शनिवार व्रत कथा || Shanivaar Vrat Katha

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व्रत कथाओं की आवश्यकता इसलिए है कि मानव पर इनका सुप्रभाव पड़े और व्रत में श्रद्धा हो। व्रत की आवश्यकता मानव को इसलिए है, ताकि ज्ञान शक्ति, विचार शक्ति, बुद्धि, श्रद्धा-भक्ति और पवित्रता में वृद्धि हो। मन की चंचलता में कमी आए। व्रत केवल एक बाह्य रूप है। यह मानव को आकर्षित करने का एक उपाय है। वास्तव में इन छोटे-छोटे व्रतों के रूप में ज्ञान तत्त्व भरा हुआ है, जो भारतीय संस्कृति के प्राण हैं। इससे पूर्व आपने श्री संतोषी माता की व्रत कथा पढ़ा।अब व्रत-कथा की श्रृंखला में शनिवार व्रत कथा पढेंगे। अग्नि पुराण के अनुसार शनि ग्रह की से मुक्ति के लिए “मूल” नक्षत्र युक्त शनिवार से आरंभ करके सात शनिवार शनिदेव की पूजा करनी चाहिए और व्रत करना चाहिए।


शनिवार व्रत कथा माहात्म्य व विधि –

शनि-ग्रह की शान्ति तथा सुखों की इच्छा रखने वाले स्त्री-पुरुषों को शनिवार का व्रत रखना चाहिए। विधिपूर्वक शनिवार का व्रत रखने से शनिजनित संपूर्ण दोष, रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं और धन का लाभ होता है। स्वास्थ्य, सुख तथा बुद्धि की वृद्धि होती है।

विश्व के समस्त उद्योग, व्यवसाय, कल-कारखाने, धातु उद्योग, लौह वस्तु, समस्त तेल, काले रंग की वस्तु, काले जीव, जानवर, अकाल, पुलिस भय, कारागार, रोग भय, गुर्दे का रोग, जुआ, सट्टा, लॉटरी, चोर भय तथा क्रूर कार्यों का स्वामी शनिदेव है।

मानव के जीवन में यदि कोई ग्रह सबसे अधिक कष्टप्रद माना जाता है तो वह है शनि। शनि दशा, महादशा, अन्तर्दशा अथवा साढ़े साती के रूप में मानव के जीवन में आया करता है।

मानव जीवन में शनि तीन बार ही आया करता है। प्रथम बार का शनि खेल-कूद , माता-पिता के आश्रय में, दूसरी बार का शनि मानव जीवन को हिला देता है और तृतीय बार का शनि जीवन के सुख, चैन, शान्ति, धन और यश को समाप्त कर देता है। दुर्भाग्य से यदि चौथी बार का शनि आ जाए तो राम-नाम सत्य ही करा देता है। शनिजनित कष्ट निवारण के लिए शनिवार का व्रत करना परम लाभप्रद है। शनिवार के व्रत को प्रत्येक स्त्री-पुरुष कर सकते हैं। वैसे यह व्रत किसी भी शनिवार से आरम्भ किया जा सकता है। श्रावण मास के श्रेष्ठ शनिवार से व्रत आरम्भ किया जाए तो विशेष लाभप्रद रहता है। व्रती मनुष्य नदी आदि के जल में स्नान कर, ऋषि-पितृ तर्पण करें, सुन्दर कलश जल से भरकर लाएं, शनि अथवा पीपल के पेड़ के नीचे सुन्दर वेदी बनाएं, उसे गोबर से लीपें। लौह निर्मित शनि की प्रतिमा को पंचामृत में स्नान कराकर काले चावलों से बनाए हुए चौबीस दल के कमल पर स्थापित करें। काले रंग के गंध, पुष्प, अष्टांग, धूप, फूल, उत्तम प्रकार के नैवेद्य आदि से पूजन करें। शनि के दस नामों का उच्चारण करें, जो इस प्रकार हैं-

1.कोणास्थ, 2.पिंगलो, 3.बभ्रु, 4.कृष्ण, 5.रोद्रोतको, 6.यम, 7.सौरि, 8.मन्द, 9. शनैश्चर, 10.पिप्पला।

