्यस्मिन्निराधारे मज्जमाने तमस्यधः ।

हस्तावलम्बनं विष्णु प्रणमामि परात्परम् ।।६।।

मैं इस निराधार जगत में अज्ञानांधकार में डूबते हुए को हाथ का सहारा देने वाले परात्परस्वरूप श्रीविष्णु के सम्मुख नतमस्तक होता हूं।

सर्वेश्वरेश्वर विभो परमात्मन्नधोक्षज ।

हृषीकेश हृषीकेश हृषीकेश नमोऽस्तु ते ।।७।।

सर्वेश्वरेश्वर प्रभो ! कमलनयन परमात्मन् ! हृषीकेश ! आपको नमस्कार है। इन्द्रियों के स्वामी श्रीविष्णो ! आपको नमस्कार है।

नृसिंहानन्त गोविन्द भूतभावन केशव ।

दुरूक्तं दुष्कृतं ध्यातं शमयाघं नमोऽस्तु ते ।।८।।

नृसिंह ! अनन्तस्वरूप गोविन्द ! समस्त भूत-प्राणियों की सृष्टि करने वाले केशव ! मेरे द्वारा जो दुर्वचन कहा गया हो अथवा पापपूर्ण चिंतन किया गया हो, मेरे उस पाप का प्रशमन कीजिए, आपको नमस्कार है।

यन्मया चिन्तितं दुष्टं स्वचित्तवशवर्तिना ।

अकार्यं महदत्युग्रं तच्छमं नय केशव ।।९।।

केशव ! अपने मन के वश में होकर मैंने जो न करने योग्य अत्यंत उग्र पापपूर्ण चिंतन किया है, उसे शांत कीजिए।

बह्मण्यदेव गोविन्द परमार्थपरायण ।

जगन्नाथ जगद्धातः पापं प्रशमयाच्युत ।।१०।।

परमार्थपरायण, ब्राह्मणप्रिय गोविन्द ! अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले जगन्नाथ! जगत का भरण-पोषण करने वाले देवेश्वर ! मेरे पाप का विनाश कीजिए।

यथापराह्ने सायाह्ने मध्याह्ने च तथा निशि ।

कायेन मनसा वाचा कृतं पापमजानता ।।११।।

मैंने मध्याह्न, अपराह्न, सायंकाल एवं रात्रि के समय जानते हुए अथवा अनजाने, शरीर, मन एवं वाणी के द्वारा जो पाप किया हो,

जानता च हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव ।

नामत्रयोच्चारणतः पापं यातु मम क्षयम् ।।१२।।

‘पुण्डरीकाक्ष’, ‘हृषीकेश’, ‘माधव’ – आपके इन तीन नामों के उच्चारण से मेरे वे सब पाप क्षीण हो जाएं।

शरीरं में हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव ।

पापं प्रशमयाद्य त्वं वाक्कृतं मम माधव ।।१३।।

कमलनयन ! लक्ष्मीपते ! इन्द्रियों के स्वामी माधव ! आज आप मेरे शरीर एवं वाणी द्वारा किए हुए पापों का हनन कीजिए।

यद् भुंजन् यत् स्वपंस्तिष्ठन् गच्छन् जाग्रद यदास्थितः।

कृतवान् पापमद्याहं कायेन मनसा गिरा ।।१४।।

यत् स्वल्पमपि यत् स्थूलं कुयोनिनरकावहम् ।

तद् यातु प्रशमं सर्वं वासुदेवानुकीर्तनात् ।।१५।।

आज मैंने खाते, सोते, खड़े, चलते अथवा जागते हुए मन, वाणी और शरीर से जो भी नीच योनि एवं नरक की प्राप्ति कराने वाले सूक्ष्म अथवा स्थूल पाप किये हों, भगवान वासुदेव के नामोच्चारण से वे सब विनष्ट हो जाएं।

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं च यत् ।

तस्मिन् प्रकीर्तिते विष्णौ यत् पापं तत् प्रणश्यतु ।।१६।।

जो परब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं, उन श्रीविष्णु के संकीर्तन से मेरे पाप लुप्त हो जाएं।

यत् प्राप्य न निवर्तन्ते गन्धस्पर्शादिवर्जितम् ।

सूरयस्तत् पदं विष्णोस्तत् सर्वं शमयत्वघम् ।।१७।।

जिसको प्राप्त होकर ज्ञानीजन पुनः लौटकर नहीं आते, जो गंध, स्पर्श आदि तन्मात्राओं से रहित है, श्रीविष्णु का वह परम पद मेरे सम्पूर्ण पापों का शमन करें।”
समस्त पापनाशक स्तोत्र फलश्रुति

पापप्रणाशनं स्तोत्रं यः पठेच्छृणुयादपि ।

शारीरैर्मानसैर्वाग्जैः कृतैः पापैः प्रमुच्यते ।।

जो मनुष्य पापों का विनाश करने वाले इस स्तोत्र का पठन अथवा श्रवण करता है, वह शरीर, मन और वाणीजनित समस्त पापों से छूट जाता है

सर्वपापग्रहादिभ्यो याति विष्णोः परं पदम् ।

तस्मात् पापे कृते जप्यं स्तोत्रं सर्वाघमर्दनम् ।।

एवं समस्त पापग्रहों से मुक्त होकर श्रीविष्णु के परम पद को प्राप्त होता है। इसलिए किसी भी पाप के हो जाने पर इस स्तोत्र का जप करें।

प्रायश्चित्तमघौघानां स्तोत्रं व्रतकृते वरम् ।

प्रायश्चित्तैः स्तोत्रजपैर्व्रतैर्नश्यति पातकम् ।।

यह स्तोत्र पापसमूहों के प्रायश्चित के समान है। कृच्छ्र आदि व्रत करने वाले के लिए भी यह श्रेष्ठ है। स्तोत्र-जप और व्रतरूप प्रायश्चित से सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। इसलिए भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिए इनका अनुष्ठान करना चाहिए।

इत्याग्नेये महापुराणे सर्वपापप्रायश्चित्ते पापनाशनस्तोत्रं नाम द्विसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥

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