सरस्वतीतन्त्र षष्ठ पटल || Sarasvati Tantra Shashtha Patal
सरस्वतीतन्त्र की सीरिज चल रहा है जिसका प्रथम पटल, द्वितीय पटल, तृतीय पटल, चतुर्थ पटल व पञ्चम पटल आपने पढ़ा। अब सरस्वतीतन्त्र की अंतिम षष्ठ पटल में भगवान रूद्र मुखशोधन के विषय में माता गौरी को उपदेश कर रहे हैं ।
|| अथ सरस्वतीतन्त्रम् षष्ठः पटलः ||
ईश्वर उवाच –
अपरैकं प्रवक्ष्यामि मुखशोधनमुत्तम् ।
यन्नकृत्वा महादेवि जपपूजा वृथा भवेत् ॥ १॥
अशुद्धजिह्वा देवि यो जपेत् स तु पापकृत् ।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन जिह्वाशोधनमाचरेत् ॥ २॥
ईश्वर कहते है -हे महादेवी ! जिसे न करने से जपयज्ञ विफल हो जाता है उस मुखशोधन नामक उत्तम जपाङ्ग को कहता हूँ । हे देवी ! जो अशुद्ध जिह्वा से जप करता है, उसे पापी कहते हैं । अतः सभी प्रयत्न द्वारा जिह्वा शोधन करना चाहिये ॥ १-२॥
देव्युवाच –
देवदेव महादेव शूलपाणे पिनाकधृक् ।
पृथक् पृथक् महादेव कथयस्व दयानिधे ॥ ३॥
शोधनं सर्वाविद्यानां मुखस्य वद में प्रभो ॥ ४॥
देवी कहती है -हे देवदेव ! महादेव ! शूलपाणे, पिनाकी ! हे दयनिधे ! हे प्रभो ! आप पृथक्-पृथक् रूप से सभी विद्याओं का मुखशोधन कहने की कृपा करे ॥ ३-४॥
महादेव उवाच –
महात्रिपुरसुन्दर्या मुखस्य शोधनं शुभे ।
श्री बीजं प्रणवो लक्ष्मीस्तारः श्री प्रणवस्तथा ॥ ५॥
इमं षडक्षंर मन्त्रं सुन्दर्या दशधा जपेत् ।
श्रृणु सुन्दरि श्यामाया मुखशोधनमुत्तमम् ॥ ६॥
महादेव कहते हैं -हे शोभने ! महात्रिपुरसुन्दरी का मुखशोधन कहता हुं । श्री बीज, प्रणव, कार, पुनः श्रीबीज एवं प्रणव लगाये (श्रीं ॐ श्रीं ॐ श्रीं ॐ ) । हे सुन्दरी यह षडक्षर मन्त्र है । श्यामादेवी के मन्त्र जपांग उत्तम मुखशोधन को सुनो ॥ ५-६ ॥
निजबीजत्रयं देवि प्रणवत्रितयं पुनः ।
कामत्रयं बह्निबिन्दुरतिचन्द्रयुतं पृथक् ॥ ७॥
एषा नवाक्षरी विद्या मुखशोधनकारिणी ।
तारायाः श्रृणु चार्वाङ्गी अपूर्वमुखशोधनम् ॥ ८॥
जीवनीमध्यमं लज्जां भुवनेशीं ततः प्रिये ।
त्र्यक्षरीयं महाविद्या विज्ञेयामृतवर्षिणी ॥ ९॥
हे देवी निज बीज (क्लीं) तीन, प्रणवत्रय तथा तनि “क” को पृथक् पृथक् वह्नि (र), रति (ई) एवं चन्द्र तथा बिन्दु का योग कराकर तीन “क्रीं” बीज (क्रीं क्रीं क्रीं ॐ ॐ ॐ क्रीं क्रीं क्रीं) इस नवाक्षरी को श्यामातन्त्र मे मुख-शोधनकारिणी विद्या कहते है । हे मनोहर अङ्गोवाली तारादेवी के अपूर्व मुखशोधन को सुनो । हे प्रिये ! जीवनी बीज को (हुँ) बीच में ररवकर उसके पूर्व लज्जा बीज (ह्रीं) तथा पश्चात् में भुवनेश्वरी बीज को लगाये (ह्रीं ) “ह्रीं ऊ ह्रीं” त्र्यक्षरी महाविद्या मुखशोधिनी अमृतवर्षिणी कही जाती है ॥ ७-९॥
दुर्गायाः श्रृणु चार्वाङ्गि मुखशोधनमुत्तमम् ।
द्वादशस्वरमुद्धृत्य बिन्दुयुक्तत्रयस्तथा ॥ १०॥
हे सुन्दर अङ्गोवाली ! दुर्गाबीज के उत्तम मुख शोधन मन्त्र को सुनो । बिन्दु युक्त तीन द्वादश स्वर (ऐं ऐं ऐं) को ही दुर्गा का मुखशोधन मन्त्र कहते हैं ॥ १०॥
अपरैकं प्रवक्ष्यामि बगलामुखशोधनम् ।
वाग्भवं भुवनेशीञ्च वाग्बीजं सुरवन्दिते ॥ ११॥
हे सुरवन्दिते ! अन्य एक विषय कहता हूँ । यह बगला मुखशोधन है । पहले वाग्भव (ऐं), तदनन्तर भुवनेश्वरी बीज (ह्रीं) वाग्बीज (ऐं) लगाये । ऐं ह्रीं ऐं ही बगला का मुखशोधन मन्त्र है ॥ ११॥