शनि अथवा पीपल के वृक्ष में सूत के सात धागे लपेटकर सात परिक्रमा करें तथा वृक्ष का पूजन करें। शनि पूजन सूर्योदय से पूर्व तारों की छांव में करना चाहिए। शनिवार व्रत-कथा को भक्ति और प्रेमपूर्वक सुनें। कथा कहने वाले को दक्षिणा दें। तिल, जौ, उड़द , गुड़, लोहा, तेल, काले वस्त्र का दान करें। आरती और प्रार्थना करके प्रसाद बांटें।

पहले शनिवार को उड़द का भात और दही, दूसरे शनिवार को खीर, तीसरे को खजला, चौथे शनिवार को घी और पूरियों का भोग लगाएं। इस प्रकार तैंतीस शनिवार तक इस व्रत को करने से शनिदेव प्रसन्न होते हैं। इससे सर्वप्रकार के कष्ट, अरिष्ट आदि व्याधियों का नाश होता है और अनेक प्रकार के सुख, साधन, धन, पुत्र और पौत्रादि की प्राप्ति होती है।

कामना की पूर्ति पर शनिवार के व्रत का उद्यापन करें। तैंतीस ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद, व्रत का विसर्जन करें। इस प्रकार व्रत का उद्यापन करने से पूर्ण फल की प्राप्ति होती है एवं सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति होती है।

राहु, केतु और शनि के कष्ट निवारण हेतु शनिवार के व्रत का विधान है। इस व्रत में शनि की लोहे की, राहु व केतु की शीशे की मूर्ति बनवाएं।

कृष्ण वर्ण वस्त्र, दो भुजा दण्ड और अक्षमालाधारी, काले रंग के आठ घोड़े वाले शीशे के रथ में बैठे शनि का ध्यान करें।

कराल बदन, खडंग, चर्म और शूल से युक्त नीले सिंहासन पर विराजमान वरप्रद राहु का ध्यान करें।

धूम्रवर्ण, भुजदण्डों, गदादि, आयुध, गृधासन विराजमान, विकटासन और वरप्रद केतु का ध्यान करें।

इन्हीं स्वरूपों में मूर्तियों का निर्माण कराएं अथवा गोलाकार मूर्ति बनाएं। काले रंग के चावलों से चौबीस दल के कमल का निर्माण करें। कमल के मध्य में शनि, दक्षिण भाग में राहु और वाम भाग में केतु की स्थापना करें। रक्त चन्दन में केसर मिलाकर, गन्ध चावल में काजल मिलाकर, काले चावल, काकमाची, कागलहर के काले पुष्प, कस्तूरी आदि से ‘कृष्ण धूप’ और तिल आदि के संयोग से कृष्ण नैवेद्य (भोग) अर्पण करें और ‘श्नैश्चर नमस्तुभ्य नमस्तेतवथ राहेवे। केतवेऽथ नमस्तुभ्यं सर्वशान्ति प्रदो भव’ मंत्र से प्रार्थना करें।

सात शनिवार व्रत करें। शनि हेतु शनि-मंत्र से शनि की समिधा में, राहु हेतु राहु मंत्र से पूर्वा की समिधा में, केतु हेतु केतु मंत्र से कुशा की समिधा में, कृष्ण जौ के घी व काले तिल से प्रत्येक के लिए 108 आहुतियां दें और ब्राह्मण को भोजन कराएं।

इस प्रकार शनिवार के व्रत के प्रभाव से शनि, राहु और केतु जनित कष्ट, सभी प्रकार के अरिष्ट कष्ट तथा आदि-व्याधियों का सर्वथा नाश होता है।

