संसार पावन कवच || Sansar Paavan Kavach

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भगवान् शिव के इस संसार पावन कवच को वसिष्ठ जी ने गन्धर्व को दिया था। शिव का जो द्वादशाक्षर-मन्त्र है, वह इस प्रकार है, ‘ऊँ नमो भगवते शिवाय स्वाहा’। प्रभो! इस मन्त्र को पूर्वकाल में वसिष्ठ जी ने पुष्कर तीर्थ में कृपापूर्वक प्रदान किया था। प्रचीन काल में ब्रह्मा जी ने रावण को यह मन्त्र दिया था और शंकर जी ने पहले कभी बाणासुर को और दुर्वासा को भी इसका उपदेश दिया था। इस मूलमन्त्र से इष्टदेव को नैवेद्य आदि सम्पूर्ण उत्तम उपचार समर्पित करना चाहिये। इस मन्त्र का वेदोक्त ध्यान इस प्रकार है –

ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं

दिव्याकल्पोज्ज्वलाङगं परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्।

रत्नासीनं समन्तात् स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं

विश्वाद्यं विश्ववन्द्यं सकलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम्।।

‘प्रतिदिन महेश्वर का ध्यान करे। उनकी अंगकान्ति चाँदी के पर्वत अथवा कैलास के समान है, मस्तक पर मनोहर चन्द्रमा का मुकुट शोभा पाता है, दिव्य वेश-भूषा एवं श्रृंगार से उनका प्रत्येक अंग उज्ज्वल– जगमगाता हुआ जान पड़ता है, उनके एक हाथ में फरसा, दूसरे में मृगछौना तथा शेष दो हाथों पर अभय की मुद्राएँ हैं, वे सदा प्रसन्न रहते हैं, रत्नमय सिंहासन पर विराजमान हैं, देवता लोग चारों ओर से खड़े होकर उनकी स्तुति करते हैं। वे बाघम्बर पहने बैठे हैं, सम्पूर्ण विश्व के आदिकारण और वन्दनीय हैं, सबका भय दूर कर देने वाले हैं, उनके पाँच मुख हैं और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र हैं।’

संसार पावन कवच

शिव संसार पावन कवच

ॐ अस्य संसारपावन कवचस्य प्रजापतिः ऋषि: गायत्री छन्द: महेश्वर देवता धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः ।।

शम्भुर्मे मस्तकं पातु मुखं पातु महेश्वरः।

दन्तपंक्तिं च नीलकण्ठोऽप्यधरोष्ठं हरः स्वयम्।।१ ।।

कण्ठं पातु चन्द्रचूडः स्कन्धौ वृषभवाहनः।

वक्षःस्थलं नीलकण्ठः पातु पृष्ठं दिगम्बरः।।२ ।।

सर्वाङ्ग पातु विश्वेशः सर्वदिक्षु च सर्वदा।

स्वप्ने जागरणे चैव स्थाणुर्मे पातु संततम्।।३ ।।

इति ते कथितं बाण कवचं परमाद्भुतम्।

यस्मै कस्मै न दातव्यं गोपनीयं प्रयत्नतः।।४ ।।

यत् फलं सर्वतीर्थानां स्नानेन लभते नरः।

तत् फलं लभते नूनं कवचस्यैव धारणात्।।५ ।।

इदं कवचमज्ञात्वा भजेन्मां यः सुमन्दधीः।

शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः।।६ ।।

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते संसारपावनं नाम शंकरकवचं सम्पूर्णम्।

संसार पावन कवच भावार्थ सहित

बाण उवाच ।

महेश्वर महाभाग कवचं यत् प्रकाशितम् ।

संसारपावनं नाम कृपया कथय प्रभो ॥ १ ॥

बाणासुर ने कहा– महेश्वर! महाभाग! प्रभो! आपने ‘संसार पावन’ नामक जो कवच प्रकाशित किया है, उसे कृपापूर्वक मुझसे कहिये।

महेश्वर उवाच ।

श्रृणु वक्ष्यामि हे वत्स कवचं परमाद्भुतम् ।

अहं तुभ्यं प्रदास्यामि गोपनीयं सुदुर्लभम् ॥ २ ॥

महेश्वर बोले– बेटा! सुनो, उस परम अद्भुत कवच का मैं वर्णन करता हूँ, यद्यपि वह परम दुर्लभ और गोपनीय है तथापि तुम्हें उसका उपदेश दूँगा।