मातङ्गया शोधनं देवि अंकुशं वाग्भवस्तथा ।
बीजञ्चाङ्कुशमेतद्धि विज्ञेयं त्र्यक्षरीयकम् ॥ १२॥
हे देवी ! अंकुशबीज, वाग्भवबीज, पुनः अंकुश बीज को लगाने से त्र्यक्षरी मातङ्गी मुखशोधन मन्त्रं “क्रों ऐं क्रों” गठित होता है ॥ १२॥
लक्ष्म्याश्च शोधनं देवि श्रीबीजं कमलानने ।
दुर्गायाः शोधने माया वाग्बीजपुटिता भवेत् ॥ १३॥
दुर्गे स्वाहा पुनर्माया वाग्बीजञ्च पुनश्च वाक् ।
प्रणवं दान्तमुद्धृत्य वामकर्णविभूषितम् ॥ १४॥
पुनः प्रणवमुद्धृत्य धनदामुखशोधनम् ।
एवं मन्त्रं महादेवि धूमावत्या भवेदपि ॥ १५॥
हे देवी ! कमलानने ! लक्ष्मी मन्त्र का मुखशोधन है “श्रीं” । दुर्गामन्त्र का मुखशोधन है वागबीज द्वारा पुटित माया बीज, पुनः यही बीज – “ऐं ह्रीं ऐं दुर्गे स्वाहा ह्रीं ऐं ऐं” । प्रणवोच्चारण करके वामकर्णयुक्त (उ) दान्त (घ) का उच्चारण करके पुनः प्रणव लगाये – “ॐ धूं ॐ” यह है धनदा का मुखशोधन । हे देवी ! यही हैं, धूमावती का भी मुखशोधन मन्त्र ॥ १३-१५॥
प्रणवो बिन्दुमान् देवि पञ्चान्तको गणेशितुः ।
वेदादि गगनं वह्निमनुयुग् बिन्दुचन्द्रवत् ॥ १६॥
द्वयक्षरं परमेशानि विष्णोश्च मुखशोधने ।
अन्यासां प्रणवो देवि बालादीनां प्रकीर्त्तितम् ॥ १७॥
हे देवी ! प्रणव तथा बिन्दु युक्त पचान्तक (ग) गणेशमन्त्र का मुखशोधन है, अर्थात् “ॐ गं” । हे परमेश्वरी ! वेदादि बीज (ॐ) वह्निबीज (रं) मनु (औ) बिन्दु तथा चन्द्र को युक्त करते हुये“ह” कार = “ॐ ह्रौ” ही विष्णुमन्त्र का मुख- शोधन मंत्र हैं, अन्य का प्रणव (ॐ) है ॥ १६-१७॥
स्त्रीणाञ्च शद्रतुल्यं हि मुखशोधनमीरितम् ।
मुखशोधनमात्रेण जिह्वामृतमयी भवेत् ॥ १८॥
स्त्री के लिये शूद्र के ही समान मुखशोधन विहित है अर्थात् प्रणव के स्थान पर दीर्घ प्रणव ॐ तथा स्वाहा के स्थान पर “नमः” का प्रयोग करे । मुखशोधन क्रिया द्वारा जिह्वा तत्काल अमृतमयी हो जाती है ॥ १८॥
अन्यथा मूत्रविड्युक्ता जिह्वा भवति सर्वदा ।
भक्षणैर्दूषिता जिह्वा मिथ्यावाक्येत दूषिता ॥ १९॥
कलहेर्दूषिता जिह्वा तत् कथं प्रजपेन्मनूम ।
तत्शोधनमनाचर्य न जपेत् पामरः क्वचित् ॥ २०॥
मुखशोधन के बिना जीभ विष्ठामूत्र के समान अपवित्र रहती है,क्योकि अभक्ष्य खाने से, झूठ बोलने से तथा कलह से दूषित हो जाती है । अतः उस अपवित्र (१९) जिह्वा से मंत्र जप कैसे होगा? पापयुक्त मानव कभी भी जिह्वा शोधन किये बिना जप न करे ॥ १९-२०॥
शैवशाक्तवैष्णवादेः सर्वस्यांवश्यमेव च ।
अन्यथा प्रजपेन्मन्त्रं मोहेन यदि भाविनि ॥ २१॥
शैवशाक्त वैष्णव सभी इसे जानें । हे भाविनी ! यदि मानव मोहवशात् इसके बिना मन्त्रजप करता है, तब ॥ २१॥
सर्वः तस्य वृथा देवि मन्त्रसिद्धिर्न जायते ।
अन्ते नरकवासी च भवेत् सोऽपि न चान्यथा ॥ २२॥
देवो यदि जपेन्मन्त्रं न कृत्वा मुखशोधनम् ।
पतनं तस्य देवेशि किं पुनर्मर्त्यंवासिनाम् ॥ २३॥
उसके समस्त अनुष्ठान व्यर्थ होते हैं और सिद्धि नहीं मिलती । उसे अन्त मे नरक जाना पडता है । यह अन्यथा कथन नहीं है । हे देवेशी ! देवता भी मुखशोधन बिना मन्त्र जपने पर पतन के भागी होते हैं । मृत्यु लोकवासी की बात हि क्या ?
॥ इति सरस्वतीतन्त्रे षष्ठः पटलः ॥
॥ सरस्वतीतन्त्र का छठवाँ पटल समाप्त ॥
॥ सरस्वतीतन्त्रम् समाप्त ॥