शनिवार शनिदेव व्रत कथा

एक समय में स्वर्गलोक में सबसे बड़ा कौन के प्रश्न पर नौ ग्रहों में वाद-विवाद हो गया। निर्णय के लिए सभी देवता देवराज इन्द्र के पास पहुंचे और बोले- हे देवराज, आपको निर्णय करना होगा कि हममें से सबसे बड़ा कौन है? देवताओं का प्रश्न सुन इन्द्र उलझन में पड़ गए, फिर उन्होंने सभी को पृथ्वीलोक में राजा विक्रमादित्य के पास चलने का सुझाव दिया। सभी ग्रह भू-लोक राजा विक्रमादित्य के दरबार में पहुंचे। जब ग्रहों ने अपना प्रश्न राजा विक्रमादित्य से पूछा तो वह भी कुछ देर के लिए परेशान हो उठे क्योंकि सभी ग्रह अपनी-अपनी शक्तियों के कारण महान थे। किसी को भी छोटा या बड़ा कह देने से उनके क्रोध के प्रकोप से भयंकर हानि पहुंच सकती थी। अचानक राजा विक्रमादित्य को एक उपाय सूझा और उन्होंने विभिन्न धातुओं जैसे सोना, चांदी, कांसा, तांबा, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक व लोहे के नौ आसन बनवाएं। सबसे आगे सोना और सबसे पीछे लोहे का आसन रखा गया। उन्होंने सभी देवताओं को अपने-अपने आसन पर बैठने को कहा। उन्होंने कहा- जो जिसका आसन हो ग्रहण करें, जिसका आसन पहले होगा वह सबसे बड़ा तथा जिसका बाद में होगा वह सबसे छोटा होगा। चूंकि लोहे का आसन सबसे पीछे था इसलिए शनिदेव समझ गए कि राजा ने मुझे सबसे छोटा बना दिया है। इस निर्णय से शनि देव रुष्ट होकर बोले- हे राजन, तुमने मुझे सबसे पीछे बैठाकर मेरा अपमान किया है। तुम मेरी शक्तियों से परिचित नहीं हो। सूर्य एक राशि पर एक महीने, चन्द्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, बृहस्पति तेरह महीने रहते हैं, लेकिन मैं किसी भी राशि पर ढ़ाई वर्ष से लेकर साढ़े सात वर्ष तक रहता हूं। बड़े-बड़े देवताओं को मैंने अपने प्रकोप से पीड़ित किया है अब तू भी मेरे प्रकोप से सावधान रहना। इस पर राजा विक्रमादित्य बोले- जो कुछ भाग्य में होगा देखा जाएगा। इसके बाद अन्य ग्रहों के देवता तो प्रसन्नता के साथ चले गए, परन्तु शनिदेव बड़े क्रोध के साथ वहां से विदा हुए। कुछ समय बाद जब राजा विक्रमादित्य पर साढ़े साती की दशा आई तो शनिदेव ने घोड़े के व्यापारी का रूप धारण किया और बहुत से घोड़ों के साथ विक्रमादित्य की नगर पहुंचे। राजा विक्रमादित्य उन घोड़ों को देखकर एक अच्छे-से घोड़े को अपनी सवारी के लिए चुनकर उस पर चढ़े। राजा जैसे ही उस घोड़े पर सवार हुए वह बिजली की गति से दौड़ पड़ा। तेजी से दौड़ता हुआ घोड़ा राजा को दूर एक जंगल में ले गया और फिर वहां राजा को गिराकर गायब हो गया। राजा अपने नगर लौटने के लिए जंगल में भटकने लगा पर उसे कोई रास्ता नहीं मिला। राजा को भूख प्यास लग आई। बहुत घूमने पर उन्हें एक चरवाहा मिला। राजा ने उससे पानी मांगा। पानी पीकर राजा ने उस चरवाहे को अपनी अंगूठी दे दी और उससे रास्ता पूछकर जंगल से निकलकर पास के नगर में चल दिए। नगर पहुंच कर राजा एक सेठ की दुकान पर बैठ गए। राजा के कुछ देर दुकान पर बैठने से सेठ की बहुत बिक्री हुई। सेठ ने राजा को भाग्यवान समझा और उसे अपने घर भोजन पर ले गया। सेठ के घर में सोने का एक हार खूंटी पर लटका हुआ था। राजा को में छोड़कर सेठ कुछ देर के लिए बाहर चला गया। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। राजा के देखते-देखते खूंटी सोने के उस हार को निगल गई। सेठ ने जब हार गायब देखा तो उसने चोरी का संदेह राजा पर किया और अपने नौकरों से कहा कि इस परदेशी को रस्सियों से बांधकर नगर के राजा के पास ले चलो। राजा ने विक्रमादित्य से हार के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि खूंटी ने हार को निगल लिया। इस पर राजा क्रोधित हुए और उन्होंने चोरी करने के अपराध में विक्रमादित्य के हाथ-पांव काटने का आदेश दे दिया। सैनिकों ने राजा विक्रमादित्य के हाथ-पांव काट कर उन्हें सड़क पर छोड़ दिया। कुछ दिन बाद एक तेली उन्हें उठाकर अपने घर ले गया और उसे कोल्हू पर बैठा दिया। राजा आवाज देकर बैलों को हांकता रहता। इस तरह तेली का बैल चलता रहा और राजा को भोजन मिलता रहा। शनि के प्रकोप की साढ़े साती पूरी होने पर वर्षा ऋतु प्रारंभ हुई। एक रात विक्रमादित्य मेघ मल्हार गा रहा था, तभी नगर की राजकुमारी मनभावनी रथ पर सवार उस घर के पास से गुजरी। उसने मल्हार सुना तो उसे अच्छा लगा और दासी को भेजकर गाने वाले को बुला लाने को कहा। दासी लौटकर राजकुमारी को अपंग राजा के बारे में सब कुछ बता दिया। राजकुमारी उसके मेघ मल्हार से बहुत मोहित हुई और सब कुछ जानते हुए भी उसने अपंग राजा से विवाह करने का निश्चय किया। राजकुमारी ने अपने माता-पिता से जब यह बात कही तो वह हैरान रह गए। उन्होंने उसे बहुत समझाया पर राजकुमारी ने अपनी जिद नहीं छोड़ी और प्राण त्याग देने का निश्चय कर लिया। आखिरकार राजा-रानी को विवश होकर अपंग विक्रमादित्य से राजकुमारी का विवाह करना पड़ा। विवाह के बाद राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी तेली के घर में रहने लगे। उसी रात स्वप्न में शनिदेव ने राजा से कहा- राजा तुमने मेरा प्रकोप देख लिया। मैंने तुम्हें अपने अपमान का दंड दिया है। राजा ने शनिदेव से क्षमा करने को कहा और प्रार्थना की- हे शनिदेव, आपने जितना दुःख मुझे दिया है, अन्य किसी को न देना। शनिदेव ने कहा- राजन, मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूं। जो कोई स्त्री-पुरुष मेरी पूजा करेगा, कथा सुनेगा, जो नित्य ही मेरा ध्यान करेगा, चींटियों को आटा खिलाएगा वह सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त रहेगा तथा उसके सब मनोरथ पूर्ण होंगे। यह कहकर शनिदेव अंतर्ध्यान हो गए। प्रातःकाल राजा विक्रमादित्य की नींद खुली तो अपने हाथ-पांव देखकर राजा को बहुत खुशी हुई। उन्होंने मन ही मन शनिदेव को प्रणाम किया। राजकुमारी भी राजा के हाथ-पांव सलामत देखकर आश्चर्य में डूब गई। तब राजा विक्रमादित्य ने अपना परिचय देते हुए शनिदेव के प्रकोप की सारी कहानी सुनाई। इधर सेठ को जब इस बात का पता चला तो दौड़ता हुआ आया और राजा विक्रमादित्य के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा। राजा विक्रमादित्य ने उसे क्षमा कर दिया क्योंकि वह जानते थे कि यह सब तो शनिदेव के प्रकोप के कारण हुआ था। सेठ राजा विक्रमादित्य को पुन: को अपने घर ले गया और उसे भोजन कराया। भोजन करते समय वहां एक आश्चर्य घटना घटी। सबके देखते-देखते उस खूंटी ने हार उगल दिया। सेठ ने अपनी बेटी का विवाह भी राजा के साथ कर दिया और बहुत से स्वर्ण आभूषण, धन आदि देकर राजा को विदा किया। राजा विक्रमादित्य राजकुमारी मनभावनी और सेठ की बेटी के साथ अपने नगर वापस पहुंचे तो नगरवासियों ने हर्ष के साथ उनका स्वागत किया। अगले दिन राजा विक्रमादित्य ने पूरे राज्य में घोषणा कराई कि शनिदेव सब ग्रहों में सर्वश्रेष्ठ हैं। प्रत्येक स्त्री-पुरुष शनिवार को उनका व्रत करें और व्रत कथा अवश्य सुनें। राजा विक्रमादित्य की घोषणा से शनिदेव बहुत प्रसन्न हुए। शनिवार का व्रत करने और व्रत कथा सुनने से शनिदेव की अनुकंपा बनी रहती है और जातक के सभी दुख दूर होते हैं।

शनिवार व्रत कथा समाप्त ।

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