पुरा दुर्वाससे दत्तं त्रैलोक्यविजयाय च ।

ममैवेदं च कवचं भक्त्या यो धारयेत् सुधीः ॥ ३ ॥

जेतुं शक्नोति त्रैलोक्यं भगवन्नवलीलया ।।४ ।।

पूर्वकाल में त्रैलोक्य-विजय के लिये वह कवच मैंने दुर्वासा को दिया था। जो उत्तम बुद्धि वाला पुरुष भक्तिभाव से मेरे इस कवच को धारण करता है, वह भगवान की भाँति लीलापूर्वक तीनों लोकों पर विजय पा सकता है।
बाणेश्वर अथवा संसारपावनकवचं ब्रह्मवैवर्त पुराणान्तर्गतम्

संसारपावनस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः ।

ऋषिश्च्छन्दश्च गायत्री देवोऽहं च महेश्वरः ।

धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः ॥ १ ॥

इस ‘संसारपावन’ नामक शिव कवच के प्रजापति ऋषि, गायत्री छन्द तथा मैं महेश्वर देवता हूँ। धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष के लिये इसका विनियोग है।

पञ्चलक्षजपेनैव सिद्धिदं कवचं भवेत् ।

यो भवेत् सिद्धकवचो मम तुल्यो भवेद्भुवि ।

तेजसा सिद्धियोगेन तपसा विक्रमेण च ॥ २ ॥

पाँच लाख बार पाठ करने से यह कवच सिद्धिदायक होता है। जो इस कवच को सिद्ध कर लेता है, वह तेज, सिद्धियोग, तपस्या और बल-पराक्रम में इस भूतल पर मेरे समान हो जाता है।

॥ मूल पाठ ॥

शम्भुर्मे मस्तकं पातु मुखं पातु महेश्वरः ।

दन्तपंक्तिं नीलकण्ठोऽप्यधरोष्ठं हरः स्वयम् ॥ १ ॥

शम्भु मेरे मस्तक की और महेश्वर मुख की रक्षा करें। नीलकण्ठ दाँतों की पाँत का और स्वयं हर अधरोष्ठ का पालन करें।

कण्ठं पातु चन्द्रचूडः स्कन्धौ वृषभवाहनः ।

वक्षःस्थलं नीलकण्ठः पातु पृष्ठं दिगम्बरः ॥ २ ॥

चन्द्रचूड़ कण्ठ की और वृषभ वाहन दोनों कंधों की रक्षा करें। नीलकण्ठ वक्षःस्थल का और दिगम्बर पृष्ठभाग का पालन करें।

सर्वाङ्गं पातु विश्वेशः सर्वदिक्षु च सर्वदा ।

स्वप्ने जागरणे चैव स्थाणुर्मे पातु सन्ततम् ॥ ३ ॥

विश्वेश सदा सब दिशाओं में सम्पूर्ण अंगों की रक्षा करें। सोते और जागते समय स्थाणुदेव निरन्तर मेरा पालन करते रहें।

इति ते कथितं बाण कवचं परमाद्भुतम् ।

यस्मै कस्मै न दातव्यं गोपनीयं प्रयत्नतः ॥ ४ ॥

बाण! इस प्रकार मैंने तुमसे इस परम अद्भुत कवच का वर्णन किया। इसका उपदेश जो ही आवे, उसी को देना चाहिये, अपितु प्रयत्नपूर्वक इसको गुप्त रखना चाहिये।

यत् फलं सर्वतीर्थानां स्नानेन लभते नरः ।

तत् फलं लभते नूनं कवचस्यैव धारणात् ॥ ५॥

मनुष्य सब तीर्थों में स्नान करके जिस फल को पाता है, उसको अवश्य इस कवच को धारण करने मात्र से पा लेता है।

इदं कवचमज्ञात्वा भजेन्मां यः सुमन्दधीः ।

शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥ ६ ॥

जो अत्यन्त मन्दबुद्धि मानव इस कवच को जाने बिना मेरा भजन करता है, वह सौ लाख बार जप करे तो भी उसका मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता।

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते शङ्करकवचं समाप्तम् ।

इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्तपुराण में ‘संसारपावन’ नामक कवच पूरा हुआ।

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